Tuesday, June 26, 2012

उच्चस्तरीय साधना

संतोष
साधना का दूसरा चरण आरंभ होता है, जिसमें साधक के लिए सकारात्मक निर्देश होते हैं और उनमें सर्वप्रथम है संतोष। जिन परिस्थितियों में भी हमें रखा गया है जो कुछ हमें दिया गया है उससे हमें संतुष्ट रहना सीखना चाहिए। इसका यह मतलब भी नहीं है कि हमें अपनी दशा सुधारने का प्रयास नहीं करना चाहिए और इसका यह अर्थ नहीं है भाग्यवादी बनकर हमें स्वीकार कर लेना चाहिए कि जो कुछ है उसका होना अनिवार्य है। नहीं योग का समूचा दृष्टिकोण ही इसके विपरीत है। संतोष का अभिप्राय है- दूसरों की बराबरी करने के लिए उद्विग्नता, उत्तेजना और विक्षोभ से अभिभूत न होना। लोग दूसरों से होड़ लगाने के जोश में फंस जाते है। स्पर्धा के द्वारा सफलता की ओर आगे बढने की कोशिश करते है। तो एक आध्यात्मिक जिज्ञासु से कहा गया है कि वह अपनी शक्तियों को व्यर्थ नष्ट न करें। उत्तेजना में स्वयं को खो न दे, ना कुछ उसे मिला है। उसे भगवान के द्वारा निर्दिष्ट मान कर स्वीकार करें। श्री मां कहती है कि जो साधक इस बात में सच्चे विश्वास के साथ अपनी परिस्थितियों को स्वीकार करता है कि वे भगवान के संकल्प के द्वारा निर्दिष्ट है। उसके आध्यात्मिक विकास के लिए वे अवश्य ही सबसे अधिक अनुकूल सिद्ध होती है। अत: जब पतंजलि संतोष की बात कहते है तो उनका आशय यही है कि अभाव कि आत्म हिनता कि और कुढा कि भावना को जो सभी चीजे आत्मा को धूमिल कर देती हैं- अपने भीतर नहीं आने देना चाहिए। हमें एक प्रफुल्ल स्वभाव का निर्माण करना चहिये न तो सफलताओं पर हर्षोन्मित होना चाहिए और न असफलताओं पर व्यर्थ ही खिन्न होना चाहिए। सबसे पहले शांत- अचंचल बने रहकर जीवन बिताना हमारे लिए जरूरी है। कोर्इ भी व्यक्ति शुरू से ही संतोष की वृत्ति धारण नहीं कर सकता यह बहुत ही कठिन है पहले हमें किसी हद तक उदासीनता के भाव का विकास करना चाहिए जिसे युनानी लोगों ने तितिक्षा कहा था चाहे कुछ भी आये चला जाये, हमें धीर - स्थिर बने रहकर उसकी उपेक्षा करनी होगी। आगे चलकर यह मनोवृत्ति समता या धृत्ति में विकसित हो जाती है। जो कुछ भी होता है, उसे हम अनुद्विग्न रहकर उससे अप्रभावित रहते हुए स्वीकार करते है। यह समता स्थापित होने के बाद अगला चरण है। संतोष।
जैसा कि हम कह चुके हैं कि प्रकृति के द्वारा, प्रारब्ध के द्वारा परिस्थितियों के द्वारा जो कुछ हमें दिया गया है उसे उदासीन भाव से चुपचाप स्वीकार करना ही नहीं अपितु प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार करना ही संतोष है। यह संतोष उस चीज का बीज है, जो आगे चलकर एक अविच्छिन्न आहलाद में अस्तित्व के आनंद में विकसित हो जाता है। जीवन के सभी सुख- दुखों के पीछे एक हर्ष, एक परमानंद एक आहलाद विद्यमान है। संपूर्ण सृष्टि के मूल में यही आनंद मौजूद है। हम अपनी आध्यात्मिक उपलब्धि के मुकुट मणि के रूप में इस आनंद का अनुभव कर सकते है। किन्तु उसका बीज यह संतोष ही है। यह एक वास्तविक मन:स्थिति है। जिसे स्वयं में स्वाभाविक बनाना हमें सीखना ही चाहिए।
मार्ग के रोड़े
