Pages

Monday, December 31, 2012

मन में सदभावनाएँ रखें



परदोष-दर्शन एक मानसिक रोग है। जिसके मन में यह रोग उत्पन्न हो गया है, वह दूसरों में अविश्वास, भद्दापन, मानसिक व नैतिक कमजोरी देखा करता है। अच्छे व्यक्तियों में भी उसे त्रुटि और दोष का प्रतिबिम्ब मिलता है। अपनी असफलताओं के लिए भी वह दूसरों को दोषी ठहराता है।
संसार एक प्रकार का खेत है। किसान खेत में जैसा बीज फेंकता है, उसके पौधे और फल भी वैसे ही होते हैं   प्रकृति अपना गुण नहीं त्यागती। आपने जैसा बीज बो दिया, वैसा ही फल आपको प्राप्त हो गया। बीज के गुण वृक्ष की पत्ती-पत्ती और अणु-अणु में मौजूद है। आपकी भावनाएँ ऐसे ही बीज हैं, जिन्हें आप अपने समाज में बोते है और उन्हें काटते हैं | आप इन भावनाओं के अनुसार ही दूसरे व्यक्तियों को अच्छा-बुरा समझते हैं। स्वंय अपने अंदर जैसी भावनाएँ लिए फिरते है, वैसा ही अपना संसार बना लेते हैं आइने में अपनी ओर से कुछ नहीं होता। इसी प्रकार समाज रूपी आइने में आप स्वंय अपनी स्थिति का प्रतिबिम्ब प्रतिदिन प्रतिपल पढ़ा करते है।
हमारे सुख का कारण हमारी सदभावनाएँ  ही हो सकती है। अच्छा विचार, दूसरे के प्रति उदार भावना, सद्चिंतन, गुण-दर्शन ये दिव्य मानसिक बीज है, जिन्हें संसार में बोकर हम आनंद और सफलता की मधुरता लूट सकते हैं | शुभ भावना का प्रतिबिम्ब शुभ ही हो सकता है। गुण-दर्शन एक ऐसा सदगुण है जो हृदय में शान्ति और मन में पवित्र प्रकाश उत्पन्न करता है। दूसरे के सदगुण  देखकर हमारे गुणों का स्वत: विकास होने लगता है। हमें सदगुणों  की ऐसी सुसंगति प्राप्त हो जाती है, जिसमें हमारा देवत्व विकसित होता रहता है।
सदभाव  पवित्रता के लिए परमावश्यक हैं। इनसे हमारी कार्य शक्तियाँ अपने उचित स्थान पर लगाकर फलित-पुष्पित होती है। हमें अंदर से निरंतर एक ऐसी सामर्थय प्राप्त होती रहती है, जिससे निरंतर हमारी उन्नति होती चलती है।
एक विद्वान ने सत्य ही लिखा है-’’ शुभ विचार, शुभ भावना और शुभ कार्य मनुष्य को सुंदर बना देते है। यदि सुंदर होना चाहते हो तो मन से ईर्ष्याद्वेष और वैर-भाव निकालकर यौवन और सौंदर्य की भावना करो। कुरूपता की ओर ध्यान न दो। सुंदर मूर्ति की कल्पना करो। प्रात: काल ऐसे स्थानों पर घूमने के लिए निकल जाओ, जहाँ का दृश्य मनोहर हो, सुंदर-सुंदर फूल खिले हों , पक्षी बोल रहे होंउड़ रहे हों , चहक रहे हों। सुंदर पहाड़ियों पर, हरे-भरे जंगलों में और नदियों के सुंदर तट पर घूमो, टहलो, दौड़ो और खेलो। वृद्धावस्था के भावों को मन से निकाल दो और बन जाओ हँसते हुए बालक के समान सदभावपूर्ण । फिर देखो कैसा आंनद आता है।’’
मनुष्य के उच्चतर जीवन को सुसज्जित करने वाला बहुमूल्य आभूषण सदभावना ही है। सदभावना  रखने वाला व्यक्ति सबसे भाग्यवान हैं। वह संसार में अपने सदभावों  के कारण सुखी रहेगा, पवित्रता और सत्यता की रक्षा करेगा। उनके संपर्क में आने वाला प्रत्येक व्यक्ति प्रसन्न रहेगा और उसके आनन्दकारी स्वभाव से प्रेरणा प्राप्त करेगा। सदभावना सर्वत्र सुख, प्रेम, समृद्धि उत्पत्ति करने वाले कल्पवृक्ष की तरह है। इससे दोनों को ही लाभ होता है। जो व्यक्ति स्वयं सदभावना मन में रखता है, वह प्रसन्न और शांत रहता है। संपर्क में आने वाले व्यक्ति भी प्रसन्न एवं संतुष्ट रहते हैं। मन में सदैव सदभावनाएँ ही रखें।


