Wednesday, August 20, 2014

पश्चाताप के आँसू

            मुक्ति बड़ी होनहार लड़की थी। वह अपनी कक्षा में सदैव प्रथम आती थी और पुरस्कार जीतती थी। यही नहीं उसके सद्व्यवहार के कारण स्कूल में सभी उससे प्यार करते थे। वह सदैव सच ही बोलती थी। साथियों से प्यारी बातें करती थी। सबकी सहायता करती थी। यह सब उसके माता-पिता की सीख का परिणाम था। उसकी माँ सोते समय अच्छी-अच्छी कहानियाँ सुनाती थी। उनसे उसे अच्छा बनने की प्रेरणा मिलती थी। मुक्ति अब चैथी कक्षा में आ गयी थी। वह कक्षा की मानीटर भी थी। उसकी कक्षा में इस बार बाहर से एक लड़की आयी। उसका नाम पूनम था। पूनम जल्दी ही मुक्ति की सहेली बन गयी। यों पूनम पढ़ने-लिखने में अधिक होशियार न थी, पर वह रोज नये-नये कपड़े पहनकर आती थी। साथियों को खूब ही चाट खिलाती थी। इससे बहुत-सी लड़कियाँ उसकी सहेली बन गयी थी। पूनम के पिता बड़े धनी थे। वे उसे भी बहुत-सा जेब खर्च देते थे और उसे पूनम अनाप-शनाप चीजों में खर्च करती थी।
            यों जेब खर्च तो मुक्ति को भी मिलता था, पर उसकी माँ कहा करती थी-बेटी! बाजार की सड़ी-गली चीजें या चाट-चाकलेट खरीदने में इसे खर्च न करना। कभी-कभी ये चीजें खा लेना, पर रोज की आदत न बनाना।अक्सर होता यह था कि जो भी फल या कोई चीज के लिये बच्चे कहते तो मुक्ति की माँ स्वयं ही बाजार जाकर उसे खरीद लाती या फिर घर बना लेती। फिर सब मिलकर उसे खाते। मुक्ति की माँ ने उसे एक सुन्दर भालू वाली गुल्लक लाकर दे दी थी। मुक्ति अपने रोज के पैसे उसमें ले जाकर डाल देती थी। कभी-कभी वह गुल्लक से पैसे निकालती थी। पूनम का रोज का ही काम था कि खाने की छुट्टी में वह तरह-तरह की चीजें खाया करती थी। वह अकेली ही नहीं खाती थी, अपनी सहेलियों को भी खिलाती थी। मुक्ति अपना खाना खा रही होती तो वह जबरदस्ती उसे ले जाती और कहती- मुक्ति! खाना तो घर पर खाते ही है। आओ आज गोलगप्पे खायेगे।
            मुक्ति कहती-नहीं! मैं पैसे नहीं लायी हँू।
            ‘कोई बात नहीं मैं तुम्हारे पैसे दे दूँगी।पूनम कहती। मुक्ति उसे समझाती कि तुम मेरे पैसे क्यों दोगी? तो पूनम बोलती कि तुम मेरी सहेली हो न इसलिये। पर यह सारा खाना बेकार जायेगा।मुक्ति कहती। पूनम कहती वह सारा खाना लेकर रास्ते में कुत्ते को डाल देगी। धीरे-धीरे पूनम के साथ रहकर मुक्ति को भी बाजार की चीजों में पैसे खर्च करने की आदत बन गयी। कुछ दिन तक तो पूनम ने अपने पैसों से खिलाया फिर एक दिन बोली--क्यों मुक्ति ! तुम्हें जेब खर्च के लिये पैसे नहीं मिलते।
            ‘हाँ मिलते तो हैं।मुक्ति ने उत्तर दिया।