आंतरिक सत्य की अभिव्यक्ति को जिन्होंने जीवन-लक्ष्य के रूप में चुना है, इसी शरीर में रहते हुए जिनहें नया जन्म चाहिए, जो आत्मा का साक्षात् और उसमें निवास चाहते हैं, उसी से प्रेरित होकर जीवन-मार्गो पर चलना चाहते हैं ऐसी चेतना में उठना चाहते हैं जिसमें आत्म-ज्योति झलकती हो, आत्म-सत्य प्रवाहित होता हो; उन्हें चाहिए कि वे अपनी सता के सर्वोच्च स्तर पर निवास करें । किसी भी स्थिति में जीवन के निम्न स्तरों पर न आयें। मनोरथों के जाल न बुनें। इंद्रिय-सुख की कामनाओं से, भोगों के स्पृहा से दूर रहें। अहंकार की चालों को पहचानें, उसके प्रभाव में न आयें।
अज्ञानजनित पुराना स्वभाव, उसकी अभ्यासगत वृत्तियां, अध्यात्म-मार्ग में, हमारी आत्म-उपलब्धि में बाधक होते हैं, मार्ग में राड़े हैं।
उच्चस्तरीय साधनाओं की सावधानी
इस अवतरण और इसके कार्य के क्रम में यह बात अत्यावश्यक है कि कोर्इ सर्वथा अपने ही भरोसे न रहे, बल्कि गुरू के आदेश-निर्देश का भरोसा करे और जो कुछ हो उसे विचार-विवेचन करने और निर्णय करने के लिए गुरू के आगे रखे। कारण, प्राय: ऐसा होता है कि अवतरण से निम्न प्रकृति की शक्तियां उतेजजित हो जाती है और अवतरण के साथ मिलकर उससे अपना काम निकालना चाहती हैं। ऐसा भी प्राय: होता है कि कोर्इ एक अथवा अनेक शक्तियां जो स्वरूपत: अदिव्य हैं, श्रीभगवान् या श्रीभगवती का रूप धारण करके सामने आती और जीव से सेवा और समर्पण चाहती हैं। यदि ऐसी-ऐसी बातें हो और उन्हें अपना लिया जाये तो इसका बड़ा ही भीष्ण नाशकारी परिणाम हो सकता है। हां, यदि वास्तव में साधक की अनुमति केवल भागवत शक्ति के कार्य के लिए ही हो और उसी शक्ति के आदेश-निर्देश के आगे प्रणति और शरणागति हो तो सब बातें ठीक-ठीक बन सकती हैं। यही अनुमति और इसके साथ समस्त अहंकारगत शक्तियों तथा अहंकार को प्रिय लगनेवाली सब शक्तियों का त्याग, ये ही दो बातें सारी साधना में साधक की रक्षा करती हैं। परन्तु प्रकृति के सब रास्तों पर सब तरह के जाल बिछे हुए हैं, अहंकार के भी असंख्य छदवेश हैं, अंधकार की शक्तियों की माया, राक्षसी माया अत्यंत धूर्ततापूर्ण है; बुद्धि पथप्रदर्शन का काम पूरा-पूरा नहीं कर सकती और प्राय: दगा करती है; प्राणगत वासना बराबर ही हमारे साथ रहती है और किसी भी आकरक चीज के पीछे दौड़ पड़ने के लिए हमारे अंदर लोभ जगाती रहती है। यही कारण है कि इस योग में हम समर्पणपर इतना जोर देते हैं। यदि हृच्चक्र पूर्णतया खुल जाये और हृत्पुरुष चाहे जब निम्न प्रकृति की वासना के क्षोभ से छिप सकता है। बहुत ही थोड़े, लोग ऐसे होते हैं जो इन संकटों से बचे रहते हैं और यथार्थ में इन्हीं लोगों के लिए समर्पण करना सहज होता है। किसी ऐसे पुरुष का अनुशासन, जो स्वयं श्रीभगवान् से तदात्मभूत हो या जो भगवान् का ही प्रतिरूप हो, इस कठिन साधना में अत्यावश्यक और अनिवार्य है।
मोक्ष रूपी परम सुख के अनुभव के लिए अचल श्रद्धा तो अवश्य चाहिए। अपने लिए कोर्इ चिन्ता न करना, सब परमेश्वर को सौंप देना, ऐसा आदेश हो सब धर्मो मे दिया गया हो।
वे बहुत सौभाग्यशाली है, जिन्हें समर्थ गुरू का संरक्षण व मार्गदर्शन प्राप्त हैं। ऐसा गुरू जो वशिष्ठ और विश्वामित्र की विशेषताओं से सम्पन्न हो, जिसने अपने प्रचण्ड तप द्वारा र्इश्वरीय सत्ता का साक्षात्कार किया हो, जो बुद्व की भाँति आत्मबल का धनी हो, रामकृष्ण की तरह जिसके अन्त:करण में भक्तिरस की धारा प्रक्पुटित होती हो, जो कृष्ण की भाँति योग विभूतियों से सुसम्पन्न हों, सचमुच जिन्हें ऐसे समर्थ गुरू का मार्गदर्शन मिल गया, समझना चाहिए कि जीवनलक्ष्य प्राप्ति के लिए की जाने वाली साधना की आधी मानित पुरी हो गयी तथा उत्तरोतर गति से आगे बढने का एक सशक आधार-अवलम्बत मिल गया।
