Friday, October 26, 2012

संत ज्ञानेशवर की अद्भुत लीला


योगी चांगदेव सिंह पर सवार थे। सिंह के उपर आसीन चांगदेव अपने हाथ में समिधा के स्थान पर भयंकर विषधर सर्प लिए हुए थे। यह ऐसा दृश्य था, जिसे देख लोग हतप्रभ एवं आश्र्यचकित हो जाते थे। चांगदेव जहाँ से भी गुजरते, अपार जनसमुदाय इनके पीछे जयकारा लगाता चलता था-’’ योगीराज महाराज चांगदेव की जय’’। जयकारों की इस अंतध्र्वनि से आसमान गूँज रहा था। चांगदेव के आगे-पीछे हजारों शिष्य पदयात्रा करते थे। सारा परिदृश्य चांगदेव के जयगान से गूँज रहा था।
चांगदेव एक महान योगी थे। पिछले 1400 वर्षो से अत्यंत  कठिन समरांगण में योग-साधना कर रहे थे। उस समय वे ब्रह्मविद्या  के एकमात्र संचालक थे। पूरे क्षेत्र में उनकी साधना की कोई  तुलना नहीं थी और इस साधना के परिणामस्वरूप उन्हें अद्भुत एवं अभूतपूर्व ऋद्वि-सिद्धि एवं योगंश्वर्य उपलब्ध हुआ था। संपूर्ण भारतवर्ष उनकी इस साधना एवे सिद्धि से सुपरिचित था। इसी कारण समग्र भारतवर्ष में उनके अगणित शिष्य बिखरे हुए थे और उनके शिष्य भी सिद्धि एवं चमत्कार की अनगिनत कथाओं से आपूरित थे। स्वंय चांगदेव ने अपने सम्मुख किसी महान योगी को देखा नहीं था, परंतु भगवान की लीला बड़ी अपंरपार है। भगवान को अंहकार नापसंद है, वे इसे बरदाश्त नहीं करते, परंतु निश्छल, निर्मल प्रेम के वे स्वंय पुजारी बन जाते है। भगवान भक्त के संरक्षण एवं सुरक्षा हेतु सदैव उसके पास रहते है।
चांगदेव निस्संदेह एक महान साधक एवं सिद्ध थे, पर उनके योगी होने में अभी किचिंत् समय शेष था। अत: उनकी प्रकृति में अपनी साधना की एक सूक्ष्म अहंकार की डोरी जुड़ी हुई थी और यह ड़ोरी उनकी इस यात्रा का मूल कारण थी। चांगदेव सिंह की सवारी कर रहे थे और उनका अंतर्मन एक किशोरवय संत ज्ञानेश्वर के अद्भुत चमत्कारों को सहन नहीं कर पा रहा था। वह विस्मित थे ओर सोच रहे थे-’’ कौन है यह संत ज्ञानेश्वर, जिसकी ज्ञानेश्वरीएवं अमृतानुभवनामक रचनाएँ इतनी प्रसिद्ध एवं विख्यात हो गई  है कि भारतीय जनमानस उनसे उद्वेलित, आंदोलित एवं आनंदित हो रहा है?
