Saturday, April 30, 2016

राजा कैसा हो


राजा को प्रजा अपने प्राणों के समान प्यारी होनी चाहिए। अर्थात स्वयं और अपने मंत्रियों को हर रात वेश बदलकर जनता के दुख सुख का पता लगाने के लिए भेजें। जो पीडित हो पहले उनकी समस्या का समाधान करे। तब भोजन ग्रहण करे। अन्यथा उपवास करे। और अपने मंत्रियों को भी कुछ न खाने दे। न्याय व्यवस्था इतनी मजबूत करें। कि कोई किसी निर्बल पर अत्याचार न कर सके। जो अत्याचार करें । उसे कठोर दण्ड दे। अगर खुद राजा का बेटा भी अपराध करे। तो उसे भी वही सजा होनी चाहिये। चाहे बेटा इकलौता ही क्यों न हो। राजा की दृष्टि में भेद नही होना चाहिए।
  जासू राज प्रिय प्रजा दुखारी सो नृप अवश्य नरक अधिकारी
रामचरितमानस में तुलसीदास ने स्पष्ट लिखा है। कि जिस राजा के राज्य में प्रजा दुखी है। वो राजा अवश्य नरक का अधिकारी है। अगर राजा अपना जीवन शान शौकत से जीता है। और प्रजा खून के आसंू पीकर जी रही हो तो इसका दोषी राजा है। क्योकि वह राजा क्यों बना। अगर राजा बना है। तो अपना राजधर्म निभाये। जो राजा अपना राजधर्म नही निभाते उनके राज्य में सूखा पडता है। कही बाढ आती है। कही महामारी फैलती है। इसका प्रकोप जनता को झेलना पडता है। 
          
   महाभारत की समाप्ति के पश्चात पांडवों का एकछत्र राज्य स्थापित हो चुका था। द्वापर के दिन ढल रहे थे और कलियुग प्रारंभ के संकेत मिल रहे थे। इन्ही दिनों अर्जुन भेष बदलकर राज्य भ्रमण को निकले। राह में उन्हे एक कृशकाय ब्राहाण मिला जो मार्ग में गिरे अनाज के दानों को बीनकर खाने का यत्न कर रहा था। यह दृश्य देख अर्जुन बोले हे ब्राहाण देव । आप आर्थिक रूप से विपन्न जान पडते हैं। आप राजा युधिष्ठिर के पास क्यों नही जातें वे दानी पुरूष है। आपकी विवशता का अवश्य मान रखेंगे। यह सुन ब्राहाण फूट फूटकर रोने लगा। विस्मित अर्जुन ने लौटकर जब यह घटना युधिष्ठिर को सुनाई तो वे भी रोने लगे। अर्जुन का असमंजस और बढा। वे भगवान श्रीकृष्ण के पास पहुंचे।

    जब यह घटना सुन श्रीकृष्ण की आंखों से भी आंसू गिरने लगे तो अर्जुन से रहा नही गया। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से सारी घटना का मर्म पूछा। कृष्ण बोले अर्जुन वह ब्राहाण यह सोचकर रोया कि दिन इतने विषम आ गए है कि एक ब्राहाण को अन्न के लिए किसी के आगे हाथ फैलाने पडे युधिष्ठिर यह विचार कर रोयें कि धर्म का इतना पतन हो चुका है कि उनके राज्य में ब्राहाण उनसे अपनी आकुलता बताने में झिझकता है और मैं यह सोचकर रोया कि जल्दी  ही एक दिन ऐसा आएगा कि जब न कोई ब्राहाण किसी के आगे हाथ फैलाने में झिझकेगा और न कोई धर्मराज प्रजा के कष्ट से दुखी होकर रोयगा।

Thursday, April 28, 2016

भोजन किसमें पकाएँ व खाएँ ?

