Tuesday, February 26, 2013

सन्त रैदास का समाज को समत्व सन्देश

समाज में दो प्रकार के वर्ग है एक वर्ग वो है जिनक अर्थ तन्त्र मजबूत है अथवा ठीक है उन्हें अपनी रोजी रोटी-गुजर बसर की चिन्ता नहीं हैं । ऐसा वर्ग यदि आध्यात्मिक उन्नति करना चाहें तो विभिन्न आक्षरों में कथा कीर्तन व ध्यान केन्द्रों में बिना tension के भाग ले सकता है। क्योकि उसके पास इतने जमा पूंजी है की यदि कुछ माह अथवा वर्ष वो न भी कमाएँ तो उसके लिए कोई समस्या नहीं है ।
समाज में एक वर्ग और है जो गरीब माना जाता हैं जो hand to month हैं । यदि यह वर्ग कहीं आश्रम आदि में सेवा अथवा समय लगाना चोंह तो इनकी रोजी रोटी की समस्या पैदा हो जाती हैं। सन्त रैदास एक ऐसे सिद्ध पुरूष हुए हैं जो गरीबी में रहकर भी ब्रह्म ज्ञानी का पद पा गए । उनका कहना है कि जो गरीब हो वो अपने मन को पवित्र करने का प्रयास करें । अपनी मेहनत मजदूरी करें काम धन्धा करते रहें, साथ-साथ आत्म विश्लेषण द्वारा अपने मन को स्वच्छ भी बनाते रहें । मन को दोष दुर्गुजो, कुविकारो से मुक्त करते रहें । इससे उनकी चेतना धीरे-धीरे परमात्मा चेतना की ओर उन्मुख होने लगेगी ।
सत्य ही है आदमी दुनिया भर के साधन-भजन करता है परन्तु अपनी सरलता, निष्कपटता नहीं बचा पाता । इस कारण बहुत प्रयास करने पर भी उनकी उन्नति नहीं हो पाती हैं । पहले ब्रह्मज्ञानी लोग भी बड़ा सादा जीवन जीते थे । रैदास जी अपना चर्मकार का कार्य करते थे व लोगों की मदद करते रहते थे । कबीर अपना जुलाहे का काम करते थे व समाज सुधार के प्रयास भी करते थे । आज परम्परा बदल गयी है । सभी बह्मज्ञानी बड़े-बड़े आश्रमों में रहते हैं। कभी-कभार प्रवचन आदि के लिए बाहर आते है बड़े-बड़े सेठो अथवा पदाधिकारियों के लिए ही उनके द्वार खुलते हैं । लेकिन सन्त रैदास सन्त कबीर अति उच्च अवस्था प्राप्त होकर भी सामान्य जीवन जीते थे ।
वास्तव में सन्त रैदास का जीवन हम सबके लिए अनुकरणीय है जो जहाँ भी है जैसे भी है अपने मन को पवित्र करता चले अपना कार्य र्इमानदारी और लगन से करता चलें तभी मन की पवित्रता सम्भव हैं। यदि मन पवित्र हो गया तो भगवती गंगा को भी उनके कठौती (पात्र) में प्रकट होना पड़ेगा । संसार की सारी प्रकृति उसके अनुकूल हो जाती है ग्रह नक्षत्र सब कुछ अपनी दशा सही कर लेते हैं । राजा, प्रजा, मन्त्री सभी को शुद्ध मन वाले व्यक्ति के सम्मुख नतमस्तक होना पड़ता है चाहे वो किसी भी जाति का हो अथवा कोर्इ भी कार्य क्यों न करता हो ।
इस प्रकार समाज में ऊँचा नीचा, जाँति-पाँति सब कुछ अर्थहीन है श्रेष्ठ वही है जिसका मन पवित्र हैं । आइए हम भी अपने मन को पवित्र बनाएँ ।
सन्त रैदास ने ठुकराया पारस पत्थर
सन्त रैदास काशी में गंगा के घाट के निकट छोटी सी झोंपड़ी में अपनी पत्नी के साथ रहते थे। झोपड़ी के बाहर बैठकर जूते गाँठने का काम करते थे। कमार्इ कम होने से उनका जीवन अभावग्रस्त था। एक बार एक रसायनविद उनसे मिलने आए व उनके सत्संग से आनन्द और शान्ति में निमग्न हो गए। उन्होंने उनके अभाव को दूर करने के लिए एक पारस पत्थर भेंट किया कि आपको जब भी आवश्यकता पड़े इच्छानुसार स्वर्ण बना लीजिए। परन्तु रैदास जी ने उनकी भेंट