Thursday, May 30, 2013

New Book for Gayatri Pariwar- युग निर्माण-26



Message of ACHARYASHRI
 
I have always been conscious of my duties and responsibilities towards my children. But there is only one thing to which I would like to draw the attention of the parijans. I want each on e of them to contribute their time and resources to the maximum extent to the mission, because for accomplishing great works great persons and resources are needed. Every individual belonging to Gayatri Parivar is potentially a great person. He has ignorantly worn a thin mask of smallness. His real face will be visible as soon as this mask is removed. The parable of a lion cub who was brought up in a herd of sheep applies to each one of the Pragya-parijans.
            My legacy and message to all my close and intimate Pragya-parijans is that they should learn something from my life and find out the reality behind the process of my sadhana. They should themselves examine how far I have succeeded and try to follow me intelligently and resolutely according to their capabilities. This is a bargain of profit, not of loss.
            People might consider me a great scholar, a Tapasvi, a seer, a mystic, a social reformer, a genius. However, in my own estimation, I’m only an ordinary person, with a heart brimming over with love and compassion for all fellow human beings. All my life has been spent in the “business” of love sharing love all-round me and inspiring people, by example, to love, I purchased this commodity-love at an exorbitant cost and have shared it with others almost free. – Shriram Sharma Acharya
Last Message
My soul’s embodied sojourn of Earth is about to come to a close. Every breath of this long life-span of eighty years has been spent, in a spirit of total self-surrender to the Indwelling, All-pervading Divinity, while selflessly and single pointedly carrying out the behests of my Divine Gurusatta, living in astral-causal sheaths in the remote Himalayas. The stupendous and herculean task of uplifting humanity into the Golden Era of Satyug (Age of Truth) will be far more swiftly and effectively accomplished by working, as a liberated soul, through the self-effectuating and all-conquering divine cosmic energies of th4e higher planes of consciousness, instead of somehow carrying on the work with this worn-out physical sheath. Hence, the decision to cast it off.
            The light of which I have been an instrument and medium will not extinguish with my withdrawal from the physical realm. I assure all my parijans that I will continue living and working with them at Shantikunj and elsewhere in my astral-causal body as a concrete presence and guide, help and inspire them in their efforts to lead humanity into the Golden Era of Truth, Light and Immortality. I will finally merge into the Blissful Luminous causal self at the end of this century, after humanity has taken decisive leap into the cosmic consciousness and attained the light of New Era of spiritual Unity, Harmony and Peace.
            The bonds of spiritual kinship that bind us will continue growing deeper and stronger with the passage of time.
            My soul is like a Brahma-Kamal (Lotus) in full bloom. Throughout this life I have sown numberless seeds of this lotus in aspiring souls who have turned to me. I am sure, these seeds, wherever they have fallen on fertile soil, will sprout and grow up into full-bloomed Brahma-Kamals themselves and become the torch-bearers for the spread of Divine Light on Earth.
            My blessings, love and prayer-filled wishes to all my parijans. I will always be with them in their selfless and noble endeavours in this divine work. – Shriram Sharma Acharya