एल्युमिनियम के बर्तनों के लाभ-हानि
 आजकल हर रसोईघर में हमें एल्युमिनियम के बर्तन जैसे प्रेशर कुकर, कढ़ाई, फ्राइंग पैन आदि दृष्टिगोचर होते हैं। क्योंकि भाग-दौड़ वाली ज़िंदगी में एल्युमिनियम के बर्तनो में खाना बनाने के कुछ फायदे हैं-
1. एल्युमिनियम के बर्तन दूसरी धातुओं के बर्तनो की अपेक्षा सस्ते होते हैं।
2. इन बर्तनों में भोजन जल्दी पकता है।
3. इन बर्तनो का भार भी अन्य धातुओं के बर्तन से कम होता है।
पर क्या आप जानते हैं कि इन फायदों के बावजूद खाना बनाने के लिए यदि सबसे खराब कोई धातु है, तो वह है- एल्युमिनियम। सुनकर अचंभित हो गए न! आइए जानते हैं कुछ तथ्य-
1.  एल्युमिनियम भारी धातु (Heavy Metal) है, जो भोजन पकाने वाले एल्युमिनियम के बर्तन के माध्यम से भोजन में शामिल हो हमारे शरीर में पहुँच जाता है। रोजमर्रा में, हम इन एल्युमिनियम के बर्तनो से 4-5 मि. ग्रा. एल्युमिनियम का सेवन कर लेते हैं। पत्तेदार सब्जियाँ, आम्लीय खाद्य पदार्थ जैसे टमाटर एल्युमिनियम को सबसे ज्यादा सोखते हैं। शरीर के ज्यादातर विषैले-तत्व स्वेद या मूत्र के जरिये निष्कासित हो जाते हैं। पर चूँकि एल्युमिनियम भारी धातु है, हमारे देह का उत्सर्जन तंत्र (Excretory System) आसानी से इसका निष्कासन नहीं कर पाता।
2. एल्युमिनियम ऊर्जा का अत्यधिक सुचालक है। इसलिए इसमें पके भोजन की लगभग 80 प्रतिशत पौष्टिकता खत्म हो जाती है, जिससे व्यक्ति को रोग घेर लेते हैं। इसलिए अंग्रेजों ने साजिश के तहत जेलों में एल्युमिनियम के बर्तनों का प्रयोग शुरू किया था, ताकि देश-भक्त कैदियों को शारीरिक रूप से कमजोर कर मार्ग से हटाया जा सके। पर आज हम स्वेच्छा से इस धीमे ज़हर को गले लगाए बैठे हैं।
3. वैज्ञानिक-अनुसंधानों के अनुसार भी एल्युमिनियम एक धीमा ज़हर है। एलोपैथी हो या आयुर्वेद या आधुनिक चिकित्सा विज्ञान, सभी में एल्युमिनियम का प्रयोग निषेध है।
एल्युमिनियम के बर्तनो का उपयोग करने से होने वाली बीमारियाँः-
1. एल्युमिनियम धातु असंख्य घातक बीमारियों को खुला आह्नान है। दमा, टी. बी., डायबीटिज़, गुर्दे की विफलता, यहाँ तक कि कैंसर में भी एल्युमिनियम का योगदान है।
2. एल्युमिनियम से दिमागी स्नायु रेशों का, कोशिकाओं का बनना दुःसाध्य हो जाता है। याद्दाश्त का कमजोर होना, चिंता और अवसाद ग्रस्त रहना- इस एल्युमिनियम का ही मस्तिष्क पर कुप्रभाव है।
3. एल्युमिनियम हमारी हड्डियों, माँस-पेशियों, जिगर और गुर्दे में प्रवेश कर हमें कई स्तर पर रोगग्रस्त करता है।
4. एल्युमिनियम विषाकतता से मुँह में अल्सर, अल्ज़ाइमर, दस्त और नेत्र रोग आदि भी देखने को मिलते हैं।
