देह अपनी चिकित्सा खुद ही करती है ...( Thanks by Harish Bhai)
कोल्ड फ़्लू होते ही कफ़ बनता है, गला सूज जाता है और शरीर में ज्वर हो जाता है. यह शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली का परिणाम है।
शरीर का कोई हिस्सा कहीं जोर से टकरा जाए तो तुरंत ही वहां एक गुमड़ा बन जाता है।
चोटिल टिशूज की मरम्मत के लिए हजारों कोशिकाएं वहाँ भेज दी जाती हैं. तुरंत...तत्क्षण !
किसी अन्य मदद आने के बहुत पहले !
कोई घाव हो तो देखिए वह धीरे-धीरे सूखता है. एक दो दिन उसमें पपड़ी बनती है. फिर कोई बीस पच्चीस दिन में वह पपड़ी स्वतः ही झड़ जाती है। और ताज़ा त्वचा प्रकट हो जाती है।
एक बहुत ही कौशल से भरा, सजग और ध्यानस्थ चिकित्सक हमारे भीतर मौजूद है।
वह बोलता नही है।
उसकी भाषा..संकेत है।
अगर ज़रा सी उठ बैठ में थकान लगे.. तो यह संकेत है कि शरीर को विश्राम चाहिए।
भूख का कम लगना, संकेत है कि शरीर को अल्प-आहार चाहिए।
ठंड लगे तो कुछ ओढ़ कर शरीर को ऊष्मा दी जाए।
वह भीतरी डॉक्टर, बोलकर नहीं बल्कि संकेत की भाषा में सजेशन देता है।
कब क्या खाना है, कितना व्यायाम, कितनी ऑक्सीजन, कितनी धूप चाहिए.. वह इशारा कर देता है।
चाहे हृदय की चिकित्सा हो कि मस्तिष्क चिकित्सा,
आहार नली का संक्रमण हो कि ओवरियन सिस्ट..दुनिया का सबसे काबिल डॉक्टर हमारा शरीर खुद ही है।
किसी वायरस या बैक्टीरिया का आक्रमण होता है अथवा किसी खाद्य दोष से संक्रमण होता है.. तो शरीर, तत्क्षण उससे जूझने में प्रवृत्त हो जाता है।
हमें तो ख़बर तब लगती है.. जब इस भीतरी युद्ध के परिणाम..ज्वर, श्लेषमा (कफ, ब्लगम), ठंड, कमज़ोरी के रूप में बाहरी शरीर पर उजागर होते हैं।
अगर देह की सांकेतिक भाषा को सुनने का अभ्यास हो, तो बहुत आरंभ में ही रोग का नाश किया जा सकता है।
चाहे कितना ही जटिल रोग क्यों न हो, उपचार की सर्वोत्तम व्यवस्था शरीर में ही मौज़ूद है।
उसे हमसे कुछ सहयोग और रसद आपूर्ति की दरकार है।
ऑक्सीजन भरपूर, ठीकठाक पानी , पथ्य-कुपथ्य, चित्त की प्रफुल्लता आदि, और हम बड़े से बड़े रोग को मात दे सकते हैं.. कैंसर को भी।
देह की हमसे कुछ न्यूनतम अपेक्षाएं भी हैं।
पहला, कि देह में अपशिष्ट और टॉक्सिंस इकट्ठे न हों।
और अगर हो जाएं, तो उनका पूरी तरह उत्सर्जन भी हो।
दूसरा, मन में भी अपशिष्ट और टॉक्सिंस न हों।
क्योंकि ज्यादातर रोग, मनोदैहिक होते हैं।
पहले विचार बीमार होता है फिर शरीर बीमार होता है ....।
विचार बीमार है..तो जीने के ढंग में नुक्स होगा।
आप जल्दबाज होंगे तो जल्दी खाएंगे..जल्दी चबाएंगे ...।
इस तरह रोज-रोज, अनचबा पेट में ढकेलेंगे तो देर सबेर पेट, आंत और लीवर की बीमारी का आना लाजमी है ....।
बीमार जीना, बीमारी लाता है।
सजग जीना, स्वास्थ्य लाता है।
सजगता का अर्थ सिर्फ खाना पीना और सोने उठने में सजगता नहीं है बल्कि, धनाकांक्षा, दिखावा, कामुकता, संसाधन जुटाने की हवस ..ऎसे हर मनोभाव और प्रवृति के प्रति सजगता है ।
मन में गांठ है, तो कैंसर की गांठ बहुत दूर नहीं ।
विचारों में जकड़न है तो जोड़ों में जकड़न अवश्यंभावी है ... ।
देह और मन की सफाई हर रोग का खात्मा है ...।
बाहरी चिकित्सा कितनी ही एडवांस क्यों न हो, वह देह की बुनावट और उसके रेशों का रहस्य, उतना नहीं जानती जितना देह स्वयं जानती है !
बाहरी चिकित्सक कितना ही अनुभवी और योग्य क्यों न हो, शरीर में मौजूद 'परम चिकित्सक' के सम्मुख अभी विद्यार्थी ही है !
देह को सहयोग करें और वह अपनी चिकित्सा स्वयं ही कर लेगी ....।