Wednesday, November 28, 2012

बिना औषधियों के कायाकल्प- पीछे की ओर लौटो!


सृष्टि के समस्त जीव-जंतुओं की शारीरिक स्थिति पर विचार करने से प्रतीत होता है कि मनुष्य को छोड़कर अन्य सभी प्राणी स्वस्थ और निरोग जीवन व्यतीत करते है। आकाश में विचरते पशु-पक्षी, घास-पात में छिपे रहने वाले किट-पंतग, वनों में विचरण करने वाले शाकाहारी तथा मांसाहारी पशु, कीट-पंतग हर श्रेणी के जीव सदा स्वस्थ और निरोग रहते है। उन्हें वैद्यों की जरूरत पड़ती है डॉक्टरों की, उन्हें चटनी, गोली क्वाथ, अवलेह, रस से कोर्इ मतलब है और ही लोश्न, पाउडर, एसिड, इंजेक्शन, आपरेशन आदि से कोर्इ संबंध है। यह जीव-जंतु अल्प बुद्धि वाले है, आयुर्वेद के मत और डॉक्टरी का भी उन्हें ज्ञान नहीं है, मनुष्य की तुलना शरीर शास्त्र और आरोग्य शास्त्र की जानकारी उन्हें नहीं के बराबर है, फिर भी हम देखते है कि कोर्इ पशु-पक्षी दस्त, हैजा, अतिसार, गठिया, बवासीर, ज्वर, खाँसी प्रमेह, सुजाक, दमा, अंडवृद्धि आदि का शिकार नहीं होता। रोग के कारण रोता हुआ, कराहता हुआ, दु: पाता हुआ भी उनमें से कोर्इ नहीं देखा जाता। सृष्टि के सब प्राणी र्इश्वर के आनंदमय साम्राज्य में प्रस्न्नतापूर्वक किलोंले करते है। जिस दिन से जन्म लेते है और जिस दिन तक मरते है उस बीच में कभी उन्हें यह अनुभव नहीं होता कि शरीर ही उनको कष्ट दे रहा है।
जबकि र्इश्वर के आंनदमय साम्राज्य में कहीं किसी प्राणी को रोगी नहीं बनना पड़ता, तब मनुष्य जाति रोगों का घर क्यों बनी हुर्इ है? यह प्रश्न बड़े महत्त्व का है, इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। देखा जाता है कि सौ में से निन्यानवें आदमी किसी किसी तीव्र या मंद बीमारी के शिकार है। सरकारी अस्पतालों में चक्कर लगाकर, उनकी रिपोर्ट पढिये, आपको विचित्र-विचित्र रोगों से पीड़ित असंख्य रोगियों का विवरण मिलेगां दवादारू की निजी दुकानें खोलें हुए लाखों वैद्य, डॉक्टर बैठे है, इनके दरबार में भीड़ लगी रहती है। झाड़-फूँक वाले सयाने दिमाग वाले किसी से पीछे नहीं रहतें दवाएँ बनाने और बेचने वाली फर्मे सोने-चाँदी की दीवारें जमा कर रही हैं, इनके अतिरिक्त असंख्यों मनुष्य ऐसे है, जो शरम, झिझक, गरीबी, अविद्या या साधनहीनता के कारण अपने रोगों को छिपाये रहते है। खुद कष्ट सहते रहते है, पर भेद प्रकट नहीं करते। लापरवाही, उपेक्षा या असुविधा के कारण अनेकों लोग रोग को भीतर ही भीतर दबाये रहते है। जिनके रोग प्रकट होते है, उनकी संख्या बहुत बड़ी है, सौ में से 35 आदमी ऐसे होते है, जिनके रोग प्रकट रूप से दिखार्इ देते है। सौ में से 64 या 65 फीसदी लोग ऐसे है, जिनका बाहरी ढ़ाँचा तो निरोग जैसा दिखता है, पर भीतर ही भीतर उन्हें घुन लगे हुए हैं कब्ज, अजीर्ण, मंदाग्नि, दस्त साफ होना, थकान, शिथिलता, कमजोरी, प्रमेह, स्वप्नदोष, जलन, हड़फूटन, किन्ही विशेष अंगों में विशेष कमी आदि छुट-पुट मंद रोग ऐसे है, जिनसे अधिकांश लोग पीड़ित है और रोग के अनुरूप कष्ट या कठिनार्इ अनुभव करते है।