            ‘तो फिर तुम रोज-रोज पैसे क्यों नहीं लाती हो?’ पूनम ने पूछा। मैं उन्हें जोड़ती रहती हँू। उनसे कभी कोई चीज खरीद लेती हँू कभी कोई। अबकी बार अपने छोटे भाई के जन्मदिन पर उछलने वाला मेंढक खरीदूँगी।’ ‘ओह मुक्ति! तुम किस चक्कर में फँसी हो।रोज-रोज चीज खाने में जो मजा आता है वह पैसे जोड़ने में कहाँ आता है।पूनम ने सबक दिया। पूनम की संगति से धीरे-धीरे मुक्ति भी चटोरी बनने लगी। अब वह रोज पैसे लाने लगी। घर से लाया खाना वह किसी लड़की को दे देती तो कभी कुत्ते के आगे डाल देती। घर की चीजें अब उसे नीरस लगने लगीं। एक दिन मुक्ति की गुल्लक के भी सारे पैसे खर्च हो गये। वह सोच रही थी कि आज मैं चाकलेट कैसे खरीदूँगी? तभी उसकी निगाह मेज पर रखे माँ के पर्स पर पड़ी। मुक्ति ने एक बार सतर्क निगाहों से चारों ओर देखा और फिर झट से पाँच रूपये का एक नोट निकाल लिया।
            पर्स में काफी रुपये थे। अतएव मुक्ति की यह चोरी किसी की पकड़ में न आयी। अब तो मुक्ति और भी निर्भीक बन गयी। कभी वह माँ के पर्स से पैसे निकालती तो कभी पिता की जेब से। माता-पिता परेशान थे कि आखिर रुपये कौन चुरा ले जाता है। उनका सन्देह महरी पर गया, पर महरी तो कमरे के अन्दर आती तक न थी। वह बाहर से ही काम करके लौट जाती थी। दूसरे जब महरी काम करती थी तो दादी अम्मा बाहर बरामदे में बैठी उसकी निगरानी करती थीं। मुक्ति के माता-पिता समझ नहीं पर रहे थे कि रुपये आखिर कहाँ जाते है? मुक्ति और उसके भाई-बहिनों से कुछ माता-पिता पूछते तो वे भी साफ मना ही कर देते थे कि हमने तो रुपये नहीं देखे।
            एक दिन घर में बहुत से मेहमान आये थे। मुक्ति की माँ ने उसके पिताजी से कहा कि वह मेहमानों के खाने के लिये बाजार से चीजें ले आयें। पिताजी ने जल्दी से पेण्ट बदली, थैला उठाया और बाजार चल पड़े। बाजार में मुक्ति के पिताजी ने पहले बहुत सारे फल खरीदे। उन्होंने रुपये देने के लिये जेब से पर्स निकाला। पर यह क्या? वहाँ तो एक भी रुपया नहीं था। कुछ पैसे मात्र पड़े थे, पर आज सुबह ही तो उन्होंने पाँच-पाँच के दो नोट रखे थे। अब तो उनका सर चकरा गया कि पैसे आखिर गये तो कहाँ गये? किसने कब निकाल लिये? फल वाले ने मुक्ति के पिताजी को बड़ा अपमानित किया। कहा-बाबूजी! पहले घर पर ही अपना पर्स देख लिया कीजिये, फिर बाजार आया कीजिये। यदि खरीदने की सामथ्र्य नहीं है तो व्यर्थ में किसी भले आदमी को तंग न कीजिये।
            मुक्ति के पिताजी अपमान का घूँट पीकर रह गये। अपना-सा मुँह लेकर वे घर की ओर बढ़ने लगे। उन्होंने समझा कि मुक्ति की माँ ने बिना कहे पैसे निकाल लिये हंै, इसलिये आते ही वे उन पर झल्लाने लगे। पर मुक्ति की माँ ने तो पैसे निकाले नहीं थे। उन्होंने भी कह दिय कि मैंने तो आपका पर्स छुआ तक नहीं हैं। घर में जो कुछ भी था वह खिला-पिलाकर मेहमानों को विदा किया गया। रात के समय प्रतिदिन की भाँति घर के सभी सदस्य मिल-जुलकर बैठे। मुक्ति के पिताजी ने बताया कि किस प्रकार आज उन्हें फल वाले से अपमानित होना पड़ा था। उसने किस प्रकार से उन्हें लताडें़ लगायी थीं। पिता के मँुह से यह सब सुनकर मुक्ति का बाल-मन बिलख उठा। वह सोचने लगी कि मेरे कारण ही पिताजी को इतना अपमानित होना पड़ा है। वह झिझकते हुए बोली- पिताजी! मुझे माफ कर दीजिये। मंैने ही आज आपकी जेब से पैसे चुराये थे।