New Book for Gayatri Pariwar- युग निर्माण-25

पुस्तक का प्रारम्भ-प्रयोजन
हम अक्सर गायत्री परिवार (विशेषत: सहारनपूर व कुरूक्षेत्र) की गोष्ठियों को सम्बोधित करने क्षेत्रों में जाते रहें हैं। वहाँ लोगों का एक प्रश्न बहुत सुनने को मिलता हैं। भार्इ साहब कुछ ऐसा सम्बोधित करें जिससे प्रचार कार्य में तेजी आए यहाँ गुरू का काम सुचारू रूप से नहीं चल पा रहा हैं। यह प्रश्न हम सभी प्रज्ञा परिजनों को बैचेन करता है व सोचने को मजबूर करता है कि किस प्रकार हम अपना निर्माण करे व गुरुसत्ता की अपेक्षाओ पर खरे उतरें। यह पुस्तक इसी सन्दर्भ में प्रकाशित की गई है जिसके निम्न तीन उद्देश्य सोचे गए हैं:-
1. बड़ी संख्याँ में कार्यकर्ताओं की खोज, उनका प्रशिक्षण, नियोजन एवं उनमे ब्रह्मवर्चस का अभिवर्धन।
2. मिशन की रुपरेखा एवं कार्य योजना का विवरण।
3. विभिन्न गतिविधियों में उत्पन्न समस्याओ का निराकरण।
मैं (राजेश अग्रवाल) जब पी एच डी के कार्य से दिसम्बर 2012 में निवृत हुआ तो अधिक दबाव के कारण सर्वाइकल आदि से परेशान था इस कारण घर में अधिक विश्राम करता था। परंतु अंतरात्मा में यही प्रश्न उठता रहता कि इस खराब स्वास्थ्य से भगवान का कार्य कैसे किया जाए?
इससे मैं बिस्तर पर पड़े-पड़े अधिक ध्यान, जप व मनन चिन्तन करने लगा। लेटे-2 प्रभु कृपा से मेरा जप में मन लगने लगां कभी-2 बठैकर कुछ लिखने की इच्छा होती। एक डायरी पेन लेकर लिखने बैठ जाता। लिखते-2 ये विचार एक छोटी पुस्तक का रूप लेते चले गए।
यह पुस्तक उन युग सैनिको एवं प्रज्ञापुत्रों के लिए लिखी गयी है जो देवात्मा हिमालय के ‘‘21वी सदी उज्जवल भविष्य’’ के मिशन को अपने लहु से सीचना चाहते है। आत्ममंथन एवं चिंतन के आधार पर समर्पण से आत्मदान तक की यात्रा पूरी करना चाहते है, ऋषि दधीचि के समान जो अपनी अस्थियाँ भगवान के कार्य के लिए दान करना चाहते है, धरती पर देवत्व के अवतरण के इस महान यज्ञ में अपने जीवन की आहुति देने के लिए जिनका हृदय मचलता है। जिनकी आत्मा मानव जीवन की नश्वरता का बोध कर चुकी है व इस क्षण भंगुर जीवन में आत्म ज्ञान- ब्रहाज्ञान के सर्वोच्य लक्ष्य पाने के लिए प्राणपण से कटिबद्ध है ऐसी महान आत्माएँ ही ब्रहाकमल के रूप में खिल सकेंगी व भविष्य में विश्वामित्र की भूमिका निभा सकेंगी।
जब भी कोर्इ आत्मा मंगलमय भगवान से अपना सम्पर्क बनाना चाहती है अथवा मंगलमय भगवान जिस आत्मा को अपनी शरण में लेना चाहते है तो आत्म कल्याण, लोक कल्याण की पावन प्ररेणाँए उस आत्मा के अन्त:करण में उदय होने लगती है। वह र्इश्वरीय कार्य को पूरा करने के लिए समर्पित होकर भावना पूर्वक समय दान, अंशदान देना प्रारम्भ कर देता है। यही समर्पण आत्मदान के रूप में अपनी पूर्णता तक पहुँचता है। ऐसे ही 24,000 आत्मदानियों की रूपरेखा हिमालय के ऋषियों के द्वारा तैयार की जा रही हैं। परमब्रहृम परमात्मा की शक्ति को धरण किए हिमालय के उन महातपस्वियों के आगे असम्भव कुछ भी नहीं हैं। भारत माता व धरती माता के परित्राण का संकल्प लेकर जब वो अपना शक्ति प्रयोग करना प्रारम्भ करते हैं तो इसे महाकाल के तांडव नृत्य की संज्ञा दी जाती है। ऐसा ही एक प्रयोग उन्होंने भारत की स्वतन्त्रता के लिए श्री अरविन्द व श्री रमण को माध्यम बनाकर किया जिससे हजारो बलिदानी पैदा हो गए। इस बार आत्मदानियों का निर्माण होना है क्योंकि युग का निर्माण आत्मदानियों के बलबूते पर होना हैं।
इसके लिए तीन वर्ग के लोग चाहिए। पहले वर्ग में पूर्ण आत्मदानी लोग नेतृत्व हेतु चाहिए। ऐसे लोग यद्यपि कम मिलेगें परन्त बहुत शक्तिशाली होगें। आत्मदान की भूमिका में जो भी अग्रसर होगा, सनातन धर्म के रहस्य उसके भीतर से प्रस्फुटित होगें। ये लोग श्रेष्ठतम स्वर के साधक होगें; सिद्ध पुरूष, महापुरूष होगें। सूक्ष्म व कारण शरीर में विद्यमान हिमालय के ऋषियों से सम्पर्क बना पाने में ये ही आत्माँए सक्षम होगी। घरती पर हिमालय के ऋषियों का सीधे प्रतिनिधित्व करेगी। उनकी विश्वव्यापी योजनाओं को क्रियान्वन करने की क्षमता भी इन्हीं आत्मदानी आत्माओं में होगी।
