एक बार की बात
है कि मुझे जल बचाओं Save Water अभियान के
अन्तर्गत एक बड़े सेमिनार में जाने का अवसर मिला। वहाँ बड़े-बड़े अधिकारी एव
विद्वानो के भाषण हुए। एक विद्वान का उदबोधन मुझे बहुत पसन्द आयाब में उनसे बहुत
प्रभावित हुआ। कुछ माह पश्चात् मुझे एक बड़े कार्यक्रम में वक्ता के रूप में
बुलाया गया। उस भव्य आयोजन में सारी सड़के पानी से धोयी गयी मुख्य अतिथि के स्वागत
के लिए। मुख्य अतिथि स्वागत से बहुत प्रसन्न हुए व आयोजको को मोटी धनराशि सहायता
के रूप में दी । जानकारी से पता चला कि ये अतिथि वो ही है जो ेंअम ूंजमत पर बहुत
बढि़या बोले परन्तु इस कार्यक्रम में सड़को पर पानी बहाने पर इन्हें कोई दर्द न
हुआ। हमारे देश की बिडम्बना यही है कि केवल कोरी भाषणबाजी करने वाले बड़े पदो पर
बैठे मजे कर रहे है परन्तु उनके खून में देशभक्ति नहीं हैं।
यही समस्या
सामाजिक व आध्यात्मिक मिशन्ते के साथ भी होने लगती है। जो मिशन को खड़ा करते है वो
अपना खून पसीना बहा देते हैं। परन्तु जो उसको चलाते हैं उनमें से बहुत से
पदाधिकारी मिशन के लिए भाषणबाजी करते घमूते है। कोई दर्द नहीं रखते खाली कार्य करने वालो की जगह वो चापलूसो व भाटो को
अपने ईद गिर्द पाले रखते है। हमें अपने मिशन के इस विडम्बना से बचाना है। सभी
मिशनो में दो तरह के लोग होते है।
1.
स्वार्थी व महत्वाकाँक्षी
2.
मिशन के लिए त्याग ओर बलिदान करने की इच्छा वाले
हमें दूसरे
नम्बर वाले लोगो को छाँट कर अलग करना है। उन लोगो को मुख्य स्थान पर लाना है जिनके
खून में मिशन भरा है। परन्तु इसमें एक बाधा आती है स्वार्थी व महत्वाकाँक्षी
व्यक्ति जो ऊँचे पदो पर बैठे होते हैं ऐसे लोगो से डरते हैं क्योंकि इससे इनकी
कमियाँ उजागर होने का भय रहता है जिसमें इनकी पद प्रतिष्ठा छिन सकती है। मान लीजिए
हमने 24,000 ऐसे व्यक्तियों को चुना जो मिशन के लिए अपने
जीवन की आहुति देना चाहते हो । अब दूसरा कदम है इनको समर्थ बनाना । इस सन्दर्भ में
मुझे गुरू गोविन्द सिंह जी की उक्ति बहुत ही सही लगती है-
‘‘सवा लाख से एक लडाऊँ, तब गोविन्द सिंह नाम कहाऊँश्’’
श्री गुरु जी अपनी सेना को इतना समर्थ बनाने चाहते थे कि एक-एक सवा-सवा लाख मुगलो
से भिड़ो से भयभीत न हों । क्या आज हम भी अपने मिशन में इस प्रकार की भावना का
संचार कर सकते हैं। क्या सावित्री साधना के द्वारा व्यक्ति को इतना साहसी व
पराक्रमी बनाना सम्भव है? इस प्रकार के मुद्दो पर मिशन के
शुभचिन्तको के विचार करना अनिवार्य है।
आज भारत का
सम्पूर्ण समाज अर्थ प्रधान हो गया है। विचारको, साधको, त्यागी तपस्वी लोगो को समाज दूर से ही प्रणाम
करना पसन्द करता है । परन्तु यदि किसी के पास बहुत सा धन है तो लोग उसके दई गिर्द
मक्खियों की तरह भिनभिनाते है। मेरे अनेक प्रकार के मित्र हैं कुछ धनी है कुछ
राजनेता है कुछ समाजसेवी तो कुछ श्रेष्ठ विचारक। मेरा बड़ा ही कड़वा अनुभव है कि
सबसे अधिक सम्मान पैसे वालो व राजनेताओं का होता है। चार तन्त्र अर्थ तन्त्र,
ज्ञान तन्त्र, धर्म तन्त्र व राजतन्त्र में आज