‘‘वये राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिता’’



ओ पुरोहित राष्ट्र के! जगो स्वंय सबको जगाओ,
धर्म को जागृत रखेंगे’, धर्म यह अपना निभाओ।
थे तुम्हीं, जिनने सिखाया, राम को शर -धनु  चलाना,
और युग की असुरता से, प्राणपण से जूझ जाना,
बनो  विश्वामित्र  फिर, दुष्प्रवृत्ति  से लड़ना सिखाओ,
 ओ पुरोहित  राष्ट्र के! जगो स्वयं सबको जगाओ।
                है जरूरत एक अर्जुन की, पुन: इस भरत-भू को,
                दे सके सम्मान वापस जो, कि पांचाली वधू को,
                जागो  युग के द्रोण! सोया राष्ट्र का पौरूष  जगाओ,
                 ओ पुरोहित  राष्ट्र  के! जागो  स्वयं सबको जगाओ।
राष्ट्र  को नवचेतना दो, साधना दो, स्वंय तपकर,
लोकमंगल की सुरक्षा का बड़ा  दायित्व  तुम पर,
 लोकहित तप की पुनीत परंपरा, फिर से चलाओ,
 ओ पुरोहित राष्ट्र  के! जागो स्वंय सबको जगाओ।
             भूल बैठे  हैं  सभी अध्यात्मविद्या , आत्मदर्शन ,
             जागृत  उसको करो, सब व्यक्ति हों ईश्वर  परायण,
             तुम रहे भूसुर धारा के , मान मत अपना गँवाओ,
             ओ पुरोहित राष्ट्र के! जगो स्वंय सबको जगाओ!
                                            माया वर्मा         