एल्युमिनियम बाॅक्साइट से बनता है, जिसकी कई खदानें सदियों से भारत में मौजूद थीं। परन्तु भारतीय मनीषियों ने इसकी हानि से अवगत होने के कारण मिट्टी के बर्तनों में भोजन पकाने की हिदायत दी थी।
मिट्टी के बर्तनों के लाभ-हानि
1. लखनऊ के लैब में अनुसंधानकर्ताओं ने विभिन्न धातुओं के बर्तनों में अरहर दाल को पकाया, ताकि यह जाना जा सके कि किस बर्तन में भोजन पकाने के पश्चात् सबसे अधिक पौष्टिक तत्व सुरक्षित रहते हैं। इस प्रयोग के निष्कर्ष कुछ इस तरह पाए गए-
धातु के बर्तन    पकाने के बाद बचे सुक्ष्म पोषक तत्व
मिट्टी                  100 प्रतिशत
काँसा                    93 प्रतिशत  
पीतल                   87 प्रतिशत
एल्युमीनियम      13 प्रतिशत
       अतः मिट्टी के बर्तनों में भोजन पकाने से सूक्ष्म पोषक तत्व 100 प्रतिशत प्राप्त होते हैं, जो अन्य किसी धातु से प्राप्त नहीं होते।
2. मिट्टी के बर्तनों में बनाए भोजन का सेवन करने पर, एक साल के अन्दर ही बहुत पुराने शुगर-रोगियों की शुगर का स्तर 480 से 180 पर गिरा हुआ पाया गया।
3. देह को लाभ प्रदान करने वाले 18 सूक्ष्म पोषक तत्व केवल मिट्टी में ही पाए जाते हैं।
4. मिट्टी के बर्तनं में आयरन, कैल्शियम, मैगनीशियम और मैंगनीज प्र्याप्त मात्रा में होते हैं।
5. निःसन्देह, जहाँ एल्युमीनियम कुकर में दाल 20 मिनट में बनकर तैयार हो जाती है, वहाँ मिट्टी की हाँडी में 40 मिनट लग जाएँगे। परन्तु समय की तुलना में स्वाद और सेहत अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं।
6.  पहले घरों में दूध उबालने, दही जमाने, दाल पकाने, चावल बनाने व अचार रखने के लिए मिट्टी के बर्तनों का ही इस्तेमाल किया जाता थां आज विदेशी अंधानुकरण के चलते, हम एल्युमीनियम के बर्तनों में भोजन पका रहे हैं और रोगों को बुला रहे हैं। इसलिए स्वयं को रोगमुक्त और पूर्णतः स्वस्थ रखने के लिए एल्युमीनियम के बर्तनों के स्थान पर मिट्टी के बर्तनों का ही प्रयोग करें। रोटी को लपेटने के लिए एल्युमीनियम पन्नी की बजाय सूती कपड़े का इस्तेमाल करें।
7. यदि मिट्टी के बर्तनों उपलब्ध नहीं हैं, तो काँसे, पीतल, स्टील या लोहे के बर्तनों का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। प्रतिदिन कुछ मात्रा में लोहा हमारी देह में लोहे के बर्तनों से जाता है। परन्तु देह में लोहे की कमी के कारण, हमारे लिए यह मात्रा सुरक्षित है। लाल रक्त कोशिकाओं को बनाने में भी लोहे का विशिष्ट योगदान है। इसलिए आप लोहे की कढ़ाई का भी इस्तेमाल कर सकते हैं।
Thanks to Shri Rajiv Dixit & Akhand Gyan for this useful information