मुश्किल से सौ पीछे एक आदमी ऐसा मिलेगा, जिसे पूर्ण स्वस्थ कहा जा सकेगा। इनके विपरीत जंगली पशु पक्षी, कीट पतंगों में सौ पीछे कोर्इ एक ऐसा मिलेगा, जिसके रोगी होने का संदेह किया जा सके। रोगों ने मनुष्य को ही घेरा है या यों कहियें कि मनुष्य ने ही रोगों को अपनाया है।
मनुष्य की बुद्धि बड़ी तीव्र है, उसने अपने बुद्धिबल से बड़े-बड़े आश्चर्यजनक आविष्कार किये है, बड़ी-बड़ी मशीने र्इजाद की है, ज्ञान विज्ञान की अनेकानेक शोधें की है, जिधर देखिये उधर ही मनुष्य की बुद्धि का चमत्कार दिखार्इ पड़ता है, किंतु जीवन की मूलभूत समस्या के सबंधं में उसकी बुद्धिमता जाने कहाँ गायब हो गर्इ है? ऐश आराम और भोग-विलास की एक से एक नर्इ अद्भुत और अनोखी तरकीब उसने र्इजाद की है, पर निरोग्ता एवं दीर्घ जीवन संबंध में कोर्इ कारगर तरकीब हाथ आर्इ। इस दिशा में  जितने प्रयत्न किये गये, वे लाभ के स्थान पर प्राय: हानिकारक ही सिद्ध हुए।
स्वास्थ्य संबंधी इस विषम स्थिति पर गंभीर विवेचन करने से प्रतीत होता है कि प्राणी का जीवन प्रकृति के नियमों के साथ बड़े मजबूत सूत्रों के साथ बँधा हुआ है। जीवन निर्माण करने वाली सता  ने उसे सुसंचालित रखने के लिए एक नियम श्रृंखला का भी निर्माण किया है। इन नियमों का जो प्राणी जिस हद तक पालन करता है, वह उतना ही निरोग रहता है, जो उन्हें जितना तोड़ता है वह उतना ही रोगों से चंगुल में फँसता है। मनुष्य की चालाकी, अक्लमंदी, प्रकृति माता के साथ सफल नहीं होती। प्रकृति माता जितनी दयालु है उतनी ही निष्ठुर भी है, उसके नियमों का पालन करने वाला आनंदमय जीवन का उपहार पाता है और जो उन नियमों को तोड़ता है वह दंड पाता है राजकीय कानूनों को तोड़ने वाला किन्हीं तरकीबों से बच भी पाता है, परंतु प्रकृति को धोखा देना कठिन है।
कृत्रिमता ने, नर्इ-नर्इ तरकीबों के खेल ने मनुष्य की सामाजिक उन्नति भले ही की हो, पंरतु इस रीति ने स्वास्थ्य को बराबर गिराया है। पूर्व काल में वन-उपवनों में रहने वाले हमारे पूजनीय पूर्वज आज के जितने आविष्कारों का कौतुक देखने से वंचित थे, तो भी वे शारीरिक दृष्टि से पूर्ण सुखी थे। निरोगिता, बल, शालीनता, पराक्रम, पौरूष और दीर्घ जीवन उनको पूर्ण रूपेण उपलब्ध थे। प्राचीनकाल से असाधारण पराक्रमी पुरूषों के पौरूष से इतिहास के पृष्ठ भरे पड़े है। पुरातत्त्व विद्या के अन्वेषको को पाँच हजार वर्ष पुराने जो नर-कंकाल मिले है, उनसे सिद्ध होता है कि उस समय मनुष्य की लंबार्इ करीब आठ फुट होती थी, वजन में लगभग तीन मन होते थे, इतनी पुरानी बात छोड़िये, अभी कुछ समय पूर्व सौ-दो सौ वर्ष पहले के पुरखा जितना खाते थे, जितना काम करते थे, जितने स्वस्थ रहते थे, जितने अधिक जीते थे, आज के लिए वह सच भी आश्चर्यजनक है। 6-7 सेर भोजन करने वाले 40-50 मील पैदल चलने वाले, 100-150 वर्ष जीने वाले लोग अब से कुछ समय पहले बहुत काफी संख्या में थे, पर अब तो एक शताब्दी में ही वे सब बातें असंभव-सी दीखने लगी है।