समस्या हमारी-समाधान गुरूदेव के


समस्या- आत्मकल्याण के  इच्छुक  व्यक्ति को अपनी साधना का आरंभ क्या जप-तप से करना चाहिए?
समाधान- जप-तप आवश्यक तो है। आत्मकल्याण के लिए इनकी भी आवश्यकता है, पर यह ध्यान रखना चाहिए कि गुण-कर्म-स्वभाव में आवश्यक सुधार किए बिना न आत्मा की प्रगति हो सकती है और न परमात्मा की प्राप्ति। इसलिए आत्मकल्याण के इच्छुक प्रत्येक व्यक्ति को आत्मचिंतन की साधना भी आरंभ करनी चाहिए और उसका श्री गणेश तप-त्याग जैसे उच्च आदर्श से नहीं, गुण-कर्म-स्वभाव का मानवोचित परिष्कार  करते हुए व्यक्तित्व को सुविकसित करने में संलग्न  होकर करना चाहिए।
                     (अध्यात्मवादी भौतिकता अपनार्इ जाए, पृष्ट -108)
समस्या-परिवार के सभी सदस्यों के स्नेह-सदभाव के सूत्र में लंबे समय तक बाँधे रखने के लिए क्या आवश्यक है? और उसके लिए क्या उपाय किया जाना चाहिए?
समाधान-सहयोग और सहकारिता के क्रिया-कलापों में वह शक्ति सन्निहित है, जो एक दूसरे केा परस्पर जोड़ती है, सहयोगी और मित्र बनाती है। वहीं तो वह प्रमुख आवश्यकता है जो परिवार के सभी सदस्यों को स्नेह-सदभाव के सूत्र में लंबे समय तक बाँधे रहती है। इन छोटी-छोटी घटनाओं को हर कोर्इ बहुत समय बीत जाने पर भी याद करता रहता है और कृतज्ञता की गहरार्इ तक  संजोए रहता है।
कृतज्ञता की गरिमा बहुत कम लोग समझ पाते है। याद तो उसे कोर्इ-कोर्इ ही रखते हैं। इसका उपाय यही है कि घर के लोग अपनी-अपनी सेवा-सहायता की चर्चा तो करें, पर दूसरों के द्वारा जो जिसकी जितनी सहायता बन पड़ रही है, वह किस सदभावना पर आश्रित है, इसका संकेत किया जाता रहे। अपने को छोड़कर घर के अन्य सदस्यों ने दूसरे साथियों के प्रति जो सदभावना बना रखी है, उस मनोदशा की चर्चा का क्रम भी चलते रहना चाहिए। इस प्रकार कृतज्ञता की मुरझाती बेल को  खींचने का सुयोग बन सकता है और एक दूसरे के लिए अधिक सदभाव उभारते रहने का अवसर मिल सकता है। यह  सदभावना ही किसी परिवार को समुन्नत बनाने की प्रमुख भूमिका अदा करती है।
                         परिवार निर्माण की विधि-व्यवस्था, पृष्ट-28
समस्या- किसी शक्तिशाली का नियंत्रण तो उससे अधिक शक्ति से ही हो सकता है, तब भला श्रष्टि को अपनी मुठ्ठी में करने वाली बुद्धिशक्ति का नियंत्रण करने के लिए कौन सी दूसरी शक्ति मनुष्य के पास हो सकती है?
समाधान-  मनुष्य की वह दूसरी शक्ति है- श्रृद्धा। जिससे बुद्धि जैसी उच्छृंखल शक्ति पर अंकुश लगाया जा सकता है, उसका निंयत्रण किया जा सकता है। ध्वंस की ओर जाने से रोककर सृजन के मार्ग पर अग्रसर किया जा सकता है।
मानवता के इतिहास में दो परस्पर विरोधी ख्याति के व्यक्तियों के नाम पाए जाते है। एक वर्ग तो वह है, जिसने संसार को नष्ट कर डालने, जातियों को मिटा डालने और मानवता को जला डालने का प्रयत्न किया है। दूसरा वर्ग वह है, जिसने मानवता का कष्ट दूर करने, संसार की रक्षा करने, देश और जातियों को बचाने के लिए तप किया है, संघर्ष  किया है और प्राण दिया है। इतिहास के पन्नों पर आने वाले यह दोनों वर्ग निश्चित रूप से बुद्धिबल वाले रहे है। अंतर केवल यह रहा है कि श्रृद्धा के अभाव में एक की बुद्धिशक्ति अनियंत्रित होकर बर्बरता का संपादन कर सकी है और दूसरे का बुद्धिबल श्रृद्धा से नियंत्रित होने से सज्जनता को प्रतिपादन करता है।