Tuesday, April 12, 2016

महर्षि रमण

महर्षि रमण

महर्षि रमण केवल कौपीन धारण किए हुए थे।  उनके शरीर पर कौपीन के अलावा और कोई वस्त्र  नहीं थे।  उनके शरीर की निर्दोष त्वचा मे उनके आध्यात्मिक प्रकाश की चमक स्प्ष्ट झलक रही थी।  चेहरे पर हल्की दाढ़ी थी, जिसे वे कभी-कभी अपने हाथो से फेर लेते थे।  होठो पर बालसुलभ हँसी में इतना सघन चुंबकत्व था कि कोई भी विवश होकर उनकी ओर आकर्षित हो जाए।  इस हँसी में ऐसी आभा थी कि लगता था कि समूची कायनात ही हँस रही हो।  आँखों में आध्यात्मिक प्रकाश के साथ प्रगाढ़ अपनापन इतना था कि कोई देखे और उस समुद्र में डूब ही जाए। ऐसा दिव्य एवं पवित्र व्यक्तित्व था महर्षि रमण का।
 महर्षि रमण की तपस्थली थी विरुपाक्षी गुफा।  यह पवित्र गुफा उनके कठोर एवं एकांत तप की साक्षी थी।  यह गुफा जाने उनके किन-किन अंतर्जगत के उन आध्यात्मिक प्रयोगों की गवाह थी, जो उन्होंने वहां एकांत में सम्पन्न किए थे।  विरुपाक्षी गुफा अरुणाचल पर्वत की तलहटी में बसी थी।  अरुणाचल को दक्षिण का हिमालय कहा जाता है।  अरुणाचल में ही तप करने के लिए महर्षि रमण को बचपन से आदेश प्राप्त था। उन्होंने अपनी किशोरवय में ही मृत्यु का साक्षात्कार कर लिया था और पूर्वनियोजित एवं सुनियोजित घटना ने उन्हें इस पर्वत पर प्रस्थान करने के लिए प्रेरित किया था और वे तिरुवन्नामलाई शहर चले आए थे , जहां पर यह पर्वत और उसकी तलहटी में विरुपाक्षी गुफा स्थित थी
महर्षि रमण जब वहाँ आए थे तो वे अकेले ही वहाँ तप करने लगे।  धीरे-धीरे दैवी कृपा से उनके पास कुछ लोग आए और वहाँ पर एक आश्रम विनिर्मित हो गया।  महर्षि के आश्रम के कण - कण में उनकी तप-ऊर्जा घुली हुई थी, इसलिए वहाँ का वातावरण दिव्य, सुखद एवं सम्मोहक था।  आश्रम परिसर में जो लोग रहते थे, वे थे -- एचमा, मह्वस्वामी, रामनाथ ब्रह्मचारी एवं मुदलियर ग्रेनी।  महर्षि मौन ही अधिक रहते थे, परन्तु उनके मौन की प्रगाढ़ता में इतनी ऊर्जा भरी रहती थी कि वह किसी मुखर-से-मुखर दिव्य वाणी से भी भारी थी।  
महर्षि का कठोर तप विश्व-कल्याण के लिए निहित था।  उन्होंने सर्वप्रथम विरुपाक्षी गुफा में अपनी चेतना को परिष्कृत किया।  चेतना परिष्कृत हुए बिना किसी बड़े आध्यात्मिक प्रयोग को सफल नहीं किया जा सकता है ; क्योंकि परिष्कृत चेतना ही उनकी चेतना की नई - नई परते खुलती गई और चेतना की अंतिम परत में 'अहं ' आत्मा में विलीन हो गया।  बाद में उनकी आत्मा परमात्मा से एकाकार हो गई। 
अहं के आत्मा में स्थानांतरण ने उनके मनुष्य रूप को दिव्यता में रूपांतरित कर दिया।  उसी क्रम में उन्होंने परतंत्र भारत, जो अपने प्रारब्ध की मार से कराह रहा था को भी अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा से हलका किया था और भारत की स्वतंत्रता में महती योगदान दिया था।  यह इतने रहस्य्मयी तरिके से सम्पन्न हुआ था कि किसी को कुछ भी पता नहीं चला. वैसे भी ये रहस्य्मयी प्रक्रियाएँ अज्ञात एवं दुर्लभ होती है, इन्हे न कोई जान पाता है और न कोई समझ पाने का सामर्थ्य रखता है, केवल उनके स्तर के लोगों के अलावा।
महर्षि के अनुसार भारत का भविष्य अत्यन्त उज्जवल हैं, उसे कोई भी ताकत चाहे वह कितनी भी  सामर्थ्यवान क्यों न हों, धूमिल नहीं कर सकती है।  भारत को जागना ही होगा, भारत को उठना ही होगा ; क्योंकि भारत के भविष्य के साथ सारी सृष्टि का भाग्य जुड़ा हुआ है।  अतः सृष्टि के विकास के लिए भारत को अपने गौरवपूर्ण अत्तित को फिर से जगाना होगा, अपनी सूझ-बुझ, पराक्रम एवं आध्यात्मिकता के बल पर इसे फिर से जगद्गुरु के महतीय पद पर अलंकृत होना है। 
महर्षि कह रहे थे - "यह दैवीय विधान है, इसे कोई रोक नहीं सकता, मिटा नहीं सकता।  अतः भारत की संतानो को अपने राष्ट्रीय कर्तव्य के प्रति सचेत एवं जागरूक होना ही होगा और इस जागरूकता के लिए भगवान अपने विशिष्ठ दूत को अवश्य भेजेंगा, जो भारत के साथ ही सृष्टि के अन्धकार को नष्ट कर भगवद् प्रकाश का अवतरण करने में महती भूमिका निभाएगा। " इतना कहकर महर्षि रमण मौन हो गए। भारत के उज्जवल भविष्य के प्रति वे परम आशवस्त थे।     
   