साधना से सनातन धर्म की पुर्नस्थापना
जब तक साधना क्षेत्र मेंअध्यात्म जगत में क्रान्ति नही होगी, जनमानक नही बदलेगा। हमारे स्वार्थ परस्पर टकराते रहेंगे और हम भगवदसत्ता व अपने उद्वेश्य से मीलों दूर ही होगे।
व्यक्ति चाहे स्वंय की मनोकामना पूर्ति के लिए, चाहे आध्यात्मिक सम्पदा को बढ़ाने के लिए साधक बनें। कोर्इ भी कार्य तभी सफल होता हैं जब उसके मूल में जीवन साधना हो, अध्यात्मिक पुरूषार्थ हों। जब भाव संवेदनाओं को परिष्कृत कर जीवन साधना की गति देने वाली सर्वभौमिक राष्टीय साधना-पद्वति विकसित होगी, तब सम्प्रदाय-मत-धर्म के नाम पर विभाजित इस राष्ट की सारी ताकत पुननिर्माण के पावन प्रयोजन में नियोजित हो सकेगी। वास्तविक कार्य सारे  राष्ट को साधना की धुरी से जोड़ता हैं।
यदि तुम अपने धन का, अपने खर्चो का, अपनी महत्वाकॉक्षाओं का त्याग नहीं कर सकतें वो अपनी विषय वासनाओं से ऊपर उठ पायेगें। त्याग का भाव विकसित करो। त्याग का अभ्यास करो तभी वैराग्य उत्पन्न होगा
अहं का विसर्जन ही भक्ति है। भक्ति में कोइ प्रतियोगिता नही होती, प्रदर्शन नही होता। हमें आहुति देनी हो तो ह्रदयकुंड में अहं की देनी चाहिए।
पुस्तकें न केवल मनुष्य शक्तियों को विकसित करती हैं अपितु जीवन के प्रत्येक क्षेत्र दु:ख-सुख में मित्र, साथी व मार्गदर्शक बनती हैं।
इतना मत खाओ कि तुम्हारा शरीर आलसी हो जाए।
आज का व्यक्ति चतुर ज्यादा हैं समझदार कम।।
हम सहिष्णु बने, उदार बने लेकिन सहिष्णुता और उदारता के नाम पर कायरता को पोषण देने वाले न हो।
बडप्पन सूटबूट और ठाटबाट में नही हैं, जिसकी आत्मा पवित्र हैं वही बड़ा हैं। 

Monday, June 25, 2012

सतयुग की वापसी (Revival of Golden Era)


सूर्योपासना के साथ इस राष्ट्र का सूर्योदय होने जा रहा हैं। स्वामी विवेकान्नद की भविष्यवाणी सत्य होने जा रही है, मै अपने दिव्य नेत्रो से देख रहा हूं कि भारत माता स्वर्णिम सिंहासन पर विराजमान हैं।

उठो सुनो प्राची से उगते सूरज की आवाज,
            अपना देश बनेगा सारी दुनिया का सरताज ।।
भारत में एक आम धारणा पायी जाती हैं कि चार युग है- सतयुग, द्वापर, त्रेता, कलियुग। सतयुग में सच्चार्इ मानवीय मूल्यों का प्रभुत्व रहता है। धीरे-धीरे इनका पतन होते होते कलियुग में सब समाप्त हो जाता है। अब जो समय चल रहा है वह कलियुग है और आने वाला समय धीरे कलियुग होगा। उस समय पाप, पीड़ा, पतन चरम सीमा पर होगा।
     यदि हम मान्यताओं से हटकर अपनी बुद्धि से सोचें और आज की स्थिति पर विचार करें तो प्रतीत होता है कि आज स्थिति जितनी भयावह है उससे अधिक नीचे नहीं गिर सकती। यदि इससे नीचे आयी तो जीवन का अस्तित्व ही संकट में पड जाएगा। इस समय सभी प्रकार के संकट चरम सीमा पर है। स्वास्थ्य संकट एक बड़ी समस्या के रूप् में उभर रहा है। स्वस्थ व्यक्ति ढूढ़ें नहीं मिल पा रहे हैं आदमी किसी तरह अपनी गाड़ी खींच रहा है। भ्रष्टाचारी धोखेबाजी की अति हो चुकी हैं किसी चीज पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता है। खाने पीने की सभी वस्तुएँ वायु विषैले होते जा रहे हैं। क्या इससे भी अधिक बिगाड अथवा घोर कलियुग संभव है?