चांगदेव के स्मृति पटल पर अपने आश्रम के एक शिष्य की बात कौंध गई ।  चांगदेव अपने जयगान से प्रसन्न तो थे, पंरतु उनका मन शिष्य की उस बात पर टिक गया था जो कह रहा था-’’ हे योगीराज! अद्भुत है संत ज्ञानेश्वर की लीला। उनके ज्ञान एवं भक्ति की भावधारा में सब कुछ सराबोर हो जाता है, कुछ भी तो नहीं बचता है। एक सम्मोहक एवं दैवीय आकर्षण की सुगंध तैरती रहती है उनके समीप। अनेक समस्याएँ अनकहे समाधान पा जाती है, उनके सान्निध्य में। प्रभु! मैं असत्य वचन नहीं कह रहा हूँ और मेरी इस धृष्टता पर मुझे माफ करें कि ऐसी दिव्य एवं पावन अनुभूति हमें कभी नहीं हुई , जो उनके एक क्षण के स्पर्श से प्राप्त हुई ।’’ उस दिन चांगदेव का अहंकार जाग उठा था कि आखिर यह संत बालक भला है कौन? जिसकी ख्याति और प्रशंसा की सीमारेखा एक चुनौती बन रहीं है। इस चुनौती को बरदाश्त नहीं कर पा रहें थे चोगी चांगदेव।
उस दिन चांगदेव इस घटना की परख करने के लिए संत ज्ञानेश्वर को एक पत्र लिखने बैठ गए। हाथ में कागज-कलम लिए वे इस उधेड़बुन में उलझ गए कि आखिर उन्हें कैसे संबोधित करें? तीर्थस्वरूप लिखें या चिरंजीव कहें, उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा था। इस क्रम में उन्होनें ढेर सारे कागज बरबाद किए, कागज की ढेरी बन गई , परंतु उचित संबोधन नहीं बन पड़ा। इसी उहापोह में बिना किसी संबोधन के उन्होनें कोरा कागज ही भेज दिया।
पत्रवाहक ने उस कोरे कागज की पाती को ज्ञानदेव को समर्पित कर कहा-’’ हे संत! यह मेरे स्वामी महाराज चांगदेव ने आपके लिए भेजा है।’’ ज्ञानदेव ने सम्मान के साथ उस पत्र को अपने हाथ में लिया और उसे खोला, पर पत्र तो कोरा कागज ही था। उसे देख ज्ञानदेव के अधरों पर मुस्काराहट फैल गई । फिर उस पत्र को ज्ञानदेव ने अपने भाइयों निवार्तिनाथ , सोपनदेव एवं बहन मुक्ताबाई को दे दिया। सभी ने उस पत्र को उलट-पलटकर देखा, परंतु उसमें लिखा तो कुछ था नहीं, इसलिए पढ़ा क्या जाता। अंत में जब वह पत्र मुक्ताबाई  के हाथ में आया तो उसे देख ते खिलखिलाकर हँस पड़ी और बोलीं- हमारे योगी जी ने चौदह सौ वर्ष तपस्या करने के बाद भी इस कोरे कागज के समान कोरे ही रह गए। इस तीखे व्यंग्य से योगीराज निवर्तिनाथ चौंक पड़े। उन्होंने इसे सँभालते हुए शिष्टाचारपूर्वक पत्रवाहक से बड़े ही शांत भाव से कहा-’’ आप इसकी बातों पर ध्यान न दें। यह तो ऐसे ही बोलती रहती है। चांगदेव को हमारा हार्दिक नमन कहें! वे तो महान योगी है। हमारे दिलों में उनका श्रद्धास्पद स्थान है। उनसे विनती करें  कि वे हमारी इस कुटिया में आकर अपनी चरणरज से इसे पवित्र करें।’’
पत्रवाहक के सामने यह सारा वर्तंता चल रहा था। वह स्वब्ध एवं अवाक् था। पत्रवाहक ने योगीराज चांगदेव के पास पहुँचकर उनको संत निवर्तिनाथ एवं ज्ञानदेव का आमंत्रण संप्रेषित किया और इसी का परिणाम था कि चांगदेव सिंह पर सवार होकर ज्ञानदेव से मिलने के लिए जा रहे थे।
महाराष्ट्र के एक गाँव आलंदी में ज्ञानदेव अपने भाई एवं बहन के साथ रहते थे।  चांगदेव की यात्रा आलंदी तक पहुँची। आलंदी के समीप आते ही गाँव में हलचल मच गई । चांगदेव के जयकारों की ध्वनि से आसमाँ  की गूँज उठा। कुछ लोग इस घटना का प्रत्यक्ष वर्णन करने के लिए ज्ञानदेव के पास दौड़ पड़े और कहा-’’ हे महात्मन्! चांगदेव सिंह पर सवार होकर हाथ में सर्प का चाबुक लिए आपसे मिलने आ रहे है। उनके साथ हजारों शिष्य चल रहे है, जिनकी चरणधूलि से धरती-आसमाँ एक जैसा हो गया है।’’ इस समय ज्ञानदेव अपनी बहन एवं भाइयों के साथ एक टूटी झोंपड़ी दीवार पर बैठे हुए थे। उनके मन में आया कि चलकर चांगदेव को सम्मानपूर्वक अपने आवास पर ले आया जाए, परंतु चांगदेव गाँव के उस छोर पर और ज्ञानदेव की झोंपड़ी गाँव के इस छोर पर थी। उनके पास कोई सवारी नहीं थी, करें तो क्या करें?