अर्थ तन्त्र अर्थ तन्त्र सबसे ऊपर आकर खड़ा हो गया है उसके ठीक नीचे राजतन्त्र है
तत्पश्चात् ज्ञान तन्त्र व धर्मतन्त्र की मान्यता है। भारत की प्राचीन परम्परा ऐसी
नही थी । हमारे यहाँ ज्ञान तन्त्र व धर्म तन्त्र सर्वोपरि माने जाते थे। उनके नीचे
राजतन्त्र व अर्थ तन्त्र आते थे। पूज्य गुरुदेव इस बात
से भलीभाँति परिचित थे उन्होंने अपने जीवन में कभी धनवानो को मिशन पर हावी नही
होने दिया। जब बिडता जी उनके पास खाली चैक लेकर आए तो उन्होंने उसके सम्मानपूर्वक
लेटा दिया। क्या आज भी ऐसी निस्पृृहता हमारे मिशन में विद्यमान है अथवा हमने
बडे़-बड़े भवन आदि बनाने के चक्कर में धनवानो को आगे अपने घुटने टेक दिए यह एक
विचारणीय प्रश्न है।
आज मनुष्य के
मूल्याँकन की कसौटी मात्र उसका धन है। मुझसे लोग प्रश्न कर सकते है कि आपको
पुस्तकें लिखने की ंनजीवतपजल किसने दी परन्तु
पैसे वालो से कोई पूछने को हिम्मत नही करता कि उनको इतना धन एकत्र करने की अनुमति
किसने दी? धनवानो को देखते ही लोग शाले व गुलदस्ते उठाए उनके
पीछे कुत्तो की तरह दुम हिलाते घूमते हैं ताकि उनसे कुछ मुद्रा हथियाई जा सके। ऐसी
स्थिति में युग के निर्माण की बड़ी-बड़ी बातें मंचो से करने का क्या लाभ जहाँ
हमारा स्वाभिमान हमारा चरित्र इतना खोखला हो चुका है।
हमारा देश भारत
आज बड़ी दयनीय दशा से गुजर रहा है कहीं कुछ भी नियन्त्रित व अनुशसित नही है। धर्म
तन्त्र का राजतंन्त्र पर नियन्त्रण नही है। राजतन्त्र का जनसँख्या वृद्धि पर कोई
नियन्त्रण नहीं है। समाज का महिलाओं पर कोई नियन्त्रण नहीं है। उन्हें मनमाने
वस्त्र पहनने व भौडें चालचलन की पूरी छूट है।
फसलों में
कीटानाशक व रसायनिक खादो के प्रयोगों पर कोई नियन्त्रण नही है। युवाओं का अपने
वीर्य पर नियन्त्रण नहीं है अर्थात् वीर्यवान युवा कहाँ देखने को मिलते है । प्रशासन
व पुलिस वर्ग का भ्रष्टाचार पर कोई नियन्त्रण नही है। समाचार पत्र पर निगाह डालें
तो एक से एक घटिया स्तर की खबरें पढ़ने को मिलती है । अन्र्त कराह उठता है कि क्या
यह वही भारत है जहाँ 33 करोड़ देवी देवता
वास करते थे। आज तो यहाँ छदम वेश में राक्षस निवास करते है। चेहरा व तमगा
ब्रह्माज्ञानी का लगा है परन्तु भीतर ब्रह्मा राक्षस बैठा है।
इतनी दुर्दशा इस
देश व धरती की शायद ही कभी हुयी हो जब अपने ही देश के युवा अपनी ही संस्कृति व मान
मर्यादाओं से खिलवाड करते हुए घूम रहे हों ।
उपचार केवल एक
ही है जो इस राष्ट्र से, इस संस्कृति से
मानवता से प्रेम करते हों, वो सामने आएँ, एकत्रित व संगठित हो तथा धर्म की स्थापना के लिए त्याग तप भरा जीवन जिएँ,
सावित्री-गायत्री साधना द्वारा समर्थ व संवेदनाशीलता के अर्जित करें
जिसके पुनः मानव धर्म की स्थापना हो सके। सूर्य सदा पूर्व से निकलता है संस्कृति व
सद््ज्ञान सदा पूरे विश्व में पूर्व से ही फैलता है। अब समय आ गया है हम अपनी
चेतना को विकसित कर प्रज्ञा के स्तर तक ले जाएँ व ऋषियों के सविधान के इस राष्ट्र
में लागू करें।
विश्वमित्र