Wednesday, August 22, 2012

सन्यास के मार्ग का चयन


सन्यास का मार्ग मात्र बिरले साधक ही चुन सकते हैं । जिनका मन निष्काम कर्म करते-करते पवित्र हो गया है संसार की आसरिक्तयों गौण पड़ती जा रही है वही यह मार्ग अपनाने की सोचें । परन्तु जिनके मन में द्वन्द्व है, संषष्ज्ञ्र हैं कभी मन इधर दौड़ता है कभी उधर उनके लिए सन्यास एक सिरदर्द बन जाता है । ऐसे व्यक्ति के लिए भगवद्गीता कहती हैं-
संन्यासस्तु महाबाहो दु:खमाप्तुम् अयोगत: । 5/6
अनुकरण है महाबाहो यह सन्यास दु:खप्राप्ति का मार्ग बनकर रह जाता है । जन सामान्य इस मार्ग के दु:ख, कष्ट , प्रचण्ड झंझावातें के उलझ सकते हैं वह मार्ग सुपात्र ही चुन सकते हैं। परन्तु सुपात्रों के लिए यह परम आनन्द व मोक्ष का द्वारा खोल देता हैं । अत: पहले गृहस्थ आश्रम का मार्ग अपनाकर सन्यास के नायक मनोभूमि का निर्माण करना उचित हैं ।
पुराणों में कथा है युवराज कालभीति एवं महार्षि हरिद्रुम की। यह कथा बड़ी ही प्रेरक एवं मर्मसपर्शि है। युवराज कालभीति बड़े ही विशाल साम्राज्य के उतराधिकारी थे। उनके पिता सम्राट वीरमर्दन का यश चतुर्दिक फैला हुआ था। सम्राट ने युवराज कालभीति की शिक्षा व सस्कारों का उचित प्रंबंध किया था। संभवत: उच्चकोटि की इसी स्थिति के कारण युवराज कालभीति को वैराग्य हो गया। उन्होंने तप साधना करने की ठानी। शास्त्रों के अध्ययन व साधु संग से उन्हें जगत की नश्वरता का ज्ञान हो गया था। अब उन्हें तलाश थी, केवल एक सुचोग्य मार्गदर्शक की। उन्होंने जब अपने पिता सम्राट वीरमर्दन से अपनी मन:स्थिति की चर्चा की तो वह बोले-पुत्र! तुम्हारे शुभ विचारों से मैं सहमत हूँ। मानव जीवन तो होता ही है भगवत्प्राप्ति के लिए, पर विचारों की श्रेष्ठता के साथ कुछ और भी आवश्यक है।
‘‘यह कुछ और क्या है पिताश्री?’’- कालभीति ने पूछा। उतर में सम्राट वीरमर्दन ने कहा-’’ इस कुछ और के बारे में तुम्हें महार्षि हरिद्रुम बताएँगे।’’ कालभीति ने कहा-’’ पिताजी मैंने सोचा है कि मैं उनसे दीक्षा प्राप्त करके संन्यास लूँगा। ‘‘ सम्राट वीरमर्दन ने इस कथन पर अपनी सहमति प्रदान की। पिता से सहमति प्राप्त कर युवराज कालभीति ने अरण्य की ओर प्रस्थान किया। लंबी यात्रा करके वह महर्षि हरिद्रुम के आश्रम पहूँच गए। प्रणाम-अभिवादन के बाद उन्होंने अपना आने का मंवव्य बताया। युवराज कालभीति की सारी बातें सुनकर महर्षि हरिद्रुम ने कहा-’’ वत्स! तुम्हारे उद्देश्य से मैं पूर्णतया सहमत हूँ, परंतु अभी तुम्हारा विवेक अपरिपक्व है, इसलिए संन्यास हेतु तुम्हें अभी समय की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।’’