                       व्यक्तित्व परिष्कार में श्रृद्धा ही समर्थ, पृष्ट 25
समस्या- उन्नति, प्रगति एवं विकास के लिए अनेकों कार्यक्रम और प्रयास किए जाते है, किंतु कभी प्रगति स्थायी नहीं रहती और कभी अगणित समस्याओं की उलझनें सामने आ जाती है। ऐसे में सफलता कैसे प्राप्त की जाए?
समाधान- आज हम उन्नति तो चाहते है, पर मानवीय सद्गुणों के विकास का प्रयत्न नहीं करते। समाज में  शांति और संपन्नता रहे यह सभी की इच्छा है, पर उसके मूल आधार पारस्परिक प्रेमभाव की वृद्धि का उपाय नहीं करते। भौतिक सुविधाओं में वह शक्ति नहीं है कि व्यक्ति को श्रेष्ठ बना दें पर अच्छे व्यक्तित्व में यह गुण मौजूद हैं कि वह संपन्नता का उपार्जन  कर ले। हम इस तथ्य को जब तक न समझेंगे, तब तक दौलत के पीछे भागते रहेंगे।  आदर्शवाद की उपेक्षा करके संपन्नता के लिए घुड़-दौड़ लगाने का परिणाम, लाभ के स्थान पर हानिकारक ही सिद्ध हो सकता है। यह दुनिया अधिक अच्छी, अधिक सुंदर, अधिक संपन्न, अधिक शान्तिपूर्ण  बने, यदि हम सब यही चाहते है तो फिर इस प्रगति के मूल आधार, व्यक्तित्व  की  श्रेष्ठता की ओर ध्यान क्यों नहीं दिया जाता, यही आश्चर्य है। प्रगति तभी स्थायी हो सकेगी, सुख-शांति  में तभी स्थिरता रहेगी, जब  मनुष्य अपने को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाने का प्रयत्न करे। इस उपेक्षित तथ्य को अनिवार्य  आवश्यकता  के रूप में जब तक हम स्वीकार न करेंगे और व्यक्तित्व एवं सामूहिक चरित्र को उँचा उठाने के लिए कटिबद्ध न होंगे, तब तक अगणित समस्याओं की उलझनों से हमें छुटकारा न मिलेगा।
                          अंतरंग जीवन का देवासुर संगा्रम, पृष्ट-28
समस्या- मनुष्य जीवन में कभी उन्नति की ओर तो कभी पतन की ओर अग्रसर हो जाता है। उन्नति की आकांक्षा रखने वाले व्यक्ति को मुख्य रूप से किस बात का ध्यान रखना चाहिए?
समाधान- यह मानव जीवन का निश्चित  नियम है कि जो अपना दृश्टिकोण विधेयात्मक बना लेता है, वह उन्नति की ओर और जिसका विष्वास निशेधात्मक होता है, वह पतन की ओर ही अग्रसर होता है। जिस कार्यक्रम अथवा उद्देष्य के प्रति जिस मनुष्य का जैसा दृष्टिकोण होता है, जैसी भावना होती है, उसका परिणाम भी उसे तदनुरूप ही मिलता है। मनुष्य के शुद्ध मन में निर्माणात्मक एवं ध्वंसात्मक दोनों प्रकार की शक्तियाँ निहित रहती है, जो कि मनुष्य की भावना एवं विश्वास के अनुरूप जागकर ऊपर आ जाती है और अपने स्वरूप  की तरह ही प्रेरणा देने लगती है। हमारी जगी हुर्इ मानसिक शक्तियाँ यदि सृजनात्मक होंगी तो वे हमारे उत्साह का वर्धन करेंगी, हमें कार्य करने की अधिकाधिक क्षमता प्रदान करेंगी और यदि वे शक्तियाँ ध्वंसात्मक होंगी तो निश्चित  ही हमारी उदात्त्ा भावनाओं को  शिथिल  और बढ़ने की शक्ति, आशा एवं आकांक्षी व्यक्ति को भूलकर भी निशेधात्मक दृष्टिकोण द्वारा ध्ंवसक  शक्तियाँ जगाने की गलती नहीं करनी चाहिए।                                                                        
                     पुरुषार्थ  मनुष्य  की  सर्वोपरी  सामर्थय -पृष्ट-27   

