Tuesday, April 12, 2016

महर्षि रमण

महर्षि रमण

महर्षि रमण केवल कौपीन धारण किए हुए थे।  उनके शरीर पर कौपीन के अलावा और कोई वस्त्र  नहीं थे।  उनके शरीर की निर्दोष त्वचा मे उनके आध्यात्मिक प्रकाश की चमक स्प्ष्ट झलक रही थी।  चेहरे पर हल्की दाढ़ी थी, जिसे वे कभी-कभी अपने हाथो से फेर लेते थे।  होठो पर बालसुलभ हँसी में इतना सघन चुंबकत्व था कि कोई भी विवश होकर उनकी ओर आकर्षित हो जाए।  इस हँसी में ऐसी आभा थी कि लगता था कि समूची कायनात ही हँस रही हो।  आँखों में आध्यात्मिक प्रकाश के साथ प्रगाढ़ अपनापन इतना था कि कोई देखे और उस समुद्र में डूब ही जाए। ऐसा दिव्य एवं पवित्र व्यक्तित्व था महर्षि रमण का।
 महर्षि रमण की तपस्थली थी विरुपाक्षी गुफा।  यह पवित्र गुफा उनके कठोर एवं एकांत तप की साक्षी थी।  यह गुफा जाने उनके किन-किन अंतर्जगत के उन आध्यात्मिक प्रयोगों की गवाह थी, जो उन्होंने वहां एकांत में सम्पन्न किए थे।  विरुपाक्षी गुफा अरुणाचल पर्वत की तलहटी में बसी थी।  अरुणाचल को दक्षिण का हिमालय कहा जाता है।  अरुणाचल में ही तप करने के लिए महर्षि रमण को बचपन से आदेश प्राप्त था। उन्होंने अपनी किशोरवय में ही मृत्यु का साक्षात्कार कर लिया था और पूर्वनियोजित एवं सुनियोजित घटना ने उन्हें इस पर्वत पर प्रस्थान करने के लिए प्रेरित किया था और वे तिरुवन्नामलाई शहर चले आए थे , जहां पर यह पर्वत और उसकी तलहटी में विरुपाक्षी गुफा स्थित थी
महर्षि रमण जब वहाँ आए थे तो वे अकेले ही वहाँ तप करने लगे।  धीरे-धीरे दैवी कृपा से उनके पास कुछ लोग आए और वहाँ पर एक आश्रम विनिर्मित हो गया।  महर्षि के आश्रम के कण - कण में उनकी तप-ऊर्जा घुली हुई थी, इसलिए वहाँ का वातावरण दिव्य, सुखद एवं सम्मोहक था।  आश्रम परिसर में जो लोग रहते थे, वे थे -- एचमा, मह्वस्वामी, रामनाथ ब्रह्मचारी एवं मुदलियर ग्रेनी।  महर्षि मौन ही अधिक रहते थे, परन्तु उनके मौन की प्रगाढ़ता में इतनी ऊर्जा भरी रहती थी कि वह किसी मुखर-से-मुखर दिव्य वाणी से भी भारी थी।  
महर्षि का कठोर तप विश्व-कल्याण के लिए निहित था।  उन्होंने सर्वप्रथम विरुपाक्षी गुफा में अपनी चेतना को परिष्कृत किया।  चेतना परिष्कृत हुए बिना किसी बड़े आध्यात्मिक प्रयोग को सफल नहीं किया जा सकता है ; क्योंकि परिष्कृत चेतना ही उनकी चेतना की नई - नई परते खुलती गई और चेतना की अंतिम परत में 'अहं ' आत्मा में विलीन हो गया।  बाद में उनकी आत्मा परमात्मा से एकाकार हो गई। 
अहं के आत्मा में स्थानांतरण ने उनके मनुष्य रूप को दिव्यता में रूपांतरित कर दिया।  उसी क्रम में उन्होंने परतंत्र भारत, जो अपने प्रारब्ध की मार से कराह रहा था को भी अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा से हलका किया था और भारत की स्वतंत्रता में महती योगदान दिया था।  यह इतने रहस्य्मयी तरिके से सम्पन्न हुआ था कि किसी को कुछ भी पता नहीं चला. वैसे भी ये रहस्य्मयी प्रक्रियाएँ अज्ञात एवं दुर्लभ होती है, इन्हे न कोई जान पाता है और न कोई समझ पाने का सामर्थ्य रखता है, केवल उनके स्तर के लोगों के अलावा।
महर्षि के अनुसार भारत का भविष्य अत्यन्त उज्जवल हैं, उसे कोई भी ताकत चाहे वह कितनी भी  सामर्थ्यवान क्यों न हों, धूमिल नहीं कर सकती है।  भारत को जागना ही होगा, भारत को उठना ही होगा ; क्योंकि भारत के भविष्य के साथ सारी सृष्टि का भाग्य जुड़ा हुआ है।  अतः सृष्टि के विकास के लिए भारत को अपने गौरवपूर्ण अत्तित को फिर से जगाना होगा, अपनी सूझ-बुझ, पराक्रम एवं आध्यात्मिकता के बल पर इसे फिर से जगद्गुरु के महतीय पद पर अलंकृत होना है। 
महर्षि कह रहे थे - "यह दैवीय विधान है, इसे कोई रोक नहीं सकता, मिटा नहीं सकता।  अतः भारत की संतानो को अपने राष्ट्रीय कर्तव्य के प्रति सचेत एवं जागरूक होना ही होगा और इस जागरूकता के लिए भगवान अपने विशिष्ठ दूत को अवश्य भेजेंगा, जो भारत के साथ ही सृष्टि के अन्धकार को नष्ट कर भगवद् प्रकाश का अवतरण करने में महती भूमिका निभाएगा। " इतना कहकर महर्षि रमण मौन हो गए। भारत के उज्जवल भविष्य के प्रति वे परम आशवस्त थे।     
   
   

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