Wednesday, July 31, 2013

चन्द्रशेखर आजाद

वह अंग्रेजी हुकूमत का समय था जब भारत माता गुलामी की बेड़ियों में जकड़ी हुई थी पीड़ा-पतन से कराह रही थी। चारों तरफ से एक ही आवाज आती थी - आजादी भारत माता को जरूरत थी ऐसे नौजवानों की जो उसे अपनी जान पर खेल कर आजाद कराने का जज्बा रखते थे जिन्हें अपने घर-परिवार की बिलकुल चिन्ता न हो। उस समय मध्य प्रदेश में एक छोटी रियासत थी। अली राजपूत उसी के अन्र्तगत एक गाँव था भवराँ जहाँ पर पंडित सीताराम तिवारी एवम उनकी धर्मपत्नि श्रीमती जगरानी देवी रहा करती थी। तिवारी दम्पंति उत्तर प्रदेश के उननाव जिले के बदरका गाँव से यहां आए थे। पंडित सीताराम तिवारी ईमानदार व्यक्तियों में गिने जाते थे। पंड़ित जी पूजा पाठ करने वाले तथा सच्चाई पर चलने वाले व्यक्ति थे। ईमानदारी सच्चाई और सिद्धांतों पर चलने वाले लोगों को प्राय: धन का अभाव सहना पड़ता है। पंड़ित सीताराम तिवारी को अपनी गरीबी का दु:ख नहीं था। वे एक पिता के नाते यह विचार करते थे कि मेरा एक ही पुत्र है और तीन पुत्र जन्म लेने के बाद इस दुनिया को छोड़कर चले गए थे। इस समय उनकी पत्नि पुन: गर्भवती हुई थीं कहीं पहले जैसा ही न हो। अगर इस बार ऐसा हुआ तो वे शायद ही उसे बर्थास्त कर पाए। यही सोचते हुए वे दरवाजे पर बैठे जन्म और मृत्यु की गति पर विचार कर रहे थे। उसी समय एक साधु ने आवाज दी "भिक्षा दो"। साधु को देखकर वे उठे और उनसे आग्रह करते हुए बोले महाराज आकर आसन ग्रहण करो। साधु आसन पर बैठ गए। जगरानी देवी ने आदर से भिक्षा लाकर उनकी झोली में डाल दी। भिक्षा लेकर साधु ने पंड़ितजी से पूछा आप कुछ परेशान लग रहे है। अरे! घर में तो खुशी की बात है और आप उदास हो। सीताराम जी ने उनसे पूर्व की घटना के बारे में बताया। साधु महाराज ने नेत्र बंद कर भगवान का ध्यान किया। फिर बोले घबराओ नहीं इस बार आपका पुण्य ही आपके पुत्र के रूप में जन्म लेने वाला है। यह कह कर साधु चले गए। 23 जुलाई 1906 का दिन था। पंड़ितजी के घर पुत्र ने जन्म लिया। जन्म के एक माह बाद फिर वो साधु आए और उन्होंने भगवान शिव की उपासना करने को पंड़ित जी से कहा। इस बार ऐसा बालक आपके घर पैदा हुआ है। जो आपका नाम युगों-युगों तक के लिए अमर कर देगा।
हमारा पुत्र भगवान शिव का आशीर्वाद है। और चन्द्रमा की तरह इसका चेहरा झलकता है। इसलिए हम इसका नाम चन्द्रशेखर रखेगे इस नाम को सुनकर जगरानी देवी ने अपनी सहमति दे दी।
बच्चे के छठ पूजन के समय पूरे गाँव को न्योता दिया। धूम धाम से पूजन का क्रम पूर्ण हुआ। जगरानी देवी अक्सर चंद्रशेखर को काला टिका लगा देती थी जिससे बालक की शोभा और बढ़ जाती थी। पंड़ित जी अपने पुत्र का लालन पालन बड़ी खुशी से करते थे। बालक थोड़ा बड़ा हुआ तो अपने पैरो पर खड़ा होता कभी पूरे घर में दौड़ लगाता पंडित जी यह देख बहुत खुश होते। जब बालक पाँच वर्ष का हुआ तो पंड़ित जी ने बालक के विद्या आरम्भ कराने का मुहूर्त निकाला। बालक से पूजा पाठ करवाया और पास ही प्राईमरी विद्यालय में चंद्रशेखर का नाम लिखवाया। वहाँ पर उनके बड़े पुत्र सुखदेव पहले से ही पढ़ते थे। पंड़ित सीताराम जी के एक मित्र थे मनोहर लाल दिवेदी जी जो उस समय गाँव के पढ़े लिखे व्यक्तियों में गिने जाते थे और उन्हे ही चंद्रशेखर को घर पर पढ़ाने के लिए नियुक्त कर दिया। चंद्रशेखर की न्याय के प्रति लालसा तीव्र थी। उनके विचार उच्च एवं न्याय प्रिय थे।