स्वीकार नहीं की उन्होंने कहा ‘‘मुझे इसकी आवश्यकता नहीं है मैं अपनी कमार्इ से ही घर गृहस्थी चला लेता हूँ। खून पसीने की कमार्इ से जो आनन्द मिलता है वह दुनिया के सभी सुखों से श्रेष्ठ है। हाँ यदि आपको यह पत्थर देना ही है तो आप यहाँ के राजा को दे दीजिए क्योंकि उसे अपने शौक मजे के लिए हर वक्त रूपयों की जरूरत पड़ती है मेरी निगाह में वह मुझसे अधिक गरीब है। या फिर यह सेठ जी को दे दीजिए जो रात दिन पैसों के पीछे पागल रहते हैं व गरीबों का खून चूसते हैं।" उनकी इस बात से वैज्ञानिक अति प्रसन्न हुए व उनकी महानता को नमन करते हुए यह शिक्षा लेकर चले गए। परिश्रम की कमार्इ ही सभी सुखों का सार है, मुफ्त का धन अन्तत: कष्ट का कारण बनता है। इसलिए सदैव मेहनत से ही आजीविका चलानी चाहिए।
संत रैदास के लिए कर्म ही पूजा थी
संत रैदास की उत्कृष्ट भक्ति जग विख्यात है। वे अपना कार्य करते हुए र्इश-स्मरण करते रहते थे। उन्होंने कभी अपना काम छोड़कर र्इश्वर को नहीं भजा। उनके लिए उनका काम ही भगवान की पूजा थी। अनेक लोग उनकी भक्ति का यह स्वरुप देखकर उनका उपहास उड़ाते थे, किंतु रैदास लगन से अपने काम में जुटे रहते। उनके लिए काम और प्रभु-भजन एक ही सिक्के के दो पहलू थे। एक दिन उनके घर कोर्इ साधु आया। संयोग से उस दिन सोमवती अमावस्या थी। रैदास ने साधु का यथोचित सत्कार किया। फिर उससे बात करते हुए अपने काम मे लग गए। साधु ने शुभ दिन का हवाला देते हुए उनसे गंगा स्नान का आग्रह किया। रैदास ने काम खत्म कर चलने का कहा। साधु मान गया, किंतु रैदास का काम जल्दी समाप्त नहीं हुआ। उन्हें साधु को प्रतिक्षा कराना उचित नहीं लगा। अत: उन्होंने साधु से कहा- 'महात्माजी! मेरे भाग्य में शायद गंगा स्नान नहीं हैं, इसलिए आप मेरे पैसे भी ले जाकर गंगाजी का चढ़ा दीजिएगा।' साधु ने उनसे पैसे लिए और गंगा स्नान करने के लिए चला गया। गंगा स्नान के बाद साधु ने सुर्य अर्ध्य दिया और गंगा में खड़े होकर रैदास का नाम लेकर उनके पैसे चढ़ाए। साधु का विस्मय हुआ जब उसे ऐसी अनुभूति हुर्इ मानो गंगा मां ने दोनों हाथ बाहर निकालकर संत रैदास की भेंट स्वीकार की। उसने वापस लौटकर रैदास का यह बात बतार्इ, तो उन्होंने विनम्र भाव से कहा- 'संभवत: यह मेरे कर्तव्य-पालन का प्रतिफल होगा। गंगा मां को मैं यहीं से नमन करता हूं।' सार यह है कि कर्तवय-पालन में ही सच्ची भगवदभक्ति निहित है, न कि धार्मिक आड़म्बरों में! र्इश्वर का कर्मशीलता प्रिय है। 

Monday, February 25, 2013

कठिन प्रारब्धों का भुगतान-एक खोज-II

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कठिन प्रारब्धों का भुगतान-एक खोज-I


मानव जीवन अनेक प्रकार की विचित्रताओं से परिपूर्ण हैं । भाँति-भाँति के लोग उनका स्वभाव खानपीन रहन सहन देखने को मिलता हैं । शास्त्र कहते है कर्मों की गति बहुत गहन है (गहना कर्मणोगति) कब कोन सा कर्मफल सामने आ जाए व व्यक्ति का जीवन आनन्दमय अथवा कष्टमय बन जाए इसका पता कोर्इ बिरला सिद्ध पुरूष ही लगा सकता हैं । इसी कारण इसको गीता जी गहन कहती हैं जो कर्म अब कर रहे है उसका फल कब और कैसे मिलेगा यह कहना भी कठिन हैं ।
तीन प्रकार के कर्म (क्रियमान, प्रारब्ध व संचित कर्म)