   

Monday, April 11, 2016

नव दुर्गा


हनुमान जी चिरंजीवी हैं | वे जंगलों में तपस्या कर रहे ऋषि मुनियों के साथ तो लगातार संपर्क में रहे हैं लेकिन यह कलियुग में पहली बार है कि उनकी लीलाये मुख्य धारा के भक्तों तक पहुँच रही हैं | नीचे दी गई घटना हनुमान जी ने मातंगों को कुछ महीने पहले बताई जब वे उनसे मिलने आये थे | यह घटना हनुमान जी की उन कलियुग लीलाओं का भाग है जो सेतु द्वारा समझी और प्रकाशित की जा रही हैं | इन लीलाओं में वह ब्रह्मज्ञान अपने शुद्धतम रूप में मौजूद है जो पिछले कुछ सदियों में तोड़े मरोड़े जाने के कारण वेदों पुरानों से गायब हो गया है |]
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महाभारत युद्ध में जब दोनों तरफ की सेनाएं कुरुक्षेत्र की रणभूमि में आ गई तब मेरे प्रभु (विष्णु कृष्ण के रूप में ) ने मुझसे कहा - “हे हनुमान , पांडवों ने अपने जीवन में हमेशा दुःख भोगे हैं | उनके पिछले कर्मों ने इनको हमेशा दुःख और दर्द ही दिए हैं | जैसा कि मैं देख सकता हूँ , इस युद्ध में भी उन्हें अपने पिछले कर्मों के कारण हार का सामना करना पड़ेगा | लेकिन यह युद्ध अब केवल पांडवों का युद्ध नहीं है | यह युद्ध पूरी मानवता के कल्याण का युद्ध है | इसलिए पांडवों के पूर्ण अस्तित्व को शुद्ध करना आवश्यक है ताकि वे अपने दुर्भाग्य से पीछा छुड़ाकर इस युद्ध को जीत सकें | इनके पूरे अस्तित्व को शुद्ध करने हेतु युद्ध से पहले इनके लिए नवदुर्गा पूजा कराना आवश्यक है |”

पूजा में भगवान् कृष्ण ने वहाँ उपस्थित सभी लोगो को यह बताया था कि देवी दुर्गा कैसे अपने 9 रूपों में किसी मनुष्य के पूरे अस्तित्व को शुद्ध करती हैं |
उन्होंने बताया :
जब पानी में अशुद्धियाँ होती हैं तब हम उसे आसवन विधि से शुद्ध करते हैं (पानी को वास्पिकृत करके पुनः द्रवित करने की प्रक्रिया)| ठीक उसी प्रकार देवी दुर्गा किसी मनुष्य के पूरे अस्तित्व को खींचकर उसे वापिस शुद्ध रूप में पुनः मुक्त कर देती हैं |

किसी भी मनुष्य का अस्तित्व समय के तीन आयामों में फैला होता है - भूत , वर्तमान और भविष्य | देवी दुर्गा अपने पहले तीन रूप (शैलपुत्री , ब्रह्मचारिणी तथा चन्द्रघंटा) मनुष्य के भूत को शुद्ध करने के लिए लेती हैं | वे अपने अगले तीन रूप (कुष्मांड, स्कन्दमाता तथा कात्यायिनी) किसी मनुष्य के वर्तमान को शुद्ध करने के लिए लेती हैं | वे अपने आखिरी तीन रूप (कालरात्रि , महागौरी और सिद्धिदात्री) मनुष्य के भविष्य को शुद्ध करने के लिए लेती हैं | इस तरह मनुष्य का पूर्ण अस्तित्व शुद्ध हो जाता है |