हरिद्रुम की इस बात ने कालभीति को आहत किया। उन्होंने कहा-’’ हे महर्षि! सांसारिक भोगों के प्रति मेरी दोषदृष्टि है। मुझे उनकी चाहत नहीं है। ‘‘ इस पर हरिद्रुम ने कहा-’’पुत्र! समय तुम्हारे सामने सत्य स्पष्ट करेगा, अभी मैं यही कह सकता हूँ।’’महर्षि के इस कथन से निराश कालभीति ने उसी वन में तप करने की ठान ली। वह वहीं कुटी बनाकर तपक रने लगे। ऐसा करते हुए उन्हें कुछ मास ही बीते थे कि वहाँ से एक दिन साँझ समय एक राजकुमारी की काफिला निकला। राजकुमारी ने देखा कि एक युवा व्यक्ति पास में कुटिया बनाए तपस्या में लीन है। वह युवा और कोई नहीं, युवराज कालभीति ही थे। वह राजकुमारी सौम्यदर्शना एक बड़े साम्राज्य की इकलौती वारिस थी। राजकुमारी सौम्यदर्शना पहली ही नजर में युवराज कालभीति से अतिशय प्रभावित हो गई ।
राजकुमारी ने अपने पिता को अपनी मनोदशा के बारे में बताया। पुत्री के प्रेम में विवश उसके पिता ने कालभीति के सामने सौम्यदर्शना के साथ विवाह का प्रस्ताव रखा। यह प्रस्ताव सुनकर कालभीति ने कहा-’’राजन्! यह संभव नहीं है। मेरे जीवन का उद्देश्य तप है। इसमें विवाह जैसी चीजों का कोई स्थान नहीं है।’’ यह सुनकर सौम्यदर्शना के पिता ने कहा-’’वत्स! तुम्हारे कथन का तुम्हारे लिए औचित्य हो सकता है, पर मैं तो एक पुत्री का पिता हूँ। तुम मुझे पिता-तुल्य मानकर हो सके तो मेरा एक निवेदन स्वीकार कर लो।’’ कालभीति ने कहा-’’ आप संकोच त्यागकर अपना मंतव्य कहें। ‘‘उतर में सौम्यदर्शना के पिता ने कहा-’’ तुम अपनी सारी बातें मेरी पुत्री को समझा दो।’’ कालभीति ने इस पर हामी भर दी।
इसके बाद कालभीति और सौम्यदर्शना परस्पर मिलने लगे। प्रारंभ में कालभीति ने सौम्यदर्शना को वैराग्य की बातें कहीं। जीवन के सुखों की नश्वरता समझाई , लेकिन जैसे-जैसे समय बीता उसके मन में सौम्यदर्शना के प्रति आसक्ति बड़ने लगी। उसके द्वारा अर्जित किया हुआ ज्ञान संस्कारबल के सामने क्षीण होने लगा। कुछ समय बाद उन दोनों का विवाह हो गया और कालभीति सौम्यदर्शना के राज्य का राजा बन गया। विवाह के एक वर्ष बाद उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई । यह सब होने के बाद भी कालभीति का मन यदा-कदा तप के लिए छटपटाने लगता। सौम्यदर्शना भी अब उस पर विशेष ध्यान नहीं देती थी। उसका मन अपने पुत्र में रम गया था। समय बीतता गया। उसका पुत्र अब किशोर से युवा होने लगा।
तभी एक दिन महर्षि हरिद्रुम ने उसके महल के द्वार पर आकर आवाज दी। वह जब दौड़कर बाहर पहुँचा, तब उसने हरिद्रुम को देखकर प्रणाम किया। इस पर उसे आशीष देते हुए हरिद्रुम ने कहा-’’ वत्स! अब तुम साधना के योग्य बन चुके हो। यदि तुम चाहो तो मैं तुम्हे दीक्षा दे सकता हुँ। ‘‘ महर्षि हरिद्रुम की बात सुनकर उसकी आँखों में आँसू आ गए। हरिद्रुम ने कहा-’’ वत्स अब तुम्हारे कर्म, संस्कार क्षीण हो चुके है। तुमने इस अवधि में जो अनुभव पाए है,वही तुम्हारा यथार्थ ज्ञान है। जो ज्ञान तुम्हें इसके पूर्व था, वह केवल रटा हुआ था। उसमें अनुभव का अमृत नहीं था।’’ कालभीति को यथार्थ बात समझ आ गई ।