दुनिया में बहुत श्रेणी के प्रारब्ध है । सामान्य तौर पर यह देखा गया है कि जिनके प्रारब्ध अच्छे हैं वे जीवन में खूब मौज मस्ती करते हैं कम ही नियम संयमों का पालन करते देखे जाते है इसी को स्वर्गमय जीवन कहा जा सकता हैं । धर्म, जप-तप, साधना में भी वो कम ही रूचि लेते हैं । दूसरी ओर जिनका प्रारब्ध खराब है वो बेचारे किसी न किसी मुसीबत में उलझते रहते हैं । जप-तप नियम संयम, कीर्तन भजन आदि में रूचि लेते है, फिर भी जिस में सुख शांत्ति यदा कदा ही आती हैं । युग ऋषि श्री राम आचार्य जी के अनुसार कभी-कभी परमात्मा व्यक्ति के जीवन में हस्तक्षेप करके उसको जीवनलक्ष्य मोक्ष तक पहुँचाना चाहता है इस कारण उसके प्रारब्धों के भुगतान में थोड़ी तीव्रता कर देता हैं । भक्त भगवान को पाने की अकांक्षा करता हैं, समाधि अवस्था प्राप्त करना चाहता है यह तभी सम्भव है जब पुराने जन्मों का लेखा-जोखा अर्थात भुगतान पूर्ण हो जाए । योग मार्ग में कहा जाता है कि जिसकी कुण्डलीनी महाशक्ति, जाग्रत होती है पहले उसके कर्मो का भुगतान तीव्र गति से करती हैं । समुद्र मंथन के समय पहले विष निकला, बाद में अमृत अर्थात् पहले खराब कर्मों का भुगतान तब मोक्ष रूपी अमृत की प्राप्ति। आज हिमालय के ऋषियों के द्वारा विश्व कुण्डलिनी जागरण (अर्थात् समुद्र मंथन) की प्रक्रिया की जा रही है जिससे विश्व का आध्यात्मिक रूपान्तरण सम्भव हो सके ।
लेखक ने अपने जीवन में बहुत प्रकार के अनुभव लिए हैं । एक ओर कालेज लाइफ जहाँ युवक युवतियाँ पढ़ार्इ के साथ मोज मस्तियाँ, शराब कवाब सब कुछ करते हुए जीवन का आनन्द लेते हुए दिखते हैं । दूसरी ओर लेखक के साथ जुड़े दुखी-समस्याग्रस्त लोगो का एक बड़ा समूह-जो बेचारे जप-तप, नियम संयम, योग, आयुर्वेद का आश्रय लेकर भी वो मजा नहीं ले पाते जो कालेज के युवक-युवतियाँ लेते हैं । एक बुद्धिजीवी होने के नाते मुझको (लेखको) मानव जीवन से जुड़ी इन सब विडम्बनाओं पर चिन्त्तन मनन करने की एक स्वभाविक आदत हैं । इसके पीछे एक कारण ओर रहा हैं कि मैं स्वंय जीवन में अपने कठोर प्रारब्धों को भुगतता रहा हूँ। बचपन में अपनी बीमारियों की समस्या, युवा होने पर माता-पिता की अनेक कष्ट कठिनार्इयाँ व प्रौढ़ होने पर बच्चों व धर्मपत्नी से जुड़े अनेक प्रकार के दुख कलेश । इतना सब कुछ होने पर भी एक ऐसा हृदय कि समाज व संस्कृति के उत्थान के लिए अपनी ओर से पूरे दम खम के साथ प्रयास, यहाँ तक कि शरीर की सामर्थ्य से बाहर जाकर भी कार्य करने की आदत । यह सब मुझको अनेक प्रकार की मुसीबतों में धकेलता रहा । प्ररन्तु प्रभु कृपा से समस्याओं के समाधान निकलते रहें । इस दौरान मैंने एक बात का अनुभव किया है कि यदि व्यक्ति खरा है, सच्चा है, गलत नहीं करता, आत्मा परमात्मा के निर्देशों को सुनने, समझने व मानने को अकांक्षा रखता है, प्रयास करता है, तो परमात्मा का एक रक्षा कवच उसके इर्द-गिर्द बन जाता है जो उसके व उसके आत्मीय परिजनों की रक्षा करता हैं । यदि धरती भी फटेगी तो वह portion जिस पर सच्चा व्यक्ति खड़ा हैं हल्की दरार के साथ बची रहेगी । व्यक्ति, हिलेगा, काँपेगा परन्तु बिगडेगा कुछ नहीं । यह विश्वास, यह श्रद्धा