संत ज्ञानेश्वर को समझ आ गया था कि चांगदेव अपने योग के ऐश्वर्य से हमें तौलना चाहते है, तुलना करना चाहते हैं। फिर एकाएक हँस पड़े। मुक्ताबाई ने पूछा-’’ हे भ्राता! आप हँस रहे है और इधर चांगदेव हमारे पास आ रहे हैं कोई उचित व्यवस्था बनाएँ। हम सबको चलकर उनका स्वागत करना चाहिए एवं सम्मान से साथ यहाँ लेकर आना चाहिए।’’ इस बात पर दोनों भ्राता निवर्तिनाथ एवं सोपनदेव भी सहमत थे। ज्ञानदेव ने कहा-’’ आप सब निश्चित रहें। उचित समय में उचित व्यवस्था हो जाएगी।’’ जिस दीवार पर सभी लोग बैठे हुए थे, उसे थपथपाते हुए ज्ञानदेव ने कहा-’’ हे प्रिय दीवार! तुम कुछ क्षण के लिए जीवंत एवं सक्रिय हो जाओ, ताकि हम तुम्हारी सवारी करके यथाशीघ्र महान संत चांगदवे का स्वागत-सत्कार कर सकें।’’
ज्ञानदेव की चेतनात्मक उर्जा दीवार में प्रवेश कर गई  और जड़  चैतन्यमय होकर क्रियाशील हो उठा। दीवार ने ज्ञानदेव के प्रणाम किया और कहा-’’ हे संत! यह मेरा अहोभाग्य, परमसौभाग्य है कि मुझे आज आप सभी संतो का दिव्य वाहन बनने का सुयोग एवं सौभाग्य मिल रहा है। इससे बड़ी कृपा मेरे लिए और कुछ नहीं हो सकती। मुझ टूटी दीवार पर आपका यह आशीर्वाद अकल्पनीय एवं अविस्मरणीय है।’’ दीवार अपने उपर बैठे ज्ञानदेव सहित सभी भाइयों एवं बहन को प्रणाम कर उछ़ने लगी। वह उस दिशा में उड़ी जा रही थी, जहाँ से चांगदेव आलंदी में प्रस्थान करते। आलंदी का पूरा गाँव इन संत कोटि के भाई -बहन की कथा-गाथा से सुपरिचित था, पंरतु यह दृश्य तो अति अद्भुत था कि जड़ दीवार उड़ रहीं थी दीवार चांगदेव के पास पहुँची। चांगदेव भी इस दृश्य को देख हतप्रभ हो गए। यौगिक सिद्धियों का जो अहंकार उनके मन में पल रहा था, यह सब देख पानी के बुलबुले के समान फूटकर पानी में ही विलीन हो गया।
दीवार चांगदेव के सामने खड़ी हो गई । चांगदेव ने सिंह से उतरकर ज्ञानदेव को साष्टांग प्रणाम किया। उनकी समझ में आ गया कि चमत्कार साधना नहीं है, बल्कि इससे अहंकार जागता है। साधना तो वह है, जो अहंकार को विनष्ट कर दे, यही तो सबसे बड़ा चमत्कार है, जो अंतर्मन में घटित होता है। उसी क्षण चांगदेव ने संत ज्ञानदेव से निवेदन किया-’’ हे संत! अहंकारवश हुर्इ मेरी भूल को माफकर मुझे अपना लें। आप मुझे शिष्यत्व प्राप्ति का अवसर प्रदान करें और जब तक आप मेरे गुरू नहीं बनेगें, मेरी मुक्ति संभव नहीं होगी।’’ ज्ञानदेव ने कहा-’’ तथास्तु! आज से मैं आपको शिष्य के रूप में ग्रहण करता हूँ।
संत ज्ञानदेव ने चांगदेव को साधना के गूढ़ मार्ग में बढ़ने के लिए पथ प्रशस्त किया। चित्त् में सस्कारों के शमन के लिए प्रयूक्त साधनापद्धति का दिग्दर्शन कराया। एक दिन चांगदेव ने कहा-’’ हे गुरूदेव! संस्कार एवं कर्मफल में क्या अंतर है एवं इसका विज्ञान-विधान क्या है, जिससे कि उससे पर पाकर निर्बीज समाधि में अवस्थित हुआ जा सकें’’
