मन विषय-वासनाओ
में पड़कर अनेक विकारों से भर जाता है और इन विकारों के कारण जीव को घोर कष्ट उठाना
पड़ता है| मन के इन विकारों को तुलसीदास जी ने ‘मानस रोग’ कहा है| माया या अज्ञान
से उत्पन्न होने वाला मोह सभी मानस रोगों का मूल है| इससे फिर दुसरे बहुत रोग
उत्पन्न होते है| इनमे से कुछ प्रमुख मानस रोगों को गिनते और इनकी तुलना शारीरिक
रोगों से करते हुए तुलसीदास जी कहते है कि काम, क्रोध और लोभ ही प्रमुख वात, पित्त
और कफ के रोग है| यदि इन तीनों का मेल हो जाए, तो जीव मानों कठिन सन्निपात रोग का
शिकार हो जाता है| नाना प्रकार के विषयों के मनोरथ ही अनेक प्रकार के शूल रोग है
जिनके नाम नहीं गिनाये जा सकते| ममता और ईर्ष्या दाद और खुजली रूप है तथा मन की
ख़ुशी और शोक इसके गलगंड और घेघा नामक रोग है| दुसरो के सुख को देखकर जलना ही क्षय
रोग है और मन की दुष्टता और कुटिलता कुष्ट रोग है| अंहकार गठिया का अत्यन्त दुखद
रोग है तथा दम्भ, कपट, मद और मान नसों के अनेक रोग है| तृष्णा भारी जलोदर रोग है
तथा पुत्र, धन और प्रतिष्टा की प्रबल इच्छाएँ तिजारी रोग है| मत्सर और अविवेक को
द्विविध ज्वर रोग कहा गया है| वास्तव में मन के रोग इतने अधिक है कि उन सबको
गिनाया नहीं जा सकता:
सुनहु तात अब
मानस रोगा | जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा ||
मोह सकल
ब्याधिन्ह कर मुला | तिन्ह ते पुनि उपजहि बहु सूला ||
काम बात कफ लोभ
अपारा | क्रोध पित्त नित छाती जारा ||
प्रीति करहि जौ तीनिउ
भाई | उपजइ सन्यपात दुखदाई ||
बिषय मनोरथ दुर्गम
नाना | ते सब सूल नाम को जाना ||
ममता दादु कंडू
इरषाई | हरष बिषाद गरह बहुतआई ||
पर सुख देखि जरनि
सोइ छई | कुष्ट दुष्टता मन कुटिलाइ ||
अंहकार अति दुखद
डमरुआ | दंभ कपट मद मान नेहरुआ ||
तरस्ना उदर
बुद्धि अति भारी | त्रिबिध ईषना तरुन तिजारी ||
जुग बिधि ज्वर मत्सर
अबिबेक | कंह लगि कन्हौ कुरोग अनेक ||
तुलसीदास जी कहते
है कि केवल एक रोग के वश होकर मनुष्य मर जाते है, पर इस जीव को तो अनेक असाध्य रोग
जकड़े हुए है| ऐसी स्थिति में इसे भला एकाग्रता या समाधि कैसे प्राप्त हो सकती है|
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