एक दिन में उत्पन्न नहीं हो जाती अपितु समय व अनुभव के साथ आती हैं । अनेक बार स्वंय मैं व मुझसे जुड़े आत्मीय परिजनों के जीवन में ऐसी परिस्थितियाँ बनी कि अब शरीर की रक्षा नहीं हो पाएगी । परन्तु किसी देव सत्ता ने मृत्यु के मुख से छुड़ा लिया । लगभग 25 वर्षो से मेरी माता जी बीमार चलती आ रही हैं उनकी बीमारी ने मुझको आध्यात्मक मार्ग में बढ़ने के लिए मजबूर किया । लगभग हर वर्ष एक समय ऐसा आता है जब वो जीवन मृत्यु के बीच संघर्ष करती हैं परन्तु परमात्मा उनकी रक्षा करता रहा हैं । आज भी वो जीवित है व हमारे बच्चों के पालन-पोषण में अपना योगदान देती हैं ।
भगवान के इस कर्ज को जीव कैसे चुका सकता हैं? केवल हृदय से प्रार्थना कर सकता है कि हे भगवान ये जीवन आपके किसी काम आ जाए ! कठिन प्रारब्धो के भुगतान के लिए व्यक्ति को निम्नलिखित प्रकार का ज्ञान होना चाहिए प्रयास करने चाहिए । 
1.      नियमित जप अथवा भजन/समर्पण
2.      सादा जीवन व खान-पान
3.      आयुर्वेद का ज्ञान
4.      हवन-यज्ञ में भागीदारी/संत्सग
5.      संस्कृति व आध्यात्मिक साहित्य का अध्ययन
6.      गौ सेवा
7.      पीड़ित मानवता की सेवा
8.      कठोर आत्म विश्लेषण
9.      अनके कर्त्तव्य का र्इमानदारी से पालन
10.    उचित आनन्द का समावेश/मर्यादापूर्ण ढंग से कभी-कभी पार्टी, मौज मस्ती, करना चाहिए । जीवन की नीरसता को दूर करना आवश्यक हैं । 

नारी जागरण व गोस्वामी तुलसीदास-II




भारत में नारी को शक्ति माना गया है । शक्ति जितनी प्रचण्ड हो अनुशासन, सावधानी उतनी अधिक रखनी होती है । परमाणु शक्ति का सदुपयोग करने के लिए कठोर अनुबन्धों की आवश्यकता है थोड़ी सी भी लापरवाही बड़े विनाश को आमन्त्रण दे सकती है । नारी पुरूष की समाज की शक्ति बने, सहयोगिनी बने इसलिए उसको train अधिक करना पड़ता है discipline अधिक follow करने पड़ते है । समाज में देवत्व के प्रसार में नारियों की विशेष भूमिका रही है । बौद्ध मिशन के विकृत स्वरूप ने समाज को तहस-नहस कर डाला था । वेदों के उद्धार के लिए एक नारी सामने आयी-अश्रुपूर्ण नेत्रों व वेदना भरे हृदय से वह सबसे पूछती- वेदों का उद्धार कौन करेगा? कुमारिल भट्ट आगे आए । इतिहास साक्षी है कि उस समय वैदिक परम्परा के पुनरूत्थान में कुमारिल भट्ट व उनके शिष्य मण्डन मिश्र ने अपना जीवन होम दिया। नारी का पतन व तन्त्र मन्त्र पर आधारित समाज में वासना का नंगा नाच चल रहा था । वैदिक परम्परा को लोग भूलते जा रहे थे। एक नारी से यह सहन न हुआ ।
समाज व राष्ट्र को ऊँचा उठाने में नारियों की सर्वोपरि भूमिका रही हैं । मुगलों का बढ़ता अत्याचार एक नारी को सहन नहीं हुआ उसने रास रंग का जीवन न जीकर त्याग तपोमय जीवन जिया व अपने पुत्र को वीर शिवाजी के रूप में इतना सशक्त बनाया कि वो अकेले सम्पूर्ण मुगल साम्राज्य से टकराने का साहस कर गए । शिवाजी की माँ जीजाबार्इ चाहती तो मुगलों के साथ अच्छे समबन्ध बनाकर बढ़िया ऐश आराम की जिन्दगी काट सकती थी । परन्तु भारत माता के स्वाभिमान की रक्षा के लिए उसने काँटो का पथ चुना । मुगलों की दासता व विलासिला पूर्ण जीवन उसको रास न आया । राजमहल का परित्यागं कर अपने पुत्रो को गढ़ने