महर्षि हरिद्रुम ने उसे प्रबोध कराते हुए कहा-’’ वत्स! पढ़े हुए अथवा सोचे हुए विचार प्रेरित तो करते है, परंतु संस्कारों से मुक्ति के लिए कठिन तप के साथ कर्म-मार्ग आवश्यक है। तुमने कर्ममार्ग पर चलकर धर्माचरण करते हुए स्वंय को शुद्ध कर लिया है। अब तुम तप की उच्च कक्षा में प्रवेश क अधिकरी हो।’’ हरिद्रुम की सभी बातें कालभीति की समझ में आ चुकीं थी। उसे यह बोध हो गया, केवल विचार पर्याप्त नहीं है, विचारों के साथ संस्कारों को भी क्षीण करना पड़ता है, तभी ज्ञान सार्थक हो पाता है।
इनके बीच के एक ओर कड़ी है जो आज के युग के लिए बहुत ही उपयुक्ता है वह है गृहस्थ सन्यासी की तरह रहना । लाहिडी महाश्य गृहस्थ थे सामान्य धोती कुर्त्ता व पहनते थे नौकरी करते थे । एक बार वो एक बहुत बड़े फिट पुरूष त्रेलंग स्वामी को मिलने गए । स्वामी जी अपने हजारों शिष्यों के साथ बैठे थे । उनको आना देखकर स्वामी जी जो उठ खड़े हुए व सम्मान पूर्वक लोहड़ी जी को बैढ़ाया । शिष्यों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि इस गृहस्थ के इतना सम्मान क्यों । स्वामी जी ने बताया कि जिसके पाने के लिए मुझ वर्षो तक कठिन साधना करनी पड़ी व रोटी का भी त्याग करना पड़ा, जी गृहस्थ में रहते हुए भी उसी परम पद पर प्रतिष्ठित हैं मुझमें व इनमें कोई भेद नहीं आज के युग में जहां खान-पान व पहनावा इतना अधिक प्रदूषित हो गया है गृहस्थ सन्यासी की भूमिका सर्वोत्तम जान पड़ती है ।
युग ऋषि श्री राम आचर्य जी के उनके गुरू महायोगी सर्वेश्वरा नन्द जी ने गृहस्थ सन्यासी की तरह रहने का आदेश दिया । आचार्य जी का जीवन एक गृहस्थ के लिए की अनुकरणायं है व एक सन्यासी के लिए इतना सुन्दर गृहस्थ जिससे आश्रय परम्परा की हजारों शिष्य उस परम्परा के लाभान्वित हुए । दूसरी ओर इतना प्रचण्ड तप, इतना बड़ा पुरूषार्थ लोक कल्याण के विभिन्न इतिहास में ऐसा उदाहरण कठिनता से ही देखेन को मिलता है । यह किसी भी सन्यासी का आदर्श हो सकता है । युग के अनुकूल धर्म व परम्पराओं का निर्वाह सर्वोत्तम होता है । ब्रहमचारी को नगें पेर रहना चाहिए यह सोचकर बिनोबा जी ने चप्पल जूता त्याग दिया । शीघ्र ही उनके पता चला कि यह युग के अनुकूल नहीं है इसमें दुख अधिक है व लाभ कम ।
इसी प्रकार भावावेष में आकर सन्यास लेना युगानुकूल नहीं हैं अत: सोच समझकर मात्र परिपक्व मानसिकता वाल श्रेष्ठ साधक ही सन्यास ग्रहण करें ।
महायोगी सर्वेश्वरा नन्द जी हजारों वर्षो से हिमालय में साधनारत है व सन्त कबीर के भी गुरू रह चुके हैं ऐसे प्रमाण मिलते हैं ।
(अधिक जानकारी के लिए पढ़ें book- हमारी वसीयत और विरासत पुस्तक http://www.awgp.org)
This book is also available on this blog.