            माँ मुक्ति को डाँटने वाली थी, पर पिताजी ने उन्हें मना कर दिया। उन्होंने मुक्ति से सारी बातें विस्तार से पूछीं कि किस प्रकार से उसे चोरी करने की आदत पड़ी है? मुक्ति ने सच-सच सब बता दिया। उसने अपराध स्वीकार करते हुए कहा कि पूनम के साथ रहकर ही उसे चटोरेपन की लत लगी है। इसी के कारण उसने चोरी करना सीखा है। मुक्ति के पिताजी बोले- जीभ जब चटोरेपन की आदी बन जाती है तब हमारा स्वास्थ्य तो खराब होता ही है। साथ ही हम में अनेक बुरी आदतें भी आ जाती हैं। तुम देख ही रही हो कि अपनी इस आदत के कारण तुमने चोरी करना सीखा। चोरी को न खुलने देने के लिये झूठ बोलना सीखा। इस प्रकार कितनी ही गन्दी आदतें तुम में आ गयी है। तुम गन्दी बच्ची बन जाओगी तो फिर न हम तुम्हें प्यार करेंगे, न स्कूल में कोई तुमसे बात ही करेगा।

            मुक्ति रोते हुए पिता से लिपट गयी और बोली-पिताजी! अब मैं पूनम के साथ नहीं रहूँगी। उसी से मैंने ये गन्दी आदतें सीखी है। अब मैं बाजार की चीजों में पैसे नहीं बिगाडँूगी। सुपारी और चाकलेटों के लिये चोरी नहीं करूँगी। अबकी बार, बस इस बार मुझे माफ कर दीजिये।रोती हुई मुक्ति के सिर पर पिता ने हाथ फिराया और बोले-बेटी! हमें विश्वास है कि तुम अच्छी लड़की बनने की कोशिश भी करोगी। तुम अच्छे काम करते हो तो हमें बड़ी प्रसन्नता होती है। हमारा सिर गर्व से ऊँचा होता है, पर तुम्हारे बुरे काम करने पर हम सोचते है कि हमें कुछ नहीं आता जो तुम्हें अच्छा न बना पाये। तुम बच्चे हमारे जीवन की साधना हो बेटी। तुम्हारे व्यवहार से लोगों को तुम्हारा नहीं हमारा परिचय मिलता है कि हम कैसे हैं?’ यह कहते-कहते पिता का गला रुँध गया। पिताजी की बात सुनकर मुक्ति फफक-फफक कर रो उठी। यह आँसू पश्चाताप के आँसू थे। उस दिन से फिर मुक्ति ने चटोरापन, झूठ बोलना और चोरी करना छोड़ दिया। अ बवह एक ही बात की कोशिश करती है- जैसा पिताजी चाहते हैं, मैं वैसा ही बनूँगी। इससे उन्हें खुशी होगी।

Monday, August 18, 2014

गुरु भक्ति की पाराकाष्ठा part 2

एक अंतराल के बाद... श्रीरंगम मठ में आचार्य के लिए एक राजसी बुलावा आया। यह बुलावा चोल राज्य के नरेश का था। चोल नरेश कट्टर रूढि़वादी व्यक्ति था। वह आचार्य रामानुज के विशुद्ध आध्यात्मिक, आत्म-विज्ञानी मत का खुला विरोधी था। आचार्य के प्रति घृणा और विरोधी दाँव-पेंच का प्रदर्शन वह जब-तब करता ही रहता था। अबकि बार उसने आचार्य को चोल राज्य की राजधानी गंगैकोंडा चोलापुरम् में बुलाया था। यहाँ एक विराट सभा होनी थी, जहाँ तथाकथित विद्वानों के बीच आचार्य के मत पर मुकदमा चलाया जाना था। शास्त्रार्थ द्वारा निर्णय होना था कि रामानुजाचार्य के सिद्धांत हितकारी हैं या ह्नासकारी!