दूसरे वर्ग में वो आत्माँए आँएगी जो साधना में रूचि लेगी तथा तप के द्वारा अपने पूर्व जन्मों के कुसंस्कारों व प्रारब्ध को काटने का प्रयास करेगी। संसारिक वासनाओं, तृष्णाओं, ऐषणाओं से संघर्ष कर साधना में प्रगति करने की इच्छुक होगी। ये पहले वर्ग की सहयोगी आत्माँए होगी। यद्यपि हिमालय के ऋषियों का संदेश, संरक्षण इनको भी मिलेगा परन्तु ये बहुत स्पष्ट उनका सन्देश नहीं सुन पाएगी। अत: मूलत: इन सभी बातों में ये पहले वर्ग पर निर्भर रहेगी। निष्काम कर्म योगी की तरह ये सनातन धर्म का प्रसाद जन-जन तक बाँटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाँएगी।
तीसरे वर्ग में वो आत्माँए होगी जो साधना करने की मन: स्थिति में तो नहीं होगी परन्तु सनातन धर्म के सिद्धान्तों को ठीक से समझने, अनुसरण करने में रूचि दिखाँएगी। अपनी कष्ट कठिनाइयों के निराकरण के लिए मूलत: ये सनातन धर्म की शरण में आँएगी। इनके कष्टो को दूर करने में व इनको सनातन धर्म का सही स्वरूप समझाने में उपरोक्त दोनो वर्ग की आत्माँए सहायता करेगी।
लेखक न कोर्इ सफल साधक होने का दावा करता है न कोर्इ बड़ा कार्यकर्ता। हाँ एन, आर्इ, टी कुरूक्षेत्र में पढ़ाते-2 बुद्धि का उपयोग करने का अभ्यस्त अवश्य है। साथ-2 यह भाव भी बनाने का प्रयास करता है कि भगवान यह जो जीवन आपने दिया है यह आपके काम आ जाए। देव सत्ताओं की कृपा से यह जो लेखन कार्य हुआ है इसका लाभ सभी गायत्री परिजन उठाएगें। परंतु मेरी अल्प बुद्धि व समर्पण की कमी के कारण इसमें काफी त्रुटियाँ भी होगी। बीच-2 विषय थोड़ा संवेदनशील भी बनता रहा है व कहीं-2 कडे शब्दो का प्रयोग भी हुआ है। मिशन के अनुभवी कार्यकर्ता, वरिष्ठ भार्इ बहन मेरा मार्गदर्शन करें जिससे इस पुस्तक को और अधिक सुंदर बनाया जा सकें, गायत्री परिवार के कार्यकर्ताओं के लिए उपयोग सिद्ध हो सकें।
इस पुस्तक में हमने लेखक का नाम देना उचित नहीं समझा क्योंकि इसको हम गायत्री परिवार के हर परिजन की आवाज के रूप में देखना चाहते हैं। पूज्यवर की देववाणी हर परिजन को अल्प या अधिक मात्रा में सुनार्इ देती हैं। जो भी परिजन अपनी प्ररेणाएँ, अपने अनुभव, अपने हृदय की वेदना इस पुस्तक के माध्यम से प्रकट करना चाहें उसका स्वागत है। आवश्यक है कि वो विषय से भटके नहीं, किसी व्यक्ति विशेष पर व्यंग (comment) ना करें। यह पुस्तक हमारे मिशन का एक open platform बनें, सही मायनों में प्रजातंत्र का अर्थ है प्रत्येक को अपनी आवाज उठाने का मौंका मिलें। जो भी परिजन इस पुस्तक के गठन में अपना योगदान देना चाहे, वितरण में सहयोग दे सकें सभी का स्वागत है। पुस्तक की कम्प्यूटर कापी (soft copy) हम सी डी (C.D.) से भेज सकते है जो चाहे तो क्षेत्रीय स्तर पर भी पुस्तक छपवा सकते है। Soft Copy Blog से भी डाउनलोड कर सकते है।
यह पुस्तक मिशन का संविधान बने व आगे बढ़कर इस राष्ट्र का सविंधान बने हमारी यही इच्छा हैं प्रार्थना है।
हम भाग्यशाली है जो सस्ते में निपट रहे हैं। असली काम और बड़े-बड़े त्याग बलिदान अगले लोगो को करने पड़ेगे। अपने जिम्में ज्ञानयज्ञ का समिधदान और आज्याहुति होम का मात्र प्रथम चरण आया है। आकाश छूने वाली लपटों में आहुतियाँ अगले लोग देगें। हम प्रचार और प्रसार जैसी नगण्य प्रक्रियाँए पूरी करके सस्ते में छूट रहे हैं। रचनात्मक और संघर्षात्मक अभियानों का बोझ तो अगले लोगो पर पडेगा।
हमारा आज का ज्ञानयज्ञ छोटा सा है। उसका उत्तरदायित्व भी नगण्य सा हम लोगो के कंधे पर आया है। युग निर्माण की विशालकाय प्रक्रिया में यह बीजारोपण मात्र है। इसका श्रेय सुअवसर हमें मिला हैं तो उसे करने के लिए उत्साह के साथ आगे आना चाहिए। प्रस्तुत छोटे से क्रिया कलाप को, ज्ञान यज्ञ के प्रस्तुत कार्यक्रम को गतिशील बनाने के लिए हमें बिना कृपणता दिखाए, अपने उत्तरदायित्व निबाहने के लिए निष्ठा और उल्लासपूर्वक अग्रसर होना चाहिए। इस स्तर के लोग कृपणता बरतें तो उन्हें बहुत मंहगी पडेगी। लडार्इ के मैदान से भाग खडे होने वाले भगोडे सैनिको की जो दुर्दशा होती है, अपनी भी उससे कम न होगी।
-पृष्ठ 17 (ऋषि युग्म का उदबोधन)अंकुश

