Sunday, September 28, 2014

सनातन धर्म का प्रसाद - third edition

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सितम्बर मास की महत्वपूर्ण घटनाएँ

भारतीय संस्कृति में 9 का अंक पूर्ण अंक  अत्यन्त शुभ माना जाता है। इस हिसाब से 9 वाँ महीना सितम्बर का पड़ता है यह मास भारतीय इतिहास में बहुत ही महत्वपूर्ण है जिसका विवरण निम्न है।

1 स्वामी विवेकानंद को ख्याति इसी माह में मिली थी उनका शिकागों के विश्व धर्म सम्मेलन में भाषण 11 सितम्बर 1893 को हुआ था।
2 युग ऋषि श्री राम आचार्य जी का जन्म 20 सितम्बर 1911 को हुआ था। अपने प्रचण्ड तप से उन्होनें 21वी सदी उज्जवल भविष्य  विश्व कुण्डलिनि जागरण की घोषणा की।
उनकी पत्नी माता भगवती देवी जी का जन्म 20 सितम्बर 1926 को हुआ था। 
3 देश की आजादी के लिए स्वेच्छा से अपनी दर्दनाक मौत का चयन करने वाले जतिन बाघा का बलिदान दिवस भी 13 सितम्बर 1929 को था। उनकी कुर्बानी ने भगत सिंह  अन्य युवाओं के रोम-2 में क्रान्ति की आग भर दी थी।
4 शहीद-ऐ-आज़म भगत सिंह का जन्म 28 सितम्बर 1907 को हुआ था। 
5. लाहिड़ी महाशय का जन्म 30 सितम्बर 1828 र्इñ को एक धर्मनिष्ठ प्राचीन ब्राह्मण कुल में बंगाल के नदिया जिले में स्थित घुरणी ग्राम में हुआ था।