के लिए अलग स्थान में चली गयी । साहय, शक्ति, भक्ति उच्च चरित्र व आज्ञाकारी पुत्र होने का जितना सुन्दर समन्वय शिवाजी के भीतर था वह अदभुत है । बच्चे या तो डरपोक होते है । थोड़ा साहसी हो तो दुर्व्यसनी, अंहकारी व चरित्रहीन पाए जाते हैं । वो जीजाबार्इ ही थी जो ऐसे महान शिवा का गठन कर पायी । शिवा को सहायता व दैव अनुग्रह देने के लिए तुकाराम जैसे सन्त व समर्थ गुरू रामदास जैसे महायोगी प्रस्तुत हुए । व्यक्ति अपने बल पर बहुत कुछ नहीं कर सकता जब तक दैव कृपा का आसरा न हों । समर्थ वास्तव में सब कुछ करने में समर्थ थे । शिवाजी को उनका संरक्षण मिला व मुगलों की दुर्जेय समझी जाने वाली विशाल सेना को भी अनेक बार मुँह की खानी पड़ी ।
नारी की महिमा का कहाँ तक वर्णन किया जाए । नारी की संवेदना, करूणा, त्याग तपोमय जीवन भारत का हीं नहीं पूरे विश्व में संतयुज्ञी वातावरण ला सकती हैं । परन्तु दुर्भाग्य से वही नारी गलत वातावरण को सह पाकर कामुकता, विलासिता, फैशन पररस्त व निकम्मेपन की शिकार हो गयी हैं ।
भारतीय संस्कृति नारी को गुणों की खान कहती है । यदि वह उन श्रेष्ठ गुणों की खान है तो कोर्इ दुष्ट उसको आँख उठाकर भी नहीं देख सकता । मौत को जीतने वाला रावण देवी सीता का बाल भी बाँका न कर सका । यह है नारी का सामर्थ्य, जिसका उसे बोध ही नहीं हैं ।
नारी स्वतन्त्रता के नाम पर आज लड़कियाँ अपने boyfriends के साथ अवारा की तरह घूम रही हैं । कानो में ear bugs हाथों में मोबाइल, फिल्मी गानों की धुन में मस्त होकर समाज का कितना बड़ा नुकसान कर रही हैं ये स्वंय नहीं जानती ।
कहाँ लुप्त हो गयी नारी की करूणा? क्या उन्हें सिर्फ फिल्मी गाने, boyfriends, होस्टस, पार्टियाँ ही नजर आ रही हैं? क्या उन्हें समाज में बढ़ता दु:ख दर्द अन्धकार नहीं दिख रहा है? ऋषियों की सन्तान इतनी सवेंदनहीन कैसे हो सकती है । काला बादल अधिक समय तक सविता को नहीं ढ़क सकता । अब समय आ गया हैं नारी को अपनी भूमिका पहचाननी ही होगी । अपनी करूणा, संवेदना, स्नेह, ममता से सम्पूर्ण समाज के नवीन दिशा देनी हैं ।
नारी पशुवत आचरण न करने लगे इसलिए उसे मर्यादा में, अनुशासन में, संयम में रहने का निर्देश गोस्वामी जी देते है । जब-जब भी नारी स्वच्छन्द हुर्इ समाज में विलासिता बढ़ी पूरी की पूरी जातियाँ नष्ट हो गयी । इसलिए नारी जाति पर अंकुश रखना अत्यधिक आवश्यक हैं जिसमें समाज की ऊर्जा अधोगामी न हो पाए।
हमने समाज में दो तरह के व्यक्तित्व देखे हैं एक वो जो संवेदनशील है दूसरे वो जिनमें संवेदना कम हैं । लेखक स्वंय एक संवेदनशील व्यक्ति रहा हैं । हास्टल लाइफ में लेखक को स्वंय को अच्छे साहित्य से जोड़कर रखना पड़ता था । थोड़ा सा भी यदि लेखक गलत संगत या गलत साहित्य के सम्पर्क में आता तो उसके लिए समस्या बन जाती । जबकि हास्टल के लड़के आराम से यह सब करते हुए मजा लेते थे । मेरे जीवन से जुड़ी एक घटना का वर्णन यहाँ आवश्यक प्रतीत होता हैं । हम दो लड़के (राजेश अग्रवाल व संजय गोयल) सहारनपुर से 600 Km. दूर KNIT सुल्तानुपर Engg. करने गए । दोनों अच्छे दोस्त थे दोनों भावनाशील सवेंदनशील व अच्दे कुलीन परिवारों से थे । दोनों को Literature पढ़ने का शौक था व दोनों Ist year में एक रूम में रहे ।