Sunday, May 26, 2013

New Book for Gayatri Pariwar- युग निर्माण-24


            यह ऐसा पूर्ण दरबार है, जहाँ से कोर्इ खाली हाथ वापस नहीं लौटता। पूज्यवर के सान्निध्य में आकर ‘‘नास्तिक’’ ‘‘आस्तिक’’ बन जाता है। जो आस्तिक है, केवल ईश्वर को मानता भर है, उसके भीतर ईश्वर को जानने की जिज्ञासा जन्म ले लेती है, यानी ‘‘आस्तिक’’ ‘‘जिज्ञासु’’ बन जाता है। और जो जिज्ञासु है, वह ज्ञान का अनमोल खजाना पा  लेता है। जिज्ञासुसे ज्ञानीबन जाता है। जो पहले से ही ज्ञान पा चुका है, वह ज्ञानीभक्त बनने के मार्ग पर अग्रसर हो जाता है। इस प्रकार गुरूसत्ता के चरणों में बैठकर निरन्तर एक विकास की श्रृंखला चलती रहती है-नास्तिक से आस्तिक, आस्तिक से जिज्ञासु, जिज्ञासु से ज्ञानी, ज्ञानी से भक्त।

जिज्ञासु- हे भगवन्! मुझे लगता है कि मैं अपनी इच्छाओं का गुलाम बन चुका हूँ। जितना इनके बंधन से मुक्त होना चाहता हूँ, उतना ही ये मुझे जकड़ लेती हैं। मैं क्या करूँ?
महर्षि- सोच कर देखो, पिंजरे में बंद एक पक्षी के बारे में! वह पिंजरे से मुक्त होना चाहता है। इसलिए बार-बार अपनी चोंच से उसकी सलाखों पर प्रहार करता है। अपने पंखों को उन सलाखों पर मारता है। परिणाम? उसकी चोंच लहूलुहान हो जाती है और पंख जख्मी! ठीक यही स्थिति तुम्हारी है। अपने मन रूपी पिंजरे में तुम कैद हो। इस पिंजरे की सलाखें तम्हारे मन में उठती इच्छाएँ है। तुम इस पिंजरे से मुक्त होने के लिए इन सलाखों से टकराते हो यानी इच्छाओं को जबरन दबाने की कोशिश करते हो, इसलिए बार-बार हार जाते हो।

जिज्ञासु- तो फिर क्या उपाय है भगवान? मैं अपने मन के पिंजरे से कैसे मुक्ति पाऊँ?
महर्षि- यदि पंछी को पिंजरे से बाहर आना है, तो उसे किसी ऐसे को खोजना होगा, जिसके पास पिंजरे की चाबी है और वह उस चाबी से पिंजरा  खोल दे। तभी पंछी गगन में स्वछंद उड़ान भर सकता है।