वे कोई गलत बात बर्दाशत नहीं करते थे यहाँ तक की खेल में भी यह ध्यान रखते थे कि कहीं उसने कोई गलत निर्णय न हो जाये।
बचपन की एक घटना से उनकी न्याय बुद्धि का प्रमाण मिलता है। एक बाद दिवेदी जी उनको पढ़ा रहे थे। वे अपने पास हमेशा बेंत रखते थे। उन्होंने एक दिन पहले पढ़ाया कि ताजमहल आगरे में स्थित हैं। अगले दिन गलती से मुँह से बोल गये कि ताजमहल दिल्ली में है। इस बात पर बालक चंद्रशेखर ने उनको दो बेंतें लगा दिये बोले देखो कल तो लिखवाया था कि ताजमहल आगरा में है और आज बता रहे हो दिल्ली में। इस बात पर दिवेदी जी को अपनी गलती का अहसास हुआ। ये घटना उसी समय सीताराम जी को मालूम हुई तो उन्होंने चंद्रशेखर को डाटतें हुए कहा क्यों बेटा आज तुमने अपने पिता समान गुरू जी को बेंत क्यों मारी?
चंद्रशेखर बोले जब हमारी गलती होती है तो मास्टर साहब हमारी अच्छी तरह पिटाई करते है और आज इतनी गलती पर मैंने इन्हें दो बेत इसलिए मारी कि न्याय सबको बराबर मिलना चाहिए। फिर दोनों खिलखिकर हँस पड़े।
दिवेदी जी बोले पंड़ितजी आपका बेटा सिद्धांतों का जीवन जीने वाला है। यह साधारण नहीं है यह तो युग दृष्टा बनेगा और काल भी इसे याद रखेगा।
 अब चन्द्रशेखर मन लगाकर पढ़ने लगे। विद्यालय से घर जाने के बाद तुरन्त पढ़ाई करने लग जाते। माँ भोजन की थाली लेकर आती कहती चल बेटा हाथ धोकर भोजन कर ले। माँ मैं पहले अपना काम पूरा कर लूँ। दो घंटे के लिए थाली को ढ़खकर रख दो। बेटा पहले भोजन कर ले। नहीं माँ भोजन करने के बाद मुझे निंद्रा आने लगती है। फिर शाम का खेलने का समय हो जाता है। फिर हनुमान जी की आरती-चालीसा में समय पूरा हो जाता है। अगले दिन मास्टर साहब सबसे पहले मुझे ही कहते है कि चंद्रशेखर गणित के सवाल हल हो गए? मैं कहता हूँ जी गुरूजी इसलिए अब मैं पढ़ाई करके बेफ्रिक हो जाता हूँ। अब चंद्रशेखर की उम्र तेरह वर्ष की हो गई। गाँव में शिक्षा पूरी हो गई है। अब पिताजी के कठोर व्यवहार की वजह से बम्बई भाग गए। कुछ महीने मजदूरी करके अपना जीवन निर्वाह किया फिर घर आ गए। और माँ को अपने जमा किए पैसे देकर बोले आने वाले समय में और ज्यादा कमाकर दूगाँ। माँ बोली अभी तेरी पैसे कमाने की उम्र नहीं है। अभी तो पढ़ने लिखने की उम्र है। चंद्रशेखर बोले माँ अब मेरा मन काशी जी जाकर संस्कृत पढ़ने को करता है। अपने गाँव के शास्त्री जी का समाज में कितना सम्मान है। माँ ने मना किया। चंद्रशेखर धुन के पक्के थे बोले अब तो मुझे ही फैसला करना पड़ेगा। एक दिन चुपचाप घर से निकल गए। जब जगरानी का मालूम हुआ तो बोली जब जाना ही था तो कुछ पैसे लेकर जाता। पता नहीं किस हाल में होगा। तिवारी जी बोले मन दु:खी मत करो जो बम्बई जाकर