एकनाथ जी महाराज के श्राद्ध में पितृगण साक्षात् प्रकट हुए

     एकनाथ जी महाराज श्राद्धकर्म कर रहे थे। उनके यहाॅं स्वादिष्ट व्यंजन बन रहे थे। भिखमंगे लोक उनके द्वार से गुजरे। उन्हें बड़ी लिज्जतदार खुशबू आई। वे आपस में चर्चा करने लगेः आज तो श्राद्ध है... खूब माल उड़ेगा।
दूसरे ने कहाः यह भोजन तो पहले ब्राह्मणों को खिलाएॅंगे। अपने को तो बचे-खुचे जूठे टुकड़े ही मिलेंगे।
     एकनाथ जी ने सुन लिया। उन्होंने अपनी धर्मपत्नी गिरजाबाई से कहाः ब्राह्मणों को तो भरपेट बहुत लोग खिलाते हैं। इन लोगों में भी तो ब्रह्म-परमात्मा विराज रहा है। इन्होंने कभी खानदानी ढंग से भरपेट स्वादिष्ट भोजन नहीं किया होगा। इन्हींको आज खिला दें। ब्राह्मणों के लिए दूसरा बना दोगी न? अभी तो समय है।
     गिरजाबाई बोलीःहाॅं हाॅं पतिदेव! इसमें संकोच से क्यों पूछते हैं?“
     गिरजाबाई सोचती हैं किः मेरी सेवा में जरूर कोई कमी होगी, तभी स्वामी को मुझे सेवा सौंपने में संकोच हो रहा है।
     अगर स्वामी सेवक से संकुचित होकर कोई काम करवा रहे हैं तो यह सेवक के समर्पण की कमी है। जैसे कोई अपने हाथ-पैर से निश्चिन्त होकर काम लेने लग जाए तो सेवक का परम कल्याण हो गया समझना।
     एकनाथ जी ने कहाः ”...तो इनको खिला दें।
     उन भिखमंगों में परमात्मा को देखने वाले दम्पती ने उन्हें खिला दिया। इसके बाद नहा-धोकर गिरजाबाई ने फिर से भोजन बनाना प्रारम्भ कर दिया। अभी दस ही तो बजे थे मगर सारे गाॅंव में खबर फेल गई किः जो भोजन ब्राह्मणों के लिए बना था वह भिखमंगों को खिला दिया गया। गिरजाबाई फिर से भोजन बना रही है।
     सब लोग अपने-अपने विचार के होते हैं। जो उद्दंड ब्राह्मण थे उन्होंने लोगों को भड़काया किः यह ब्राह्मणों का घोर अपमान है। श्राद्ध के लिए बनाया गया भोजन म्लेच्छ लोगों को खिला दिया गया जो कि नहाते-धोते नहीं, मैले कपड़े पहनते हैं, शरीर से बदबू आती है... और हमारे लिए भोजन अब बनेगा? हम जूठन खाएॅंगे? पहले वे खाएॅं और बाद में हम खाएॅंगे? हम अपने इस अपमान का बदला लेंगे।
     तत्काल ब्राह्मणों की आपातकालीन बैठक बुलाई गई। पूरा गाॅंव एक तरफ हो गया। निर्णय लिया गया किः एकनाथ जी के यहाॅं श्राद्ध कर्म में कोई नहीं जाएगा, भोजन करने कोई नहीं जाएगा ताकि इनके पितर नर्क में पड़ें और इनका कुल बर्बाद हो।
     एकनाथ जी के घर के द्वार पर लट्ठधारी दो ब्राह्मण युवक खड़े कर दिए गए।
     इधर गिरजाबाई ने भोजन तैयार कर दिया। एकनाथ जी ने देखा कि ये लोग किसी को आने देने वाले नहीं हैं।...तो क्या किया जाए? जो ब्राह्मण नहीं आ रहे थे, उनकी एक-दो पीढ़ी में पिता, पितामह, दादा, परदादा आदि जो भी थे, एकनाथ जी महाराज ने अपनी संकल्पशक्ति, योगशक्ति का उपयोग करके सबका आवाहन किया। सब प्रकट हो गए।
     क्या आज्ञा है, महाराज!
     एकनाथ जी बोलेः बैठिए ब्राह्मणदेव! आप इसी गाॅंव के ब्राह्मण हैं। आज मेरे यहाॅं भोजन कीजिए।
     गाॅंव के ब्राह्मणों के पितरों की पंक्ति बैठी भोजन करने। हस्तप्रक्षालन, आचमन आदि पर गाये जाने वाले श्लोकों से एकनाथ जी का आॅंगन गूॅंज उठा। जो दो ब्राह्मण लट्ठ लेकर बाहर खड़े थे वे आवाज सुनकर चैंके! उन्होंने सोचाः हमने तो किसी ब्राह्मण को अंदर जाने नहीं दिया।दरवाजे की दरार से भीतर देखा तो वे दंग रह गए! अंदर तो ब्राह्मणों की लम्बी पंक्ति लगी है... भोजन हो रहा है!
     जब उन्होंने ध्यान से देखा तो पता चला किः अरे! यह क्या? ये तो मेरे दादा हैं! वे मेरे नाना! ये तो उसके चाचा! वे उसके  परदादा!
     दोनों भागे गाॅंव के ब्राह्मणों को खबर करने। उन्होंने कहाः हमारे और तुम्हारे बाप-दादा, परदादा, नाना, चाचा इत्यादि सब पितरलोक से उधर आ गए हैं। एकनाथ जी के आॅंगन में श्राद्धकर्म करवाकर अब भोजन पा रहे हैं।
     गाॅंव के सब लोग भागते हुए आए एकनाथ जी के यहाॅं। तब तक तो सब पितर भोजन करके विदा हो रहे थे। एकनाथजी उन्हें विदाई दे रहे थे। गाॅंव के ब्राह्मण देखते ही रह गए! आखिर उन्होंने एकनाथजी को हाथ जोड़े और बोलेः महाराज! हमने आपको नहीं पहचाना। हमें माफ कर दो।
     इस प्रकार गाॅंव के ब्राह्मणों एवं एकनाथ जी के बीच समझौता हो गया। 