     राजकीय संदेशवाहक की पहली भेंट आचार्य के शिष्य कुरेश से हुई। उसी के हाथ आदेश-पत्र लगा। कुरेश आशंकित हो उठा। हृदय में भय की भँवरे करवट लेने लगीं- चोल नरेश की नीयत खोटी लगती है। उसने ज़रूर आचार्य को फँसाने के लिए षड़यंत्रपूर्वक जाल बिछाया है। निः सन्देह, आचार्य के जीवन को खतरा है।कुरेश के मन की भँवरे तूफानी हो गई। रोम-रोम राज-आज्ञा का विद्रोह कर उठा। करे भी तो कैसे न? सद्गुरु होते ही ऐसे हैं। इतने अपने बन जाते हैं कि उनके अपनेपन की गवाही रोम-रोम देता है।
     कुरेश ने बहुत देर तक गंभीर चिंतन किया। एक शिष्य की समर्पित बुद्धि कहाँ तक सोच सकती है? उसके समर्पण की सीमा क्या है? यह हमें दक्षिण भारत का यह शिष्य समझाता है। कुरेश आचार्य रामानुज के कक्ष में गया। न झुका, न बैठा, न ही दृष्टि उठाई-सीधे गुरु चरणों में दण्डवत् लेट गया। श्री रामानुज ने आश्चर्य व्यक्त किया। कुरेश ने बिना शीश उठाए, बस अपना निवेदन रख दिया।
कुरेश- आचार्य! हे गुरुवर! हे मेरे पेरूमाव्ठ! आपको स्मरण है, आपने मुझे एक वरदान माँगने को कहा था। मैं आज उसे माँगता हँू। कृपा कर पूर्ण करना। इन्कार मत करना। 
श्री रामानुज- हाँ वत्स! हमें स्मरण है। क्या अभिलाषा है तुम्हारी?
कुरेश- अभिलाषा बाद में कहँूगा। पहले मुझे आशवस्त कीजिए कि आप उसे सुनकर तथास्तुकहेंगे ही कहेंगे।
श्री रामानुज (हँसते हुए)- अच्छा बाबा! कहूँगा-कहँूगा! इच्छा तो बता।
     अब कुरेश ने विस्तार से सारी बात कह सुनाई। चोल राज्य का दूत... राजपत्र... विद्वानों की सभा... नरेश का कुचक्र! सबकुछ! सब बताकर शिष्य ने अपना वर माँगा- आचार्य! वहाँ चोल में आपको कोई नहीं पहचानता। इसलिए आपके वस्त्र पहनकर, आपका नाम धारण कर, आपके स्थान पर मैं चोल जाना चाहता हँू। पीछे से आप मेरे वस्त्र पहनकर कुछ समय के लिए श्रीरंगम छोड़ दीजिए। यही वरदान मुझे दीजिए, आचार्य। जीवन में आपसे आज तक कुछ नहीं माँगा, न कभी आगे माँगूंगा। बस मेरी यह माँग पूर्ण कर दीजिए, स्वामी।
     श्री रामानुजाचार्य जी ने एक दीर्घ श्वास ली। न कह सके, हाँ। बस इतना बोले- मैं दाता हँू। अपने जीवन के लिए तेरा जीवन कैसे ले सकता हँू कुरेश?’ कुरेश ने आचार्य के दोनों हाथ अपने हाथों में ले लिए। अपने सजल नयन उनके दिव्य नयनों से मिला दिए, मानो उन्हें अपने प्रेम से सम्मोहित कर देना चाहता हो। फिर बोला- आचार्य! मुझे यह वरदान देकर आप मेरा जीवन लेंगे नहीं, बल्कि मुझे जीवन देंगे। क्योंकि अगर आप पर आँच भी आई, तो (अपनी ओर इशारा करते हुए) इस तन में प्राण रहने पर भी, मैं जी नहीं पाऊँगा। पर यदि आप यूँ ही साकार रहे और मेरे इस तन से प्राण छिन भी गए, तो मैं शाश्वत जीवन का आनंद पा जाऊँगा। मुझे इसी शाश्वत जीवन का वरदान दे दीजिए, आचार्य! आपने यह वर देने का वचन भी दिया है...ऐसा कहते हुए कुरेश ने आचार्य का वरद-हस्त अपने सिर पर रख लिया। इस प्रेमपगे हठ के साथ कुरेश आचार्य को मनाता रहा। आखिरकार श्री रामानुज विवश हो ही गए।