पैसे कमाकर घर दे सकता है वो काशी में भी अपनी व्यवस्था कर लेगा। चंद्रशेखर ने काशी पहुँच कर ज्ञानवापी मौहल्ले में कल्याण आश्रम में रहने की व्यवस्था कर ली और संस्कृत पढ़ने लगे। काशी में विद्यार्थियो को दान देने वाले दानी सज्जनों की कमी नहीं थी। हर कोई इस ब्रह्यचारी को दान देकर अपने आप को भाग्यवान समझता था। जब पूरे मस्तक पर चंदन और बीच में लाल टिका लगा होता था तो शोभा देखते बनती थी। गले में यज्ञोपवीत धोती पहने हुए पीताम्बर से तन को ढ़के हुए अलग ही छटा होती थी जैसे कोई उच्च आदर्शो को धारणकर श्रेष्ट पुरूष देव लोक से इस धरती पर उतरा है। विद्या अध्ययन के साथ-2 चंद्रशेखर ने देश की हालत पर भी अपना ध्यान देना शुरू कर दिया। वे प्रतिदिन अखबार पढ़ते थे अंग्रेजों के जुल्मों से उनका खुन खौल उठता था। धीरे-2 उनका मन भारत माता को आजाद करवाने के लिए तड़प उठा। एक रोज वे कहीं जा रहे थे। उन्होंने देखा कि पुलिस क्रान्तिकारियो को बड़ी बेरहमी से पीट रही है। उस समय रोल्ट एक्ट (काला कानुन) लागु किया था जिससे कहीं भी किसी भी भारतीय को भरे चौराहो पर लाठी डन्ड़ों से पीट दिया जाता था बिना वजह जेल में डाल दिया जाता था। अब पुलिस जनता के साथ मनमाना व्यवहार करने लगी थी। 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी का दिन था। यह पर्व पंजाब की खुशी और प्रगति का सबसे पावन पर्व माना जाता है। इस दिन रोल्ट एक्ट के विरोध में अमृतसर के जलियाँवाला बाग में एक सभा आयोजित की गई। इस सभा में 2600 लोग उपस्थित थे। इसमें बच्चे बुढे युवा सभी उम्र के स्त्री पुरूष शामिल थे। जलियाँवाला बाग चारों तरफ से चारदिवारी से घिरा हुआ था। उसमें जाने का एक छोटा रास्ता था। इसमें वाहन तो क्या दो-चार लोग भी एक साथ नहीं जा सकते थे न ही बाहर निकल सकते थे। शान्तिपूर्ण सभा हो रही थी। स्थानीय नेता सभा को सम्बोधित कर रहे थे। उसी समय जनरल डायर वहां पहुँचा उसके साथ 150 सैनिक थे जनरल डायर ने निहत्थे बेकसूर लोगों पर गोली चलाने का आदेश दिया। जनता में भगदड़ मच गई। बाहर निकलने का रास्ता इतना छोटा था कि आपाधापी में किसी का भी उस रास्ते से बच निकलना मुश्किल था। कई लोग उसी रास्ते में गोली के शिकार हो गए और बीच में फंस गए जिससे रास्ता बंद हो गया। काफी देर तक गोलियाँ चलती रही। जनरल डायर मासूम जनता के साथ खून की होली खेलता रहा। 1600 राउण्ड गोली चली। उसी बाग में एक कुँआ था जिसमें 200 लोग प्राण बचाने के लिए कुँए में कुदकर मर गए। 2000 लोग घायल हुए। 400 लोग मारे गए। सरकार ने मरने वालो की सही रिपोर्ट नहीं दी। बाद में सरकार ने इस घटना की न्यायिक जाँच के लिए हंटर कमीशन नियुक्त किया। जिसमें जनरल डायर ने कहा हमने जनता को बाहर जाने के लिए कहा था। डायर ने झूठ बोला। डायर के झूठ से जनता में क्रांति की ज्वाला और भड़क उठी। इस कांड के बारे में सुनकर चंद्रशेखर का खून खौल उठा। एक रोज बाजार से गुजर रहे थे और पुलिस क्रांतिकारियों को बड़ी निर्दयता से बीच चौराहे पर लाठी से पीट रही थी कुछ क्रांतिकारी