Tuesday, August 21, 2012

आयुर्वेद - एक अद्भुत चिकित्सा पद्धति


भारतीय ऋषियों ने मानव जीवन के सभी पक्षों की बड़ी गहराई  से खोजबीन की है। दो क्षेत्रों में उनकी विशेष पकड़ रही है - संस्कार एवं चिकित्सा। मानव के आत्मा को उंचा उठाने के लिए संस्कार पद्धति जहां ऋषियों की अनमोल देन है वही स्वस्थ जीवन जीने के लिए आयुर्वेद का विशद भण्डार हमें प्रदान किया गया है।
आज के समय में चारों और symptomatic treatment का प्रचलन है रोग के अनुसार चिकित्सा की जाती है। परन्तु ऋषियों ने बड़ी गहराई में जाकर देखा कि मानव शरीर के तीन मूल आधार है वात, पित्त और कफ। यदि इन आधारों से कोई लड़खड़ाने लगे तो शरीर में रोग अथवा विकृतियां उत्पन्न होने लगती है। यदि इन आधारों के मजबूत किया जाए तो रोग स्वत: भागने लगते हैं।
उदाहरण के लिए यदि किसी के हाथ पैरों, जोड़ो का दर्द हो तो लहसुन दिया जाता है क्योंकि यह माना जाता है कि दर्द प्राय: वात विकार से होता है व लहसुन वात के लिए उपयोगी है। परन्तु यदि वात के साथ पित्त कुपित हो जाएं तो यही लहसुन नुकसानदायक हो जाएगा। दूसरा उदाहरण है वात किशोरों के महावात विध्वंसन रस एक औषधि मानी जाती है परन्तु यदि वात के साथ पित्त कुपित हो तो सूतशेखर रस दी जानी चाहिए।
ऋषियों का दिया हुआ यह विज्ञान आज अधिक कामयाब नहीं हो पाया है इसलिए सबसे बड़े दुख की बात है न तो मरीज न वैद्य, न सरकार, न दवा निर्माता कम्पनियां उन सिद्धान्तों के अपनाते हैं जिस पर आयुर्वेद टिका हुआ था।
पहले वैद्य लोगों के अपने औषधालय होते थे। अपनी देख रेख में वे ध्यानपूर्वक व श्रमपूर्वक दवाईया तैयार करते थे। परन्तु आज बड़ी-बड़ी दवा निर्माता कम्पनियां उन Protocols को follow ही नही करती जोकि आयुर्वेद के ग्रन्थों में वर्णित है।
यदि कोई बड़ा Group इसके लिए तैयार हो जो लाभ के लिए नही अपितु जनकल्याण के लिए आयुर्वेदिक परम्परा को पुर्नजीवित करे, तो मानवमात्र के लिए एक बहुत बड़ी सेवा होगी। पुराने जानकार वैद्य धीरे-धीरे आयु पूरी करते जा रहे हैं। नए वैद्यों को इस प्रकार की न तो मनोभूमि है न प्रयास। कहीं आयुर्वेद का यह अदभुत भण्डार यों ही विलुप्त न हो जाएं।
लोग बड़े-बड़े Engineering College शिक्षा संस्थान खोलते है क्या कोई  आयुर्वेद के उत्थान के लिए अपनी पूंजी, अपना समर्पण प्रस्तुत करना चाहेगा?
Anxiety  nervous weakness के लिए अश्वगन्धा अति उत्तम है परन्तु यदि यही समस्या पित्त कुपित होने के कारण हो रही है तो शतावर उत्तम औषधि हैं अश्वगन्धा नहीं।
यद्यपि लेखक को आयुर्वेद का अधिक ज्ञान नही है परन्तु जब लोगों को रोगों के कुचक्र में तडफता हुआ पाता हूं तो आत्मा बैचेन हो उठती है उनके लिए जड़ी बूटियां ढूंढता हूँ वैद्यों से सम्पर्क कर ज्ञानवर्धन कर पाता हूँ, यह एक ऐसा उपयोगी विज्ञान है जिसके बचाना अत्यावश्यक है।