भूत का शुद्धिकरण :
हमारा भूतकाल तीन चीजों से बना है :
(1) स्मृतियाँ जो बाहरी दुनिया के बारे में बनी हुई हैं : हमने भूतकाल में जो कुछ भी अनुभव किया है उसकी स्मृतियाँ हमारे पास हैं | लेकिन शैलपुत्री रूप में देवी दुर्गा की कोई स्मृतियाँ नहीं है (शैल अथवा चट्टान की अपनी कोई स्मृति नहीं होती) | बजाय उसके वे भक्तों की स्मृतियों को शुद्ध करती हैं | आघात , विश्वासघात आदि की बुरी स्मृतियाँ दुर्भाग्य लाती हैं अतः उन्हें परिष्कृत करना आवश्यक है |
(2) हमने अपने अस्तित्व के चिन्ह जो बाहरी संसार पर छोड़े हैं : हमने भूतकाल में जो कुछ भी किया है उसके चिन्ह बाहरी संसार पर छोड़े हैं | अगर हमने अच्छे काम किये हैं , चाहे उन्हें करते समय हमें किसी ने देखा न हो , ब्रह्माण्ड ने हमें अवश्य देखा है और उन कामों के चिन्ह ब्रह्माण्ड में मौजूद हैं | अगर हमने बुरे काम किये हैं , चाहे उन्हें करते समय हमें किसी ने न देखा हो लेकिन ब्रह्माण्ड में उसके चिन्ह मौजूद हैं | लेकिन देवी दुर्गा अपने ब्रह्मचारिणी रूप में बाहरी संसार से बिलकुल अलग थलग हैं | वे अपने अस्तित्व के चिन्ह बाहरी संसार पर नहीं छोडती | बजाये उसके वे हमारे छोड़े गए चिन्हों को परिष्कृत करती हैं | बुरे कामों के चिन्ह हमारे लिए दुर्भाग्य लाते हैं , इसलिए उनका परिष्कृत होना आवश्यक है |

(3) हमारा स्वभाव : हम सबका एक विशिष्ट स्वभाव है | दो भिन्न लोग एक ही परिस्थिति में दो भिन्न तरीकों से प्रतिक्रिया देते हैं | हमारा स्वभाव चन्द्रचिन्ह अर्थात राशि द्वारा निर्धारित होता है | देवी दुर्गा अपने चन्द्रघंटा रूप में चन्द्र द्वारा प्रभावित नहीं होती | उनका केवल एक ही स्वभाव है - हमारे स्वभावों को परिष्कृत करना |

वर्तमान काल का शुद्धिकरण :
हमारा वर्तमान भी तीन चीजों से बना है :
(1) जो सूचना की बारिश हम पर हो रही है : हम बाहरी संसार से विभिन्न रूपों में सूचनाये ले रहे हैं -प्रकाश की किरणों से हमें चीजों के रंग तथा आकार आदि पता चलते हैं ; ध्वनि की तरंगों से हमें चीजों की ध्वनि पता चलती है ; गंध के बहाव से हमें चीजो की गंध पता चलती है आदि आदि | ये सूचनाये हमें प्रभावित करती हैं इसलिए इनका शुद्धिकरण आवश्यक है | देवी कुष्मांड , कुष्मांड अर्थात ब्लैक होल की तरह सभी नकारात्मक सूचनाओं को सोख लेती हैं |

(2) सभी सूचनाये जो हमारी इन्द्रियों द्वारा समझी जा रही हैं : कई बार हमें अच्छी सूचना प्राप्त होती है लेकिन हमारी इन्द्रियां उसे गलत समझ लेती हैं | उदाहरण के तौर पर हमें कोई सही सलाह दे और हम अपने पूर्वाग्रह के कारण उसे गलत समझ बैठें | [जैसे कि कहावत है , सावन के अंधे को सब हरा दीखता है ] अतः हमारी इन्द्रियों की सूचना को समझने की योग्यता को परिष्कृत करना भी आवश्यक है | स्कन्दमाता उस योग्यता (स्कन्द) को परिष्कृत करती हैं |

(3) वर्तमान में हमारी मनोदशा : मनोदशा को हम जीव जंतुओं के आधार पर भी वर्गीकृत कर सकते हैं | उदाहरण के तौर पर, कभी हम गाय की तरह शांत होते हैं , कभी बिल्ली की तरह बेचैन , कभी पक्षी की तरह आजाद तो कभी कुत्ते की तरह दब्बू और कभी बैल की तरह आक्रामक , आदि आदि | देवी दुर्गा अपने कात्यायनी रूप में हमारी मनोदशा को परिष्कृत करती हैं |