लहुलुहान हो गए थे। उसी समय एक पत्थर उठाकर चंद्रशेखर ने एक पुलिस अधिकारी के माथे पर जोर से मारा और भाग गए। पुलिस अधिकारी की वर्दी खून से तर हो गई। एक पुलिस वाले ने उनको देख लिया था। धर पकड़ हुई। कुछ दिनों में चंद्रशेखर को पकड़ लिया गया और जेल खाने में डाल दिया गया। सर्दी के दिन थे कड़ाके की ठंड पड़ रही थी। जेलर ने रात में कोई कम्बल रजाई नहीं दिया। सोचा रात में ठंड से अक्ल ठिकाने आ जाएगी और सुबह गिडगिडाकर माफी मागेगा। कड़ाके की ठंड में जब चंद्रशेखर को सर्दी सताने लगी तो उन्होंने कुर्ता धोती उतारकर एक तरफ रख दिये और दण्ड बैठक लगाने लगे। रात को जब जेलर की आँख खुली तो वह टार्च लेकर देखने लगा तो देखता ही रह गया। चंद्रशेखर के शरीर से पसीना इस कदर बह रहा था जैसे किसी ने वहां पानी छिड़क दिया हो। इस दृश्य को देखकर जेलर ने दांतों तले उंगली दबा ली और विचार करने लगा कि अब इस देश में ब्रिटिश हुकुमत के ज्यादा दिन नहीं रहे। जिन नौजवानों में इस कदर जज्बा है कि कमजोरी को ताकत बना लेते हो तो ये देश को अवश्य ही आजाद कराकर दम लेगें। प्रात: काल 9 बजे खेरपाट नामक जज की अदालत लगी। वह एक पारसी जज था। भारतीयों को कठोर सजा देता था। अच्छे-2 पहलवान भी उसकी सजा से कांपने लगते थे। उसने कटघरे में चंद्रशेखर की तरफ देखा बदले में चंद्रशेखर ने भी उसको घूरकर देखा। वह बोला क्या नाम है बच्चे तुम्हारा? जवाब आया "आजाद" पिता का नाम ? "स्वाधीन" कहां रहते हो "जेलखाने में" क्या काम धंधा करते हो "भारतमाता को आजाद कराने की साधना करता हूँ"। खेरपाट को इस तरह के अटपटे जवाब सुनकर बहुत गुस्सा आया। उसने आजाद को 15 बेंत की सजा सुनाई। जेलर गंड़ा सिंह ने आजाद के दोनों हाथा टकटकी से बाँध दिये। आजाद के शरीर पर केवल एक लँगोट ही था। जेलर ने आज़ाद के शरीर पर एक दवाई का लेप किया जो शरीर की खाल को काटती थी। जैसे ही जल्लाद ने तेल में भिगा हुआ बेंत पूरी ताकत से आजाद की पीठ पर मारा तो आजाद के मुँह से भारत माता की जय सुनाई दी। जैसे-2 बेंत लगते गए वैसे ही आजाद की आवाज भी बुलंद होती गई। अंदर बाहर का वातावरण इन्कलाब जिंदाबाद के नारो से गुँज उठा था। आवाज को सुनकर ब्रिटिश सरकार के कर्मचारीयो ने अपने कानो को उँगलियों से दबा लिया। सजा पूरी होने पर देखा कि आजाद कि पीठ पर माँस के लोथड़े लटक गए थे चारों तरफ खून बह रहा था। उसी समय जेलर ने कुछ सिक्के सांत्वना-राशि के तौर पर आजाद को दिये। आजाद ने वह सिक्के जेलर के मुँह पर बड़ी जोर से मारे। कुछ समय के लिए जेलर अपने मुँह को पकड़कर बैठ कर जमीन पर बैठ गया। वह सोच रहा था कि यह लड़का किस मिट्टी का बना है। 15 बेंत खाने के बाद कमर ऐसी लगती है जैसे भारत का नक्शा हो पर हौसला इतना बुलंद कि झुकने का नाम नहीं। जेल से बाहर निकलते ही भीड़ ने आजाद को फुलमालाओं से लाद दिया और अपने सर पर बैठाकर चल पड़ें।  शाम को एक चबूतरे पर आजाद का भाषण हुआ। "अब चाहे जो भी हो हम देश को आजाद कराने की शपथ लेते है।" उसी समय आजाद ने संकल्प लिया कि मैं सदैव आजाद रहुँगा। कभी पुलिस द्वारा पकड़ा नहीं जाऊंगा और कभी मरने का समय आया तो अपनी गोली से ही जीवन लीला समाप्त कर लूँगा।