Sunday, September 21, 2014

प्रेरणाप्रद प्रसंग

कहानी नम्बर 1
            एक बार महान सन्त दादूदयाल जी अपने शिष्यों के साथ कहीं जा रहे थे। अचानक उनकी निगाह जमीन पर पड़े एक अर्धमृत कनखजूरे पर पड़ी जिसको चीटियाॅं नोंच रही थी और वह अपने बचाव के लिए तड़प रहा था। सन्त जी कुछ पल के लिए वहाॅं रूके व ध्यान में चले गए। ध्यान की गहराईंयों में उन्होंने देखा कि वह कनखजूरा पुराने जन्म में एक कंजूस सेठ था जो अपने नौकरों से क्रुरतापूर्वक काम कराता था और छोटीं-छोटीं गलतियों पर उनका वेतन काट लिया करता था। अब वही सारे नौकर चीटियाॅं बनकर उसको नोंच-नोंच कर अपना पुराना भुगतान पूरा कर रहे हैं। इसलिए हमें कर्म करते हुए सदा सावधान रहना चाहिए किसी ने सत्य ही कहा है- ‘‘दूसरों के साथ वह व्यवहार मत करो जो तुम्हें अपने लिए पसन्द नहीं’’
‘‘अपने प्रति कठोर व दूसरों के प्रति उदार रहना ही सच्चे इंसान की पहचान है’’

कहानी नम्बर दो
एक बार एक नगर में एक सेठ और एक गरीब व्यक्ति आमने-सामने रहते थे सेठ जी का सदैव प्रयास रहता था कि नगर के प्रसिद्ध शिव मन्दिर में सर्वप्रथम उनके द्वारा चढ़ाया हुआ भोग अर्पित हो जिससे कि उनको परलोक में सद्गति मिले। सेठ जी सदैव मन्दिर में दान-पुण्य पूजा-पाठ कराते रहते थे। उनके सामने रहने वाला गरीब व्यक्ति रोज श्याम को एक तेल का दीपक जलाकर अपने घर के बाहर इस भाव से रखता था कि जो भी उस मार्ग से गुजरे उसको ठोकर न लगे। कालवश उन दोनों की मृत्यु एक ही समय पर हो गई जब दोनों यमलोक पहुॅंचे तो यमराज ने अपने दूतों को आदेश दिया कि गरीब व्यक्ति को तुरन्त स्वर्ग भेज दिया जाए और सेठ जी को अभी यमलोक में ही रोक लिया जाए इनके अच्छे-बुरे कर्मों का हिसाब-किताब दिया जाएगा तो सेठ ने यमराज से रोष प्रकट करते हुए कहा कि यह गरीब व्यक्ति कभी किसी पूजा-पाठ में सम्मिलित नहीं हुआ आपने इसे स्वर्ग भेजा। मैनें नियमित पूजा-पाठ कराया आप मेरे कर्मों का हिसाब कर रहे हैं। यमराज ने जवाब दिया कि यह नित्य प्रति खून-पसीना बहाकर मजदूरी करके अपने परिवार का पेट पालता था और घर में गरीबी होते हुए भी शाम को दूसरे के भले के लिए तेल का दीपक जलाता था इसने कभी अपना स्वार्थ नहीं सोचा। परन्तु आप सदा अपने स्वार्थों में उलझे रहे जो दान-पुण्य, पूजा-पाठ कराए उसकी भी आपने गणना (Calculation) की कि क्या कराने से आपको स्वर्ग मिलेगा। यमराज ने पुनः कहा कि जब आपने सारा जीवन हिसाब-किताब किया तो हमें भी आपके कर्मों का हिसाब-किताब अवश्य करना पड़ेगा यदि आपने उस गरीब व्यक्ति की तरह अपने बारे में न सोच कर निस्वार्थ भाव से दूसरों का भला किया होता तो आपको भी सीधे स्वर्ग भेज दिया जाता। किसी ने सत्य ही कहा है
            परहित सरस धर्म नहि भाई।
            परपीड़ा सम नहि अघ माहि।।