ज्ञानदेव कुछ देर मौन रहे, फिर उन्होंने जवाब दिया-’’ वत्स! संस्कार चित्त् में पड़े उस अंकन या छाप को कहते है, जो वृ​तियो के माध्यम से पड़ती है। हमारे संस्कार में अनेक जन्मों की अनंत व्रतियो  की छाप पड़ी हुई है और इसी संस्कार के क्रियाशील होने से ही मनुष्य एक निश्चित प्रकार का व्यवहार करने को विवश होता है। इन संस्कारों के द्वारा ही सकाम कर्मों की उत्पति होती है। संस्कारों को काटने- मिटाने के लिए एक विज्ञान है, वे चितरुपी खेत में खरपतवार को काट-छाँटकर केवल इच्छित फसल को उगने देते है और अंत में उसको भी काटकर समाप्त कर देते है। संस्कार रहने तक व्यक्ति एक निश्चित संबंध से निश्चित समय तक आबद्ध रहता है, छुट नहीं पाता हैं इसका संपूर्ण शमन, केवल निर्बीज समाधि में ही संभव होता है’’
चांगदेव ने कहा-’’ अब आप कर्मफल पर प्रकाश डालें।’’ ज्ञानदेव ने अपनी बातों को आगे बढ़ाते हुए स्पष्ट किया-’’ वत्स! अतीत में किए हुए किसी कर्म का जब परिपाक हो जाता है तो उसे कर्मफलकहते है। कर्मफल भोगने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता है। हाँ कोई तपस्वी हो तो उसे अपने तप के प्रभाव से हलका अवश्य कर देता है और फिर उसे आसानी से भोगा जा सकता है। कर्मफल को सहना असीम कष्टप्रद एवं पीड़ादायक होता है, पंरतु इसके अलावा कोई  अन्य विकल्प भी तो नहीं होता। संस्कार को तो काटा जा सकता है, किंतु कर्मफल को भोगना ही पड़ता है और इसे भोग भी लेना चाहिए।’’
ज्ञानदेव ने शुन्य की ओर देखते हुए कहा-’’ वत्स! मेरा समय अब समाप्त हो चला है। जीवन की संध्या ढलने लगी है। शीघ्र ही इस देह को त्यागकर अपने धाम पहुँचने की त्वरा बड़ गई  है।’’ फिर वे देर तक मौन रहे, वहीं बैठे-बैठे उनकी समाधि लग गई और उस समाधि के दौरान उनके वहाँ बैठे शिष्यों को अपनी समस्याओं के न जाने कितने समाधान मिल गए, कहा नहीं जा सकता।
अखण्ड ज्योति-10-2012

सात्विक कर्मो से रोके अवसाद (depression) का दुष्प्रभाव



Depression आज एक मुख्य बीमारी के रूप में उभर रहा है। भाँति-2 के उपचार इस रोग से मुक्ति के लिए विद्वानों-चिकित्सकों ने सुझाँए है लेखक उन सभी का सम्मान करता है। वो सभी महत्वपूर्ण है इसमें कोई सन्देह नहीं है।
इनमें मुख्यत: आते है-
1 Antidepressant एलोपैथिक दवाँए
2 आयुर्वेदिक दिल-दिमाग के ताकत की दवाँए
3 तनाव रहित हंसती जिन्दगी एवं counseling
4 ध्यान-जप की भक्ति शक्ति
5 आसन-प्राणायाम आदि के प्रयोग
उपरोक्त उपायों के साथ-साथ, दो अन्य उपाय यहाँ पर दिए जा रहे है, उनको यदि अपनाया जाए तो इस रोग से शीघ्र मुक्ति मिल सकती है।