"आजाद था आजाद हूँ और आजाद ही रहूँगा"
यह खबर अखबार में छपी और मर्यादा पत्रिका के सम्पादकीय में भी छपी। पंडित सीताराम तिवारी समाचार पढ़ते ही बनारस के लिए चल दिये। चूँकि अखबार में पता भी छपा था इसलिए आसनी से कल्याण आश्रम पहुँच गए। आकर आजाद से बोले घर चलों बेटा मैं तुम्हे लेने आया हूँ। तुम्हारी माँ का रो रोकर बुरा हाल है। अब मुझे घर नहीं जाना है जब तक मैं भारत माता को आजाद नहीं करा लूँगा। 33 करोड़ भारतीयों की भारत माता ही मेरी माता है। उस दिन आजाद ने पिता के सामने एक सकंल्प और लिया कि मैं आज से तीन गोली अपने पास रखुँगा। एक गोली अपने लिये और पिताजी एक आपके लिए और एक जन्म देने वाली माँ के लिए। अगर कभी आप लोग मेरे रास्ते में आए और देश को आजाद कराने में बाधा बने तो मैं पल भर भी नहीं सोचुगा और आपको गोली मार दुगाँ। और हाँ किसी कारणवश यदि मुझे पहले शरीर त्याग करना पड़ा तो खुशी से कर दूँगा और पुन: यहीं जन्म लुगाँ। मैं तो भगवान से हर वक्त एक ही प्रार्थना करता हुँ कि भारतवर्ष में सौ बार मेरा जन्म हो। आने वाली पीढियां ये अवश्य याद रखेगी कि आजाद ने हमारी खुशी के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया

वे जब-2 मेरा इतिहास पढ़ेगे तो उनके अंदर देशसेवा की प्रेरणा अवश्य जागेगी।
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धम्मं शरणं गच्छामि, बुद्धं शरणं गच्छामि - सनातन धर्म

आज पूरा विश्व अनेक प्रकार के संकटो से गुजर रहा है। हर व्यक्ति पीड़ा पतन रोग शोक से ग्रस्त होता जा रहा है। अपनी व्यक्तिगत समस्याओं के निवारण के लिए ग्रह नक्षत्र, पितृ दोष आदि के पता नहीं कितने उपाय करता घूमता है, परन्तु जीवन से अशांति, अन्धकार, स्वास्थ्य, खुशियाँ छिनती जा रही है। अपनी आत्मरक्षा हेतु व्यक्ति बहुत प्रकार से उछल कूद कर रहा है। कुछ व्यक्ति सब कुछ करके थक चुके हैं, अनेक प्रकार के देवी देवताओं के पूजन, पितृ शांति, ग्रह दोष निवारण जिसने जो बताया वो किया परन्तु मुसीबतें ज्यों की त्यों। ऐसा क्यों हो रहा है? खुशहाल जीवन के लिए हमारे ऋषियों ने कुछ नियम बताए थे। व्यक्ति ने हर स्तर पर उन नियमों की उपेक्षा कर दी है। व्यक्तिगत स्तर पर, पारिवारिक, समाजिक व राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ऋषियों के संविधान की उपेक्षा करने से दिनोंदिन स्थिति दयनीय होती जा रही है। वो कौन से नियम है वो कौन सा रास्ता है जिसको अपनाकर व्यक्ति शांत, स्वस्थ, सन्तुष्ट, सुखी व समृद्ध हो जाता है, यही खोजने का प्रयास हमने अपनी पुस्तक ‘‘ सनातन धर्म का प्रसाद ’’ में किया है। पुस्तक को डाक द्वारा मंगाने का खर्च सौ रूपया है। Soft copy free download कर सकते है।