                             हेतौ लिड़्गे प्रशमने रोगणाम पुनर्भवे।

ज्ञानं चतुर्विधं यस्य राजार्हो भिषक्तम:।। - चरक सूत्र 9-19

अर्थात रोगों की उत्पत्ति के कारण, रोगों को पहचानने के लक्षण, उत्पन्न हुए रोगों के प्रशमन और रोगों को पुन: होने देने का उपाय - इन चारों बातों का जिसे ज्ञान है वह राजाओं की चिकित्सा करने योग्य सर्वश्रेष्ठ वैद्य होता है।

Sunday, August 19, 2012

चेतना की शिखर यात्रा भाग-2(ग)



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चेतना की शिखर यात्रा भाग-2(ख)



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चेतना की शिखर यात्रा भाग-1(घ)



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Saturday, August 18, 2012

चेतना की शिखर यात्रा - एक अद्भुत आत्मकथा


Old births of Shri Ram Acharya: - Saint Kabir, Samarth Guru Ramdas and Swami RamKrishna Paramhansa.
Maharishi Shriram Sharma Acharya was a rishi of the present age whose heart breathed with divine love for all. Every moment of his life was devoted to the welfare of people and refinement of the moral and cultural environment of life. He also pioneered renaissance of spirituality and creative integration of modern and ancient sciences and religion -- in a manner, most relevant and necessary in the present circumstances of human life. His writings carry the force of his enlightened inner self and have the power to make his thoughts reach deep into the minds and hearts of the readers. Each of his books is a milestone, a guiding pillar in the corresponding discipline of knowledge. His eloquence, logical arguments, authentic references, illustrations and experiences, and comprehensive discussions with sound reasoning and intimacy with the readers’ psychology are indeed remarkable. Perhaps this is the reason why his literature has been well received by people from all walks of life possessing different intellectual and psychological backgrounds. His literature is also serving to be an effective mode of collective enlightenment. Be that the decipheration of the esoteric aspects of the subtle science of Kundalini Yoga and Shaktipata, etc; research directions on brain and consciousness etc, discussions on child psychology and family institutions etc; or, information on healthy food and modes of cheerfulness in routine life, etc, Acharya Sharma’s spontaneity and lucidity make every topic interesting and comprehensible. There is no place for illusion or misconception in his perspicuous analysis and guidance. His oral deliberations too manifest similar perfection of eloquence. The simplicity of language in his orations and his ability to set a live linkage with the audience has a hypnotizing effect on the listener’s mind. The spiritual charge and integrity of his character, consonance of his words with his deeds and purity of his sentiments add to the motivating power of his pen and voice. 
The detailed biography of this great saint is covered as next articles of the blog.
The present volumes sketches the life of Acharya Shri Ram ji. It gives us the rare opportunity to sharing his experiences in the great Himalayas, experiences of his spiritual endeavors, his devotion, his encounters with the ups and downs and ever-new challenges of an austere and duty-bond married life dedicated to social welfare. Above all, the volume would allow us to share with him, his serene love and compassion for all beings, which grew and expanded with every breath of his pious life. Gurudev Shriram was born on 20th September 1911 in Anvalkheda, Agra district in India. He scrupulously carried out the biddings of his Guru, a great Himalayan yogi, since he was 15 years old. He had lived in arduous places in the Himalayas several times for varied duration of time ranging from few days to several years.
(If pdf is required, Please let me know, it would be sent free of cost by mail.)