जिज्ञासु- मेरे मन के पिंजरे की चाबी किसके पास है भगवन्?
महर्षि- सद्गुरू के पास। उनके पास ही वह ज्ञान की चाबी है, जिससे मन का पिंजरा खुलता है। आत्मज्ञान( ब्रह्मज्ञान) पाकर ही एक व्यक्ति अपने मन के स्तर से ऊपर उठकर अपने आकाश में यानी ब्रह्मरंध्र में स्वतंत्र रूप से उड़ान भर पाता है।

जिज्ञासु- गुरूवर, मुझे साधना में पहले बहुत से दिव्य रूपों के दर्शन हुआ करते थे। पर अब नहीं होते? क्या मुझसे कोई भुल हो गई है?
महर्षि- न! ऐसा क्यों सोचता है? बात बस इतनी है कि छोटे बच्चों की किताबों में चित्र दिए जाते है, बड़े बच्चों की किताबों में नहीं। अब तु भी बड़ा हो गया है। इसलिए बिना चित्र वाली साधना करनी सीख जा!

जिज्ञासु- भगवन्, आपसे ज्ञान लिए हुए और इस मार्ग पर चलते हुए मुझे कई साल हो गए हैं। पर कई बार ऐसा लगता है कि मैं वहीं का वहीं खड़ा हूँ। मैंने कोई उन्नति नहीं की।
महर्षि- जो यात्री ट्रेन के प्रथम श्रेणी के डिब्बे (First class coach ) में सफर करते हैं, वे रात को बार-बार जागकर यह नहीं देखते कि कहीं उनका स्टेशन तो नहीं आ गया। वे तो डिब्बे के खिड़की-दरवाजे बंद कर निश्चिन्त हो सोते हैं। क्योंकि उनके स्टेशन पर उन्हें उतारने की जिम्मेदारी उस डिब्बे के गार्ड की होती है। तुम भी प्रथम श्रेणी के डिब्बे में सफर कर रहे हो। मैं तुम्हारा  गार्ड हूँ। इसलिए तुम्हें यह चिंता करने की जरूरत नहीं कि तुम कहाँ तक पहूँचे हो। तुम्हें मंजिल तक ले जाना मेरी जिम्मेदारी है। बस तुम इस ट्रेन में बैठे रहना। उतर गए, तो गड़बड़ हो जाएगी। यानी अध्यात्म-मार्ग पर सद्गुरू द्वारा चलाई गई ट्रेन में बैठा हर शिष्य अपनी मंजिल पर पहूँचता ही है। इसलिए स्वयं को गुरू को समर्पित कर शिष्य को चिंता रहित हो जाना चाहिए।

जिज्ञासु- भगवन्, आपकी इस अनंत कृपा का मोल तो हम चुका नहीं सकते। पर फिर भी गुरू-दक्षिणा स्वरूप कुछ देना चाहते है, क्या अर्पित करें?
महर्षि- यदि कुछ देना चाहते हो, तो एक वचन दो कि तुम अडिगता से अध्यात्म-मार्ग पर चलोगे। आत्मोन्नति के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहोगे। अज्ञानता के अंधकार में डूबे इस समाज को ज्ञान के दीपक से आलोकित करोगे। यही मेरी गुरू-दक्षिणा होगी।