      महात्मा बुद्ध के समय में भी यही स्थिति उत्पन्न हो गयी थी कर्मकाण्ड के आडम्बर बढ़ गए थे। उन्होंने उदघोष किया- ‘‘बुद्धि शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि’’ अर्थात विवेक-बुद्धि से सोचो श्रेष्ठ चिन्तन व आचरण ही धर्म है, उसको अपनाओं। शुद्ध, सात्विक, संयमित जीवन ही सब सुखो का आधार है। ईश्वरीय कृपा पाने के भी तर्क सम्मत नियम है, यों ही इधर-उधर के टण्ट-घण्ट करने से समय व धन की बरबादी के अलावा कुछ निकलने वाला नहीं है। इस सृष्टि में सब कुछ नियमबद्ध है, तर्क सम्मत है। उन नियामों को समझना व उन पर चलना ही एक मात्र विकल्प हैं।
जहाँ गौ हत्या होती है, गरीब को सताया जाता है, कन्या का शील हरण होता है, वहाँ लोगो का ब्रह्य तेज नष्ट हो जाता है एंव भागवत के अनुसार 28 प्रकार के नरक प्राप्त होते हैं।
‘‘मत सता गरीब और सज्जन को, वह रो देगा।
 यदि खुदा ने सुन लिया, तो तुझे जड़ से खो देगा।।’’

Monday, July 29, 2013

IV. सस्ता और घटिया अथवा मंहगा और बढ़िया भगवान - चयन अपना अपना

र्इश्वर का अविश्वास ही पापों की जड़ है, इस अविश्वास से प्रेरित होकर ही मनुष्य मर्यादाओं का उल्लंघन करके स्वार्थ और अहंकार की पूर्ति के लिए स्वेच्छाचारी बन जाता है। आत्म-नियंत्रण के लिए र्इश्वर विश्वास अनिवार्य आवश्यकता मानी गर्इ है। व्यक्तिगत सदाचार और सामूहिक कर्त्तव्य-परायणता के पालन के लिए र्इश्वरीय विश्वास के अतिरिक्त और कोर्इ मार्ग नहीं हो सकता। इसलिए मनीषियों ने मनुष्य के दैनिक आवश्यक कर्त्तव्यों में र्इश्वर उपासना को सबसे प्रमुख और अनिवार्य माना है। जो इसको उपेक्षा करते हैं उनकी भत्र्सना की है और उन्हें कर्इ प्रकार के दण्डों का भय भी बताया है।
     खेद है कि आज नास्तिकता की सत्यानाशी बाढ़ तेजी से बढ़ती चली जा रही है। भौतिकतावादी विचारधाराओं ने यह प्रतिपादित किया है कि र्इश्वर तो आँखों से दिखार्इ पड़ता है और प्रयोगशालाओं की जाँच द्वारा सिद्ध होता है इसलिए उसे मानने की आवश्यकता नहीं। अति उत्साही लोग इतनी बात से बहक जाते हैं, तो वे कर्म आस्था पर विश्वास करते हैं, और उपासना की कोर्इ आवश्यकता अनुभव करते हैं।
     दूसरे प्रकार के नास्तिक इनसे भी गये-बीते हैं। वे अपने को आस्तिक कहते ओर किसी र्इश्वर को मानते भी हैं पर उनका यह कल्पित र्इश्वर वास्तविक र्इश्वर से भिन्न होता है। वे समझते हैं कि र्इश्वर तो केवल पूजा-स्तुति ही चाहता है, इतने से ही प्रसन्न होकर मनुष्य के पापों पर ध्यान नहीं देता। पूजा करने वालों के समस्त पाप किसी सामान्य धार्मिक कर्मकाण्ड के कर लेने से दूर हो जाते हैं। साथ ही वे र्इश्वर से यह आशा रखते हैं कि जरा से पाठ-पूजन के बदले, बिना उनकी योग्यता, पुरुषार्थ और लगन की जाँच किए, वह मनमाना वरदान दे सकता है। और उनकी समस्त कामनाओं की पूर्ति कर सकता है। यह लोग ऐसा भी सोचते हैं कि साधु ब्राह्मण, परमात्मा के अधिक निकट हैं, इसलिए यदि उन्हें दान-दक्षिणा देकर प्रसन्न कर लिया जाए तो अपनी तगड़ी सिफारिश परमात्मा के यहाँ पहँुच जाती है और फिर तुरन्त ही मनमाने वरदान पाने और पाप के दण्ड से बचने की सुविधा हो सकती है। हम देखते हैं कि आजकल नाममात्र की आस्तिकता इसी विडम्बना की धुरी पर घूम रही है।