भविष्य का शुद्धिकरण:
भविष्य तीन चीजों से बना है :
(1) भविष्य का डर : भविष्य के बारे में हमारे डर हमें प्रभावित करते हैं और दुर्भाग्य लाते हैं | अतः उन्हें परिष्कृत करना आवश्यक है | देवी दुर्गा अपने कालरात्रि रूप में हमारे बेतुके डरों को खींचकर बाहर निकालने का काम करती हैं |
(2) भविष्य के बारे में कोरी कल्पना और स्वपन : अगर हम बहुत ज्यादा कोरी कल्पनाओं में डूबे रहें तो उससे भी हमारे भाग्य पर असर पड़ता है | देवी दुर्गा अपने महागौरी रूप में हमारे सपनों और कल्पनाओं को शुद्ध करती हैं |

(3) जो काम किया है उसके फल की भविष्य में सम्भावना : कई बार हम काम तो सही से करते हैं लेकिन जब फल लेने का समय आता है तब सब गड़बड़ हो जाता है | अतः जो काम हमने किया है उसके फलों का परिष्करण आवश्यक है जो देवी दुर्गा अपने सिद्धिदात्री रूप में करती हैं |

Monday, April 4, 2016

भगवान प्रेम स्वरूप है


एक बार एक व्यक्ति ने सन्त सुक्रात से पुछा मानवी जीवन में सबसे मुल्यवान वस्तु कौन सी हैं। उनका उत्तर था। प्रेम पूछने वाला चैंक पडा उत्तर उसकी अपेक्षा के विपरीत था। उसने सोचा था आत्मा परमात्मा या इनसे सम्बन्धित कोई अन्य दार्शनिक शब्द उनके मुख से निकलेगा। पर सन्त के उत्तर से वह आवाक रह गया।
    प्रेम संसार की अकेली ऐसी अपार्थिव चीज है जिसे हर कोई प्राप्त करना चाहता है। चाहे वो अमीर हो या गरीब शिक्षित हो या अशिक्षित सब समान रूप से इसकी उपेक्षा दूसरों से करते हैं। मनुष्य का सारा दर्शन समस्त काव्य सम्पूर्ण धर्म एवं समग्र संस्कृति इसी एक शब्द से अनुप्रेरित है।

    जीवन में सवंेदना की कमी सबसे बडी दरिद्रता हैं। जिसके भीतर का यह स्रोत सूख गया उससे बढकर दीन हीन इस संसार में कोई दूसरा नही हैं। हम अपने अन्दर प्रेम तत्व विकसित करके परमात्मा के समीप पहुंच जाते हैं। सबसे उत्तम प्रकार का प्रेम भक्ति बताया गया हैं। ईश्वर के प्रति प्रेम की पराकाष्ठा ही समर्पण हैं।