     सनातन धर्म के नाम पर समय-समय पर समाज में मूर्खत: मान्यताएँ फैल रही हैं। जैसे गाँधीजी के समय में छुआछूत, जातिप्रथा पर्दाप्रथा का बोलबाला था। समुद्र पार जाने वाले को धर्म विरोधी घोषित कर दिया जाता था। सबसे 50-60 वर्ष पूर्व गायत्री मंत्र के जप का अधिकार समाज के केवल वर्ग को ही माना जाता था परंतु षि दयानंद, मालवीय जी युग दृष्टा श्री राम आचार्य जी के प्रयासों से आज देवत्व को जागृत करने वाला यह मंत्र जन-जन तक सुलभ हो पाया। इसी प्रकार यदि हम इस मूढ़ मान्यता पर विश्वास कर लें कि कलियुग है और सुधार की कोर्इ गुजांइश नहीं है तो दिनोंदिन स्थिति बिगडती चली जाएगी और हमारे देश का पतन आराम से हो जाएगा।
     सौभाग्य से इस भारत भूमि पर दो महामानव ऐसे आए जिन्होंने अपनी प्रचण्ड तप शक्ति से काल की इस धारा को उलटने की घोणा की उनके नाम है श्री अरविन्द एंव श्री राम आचार्य।
     यदि गहरार्इ से देखें तो दोनों की घोषाणाओं में बहुत समानता पायी जाती है। श्री अरविन्द अतिमानव के धरती पर अवतरण की कान्सेप्ट देते है तो श्री राम प्रज्ञावतार उनकी उज्जवल भविष्य का जन आंदोलन खडा करते हैं। महायोगी अरविन्द सन 1926 में अपने आश्रम में कार्यकलापों को श्री माँ को सौंपकर एक कमरे में स्वयं को बंद कर लेते है ताकि अतिमानस को जन सुलभ बनाया जा सके। बालक श्री राम को 1926 में उनके हिमालयवासी गुरू युग परिवर्तन के निमित्त 24 र्ष तक प्रचण्ड तप करते रहने का निर्देश देते है। इन दोनों महापुरूषों के अलावा अनेक ‘‘देवपुरूषो इस निमित्त तपास्याओं में संलग्न रहें उनमें महर्षि रमण का नाम उल्लेखनीय है। श्री रमण का मौन तप विश्वविख्यात है।
     ऐसा नहीं है कि केवल ये दो महामानव ही युग परिवर्तन की घोणा करते है। एक अन्य विचारधारा के अन्तर्गत जिस दिन श्री रामकृष् परमहंस के पावन चरण इस धरती पर पड़ें सतयुग का आगमन हो गया था। परंतु 200 र्षो का सन्धिकाल (सन 1836 से 2036 तक) है जिसमें समाज में व्याप्त कुरीतियों का निवारण होना है। शीघ्र ही कलियुग इस धरती को छोड़कर भागता नजर आएगा। महान योगी परमहंस योगानंद जी के गुरू युक्तेश्वर गिरि जी का मत है कि धरती पर 12,000 र्षो के आरोहरण अवरोहण काल चलते है। अब आरोहरण क्रम चल रहा है। शीघ्र ही चहुँओर उन्नति, शक्ति, आनन्द बिखरने वाला है। ऐसा भी माना जाता है कि राजा परीक्षित कलियुग की छाती पर चढ़ बैठे और लोगों को यह पता नहीं चल पाया कि कलियुग का समय है। बाह में कलियुग की गणना में कुछ गलती हो गयी या मजबूरी थी