मैं (राजेश) तो एक ऐसे अध्यापक के सम्पर्क में आया जो रामकृष्ण के भक्त थे व मेरा दोस्त (संजय) आचार्य रजनीश के शिष्यों के सम्पर्क में आया । हमारे रूम में रामकृष्ण व्यकामृत व सम्भोग से समाधि की ओर दोनों पुस्तके बराबर पढ़ी जाती थी । मुझको मेरा प्रारब्ध स्वामी रामकृष्ण जी की ओर खींच ले गया व संजय को उसका प्रारब्ध आचार्य रजनीश की ओर खींच ले गया । मैं दुर्गा, हनुमान जी, राम जी की पूजा करने लगा व संजय रजनीश की मालाएँ गले में डाले कहीं-कहीं भटकने लगा ।
सम्वेदनशील व्यक्ति पर अच्छार्इ अथवा बुरार्इ दोनों ही बहुत वेग से हावी होती हैं । मैं भक्ति मार्ग में आगे बढ़ता गया, संजय गलत मार्ग पर बढ़ते-बढ़ते आवारा लड़को  का सरताज बन गया । 2nd year से हमने अलग-अलग room partner चुन लिए व मार्ग अलग-अलग हो गए । यह बड़ा दुखद समाचार रहा कि संजय की डिग्री समय पर पूरी न हो पायी व उसका 30 वर्ष से ऊपर का जीवन बहुत दर्दनाक रहा । उसके वो दोस्त जो उसके साथ होस्टलों में दारू पीते थे अच्छी पोस्टो पर भी निकल गए थे पर बुरे वक्त में कोर्इ काम न आया । मात्र 35 वर्ष की आयु में उसका बड़ी दयनीय अवस्था में देहान्त हो गया । मैं बच गया क्योंकि मैं उस समय बहुत सीधा, भोला व रिजर्व प्रकृति का बालक था मुझे इधर-उधर घूमने का शौक नहीं था ।
इसलिए सम्वेदनशील हृदय को अधिक अनुशासन चाहिए वह दूसरो की नकल करके बुरार्इयों की तरफ न आकर्षित हैं । नारी का हृदय भावुक व सम्वेदनशील होता हैं इसलिए उसकी स्वच्छन्दता पर अंकुश लगाया गया है जिससे उसको कोर्इ गलत direction में motivate न कर दें उसकी सरलता का misuse न कर ले जाए । भावुक व सीधे व्यक्ति किसी पर जल्दी विश्वास कर लेते है व बुरार्इ के चक्कर में फँस सकते है । मैने अपने बहुत से भावुक मित्रों का जीवन बरबाद होते देखा है अत: मैं गोस्वामी जी के इस कथन से पूर्णतया सहमत हूँ कि नारी जैसे भावुक हृदय के सही दिशा देने के लिए अनुशासन संयम (अर्थात् लाइन) की अनिवार्य आवश्यकता हैं ।

नारी जागरण व गोस्वामी तुलसीदास-I


ढ़ोल ग्वार शुद्र पशु नारी, सकल ताडन के अधिकारी।
गोस्वामी तुलसीदास जी की इस उक्ति को अनेक विद्वान नकारात्मक संदेश के रूप में ले जाते है । परन्तु यदि इसको ठीक से समझने जानने का प्रयास किया जाए तो यह चौपार्इ समाज के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण तथ्य सामने प्रस्तुत करते है ।
सर्वप्रथम हम नारी की भूमिका पर विचार करते हैं । भारतीय संस्कृति नारी का चित्रण दो रूपों में करती आयी है एक ओर तो यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते निवसति तत्र देवताअर्थात यहाँ नारी का पूजन हो वहाँ देवता निवास करते हैं । इसी प्रकार आचार्य श्री राम जी का उदघोष हैं नारी का सम्मान जहाँ है, संस्कृति का उत्थान वहाँ हैं। परन्तु दूसरी ओर आचार्य शंकर नारी नरकस्य द्वारकहकर लोगो को सावधान करते हैं । इसी प्रकार गोस्वामी जी एक ओर माता जानकी का पूर्ण सम्मान के साथ पूजन करते है- जाके युग पद कमल मनावँऊ, तासु कृपा निर्मल मति पावँऊ। दूसरी ओर नारी को ताडन की अधिकारी बताते हैं । रामायण काल में चार नारियों का मुख्यत: वर्णन आया है- देवी सीता, कैकयी, मन्दोदरी व सूर्पणखा ।