     यह प्रच्छन्न नास्तिकता दिखार्इ तो र्इश्वर विश्वास जैसी ही पड़ती है, पर इससे लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक होती है। आस्तिकता का असली लाभ पाप से भय उत्पन्न करना है। इसके विपरीत जिस मान्यता के अनुसार दस-पाँच मिनट में पूरे हो सकने वाले कर्मकाण्डों द्वारा ही समस्त पापों का फल नष्ट हो सकने का आश्वासन दिया गया हो, उससे तो उलटे पाप के प्रति निर्भयता ही बढ़ेगी। जब पाप-फल से बच सकना इतना सरल मान लिया गया तो दुष्कर्मों द्वारा प्राप्त होने वाले आकर्षणों को छोड़ना कौन पसंद करेगा? ऐसी मान्यता से प्रभावित होकर मध्यकालीन राजाओं और सरदारों ने बर्बर अत्याचार और अनैतिक आचारण करने के साथ-साथ पूजा-पाठ के भी बड़े-बडे़ आयोजन किए थे। उन्होंने मंदिर भी बनवाये और भगवान को प्रसन्न करने वाले उत्सव आदि भी किये। पंडितों और ब्रह्मणों को कथा-भजन करने के लिए वृत्तियाँ भी दीं। सम्भवत: वे यही समझते थे कि उनका पहाड़ के बराबर अनैतिकता का कार्य-क्रम इस प्रकार धन द्वारा रचार्इ पूजा-पाठ की धूमधाम के पीछे छिप जाएगा। पंडितों और पुजारियों ने अपनी आजीविका की दृष्टि से ऐसे आश्वासन भी गढ़ कर रख दिए, जिससे कुमार्गगामी व्यक्ति थोड़ा-बहुत दान-पुण्य करते रहने को तत्पर रहें। दान-पुण्य की परिभाषा भी इन लोगों ने बड़े विचित्र ढंग से की कि केवल ब्राह्मण वंश में उत्पन्न हुये व्यक्ति को जो कुछ दिया जाएगा, वह अवश्य पुण्य माना जाएगा।

     विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस प्रकार की अज्ञानमूलक धारणा व्यक्ति और समाज के लिए हानिकारक परिणाम ही उपस्थित कर सकती है। पापों के दण्ड से बच निकलने का आश्वासन पाकर लोग चरित्रगठन की उपेक्षा करने लगे, पापों का भय जाता रहा। ऐसी अनेक कथा कहानियाँ गढ़ी गर्इ जिनमें निकृष्ट से निकृष्ट कर्म जीवन भर करते रहने वाले व्यक्ति केवल एक बार अनजाने-धोखे से-’नारायण का नाम लेने से मुक्त हो गये। इन कथाओं से सत्कर्मों की व्यर्थता सिद्ध होती है और प्रतीत होने लगाता है कि जीवन-शोधन के लिए श्रम और त्याग करने की अपेक्षा थोड़ा-बहुत पूजा पाठ कर लेना ही अधिक सुविधाजनक है। ऐसी शिक्षा देने वाला आध्यात्म वस्तुत: अपने लक्ष्य से ही भ्रष्ट हो जाता है। आस्तिकता का मुख्य उद्देश्य मनुष्य को सदाचारी और कर्त्तव्य परायण बनना है। यदि इस बात को भुलाकर लोग देवताओं को माँस, मदिरा या मिष्ठान्न की रिश्वत देकर मनमाने लाभ प्राप्त करने की बात सोचने लगें तो यह माना जाएगा कि उन्होंने र्इश्वर को भी रिश्वत लेकर उल्टा-सीधा, काम करने वाला मान लिया है, फिर तप, त्याग, संयम, धर्म, कर्त्तव्य आदि के कष्टसाध्य मार्ग की उपयोगिता क्या रह जाएगी? जब र्इश्वर अपनी प्रतिमा के दर्शन करने वाले, स्तुति गाने वाले और भोग लगाने वाले पर ही प्रसन्न होने लगा तो फिर यही मार्ग हर किसी को पसन्द आने लगेगा। फिर कोर्इ क्यों उस सद्धर्म के नाम पर कष्ट सहने को प्रस्तुत होगा जिसमें सर्वस्व त्याग और तिल-तिल कर जलने की अग्निपरीक्षा में होकर गुजरना पड़ता है।