शानदार अध्यात्म का पुनर्जागरण


मित्रों! इस शानदार अध्यात्म और मजेदार अध्यात्म से क्या मतलब हैं? और हमें क्या करना चाहिए? हमको उस अध्यात्म को पुन: जागृत करना चाहिए। हमको यह तलाश करना चाहिए कि हम वे ऋषि कहां से लाएँ? हम ज्ञानी कहाँ से लाएँ? पंडित कहां से लाएं? वे व्यक्ति जिनके भीतर आध्यात्मिकता का प्रकाश आ गया है, वो व्यक्ति हम कहां से लाएं? हमें बड़ी कठिनाई होती है कि हम ऐसे व्यक्ति कहाँ से लाएँ, जो अपनी जिंदगी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा लगा सकें। हमको बड़ी निराशा होती है, खासतौर से उन लोगों से जिनके उपर जिम्मेदारियाँ नहीं हैं। वे सबसे ज्यादा कंजूस हैं। जिनके घर में बच्चे बड़े हो गए हैं और जो कमाने खाने लायक हो गए हैं, वे सबसे ज्यादा कंजूस हैं। जिनके पास घर में पैसा है, वे सबसे ज्यादा कंजूस हैं। लोभ और मोह ने इनको कसकर जकड़ रखा है और इनको हिलने नहीं देता। इसलिए हम उनको कहां से लाएं, जो वानप्रस्थ परम्परा की अध्यात्म की रीढ़ हैं, जिन्होंने अध्यात्म को जिंदा रखा था और जिंदा रखेंगे, उन्हें हम कहां से लाएं?
संतों की नई पीढ़ी का निर्माण
इसलिए मित्रो! हमने यह निश्चय किया है कि अब हम ब्राह्मणों की नई पीढ़ी पैदा करेंगे और संतों की नई पीढ़ी पैदा करेंगे। किस तरीके से पैदा करेंगे? हम एक-एक बूँद घड़े में इकट्ठा करके एक नई सीता बनाएँगे। जिस प्रकार से ऋषियों ने एक-एक बूंद रक्त देकर के एक घड़े में एकत्र किया था और उस घड़े को संभाल करके जमीन में गाड़ दिया था। फिर उस घड़े में से सीता पैदा हो गई थी। आध्यात्मिकता को पैदा करने के लिए हम उन लोगों के भीतर, जिनके भीतर पीड़ा है, जिनके अंदर दरद हैं, लेकिन घर की मजबूरियाँ जिनको चलने नहीं देती। घर की मजबूरियों की वजह से जो एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा सकते, अब हमने उनकी खुशामद करनी शुरू कर दी है।
नौकरी क्यों करेगा? जिस आदमी के हाथों नुस्खा लग गया है कि हमारे पाप तो गंगाजी में डुबकी मारने के बाद दूर हो ही जाना है और सवा रूपये की सत्यनारायण की कथा सुनने के बाद वैकुंठ मिल जाने वाला है। इतने सस्ते नुस्खे जिसके हाथ लग गए हैं, भला वो त्याग का जीवन जिएगा क्यों? कष्टमय जीवन जिएगा क्यों? त्याग करने के लिए तैयार होगा क्यों? संयम और सदाचार का जीवन व्यतीत करने के लिए अपने आपसे जद्दोजहद करनी पड़ती है। उसके लिए तैयार होगा क्यों? उसको तो किसी ने ऐसा नुस्खा बता दिया है कि तुमको समाज के लिए कोई त्याग करने की जरूरत नहीं है। अपने आपको संयमी और सदाचारी बनाने के लिए और तपस्वी बनाने के लिए कोई जरूरत नहीं है। आप तो सवा रुपये की कथा कहलवा लिया करिए और आपके लिए वैकुंठ का दरवाजा खुला हुआ पड़ा है।
मित्रो! यह झूठा और बेबुनियादी अध्यात्म जिनके दिमाग पर हावी हो गया है, उनको मैं अब कैसे बता सकता हूं कि आपको त्याग करना चाहिए और सेवा करनी चाहिए और कष्ट  उठाने चाहिए। उनके लिए यह नामुमकिन है, जो इतना सस्ता नुस्खा लिए बैठे हैं। वे शायद कभी भी तैयार नहीं होंगे। उनको मैं कैसे कह सकता हूं। हमारा अध्यात्म कैसा घृणित हो गया है। मुझे दु:खा होता है, बड़ा क्लेश होता है, मुझे रोना आता है, मुझे बड़ी पीड़ा होती है और मुझे बड़ा दरद होता है, जब मैं अध्यात्म की ओर देखता हूं।
मित्रों! कहीं अखंड कीर्तन हो रहे हैं, कहीं अखंड रामायण पाठ हो रहा हैं, कहीं क्या हो रहा है, कहीं क्या हो रहा हैं? यह सारे के सारे कर्मकांड बड़े जोरों से चल रहे हैं। लेकिन जब हम वही अखंड पाठ करने वालों और अखंड रामायण पढ़ने वालों के जीवनों को देखते हैं कि क्या उनके भीतर वह मादा है, जो अध्यात्मवादी के भीतर होना चाहिए? क्या इनके जीवन के क्रियाकलाप वह हैं, जो अध्यात्मवादी के होने चाहिए? हमको बड़ी निराशा होती है, जब यह मालूम पड़ता है कि सब कुछ उल्टा-पल्टा हो रहा है। अध्यात्म की दिशाएं अच्छी हैं, पर हो बिल्कुल उल्टा रहा है।