फैसनपरस्ती, कृत्रिमता, बनावट एवं प्रकृति विरूद्ध आहार-विहार ने मनुष्य के स्वास्थ्य और दीर्घजीवन को छीना है यह क्रम यदि बदला, तो आगामी शताब्दी यतक वैसे ही बौने, छोटे, अल्पजीवी मनुष्य रह  जाएँगें जैसे कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने उत्तरकांड में कलियुग के अंत में होने वाले मनुष्यों के संबंध में भविष्यवाणी की है। कुदरत के विरूद्ध आचरण करना मनुष्य के जीवन के मूल आधार को, स्वास्थ्य को चौपट करता जायेगा। जब तक यह प्रवाह रूकेगा, मानव जाति की बीमारी और वेदनाओं में किसी प्रकार की कमी होगी वरन् बडोतरी ही होती जायेगी। इसलिये बीमारी और निर्बलता से सताये हुए, शारीरिक पीड़ाओं और असमर्थताओं में तड़पतें हुए लोगों को एक बात कान खोलकर सुन लेनी चाहिए, सुनकर गिरह बाँध लेनी चाहिए कि प्रकृति के कानूनों को तोड़ने में नहीं वरन् पालन करने में ही उनका कल्याण है। फैशन, कृत्रिमता और भौतिक विज्ञान की चमक-दमक का कौतुक कुछ मनोरंजन तो करा सकता है, पर जीवन के सच्चे आंनद में बढोत्त्ारी नहीं कर सकतां डॉक्टर की रंग-बिरंगी औषधियाँ निरोगता की वृद्धि में कुछ सफलता प्राप्त नहीं कर सकी है और आगे भी कोर्इ तरकीब कामयाब होगी। प्रकृति माता से लड़कर नहीं, उसके आज्ञाकारी बालक बनकर ही हम उससे जीवनदान प्राप्त कर सकते है।
यह ठीक है कि मनुष्य समाज आज ऐसी परिस्थिति में गया है कि प्रकृति, रहन-सहन, आहार-विहार के अनुसार पूर्ण रूप से आचरण करना शक्य नहीं है परंतु यह भी ठीक है कि जितनी कृत्रिमता को झूठी फैशन, शेखी और चटोरपन के कारण बढ़ा लिया गया है, उसमें बहुत कुछ कमी की जा सकती है। सात्विकत, स्वाभाविकता और आवश्यकता का ध्यान रखकर यदि जीवन क्रम चलाने की नीति को अपना लिया जाए, तो खान-पान और रहन-सहन के बहुत सारे आड़ंबर, जो आज फैशन और सभ्यता के आधार मालूम पड़ते है, तब व्यर्थ, निरर्थक और भार स्वरूप प्रतीत होंगे और उनका शीघ्र से शीघ्र परित्याग कर देने की इच्छा होगी।
कायाकल्प की इच्छा करने वालों! स्वस्थ और निरोग जीवन की आकांक्षा करने वालों! इस कृत्रिमतामय प्रकृति विरूद्ध आहार-विहार से मुँह मोड़ो और पीछे की ओर लौट चलो। उसी मार्ग को अपनाओ, जिसे हमारे पूजनीय पूर्वजों ने अपनाया था। चलो, इन बनावटी और तड़क-भड़क की कृत्रिमताओं से पीछे की लौट चलें। चलो! सादगी का, सरल और निर्दोष जीवन बिताएँ। चलो! प्रकृति माता के चरणों में खड़े होकर अपनी भूल का प्रायश्चित करें और उससे स्वास्थ्य और जीवन का दूध माँगें। दयालु माता हमें दूध पिलायेगी  और उससे हमारा कल्याण हो जायेगा। औचित्य, आवश्यकता और जीवन रक्षा को सामने रखकर आहार-विहार का क्रम रखा जाए, तो बहुत सारी निरर्थक, हानिकारक एवं अप्राकृतिक बात से सहज ही छुटकारा मिल सकता है।