सर्वप्रथम हमें यह जानना जरूरी है कि depression का मूल कारण क्या है? प्रत्येक व्यक्ति के भीतर सतोगुण, रजोगुण व तमोगुण विद्यमान होता है जिसके द्वारा उसके दैनिक क्रियाकलाप व आचरण संचालित होता है।
जब व्यक्ति के भीतर रजोगुण व तमोगुण बढ़ जाता है व सत्वगुण कम हो जाता है तो व्यक्ति के depression में जाने की सम्भावना बहुत बढ़ जाती है। कई बार आध्यात्म के पथ पर चलनें वाले व्यक्ति भी इसकी चपेट में आ जाते है। इसका कारण होता है कि कई बार व्यक्ति के अवचेतन मन अथवा चित्त में रजोगुण व तमोगुण की परतें पड़ी होती है जो उसके पुरानें जन्मों के संस्कार स्वरूप बनती है इस जन्म में सात्विक सा दिखने वाला व्यक्ति जब कुण्डलिनी शक्ति के प्रभाव में आता है तो सर्वप्रथम यह शक्ति उसके भीतर की गन्दगी सतह पर ला फेंकती है। यह ठीक वैसा ही है जैसे डॉक्टर चीरा लगाकर भीतर की पस को बाहर निकालता है। अन्यथा यह पस उसके लिए भविष्य में खतरनाक सिद्ध हो सकती है। कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होकर व्यक्ति के भोंगों में शीघ्रता लाती है जिससे उसकी इश्वर प्राप्ति सहज हो सकें।
रजोगुण व तमोगुण की प्रधानता व्यक्ति के भीतर एक प्रकार का ऋणात्मक प्रभाव (negative effect) उत्पन्न करती है और व्यक्ति की उर्जा negative direction में बहनें लगती है। इससें व्यक्ति के भीतर हर समय नकारात्मक विचारों का कोहराम मचने लगता है और व्यक्ति बहुत अशांत व खिन्न रहने लगता है।
यदि व्यक्ति के भीतर सतोगुण बढ़ा दिया जाए तो रोगी के नकारात्मक विचारों का घेरा धीरें-धीरें करके कमजोर पड़ता चला जाता है। उसके भीतर शांति व प्रसन्नता झलकने लगती है। सतोगुण की वृद्धि करके ही कोई व्यक्ति स्थायी शांति पा सकता है, परन्तु यह कार्य भी सरल नहीं है। तमोगुणी जड़ता, इन्द्रिय लोलुपता, दूसरे को व्यर्थ मे नुकसान पहुँचाने को भाव से जो घिरा होता है वह सहजता के इन विकारों से मुक्त नहीं हो पाता।
इसी प्रकार रजोगुणी महत्वकाक्षाँए, पद प्रतिष्ठा, लोभ लालच व्यक्ति को अपने शिकंजे में उलझाए रखती है। व्यक्ति को धैर्यपूर्वक सतोगुण का संचय करना पड़ता है सतोगुण की वृद्धि करने के लिए व्यक्ति निम्न कार्य करे।
1. जो दीन दुखी व मुसीबत मे फसें हुए लोग है उनकी यथासम्भव मदद करें। अपने बारे में ज्यादा न सोचें।
2. देश भक्ति, सेवा, परोपकार में रूचि ले परन्तु पदों के दायित्व व प्रसंसा पाने से बचता रहे।
3. क्षमा करना सीखें, पुरानी फाइलें बन्द करें, बदला लेने व दूसरों को नुक्सान पहुँचाने की भावना अपने भीतर न पनपनें दें। जो कुछ मान-अपमान मिल रहा हो अपना प्रारब्ध मानकर अनुतेजित रहें। क्षमा, सहनशीलता व धैर्य का विकास करने का प्रयास करें। Negative Aura को समाप्त करने के लिए एक प्रयोग नीचे दिया जा रहा है-