राम का नाम नहीं काम जरूरी


मित्रों! अध्यात्म वहां से शुरू होता है, जहां से आप राम का नाम लेना शुरू करते हैं और राम का नाम लेने के बाद राम का काम करने की हिम्मत दिखाते हैं और राम की ओर कदम बढ़ाने की जुर्रत करते हैं।   आज वह परम्पराएं समाप्त हो गई । इसलिए हिन्दुस्तान खुशहाल नहीं हो सकता । हो भी कैसे सकता है? जिस देश में समाज को ऊँचा उठाने के लिए, मानव जाति की पीड़ा और पतन को दूर करने के लिए आदमी कुरबानी करने के लिए तैयार न हों, वहाँ किस तरीके से खुशहाली आ सकती हैं?
कहाँ है हिन्दुस्तान का अध्यात्म
हमारा अंतरंग जीवन भिखारी जैसा है। जहाँ कहीं भी गए, हाथ पसारते हुए गए। लक्ष्मी जी के पास गए तो हाथ पसारते हुए गए, संतोषी  माता के पास गए तो हाथ पसारते हुए गए। हनुमान जी के पास गए तो हाथ पसारते हुए गए। दर-दर पर हम कंगाल होकर गए। मित्रा! क्या अध्यात्मवादी दर-दर माँगने वाला कंगाल होता है? नहीं, अध्यात्मवादी कंगाल नहीं होता है। वह राजा कर्ण के तरीके से दानी होता है, उदार होता है, उदात होता है। लेकिन जब हम तलाश करते हैं कि हिन्दुस्तान में कहीं भी क्या अध्यात्म जिंदा है, तो हमको पुजारियों की संख्या ढेरों की ढेरों दिखाई पड़ती है, पर अध्यात्म हमको कहीं दिखाई नहीं पड़ता है। यह देखकर हमारी आँखों में चक्कर आ जाता है कि हिन्दुस्तान में से अध्यात्म खत्म हो गया। दूसरे देशों में अध्यात्म है। इंग्लैंड और दूसरे देशों में जब हम पादरियों को देखते हैं, जहां खाने-पीने और रहने की सुविधाएं हैं, जहां सड़कें हैं, जहाँ रेलगाड़ियाँ हैं, जहाँ टेलीफोन हैं, जहाँ बिजली हैं, उन सुविधाओं को छोड़ करके अफ्रीका के कांगों के जंगलों में, हिन्दुस्तान के बस्तर के जिलों में, नागालैंड के जंगलों में चले जाते हैं, जहां सिवाय कष्ट  और तकलीफ के और क्या मिल सकता हैं? वहां कोई चीज नहीं है। मेरे मन में आता है कि इनके पैर धोकर पीना चाहिए। क्यों? क्योंकि इन्होंने अपनी जिंदगी में अध्यात्म को समझा है। अध्यात्म का स्वरूप और मर्म समझा है कि अध्यात्म किसे कहते हैं और धर्म किसे कहते हैं।
मित्रो! हमने तो इनका मर्म कभी समझा ही नहीं। हमने तो रामायण को पढ़ने का मतलब ही धर्म मान लिया। हमने तो माला घुमाने को ही धर्म मान लिया। हमारी यह कैसी फूहड़ व्याख्या है? इन व्याख्याओं का मतलब कुछ भी नहीं है। जिस स्तर के हम लोग हैं, ठीक उसी स्तर की व्याख्या हम लोगों ने कर लीं है। ठीक उसी स्तर के भगवान को हमने बना लिया है। ठीक उसी स्तर की भगवान की भक्ति को बना लिया है। सब चीजें हमने उसी तरह से बना ली हैं, जैस कि हम थे।