New Book for Gayatri Pariwar- युग निर्माण-23

मनुष्य को पतन-पराभाव के गर्त में गिरा देने वाली तीन दुष्प्रवृत्तियाँ हैं- वासना, तृष्णा और अहंता। शिश्नोदर परायण वासना-तृष्णा के लोभ, मोह में जकड़े रहकर किसी प्रकार के कोल्हू के बैल की तरह नियति चक्र में परिभ्रमण करते हुए दिन गुजार लेते हैं। पर अहंता का चैन कहाँ? वह सारी प्रशंसा, सारा बड़प्पन, सारे अधिकार अपने ही हाथ में रखना चाहती है। दूसरे की सांझेदारी उसे सहन नहीं। इसी विडंबना ने संसार में सर्वाधिक विग्रह उत्पन्न किए हैं। लगता तो यह है कि लालच के कारण अपराध होते हैं। पर वास्तविकता यह है कि अहंता ही जहाँ-तहाँ टकराती और प्रतिशोध से लेकर आक्रमण, अपहरण, उत्पीड़न के विविध-विध अनाचार उत्पन्न करती है। अन्याय के अवरोध तो कहने भर की बात है। वह तो जहाँ-तहाँ जब-तब ही दृष्टिगोचर होते हैं। वास्तविकता यह है कि सामंतवादी अनाचारों की बुभुक्षा नहीं अहंता ही उद्धत बनी और टकराई है। अनाचारों का विश्व इतिहास पढ़ने से प्रतीत होता है कि अभाव या अन्याय के विरूद्ध नहीं, अधिकांश विग्रह हौर युद्ध मूर्धन्य लोगों ने अहंता की परितृप्ति के लिए खड़े किए हैं। कंस, रावण, हिरण्यकश्यप, वृत्रासुर, सहस्त्रबाहु, जरासंध जैसे पौराणिक, सिकंदर, नैपोलियन, चंगेजखाँ, आल्हा-ऊदल जैसे बर्बर लोगों ने जो रक्तपात किए उसके पीछे उनकी दर्प तुष्टि के अतिरिक्त और कोई कारण था नहीं।
यह चर्चा इन पंक्तियों में इसलिए की जा रही है कि युग शिल्पियों के द्वारा आरंभिक उत्साह में जो मार्ग अपनाया जा रहा है, उसमें लोक मंगल का परमार्थ प्रयोजन द्रष्टव्य होने के कारण श्रेय-सम्मान एवं यश तो स्वभावत: मिलना ही है। यह पचे नहीं और उद्धत हो चले तो पागल हाथी की तरह अपना, साथियों का तथा उस संगठन का विनाश करेगा, जिसके नीचे बैठकर अपनी स्थिति बनाई है। हाथी पागल होता है तो अपनों पर ही टूटता है। इसी प्रकार लोकेषणा जब पागल होती है तो सर्वप्रथम वह साथियों को मूर्ख, छोटा, अनुपयुक्त, खोटा सिद्ध करने का प्रयत्न करती है, ताकि तुलनात्मक दृष्टि से वह अपनी विशिष्टता सिद्ध कर सके। समान साथियों में मिल-जुलकर रहने में महत्वाकांक्षी का अपना वर्चस्व कहाँ उभरता है। इसलिए उसे साथी पेड़-पादपों का सफाया करना पड़ता है ताकि समूचे खेत में एक अरण्ड ही कल्पवृक्ष होने की शेखी बघर सके।
दृष्टि पसार कर अपने चारों ओर लोकेषणा का नग्न नृत्य देखा जा सकता है। राजनैतिक पार्टियों में होते रहने वाले अंतर्कलह सिद्धांतों की दुहाई भले ही देते रहें, पर वस्तुत: वे व्यक्तियों की महत्वाकांक्षा के निमित्त ही होते हैं। कल-परसों जनता पार्टी का बिखराव होकर चुका है। कितनी ही उपयोगी संस्थाएँ पदलोलुपों ने परस्पर टकराकर अपने ही हाथों शिथिल या समाप्त कर दीं। कौरव-पांडवों से लेकर यादव कुल के लड़-खपकर समाप्त हो जाने के पीछे लालच थोड़ा और दर्प को बड़ा कारण पाया जाएगा। धर्म-संप्रदायों के जो खंड होते चले गए हैं, उन प्रचलन कर्त्ताओं में सुधारक कम और श्रेय लोलुप अधिक रहे हैं। चुनावों के समय या बाद में जो विग्रह दृष्टिगोचर होते हैं, प्रतिशोध के नाम पर जो अनर्थ होते हैं, उनमें औचित्य कम और दर्प को नंगा नाच करते देखा जा सकता है। सास-बहू की लड़ाई में यही विडंबना उछलती दृष्टिगोचर होती है। पतिदेव का पत्नियों को आतंकित करने में यही तथ्य प्रमुख होता है।