पृथ्वी का वातावरण परिवर्तित हो जायेगा। हमारे भाव, विचार, कर्म बदलेंगे। रहन-सहन का ढंग बदलेगा। शिक्षा-व्यापार के तरीके बदल जायेंगे। उनमें सुधार होगा। नये शास्त्र उपलब्ध होंगे। मानव-चेतना अपनी वर्तमान संकीर्णता को त्याग देगी। एक अतिमानसिक विशालता में मानव उठेगा। एक दिव्य आत्मिक दृष्टि से वह जगत को देखगा और सब को आत्मीय, सब में आत्मा, आत्मा में सब को देखेगा। मुक्ति की धारणा बदल जायेगी। मुक्त आत्माएं पृथ्वी पर पुन: जन्म लेंगी और हमें अपने विगत जन्म-जन्मान्तरों के अनुभवों से लाभान्वित करेंगी। अब तक की प्राप्त मुक्ति एक आंशिक मुक्तावस्था थी। वह हमारी संपूर्ण सता की मुक्ति नहीं थी। इसलिए मुक्त आत्माएं अपने अवशिष्ट कार्य को, साधना की अपूर्णता को पूर्ण करने के लिए जन्म लेंगी। इसके लिए उन्हें बाध्य नहीं किया जायेगा। ऐसा वे स्वयं अंतप्रेरित होकर करेंगी। धरती के वातावरण को परिवर्तित देखकर, उसमें आत्म-दिव्यता को झलकती पाकर वे स्वयं जन्म लेना चाहेंगी और अपने आपको अतिमानव अर्थात दिव्य मानव के रूप में विकसित देखने के दिव्य स्वप्न को साकार करेंगी। भव-उपवन को नव कुसुमों से पुष्पित देख कर, पृथ्वी के वातावरण में दिव्यता लखकर रायेंगी और उसमें सहयोग प्रदान करने के लिए यहां अवतरित होंगी। मनुष्यो के बीच में, उन्हें सहायता करते हुए, मुक्त भाव से जीवन बिताने में अधिक गहन, अधिक व्यापक संतुष्टि अनुभव करेंगी। अपने आपको एक ओर मुक्त देखती हुर्इ, दूसरी और प्रभु-सेवा में सीधी संलग्न पाकर पृथ्वी पर ही मुक्ति के अपार आनंद को अनुभव करेंगी।
     नर्इ सृष्टि क्या होगी, कैसी होगी, उसमें कौन-कौन से नये तत्व होंगे इसकी धारणा करना अभी हमारी बुद्धि की पहुँ के बाहर हैं। हम चाहें तो इस विचार को स्वीकार कर सकते हैं और हम चाहें अस्वीकार भी कर सकते हैं। विचार तो विचार ही होता है। लेकिन जिन्हें दृष्टी है जिनके अंतर्लोचन खुले हैं, वे देख रहे हैं कि नया जगत अवतरित हो रहा है, जन्म ले रहा है वर्तमान जगत के पीछे से विकसित हो रहा है उसकी अभिव्यक्ति दिन-दिन ठोस रूप ग्रहण कर रही हैं। (श्री अरविन्द)

आप आइए और हमारी मिलिट्री में भरती हो जाइऐ। आपमें हर आदमी को प्रज्ञावतार के कंधे-से-कंधा मिलाने के लिए हम आपको दावत देते है, विशेÔकर उन लोगों को जिन्होंने अपनी आदतें ठीक कर रखी है, परिश्रमी है चरित्रवान है और जिनका वनज भारी नहीं है अर्थात जिम्मेदारियों का बोझ हल्का हैं। ऐसे लोगों के लिए सबसे बेहतरीन काम यह है कि अपना गुजारा करने के बाद में वे समाज के काम आएगे देश के काम आएँ। अब हमें अपने कार्यक्षेत्र का विस्तार करने के लिए आपकी सहायता की जरूरत है। इसके लिए अब हमको वह वर्ग ढूँढना पड़ेगा जिनको विचारशील वर्ग कहते है। अब हमें इंजीनियरों की जरूरत है डॉक्टरों की जरूरत है और सिपाहियों की जरूरत है अथवा ओवरसियरों की जरूरत है हमको उनकी जरूरत है जो राष्ट्र के निर्माण में काम सकें। परिजनों की जिम्मेदारी है कि वे उसे जलती रखने के लिए हमारी ही तरह अपने अस्तित्व के सारतत्व को टपकाएँ। परिजनों पर यही कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व छोड़कर इस आशा के साथ हम विदा हो रहे है कि महानता की दिशा में कदम बढ़ाने की प्रवृति अपने परिजनों में घटेगी नहीं, बढ़ेगी ही। (महर्षि श्री राम आचार्य)