बालकों के निर्माण का आधार


बच्चों का सबसे पहला और प्रमुख विद्यालय होता है-घर। घर के वातावरण में मिली हुर्इ षिक्षा ही बालक के संपूर्ण जीवन में विषेशतय काम आती है। माता बच्चे का पहला आचार्य बतार्इ गर्इ है, फिर दूसरा नंबर पिता का और इसके उपंरात षिक्षक, आचार्य, गुरू का स्थान है। मानव जीवन की दो-तिहार्इ षिक्षा माँ-बाप की छत्रछाया में घर के वातावरण में संपन्न होती है। घर के वातारण की उपयुक्ताा, श्रेश्ठता पर ही बच्चों के जीवन की उत्कृश्टता  निर्भर करती है  और जीवन की उत्कृश्टता ााब्दिक अक्षरीय ज्ञान पर नहीं, वरन जीवन जीने के अच्छे तरीके पर है।
अच्छा स्वभाव, अच्छी आदतें, सद्गुणों, सदाचार ही उत्कृश्ट जीवन के आधार हैं जो पुस्तकों के पृश्टों से, स्कूल, कॉलजों, बोिर्डेग हाउस की दीवारों से नहीं मिलते, वरन घर के वातावरण में ही सीखने को मिलते है। इन्हीं गुणों पर जीवन की सरलता, सफलता और विकास निर्भर होता है। जो माँ-बाप इस उत्त्ारदायित्व को निभाते हुए घर का उपयुक्त वातावरण बनाते है, वे अपने बच्चों को ऐसी चारित्रिक संपित्त्ा देकर जाते है जो सभी संपित्त्ायों से बड़ी है, जिसके उपर सम्पूर्ण जीवन स्थिति निर्भर करती है।
घर में विपरीत वातावरण होने पर स्कूल, कॉलेजों में चाहे कितनी अच्छी षिक्षा दी जाए, वह प्रभावषाली सिद्ध नहीं होती। हालांकि स्कूल के पाठ्क्रम में चरित्र, सदाचारख् साधुता, सद्गुणों की बहुत सी बातें होती है, पर वे केवल ााब्दिक और मौखिक ज्ञान का आधार रहती है अथवा परीक्षा के प्रष्नपत्रों में लिखने की बातें मात्र होती है। विद्याथ्र्ाी के जीवन में क्रियात्मक रूप से उनका कोर्इ महत्व नहीं होता। इसका प्रमुख कारण घर के विपरीत वातावरण का होना ही होता है।
जिन घरों में तना-तनी, नड़ार्इ-झगड़े, कलह, अषांति रहती है, वहाँ बच्चों पर इसका बहुत बूरा प्रभाव पड़ता है। जो माँ-बाप बच्चों के श्रद्धा, स्नेह के केंद्र होते है, उन्हें बच्चे जब परस्पर लड़ते-झगड़ते, तू-तू, मैं-मैं करते, एक दूसरे को बूरा कहते देखते हैं तो बच्चों के कोमल हृदय पर इसका बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। बच्चों में माँ-बाप के प्रति तुच्छता, अनादर, संर्किणता के भाव पैदा हो जाते है जो आगे चलकर उनके स्वभाव और व्यिक्त्तव के अंग बन जाते है। अत: कभी भूलकर भी बच्चों से सामने माता-पिता तकरार, लड़ार्इ-झगड़े की बात प्रकट नहीं होने देनी चाहिए। बच्चे सर्वत्र अपने माँ-बाप, भार्इ, रिष्तेदार, पड़ोसी सभी से प्यार और दूलार पाने की भावना रखते है। इसके विपरीत लड़ार्इ, झगड़े, क्लेष, अषांति से बच्चों के कोमल मानस पर आघात पहुँचता है। उदारता, प्रेम, आत्मीयता, बंधूत्व आदि की अनुकूल-प्रतिकूल भावनाओं का अंकुर बच्चों के प्रारंभिक जीवन में ही रम जाती है। जिन बच्चों को माँ-बाप का पर्याप्त प्यार-दुलार मिलता है, जिन पर अभिभावकों की छत्रछाया रहती है, जो माँ-बाप बच्चों के जीवन में दिलचस्पी प्रकट करते है, उनके बच्चे मानसिक विकास प्राप्त करते है। उनका जीवन भी उन्हीं गुणों से ओत-प्रोत हो जाता है, जिनमें वे पलते है। माता-पिता के व्यवहार आाचरण से ही बच्चों का जीवन बनता है। साहस, निभ्र्ाीकता, आत्म-गौरव की भावना बचपन में घर के वातावरण से ही पनपती है।
माँ-बाप के व्यसन, आदतों को अनुकरण बच्चे सबसे पहले करते है। माँ-बाप का सिनेमा देखना, ताष खेलना, बीड़ी, सिगरेट, फैषन, बनावट, श्रृंगार का अनुकरण कर बच्चे भी वैसा ही करने लगते है। इसी तरह माँ-बाप सदाचारी, संचमी, विचारषील, सद्गुणी होते है, वैसा ही प्रभाव उनके बच्चों पर पड़ता है।
परिवार के वातावरण में बच्चों के संस्कार, भाव, विचार, आदर्ष, गुण, आदतों का निर्माण होता है जो उनके समस्त जीवन को प्रभावित करते है। उपदेष और पुस्तकों से जीवन की महत्त्वपूर्ण षिक्षा नहीं मिलती, यह तो घरों के वातावरण को स्वर्गीय, सुंदर, उत्कृश्ट बनाने पर ही निर्भर करती है।
                                                युग निर्माण योजना दिसंबर 2012