Wednesday, September 17, 2014

पांच दुर्लभ चीजें

पाप से अपने को बचानाः चुगली, निन्दा और अशुद्ध आहार से अर्थात् पापजनक आहार व पापजनक व्यवहार से अपने को बचाना। वास्तव में जीव खुद निष्पाप है। वास्तव में आप ब्रह्म-परमात्मा के अविभाज्य अंग हैं, शुद्ध हैं किन्तु अशुद्ध वासनाओं से मिलकर अशुद्ध हो जाते हैं, अशुद्ध कर्मां से मिलकर अशुद्ध हो जाते हैं। इसलिएः
            जानिअ तबहिं जीव जग जागा।
            जब सब बिषय बिलास बिरागा।।
परमात्मा के पद में रुचि हो। और यह रुचि कैसे हो? बार-बार उसका नाम लो, उसका गुणगान करो, उसको प्रति करो।
निरपेक्षताः किसी से हमें कुछ चाहिए नहीं। जितनी निरपेक्षता आएगी उतना मनुष्य ब्रह्मात्व में जल्दी जग जाएगा। अपेक्षा ही ब्रह्म-परमात्मा से दूर रखती है।
सहनशक्तिः सास ने कुछ कह दिया, बहू ने, भाई ने, बेटे ने कुछ कह दिया या दुश्मन ने कुछ सुना दिया तो उद्विग्न न हों, धैर्य रखें। फिर उसको समझायें कि यह ऐसा नहीं, ऐसा है।ऐसा करने वाला आदमी बड़ा प्रभावशाली हो जाएगा।
प्रिय बोलने की शक्तिः यह बड़ी दुर्लभ चीज है। जो किसी से भी मीठी बात नहीं करता, वह अशांत व्यक्ति सभी के द्वेष का पात्र बन कर रह जाता है। लोगों से मिलते समय जो स्वयं ही बात आरंभ करता है और सबके साथ प्रसन्नता से बोलता है, उस पर सब प्रसन्न रहते हैं। जो मधुर वचन बोलता है, दूसरों को मान देता है उसका आंतरिक आनन्द बढ़ जाता है। अं...अॅं...हॅंू...हूॅंह...करके जो दूसरों को नीचा दिखाता है, उसने जीना सीखा ही नहीं। अहं भरी मानसिकता, शुष्कता व अहंकारवाली वाणी नहीं, प्रेम-नम्रता, निस्वार्थता और सारगर्भित वाणी हो। आप अमानी रहें, दूसरों को मान दें।
दान देने की शक्तिः पैसा आना कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन देने कि शक्ति होनी चाहिए। कंजूस ब्याज-पे-ब्याज ले-ले के, सम्भाल-सम्भाल के और अंत में छोड़ के मर जाता है। भगवान की कृपा तब देने की शक्ति आती है।

            यदि आप में ये पांच सद्गुण आ गए तो ब्रह्मत्व में प्रतिष्ठित करने में रह महापुरुष हॅंसते-खेलते आपको ब्रह्मसुख में, ईश्वरीय सुख में ले जा सकते हैं।

Sunday, September 14, 2014

आदर्शवादिता

अजय और समीर पार्क में खेल रहे थे। अचानक अजय बोला - दोस्त, एक बात बता! बड़े होकर अगर तेरे पास दो गाडि़याॅं होंगी, तो क्या तू मुझे एक गाड़ी उपहार के रूप में दे देगा?’
समीर - अरे बिल्कुल! भला इसमें भी कोई पूछने वाली बात है? दोस्ती पहले आती है, बाद में संसार की चीजें।
अजय - अच्छा, अगर तेरे पास दो-दो आलीशान बंगले होंगे, तो क्या तब भी तू मुझे अपना एक बंगला उपहार में दे देगा?
समीर- हाॅं, हाॅं मित्र, पक्का दे दूॅंगा। तेरे बिना कहे ही, मैं अपना एक बंगला तेरे नाम कर दूॅंगा।
अजय - क्या बात है मित्र! तेरे जैसे दोस्त हर किसी को मिलें... अच्छा, तेरे पास यदि दो अच्छी पेन्सिलें हों, तो क्या तू मुझे एक दे देगा?
समीर (एकदम से) - बिल्कुल नहीं!
अजय (हैरानी से) - पर क्यों? पेन्सिल तो गाड़ी और बंगले के सामने बहुत छोटी चीज है।
समीर - बुद्धु, मेरे पास न अभी दो गाडि़याॅं हैं, न बंगले। इसलिए मैंने कह दिया कि मैं तुझे इनमें से एक-एक दे दूॅंगा। पर मेरे पास दो बहुत अच्छी पेन्सिलें तो अभी ही हैं। अगर मैं हाॅंकह दूॅंगा, तो मुझे तुझे वे अभी देनी पड़ेगी, जो मैं कतई नहीं दूॅंगा। वे मेरी हैं। तुझे क्यों दूॅं?

            आज हर इंसान समीर की तरह अपने आप को बहुत आदर्शवादी दिखाता है। भाषण देने को, वायदे करने को सपने दिखाने को, आदर्श झाड़ने को तो बहुत होते हैं उसके पास! लेकिन जब वास्तविकता में कुछ करने की बात आती है, तो हो जाती है उसकी टायॅं-टायॅं फिस्स!