देवी सीता का चरित्र त्याग, तप और कर्त्तव्य पालन की पराकाष्ठा हैं । जीवन के विविध प्रकार के खतरनाक पड़ावों को धैर्य व शालीनता के साथ स्वीकार करते जाना कितना कठिन हैं । यदि आज की नारियों के चरित्र में इसका 2 प्रतिशत में समावेश हो जाए तो भारत की 80 प्रतिशत समस्याएँ सुलझ जाएँ । परन्तु आज नारियों में टीवी, मोबार्इल, इन्टरनेट, किटी पार्टियाँ, फेंशन परस्ती के दुर्व्यसन पनपते जा रहे हैं । यदि आप खाने के साथ कभी हरी मिर्च ले लें तो वह लाभप्रद हैं । लेकिन सदा तीव्र मिर्च का सेवन करें तो वह द्रव्र्यसन हो जाता हैं । इसी प्रकार टीवी, मोबार्इल आदि में घण्टो लगे रहना एक द्रव्र्यसन से कम नहीं हैं । रसोर्इ में गैस पर दूध अथवा कूकर रखा हैं औरत फोन पर लगी है सब्जी जलकर कूड़ा बन गर्इ परन्तु औरत को जूँ न रेगीं । नारी को मोज मस्ती, फेंशन परस्ती को छोड़कर त्याग तपोमय जीवन की और बढ़ना होगा । जब गलत आदतें बच्चों में पनपती हैं तो सब परेशान होते हैं परन्तु हम लोग अपनी आदतें सही नहीं करना चाहतें । हमारे से ही अच्छे बुरे संस्कार बच्चों में Transfer होते हैं । यह हम क्यों भूल जाते हैं ।
नारी को गोस्वामी जी ने इसलिए ताडन के लिए कहा हैं । ताडन अर्थात् ढ़ीला न छोडना (Loose न छोड़ना) अर्थात् स्वच्छन्द आचरण की अनुमति न देना । नारी से जैसे-जैसे बन्धन् अनुशासन हट रहे हैं वैसे-वैसे समाज में नाना प्रकार की समस्याएँ बढ़ रही हैं । नारी के संस्कार दिनोदिन खराब होते जा रहे हैं । गृह कार्यों में निपुणता, आत्मीयता, सरलता, धैर्य, कष्ट सहिष्णुता का विलोप होता जा रहा हैं । परिवार निर्माण, नवपीढ़ी के गठन की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी नारी की मानी गयी हैं । क्या आज की नारियाँ जिन्हें मोबाइलो, टीवी के सीरियलों से फुरसत नहीं है देवी सीता की तरह लव कुश का निर्माण कर पाँएगी? बालको का चरित्र निर्माण बड़ा ही सवेंदनशील मुद्दा है जिसमें नारी की अहम भूमिका हैं । यदि इस कार्य में लापरवाही बरती गयी तो आने वाली पीढ़ी कैसे जीवन जिएगी इसकी कल्पना करने से भय लगता हैं ।
गोस्वामी पहले कैकयी की भूमिका देखते हैं अपने स्वार्थ के चलते अपनी मूर्खतापूर्ण जिद से उसने एक हँसते खेलते परिवार में आग लगा दी । यदि राजा दशरथ ने कैकयी को सिर पर न चढ़ाया होता जरूरत से अधिक छूट न दी होती तो यह नौबत न आती । फिर गोस्वामी जी सूर्पणखा का खेल देखते है ।
सूर्पणखा एक अवारा औरत रही होगी जो व्यर्थ में यहाँ वहाँ मुँह मारती फिरती रहती थी । यह सोचकर कि यदि वनवासी लोगों के साथ आयी स्त्री को समाप्त कर दिया तो ये लोग मुझसे ही अपनी वासनात्मक इच्छाँए पूरी करेगें उसने देवी सीता पर आक्रमण कर दिया । वासनापूर्ण व्यक्ति यह सोचता है कि सामने वाला भी उसके जैसा ही हैं वह किसी के त्याग तप को क्या समझेगा ? सूर्पणखा ने भी यही सोचा कि सीता के डर से ये तो दो युवक उससे सम्बन्ध नहीं बना रहे हैं । जैसे यदि लड़का किसी लड़की से प्रेम करता है तो वह यही सोचता रहता है कि लड़की भी उसे बहुत चाहती है । सूर्पणखा के सिर वासना हावी हुर्इ तो वह राम लक्ष्मण के सामने ही सीता जी को मारने दौड़ी ।