बात इस संदर्भ में चल रही है कि युग शिल्पियों को सप्त महाव्रतों को अपनाने के लिए निर्देशन किया गया है कि उनका व्यक्तित्व उभरे और उस आधार पर आत्मबल बढ़ाते हुए अधिक उच्चस्तरीय सेवा-साधन कर सकने में समर्थ हो सकें। यदि उनका पालन न किया गया और लोकेषणा से उत्पन्न विष का नियमित रूप से निष्कासन न किया गया तो वही दुर्गति होगी जो भोजन करने तथा मल-विसर्जन में उपेक्षा बरतने पर प्राण-संकट के रूप में उत्पन्न होती है। लोकसेवी को जनता सम्मान देती है। वह वस्तुत: वह सेवा धर्म की पुण्य-परंपरा का सूत्र-संचालन तंत्र का सम्मान है। सत्प्रयोजनों के लिए लोक-श्रद्धा बनी रहे, मात्र इसी एक प्रयोजन के लिए सम्मान के प्रकटीकरण की प्रथा चली है। गलती यह होती है कि सेवाभावी उसे अपनी व्यक्तिगत योग्यता का प्रतिफल मानते हैं। अहंकार में डूब जाते हैं और उसे अपना अधिकार समझने लगते हैं। जहां उसमें कमी होती है, वहां अप्रसन्न होते हैं। अधिक पाने के लिए आतुर रहते हैं। बंटवारा होने के कारण साथियों को हटाने या गिराने का प्रयत्न करते हैं। ऐसे ही हथकंडे अधिक मात्रा में सम्मान पाने के लिए प्रयुक्त किए जाते हैं। इस आपाधापी में कौन कितना सफल हुआ यह तो ईश्वर ही जाने, पर यह आंख पसार कर सर्वत्र देखा जा सकता है कि यश-लोलुपता, पद-लोलुपता, अहम्मन्यता किसी के छिपाए नहीं छिपती। उभर कर ऊपर आती है तो हर किसी को उसकी दुगर्ध आती है और बदले में घृणा, तिरस्कार पनपने लगता है। अनौचित्य के प्रति तिरस्कार का यह भाव सर्वप्रथम साथियों से आरंभ होता है। चर्चा आगे बढ़ती है और यश लोलुप के विरूद्ध असंतोष-तिरस्कार का विस्तार क्रमश: अधिक क्षेत्र में होता चला जाता है। यही है वह प्रतिक्रिया जिसके कारण यश-लोलुप तिरस्कार के भाजन बनते और जिस श्रेय-सम्मान के अपनी सेवा-साधना के कारण अधिकार थे, उससे भी वंचित होते चले जाते हैं।
बड़प्पन हर क्षेत्र में महँगा पड़ता है। धन, विद्या, सौंदर्य, पद आदि के क्षेत्र में जो अपने को बड़ा सिद्ध करना चाहता है उन्हें तरह-तरह के आडंबर खड़े करके यह प्रकट करना होता है कि उनके पास यह विशेषताएं हैं। लोग उसे देखें, समझें, सराहें। फैशन, ठाठ-बाट जैसे खर्चीले सरंजाम इस विज्ञापनबाजी के लिए किए जाते हैं, ताकि देखने वालों की आंखें उन पर आएँ। यही अनाचरण यश-लोलुपों को भी अपनाना पड़ता है। वे किसी न किसी बहाने अपनी शकल बार-बार लोगों को दिखाना चाहते हैं। इसके उन्हें अनेक ऐसे उद्धत आडम्बर रचने पड़ते हैं जिससे उनकी प्रमुखता सिद्ध होती है। स्टेज पर उनके बैठने का औचित्य या आमंत्रण न होने पर भी वहाँ जा धमकते हैं। ऐसी जगह अकारण खड़े होते हैं, जहां लोग उनकी शक्ल देखें और किसी महत्त्वपूर्ण ड्यूटी पर लगे हुए प्रतीत हों। अपने नाम फोटो छपाने के लिए आतुर रहना, किसी कार्य में दान दिया हो तो उसकी चर्चा स्वयं करने, दूसरों से कराने का रास्ता खोजना, दान-राशि के पत्थर जड़वाना जैसी बचकानी हरकतें करने वाले प्रयत्न तो यशस्वी बनने का करते हैं, पर उनकी क्षुद्रता अनायास ही प्रकट होती जाती है, फलत: वे