मित्रों! हमको संसार में फिर से अध्यात्म लाना हैं, ताकि हमारे और आपके सहित हर आदमी के भीतर एवं चेहरे में चमक आए, तेज आए और हम सब विभूतिमान होकर जिएँ। हम शानदार होकर जिएँ और जहां कहीं भी हमारी हवा फैलती हुई चली जाएं, वहां चंदन के तरीके से हवा में खुशबू फैलती हुई चली जाएं। गुलाब के तरीके से हवा में हमारी खुशबू फैलती हुई चली जाए। हम जहां कहीं भी अध्यात्म का संदेश फैलाएं, वहां खुशहाली आती हुई चली  जाए। इसलिए मित्रों! हम अध्यात्म को जिंदा करेंगे। उस अध्यात्म को जो ऋषियों के जमाने में था। उन्होंने लाखों वर्षो तक दुनिया को सिखाया, हिन्दुस्तान वालों को सिखाया, प्रत्येक व्यक्ति को सिखाया, लेकिन वह अध्यात्म अब दुनिया में से खत्म हो गया, अब नहीं है। हिन्दुस्तान में तो नहं ही रह गया है और दुनिया में कहीं रहा होगा तो रहा होगा। हिन्दुस्तान में हम फिर से उसी अध्यात्मक को लाएंगे जिससे कि हमारी पुरानी तवारीख को इस तरीके से साबित किया जा सके। फिर हम दुनिया को वही शानदार लोग देने में समर्थ हो सकेंगे, जैस कि वैज्ञानिकों ने दिए हैं।
मित्रों! वैज्ञानिकों को धन्यवाद है कि उन्होंने हमारे लिए पंखे दिए, बिजली दी, टेपरिकार्डर दिए, घड़ी दी। ये चारों चीजें लिए हम यहां बैठे हैं। उनको बहुत धन्यवाद है और अध्यात्मक विज्ञान का? अध्यात्म विज्ञान का एहसान इससे लाखों गुना बड़ा था। उसने हमारे बहिरंग जीवन के लिए सुविधाएं दीं और आध्यात्मिक जीवन में मनुष्य के भीतर दबी हुई खदानें, जिनमें हीरे भरे हुए हैं,
रामतनु लाहिड़ी कलकत्ता के प्रसिद्ध समाजसुधारक थे। एक बार वे अपने मित्र के साथ कहीं जा रहे थे कि उनकी नजर सामने से आते एक व्यक्ति पर पड़ी। अभी तक उस व्यक्ति ने लाहिड़ी जी को नहीं देखा था। वे तुरंत एक पेड़ की आड़ में छिपए गए और उस व्यक्ति के गुजर जाने के बाद ही वहां से निकले। उनके मित्र को उनका यह व्यवहार कुछ विचित्र लगा। उसने उनसे ऐसा करने का कारण पूछा तो वे बोले - ‘‘उन सज्जन ने मुझसे कुछ रूपयों का उधार लिया हुआ है, हर बार मेरे सामने पड़ने पर वे अनेक प्रकार के झूठे बहाने बनाते हैं, जिससे मेरा मन बड़ा दुखी होता है। धर्म सिर्फ स्वयं द्वारा किए गए सत्कर्मो को नहीं कहते, वरन दूसरे के अनीतिपूर्ण आचरण को न होने देना भी धार्मिकता की सच्ची पहचान है।’’ उकना उत्तर सुन उनके मित्र बड़े प्रभावित हुए।
अध्यात्म इस छोटे से इनसान को, नाचीज इनसान को जाने क्या से क्या बना कर रख देता है। ऐसा है अध्यात्म, जो एक जुलाहे को कबीर बना देता है, एक छोटे से व्यक्ति को संत रविदास बना देता है, नामदेव बना देता है। यह छोटे-छोटे आदमियों को, बिना पढ़े-लिखे आदमियों को जाने क्या से क्या बना देता है। यह बड़ा शानदार अध्यात्म है और बड़ा मजेदार अध्यात्म हैं।