आम्रपाली ने वेश्यावृत्ति का धन्धा कर हजारो परिवार बरबाद कर डालें । महात्मा बुद्ध ने देखा जब तक आम्रपाली नहीं धन्धा बन्द करेगी लोगों में सुधार होना कठिन है । इसलिए उन्होंने सीधा आम्रपाली को ही transform कर दिया । एक पुरूष, मात्र एक परिवार को ही परेशान कर सकता है परन्तु एक नारी तो हजारो परिवार बिगाड़ सकती हैं ।
यह कौन मूर्ख कहता है कि अनुशासन निभाने से समाज की उन्नति एक जाएगी । योगी तपस्वी, महापुरूषों ने सदा कठोर अनुशासनों, बंधनो का पालन किया व स्वंय भी आनन्दमय जीवन जिया और इस राष्ट्र को ऊँचा उठाया । आज समाज की विडम्बना यही है कि वैज्ञानिक उन्नति तो खूब हुयी परन्तु समाज में पश्चिमी सभ्यता का अन्धानुकरण होने से अनुशासनहीनता की प्रवृत्ति लोगों में पनपी । न सोने का ठीक समय, न खाने का समय न नहाने का समय । इस कारण आज कोर्इ भी सुखी नहीं हैं । सुख का आधार क्या है- अच्छा स्वास्थ्य? क्या अब लोगों का स्वास्थ्य अच्छा है- नहीं । अब से 50 वर्ष पूर्व लोग बड़े तगड़े, हट्टे कटे होते थे । क्या  इसके लिए वातावरण जिम्मेदार हैं ? लड़कियाँ कम उम्र में ही उल्टे सीधे खानपीन, अनुशासनहीन जीनव व कामुक वातावरण की चपेट में आकर Lucoria जैसे रोगों की गिरफ्त में आ जाती हैं । वो युवावस्था में ही स्वस्थ नहीं रह पा रही हैं कहाँ से स्वस्थ सन्तान उत्पन्न करेगीं । कामुकता का नशा शराब के नशे से ज्यादा घातक हैं । शराब का नशा तो व्यक्ति को 20 वर्ष में समाप्त करता है परन्तु कामुकता का नशा तो 2 वर्ष में ही उसकी रीढ़ तोड़ देता है । आँख पर चश्मा, सफेद बाल, पिचके गाल, चट-पट करती हड्डियाँ- कौन जिम्मेदार है इसका-मात्र कामुकता से पूर्ण वातावरण ।
सुनते है भीम जैसे ताकतवर युवा इस राष्ट्र में थे जो भूमि पर गौडा मारकर पानी निकाल देते थे । एक बार एक विद्यार्थी के पैर में प्लास्तर था मैनें कक्षा में पूछा यह क्या हुआ? सर बाथरूम में नहा रहा था पैर Slip हुआ व हड्डी टूट गयी । यह सब क्यों हो रहा हैं ? हमारी मूर्खता का परिणाम हैं । बन्दरों की तरह हम लोग हर चीज में west की नकल करते हैं । वहाँ की परिस्थितियाँ दूसरी है हमारे यहाँ की अलग हैं । यदि हम बिना सोचे समझे उनकी नकल करेगें तो हमारी वह हालत होगी धौबी का कुत्ता न घर का न घाट का । अपनी महान संस्कृति को भी गँवा दिया और उनके जैसे भी बन न पाए । हर जगह की कुछ अच्छाइयाँ है कुछ बुरार्इयाँ हैं । बुरार्इयाँ व्यक्ति जल्दी adopt कर लेता है । एक तगड़ा व्यक्ति सिगरेट पीता था दसरे कमजोर व्यक्ति ने भी उसकी नकल में सिगरेट पिने का प्रयास किया कुछ ही दिनों में उसके फेफडे़ खराब हो गए । भारत में व्यक्ति की चेतना अधिक सवेदंनशील है यदि इसको वासनात्मक मोड़ मिल गया तो पूरा समाज बरबाद हो जाएगा । इस संवेदनशील चेतना को आध्यात्मिक मोड़ देना अनिवार्य है ।
यही बात नारी चेतना के साथ हैं । नारी की संवेदनशील चेतना को यदि अनुशासित रखा गया तो उसका आत्मीयता, करूणा, कलाप्रेम, संगीत, सहयोगिनी के रूप में विकास होगा । यदि उसे अनुशासित न किया तो फैशनपरस्ती, वेश्यावृत्ति, भ्रष्टाचार जैसे दोष बढ़ते चले जाँएगे।