घृणा-तिरस्कार के पात्र बनते हैं। यश के साथ परोक्ष रूप से धन लूटने की भी संभावना जुड़ी रहती है। कितने ही इसका लाभ उठाते भी हैं, किन्तु स्पष्ट है कि ऐसे हथकंडे अपनाने वाले आंतरिक दृष्टि से पतित होते चले जाते हैं। फलत: वे सेवा क्षेत्र में न आने की अपेक्षा भी अधिक घाटे में रहते हैं। तिरस्कृत, उपेक्षित, बहिष्कृत की स्थिति में पहुँचे हुए अनेक तथाकथित नेता ऐसे पाए जा सकते हैं, जो येन-केन-प्रकारेण सम्मानजनक स्थान तक जा पहुँचने, जा बैठने में तो सफल हो जाते हैं, पर संपर्क क्षेत्र में सघन श्रद्धा से क्रमश: अधिकाधिक वंचित होते चले जाते हैं।
यह अहंता के परिपोषण का प्रतिफल है, जिसे लोकसेवी अनजाने ही अपनाने लगते हैं । स्मरण रखा जाय, यह घुड़-दौड़ अत्यंत महंगी, घाटे की और मूर्खतापूर्ण है। सड़क पर नंगा नाच-नाच कर भी लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया जा सकता है, पर उससे कुछ बनता नहीं। जिस प्रकार बड़प्पन पाने के लिए उद्धत प्रदर्शन करने वाले नट विदूषक समझे जाते हैं, उसी प्रकार यश, लिप्सा भी व्यंग्य, उपहास, तिरस्कार का कारण बनती है। सामने कोई कहे भले ही नहीं, पर इस तथ्य के थोड़ा-सा पर्यवेक्षण करने पर सरलतापूर्वक चरितार्थ होते देखा जा सकता है कि प्रमुखता सिद्ध करने के लिए चित्र-विचित्र स्वांग बनाने वोल नाटक में मुखौटे, परिधान पहन कर कभी राजा, कभी ऋषि बनने वाले की तरह अपनी अवास्तविकता का ढिंढोरा स्वयं ही पीटते फिरते हैं। उसमें उन्हें श्रम, समय, धन और चातुर्य का निरर्थक अपव्यय करना पड़ता है। मूर्ख या चमचे इर्द-गिर्द इकट्ठा करके उनके बीच रंग सियार द्वारा वन-राजा बनने का ढकोसला भर खड़ा किया जा सकता है, पर उससे मिलना क्या है? परोक्ष व्यंग्य, उपहास और अपने साथ जो गहरी अवज्ञा छिपाए रहते हैं, उससे लोकसेवक विदूषक स्तर का बनकर रह जाता है। इस दुर्मतिजन्य दुर्गति का यदि पूर्वाभास रहे तो लोकसेवा के क्षेत्र में प्रवेश करने वाले आरंभ से ही सजग रहें और खिलवाड़ रचने की अपेक्षा अमानी रहने का मार्ग चुनें। विज्ञापनबाजी से बचकर नम्रताजन्य स्नेह, सौजन्य अपनाने वाले वस्तुत: अधिक श्रेयाधिकारी बनते हैं। यश-लिप्सा भी छाया की भांति है, उसके पीछे दौड़ने वाले असफल रहते और थकान, खीझ, पश्चाताप के अतिरिक्त और कुछ पाते नहीं। इनकी अपेक्षा वे कहीं नफे में रहते हैं, जो श्रेय दूसरों को बांटते हैं, स्वयं पीछे रहते हैं। विनम्र स्वयंसेवक की तरह जिन्हें अपने श्रम, साधन, परमार्थ परायणता के आधार पर मिलने वाले आत्म-संतोष को ही पर्याप्त मानने की विवेक दृष्टि रहती है, वे अनचाहा यश पाते हैं। उन्हें वह गहरा स्नेह, सद्भाव प्राप्त होता है, जिसके साथ साथियों, परिचितों का विश्वास और सहयोग प्रचुर मात्रा में जुड़ा रहता है। दूरदर्शिता इसी में है कि लोक-सेवी सच्चे मन से यश, पद-लोलुपता, अहंता छोड़ें। विनम्रता अपनाएँ। दूसरों को आगे रखें, स्वयं पीछे रहें। अपना बखान आप न करें। अपना चेहरा चमकाएँ नहीं वरन् उस तरह रहें जैसे कि सादा जीवन-उच्च विचार के सिद्धांत में आस्था रखने वाले अपने दृष्टिकोण, चरित्र, व्यवहार में अधिकाधिक शालीनता भरते और महानता के उच्च पद पर अपनी विशिष्टता के कारण जा पहुंचते हैं।