Friday, April 1, 2016

तव्चा की प्राकृतिक अथवा कृत्रिम सुन्दरता

तव्चा की प्राकृतिक अथवा कृत्रिम सुन्दरता 

वर्ष २०१४  में सेंटर फॉर साइंस में कईं सौंदर्य प्रसाधनों की जांच की गई , इनमे तव्चा का रंग निखारने का दवा करने वाली क्रीम , उम्र कम करने वाली लिपस्टिक आदि ७३  कॉस्मेटिक उत्पाद शामिल थे।  जांच के उपरांत तो तथ्य सामने आए, वे किसी को भी अचंभित  कर सकते हैं।  ३२ फेयरनेस क्रीमों में से १४ में भारी मात्रा में मर्करी ( पारा ) पाया गया ड्रग्स एवं कॉस्मेटिक एक्ट के निर्देशानुसार, सौंदर्य उत्पादों में मर्करी  के प्रयोग पर पाबंदी है ; जबकि इन उत्पादों में मर्करी की मात्रा ४० प्रतिशत व  हाइड्रोकिवनों, लैंड , निकल , क्रोमियम तथा स्टेरॉएड आदि रसायनों की मात्रा ६० प्रतिशत तक पाई गई। 
 इसके आलावा कुछ रसायन ऐसे भी है। जिनका सौंदर्य प्रसाधनों में बहुतायत से इस्तेमाल होता है।  इनमे हाइड्रोकिवनों एक अच्छा ब्लीचिंग एजेंट माना जाता है , लेकिन इसका नियमित इस्तेमाल तव्चा को बदरंग कर सकता है।  ग्लाइकोलिक एसिड , रेटिनॉल और बीटा हयडरक्सी एसिड त्वचा को गोरा व चमकदार बनाने के लिए इस्तेमाल किए जाते है , जिनसे तव्चा की प्राकृतिक रूप से अल्ट्रावॉयलेट किरणों से लड़ने की क्षमता पर असर पड़ता है।  तव्चा जल्दी बूढ़ी दिखने लगती है और चेहरे पर झुर्रिया आने लगती है। ट्रेटिंनॉएन , त्वचा को टोन करने के लिए किया जाता है , लेकिन इसके अधिक इस्तेमाल से तव्चा पर लाल निशान पड़ जाते हैं।  इससे तव्चा पतली व  रूखी पड़ जाती है।  इसके अलावा सिलिकॉन का प्रयोग क्रीम को मुलायम बनाने के लिए इस्तेमाल होता है , लेकिन इससे एलर्जी भी हो सकती है। 
 तव्चा संबंधी कुछ शोधों के अनुसार, क्रीम तथा अन्य प्रसाधनों से प्राकृतिक रंग में २० प्रतिशत तक गोरापन संभव है।  इसे ज्यादा का दावा करने वाले उत्पाद केवल भ्र्म  पैदा करते हैं।  दरअसल ये  क्रीम केवल सूर्य की किरणों से बचाव करती है, ऐसी तव्चा में मेलेनिन का निर्माण कम होने की वजह से होता है।  बिना सोचे-समझे, रंग गोरा करने की चाह में इनका अधिक इस्तेमाल नुकसान ही पहुंचाता है। 
 आमतौर पर २५ से २८ दिनों में हमारे शरीर में तव्चा की नई परत बनती है और इससे तव्चा अपना रंग बदलती है लेकिन किसी ब्लीचिंग एजेंट के सम्पर्क में आने पर तव्चा की बनने वाली नई परत बहुत शीघ्र ही उपर आ जाती है।  तो हमारी तव्चा अल्ट्रावयलेट किरणों के प्रति संवेदनशील हो जाती है ; जबकि हमारी तव्चा के मेलेनिन पिगमेंट्स सूर्य की अल्ट्रावॉयलेट किरणों से उसे बचाते है। 
 विशेषज्ञों के अनुसार , रसायनों के प्रयोग से हमारी तव्चा पर सिर्फ पॉलिश होती है।  असली खूबसूरती व चमक के लिए तव्चा का आंतरिक रूप से स्वस्थ होना जरूरी है और ऐसा तभी सम्भव है , जब तव्चा को स्वस्थ रखने व रक्त को शुद्ध करने के लिए जरूरी सभी पोषक तत्वों का सेवन किया जाएगा।  इसके अतिरिक्त आयुर्वेदिक औषधियों , जैसे - गिलोय , खदिर , सारिवा , आँवला आदि का सेवन विशेषज्ञों के परामर्श के आधार पर किया जा सकता है।  इसके अलावा तव्चा की साफ़-सफाई का विशेष ध्यान रखना चाहिए। 
तव्चा को साफ रखने के लिए देशी तरीकों में मुलतानी मिट्टी  व काली मिट्टी का प्रयोग , बेसन-हल्दी डीके प्रयोग प्रमुख है।  तव्चा की मृत कोशिकाओं की सफाई में कच्चे दूध या मलाई को रुई में भिगोकर उसे तव्चा पर मलने से भी लाभ होता है।  चंदन को घिसकर तव्चा पर लगाने से भी तव्चा चिकनी, स्वस्थ व चमकदार बनती है।  देशी तरिके अपनाकर बनाए गए  फेस पैक भी तव्चा की रंगत निखारने में लाभकारी होते है।  रंगत निखारना एक बात है , लेकिन उसे गोरा बनाने के प्रयास में पूरी तरह जुट जाना अलग बात है ; क्योकि कभी भी साँवले रंग की तव्चा को गोरा नहीं बनाया जा सकता , थोड़े समय के लिए भले ही उस पर मेकअप करके गोरा बना दिया जाए  , लेकिन स्थायी रूप से गोरापन पाना सम्भव नहीं है।  इसलिए अपनी इस मानसिकता को बदलना होगा की गोरा रंग ही सूंदर होता है और अच्छ दीखता है।  साँवला रंग भी उतना ही सलोना लगता है , यदि तव्चा स्वस्थ हो।