1. जिस भी देवी-देवता, गुरू अथवा भगवान को मानते है उसके ज्योतिर्मय स्वरूप का ध्यान करें। उगते हुए स्वर्णीय सूर्य अथवा दीपक ज्योति को भी ध्यान किया जा सकता है। उनको अपने आज्ञाचक्र में अथवा सिर के उपर सोचे।
2. यह भावना करें कि परमात्मा की कृपा-प्रकाश हमारे रोम-रोम में समा रहा है। हमारा सूक्ष्म शारीर प्रकाशमान, तेजवान हो रहा है। हमारे रोग-शोक, कषाय-कल्मष, कट रहें है। हम शक्तिमान हो रहे हैं।
3. परमात्मा की विश्व व्याप्त शांति हमारे भीतर स्थापित हो रही है।
4. हम आंनदमय बन रहें है। परमात्मा आंनदमय है, शांतिमय है हम भी आंनद और शांति के स्त्रोत से जुड़कर आनंदमय, शांतिमय बनते जा रहें है। ओउम आंनदमय ओउम शांतिमय ।
यदि स्थिति को नियन्त्र्तित करने के लिए दवाँओ की जरूरत पड़े तो ले सकते है। एकदम से दवा छोड़ना भी समस्या बढ़ा सकता है। खुशनुमा व क्रियाशील व्यक्तियों का सान्निध्य लें, अकेले कम रहें। अपना मनपंसद जीवन जीए। प्रारब्धों की दीवार तोड़कर नया उजाला जीवन में अवष्य आएगा ऐसा विश्वाश दृढ़ करते रहें। व्यस्त रहे, मस्त रहें इस सूत्र पर चलें।
(नोट-इस लेख में सत्-रज- तम गुणों के बारें में चर्चा नहीं की गई है कृपया इसके लिए ‘‘सनातन धर्म का प्रसाद’’ अथवा ब्लॉग पर डाले गए इससे संबंधित अन्य लेख पढ़े।)

आंखों को बूढ़ा बना रहा है कंप्यूटर



मोबाइल, कंप्यूटर और लैपटॉप पर घंटों चिपकें रहने की आदत न केवल दिल, बल्कि आंखों की सेहत के लिए भी खतरनाक है। इससे व्यक्ति युवावस्था में ही ‘‘ ड्राई  आई  सिंड्रोम ‘‘ का षिकार हो सकता है।
क्या है ‘‘ ड्राई आई सिंड्रोम ‘‘
‘‘ ड्राई  आई  सिंड्रोंम ‘‘ से पीड़ित  व्यक्ति की आंखों में पर्याप्त मात्रा में आंसू पैदा नहीं हो पाते है। इससे हानिकारक तत्वों से आंखों की कोषिकाओं की सुरक्षा करने वाली परत यानी ‘‘टियर फिल्म’’ कमजोर हो जाती है और रोषनी घटने लगती हे। बढ़ती उम्र में होती है षिकायत ढलती उमर को साथ ‘‘टियर फिल्म’’ का कमजोर पड़ना आम बात है। लेकिन तकनीक के इस युग में घंटों कंप्यूटर पर काम करने को मजबूर है। इससे वे पलकें कम झंपकाते है। नतीजन आंखों में पर्याप्त मात्रा में आंसू नहीं बन पाते।
बचाव के उपाय
 1 कंप्यूटर पर लंबें समय तक आंखें गडाकर काम न करे।
 2 आधें घंटे के अंतराल पर दो-तीन मिनट का ब्रेक ले।
 3 दिन में तीन से पांच बार आंखों में ठंडें पानी का छींटा मारे।
 4 काम करने के दौरान एक मिनट में कम से कम बारह से पंद्रह बार पलकें झपकाएं, आंखों को मलनें से बचें।
 5 विषेशज्ञों की सलाह से आई -ड्रोंप का इस्तेमाल कर सकते है, हालांकि इनके ज्यादा उपयोग से बचें।