     अगली सुबह... आचार्य ने कुरेश को अपना भगवा चोला दे दिया। वह उस पर ऐसे लपका, मानो कुबेर का खज़ाना मिल गया हो। जितना संभव था, उतना रामानुजाचार्य जैसा रूप धारण किया। फिर जी भर कर अपने गुरु को देखता रहा, उन्हें अपने नेत्रों में भरा और चल दिया... चोल राज्य की राजधानी गंगौकोंडा चोलपुरम् की ओर। इसी धुन को धारण कर-
तुम अगणित जीवो के जीवन होए
तुम अगणित हृदयो के स्ंपदन होए
मैं एक दीपए बुझ भी गया तो क्याए
तुम अगणित दीपों के ईधंन हो।
मेरा क्या मैं तो मृत्यु लोक का वासी हूँ।
अल्प बुद्धि और अल्प जीवन का धारी हूँ।
नश्वर जगत का प्राणी मैंए मुझे तो ले जाने कीए
आज नहीं तो कलए काल की है तैयारी।
तुम स्वीकार कर लोगेए यह शीश अगरए
मेरी मृत्यु भी होगी आभारी तुम्हारी।

     इधर आचार्य रामानुज को श्रीरंगम छोड़ना पड़ा। अपने शिष्य कुरेश के सफेद वस्त्र धारण कर वे कर्नाटक के तिरुनारायाणपुरम् चले गए। दक्षिण भारत का इतिहास बताता है कि श्री रामानुजाचार्य जी के इस आगमन के उपलक्ष्य में तिरुनारायणपुरम् में आज भी एक पर्व मनाया जाता है- पुनर्वसु-श्वेत वस्त्र धारण करना!इसका आध्यात्मिक अर्थ यही था कि गुरु शिष्यमय हो गए और शिष्य को गुरुमय कर दिया।
     उधर चोल की राजधानी में... भव्य सभा सजाई गई थी। चोल नरेश ने पाखण्डी विद्वानों के साथ मिलकर पूरा चक्रव्यूह रचा हुआ था। कुरेश अभिमन्यु सा शौर्य दिखाकर इस चक्रव्यूह में कूद गया। उसने स्वयं को आचार्य रामानुज के रूप में प्रस्तुत किया। शास्त्रार्थ में अद्भुत पराक्रम दिखाया। परन्तु जैसा कि आशंकित था, वही हुआ। पाखण्डी विद्वानों ने निराधार कुतर्कों के जाल में उसे फँसा ही दिया। दण्डस्वरूप सज़ा सुनाई गई- इस धूर्त वैष्णव रामानुज की दोनों आँखें निकाल ली जाएँ। जो समाज को दिशाविहीन कर रहा है, उस दृष्टि से विहीन कर दिया जाए!अज्ञानी कपटियों की सभा में कोई सूझवान निर्णय लिया भी कैसे जा सकता था? श्री रामानुजाचार्य का वेश धारण किए हुए कुरेश की आँखें निकाल ली गई।
     उधर रक्त की धाराएँ फूटीं, इधर कुरेश की मुक्त हँसी! सभा हतप्रभ थी। यह कैसा सनकी है, जो आँखें नुचवा कर भी हँसता है!! भला ये संसारी क्या जानें, इस हँसी का रहस्य? दरअसल, यह हँसी एक शिष्य का विजय-नदा था! एक शिष्य का गौरवमय बलिदान था! अपने सद्गुरु की सेवा का आनंद-गान था। दर-दर की ठोकरें खाता हुआ कुरेश जैसे-तैसे वापिस श्रीरंगम पहँुच गया। अपने आचार्य की याद में दिन व्यतीत करने लगा। कुछ ही समय बाद स्वयं प्रकृति ने न्याय किया। चोल नरेश की मृत्यु हो गई। यह समाचार मिलते ही श्री रामानुजाचार्य पुनः श्रीरंगम लौट आए। सबसे पहले अपने मरजीवडे़ मुरीद कुरेश से मिले। लड़खड़ाता हुआ कुरेश सामने आया। उसकी दीन दशा देखकर आचार्य में दर्द और प्रेम का ऐसा मिलाजुला ज्वार उठा कि उन्होंने कुरेश को कस कर हृदय से लगा लिया। उनके अश्रुपात से कुरेश का कुत्र्ता भीग गया। उनके भुजपाश में इतना कसा था कुरेश कि अपने गुरु की आहत धड़कनें सुन सकता था। उसने हाथ जोड़कर प्रार्थना की- आप विहृल न हों, आचार्य। मुझे तो स्थूल आँखों के बदले अलौकिक आनंद मिल गया है। भला इससे खरा सौदा और क्या हो सकता था! आज मेरे गुरु साकार रूप में मेरे पास हैं... और मेरा गर्व से भरकर आलिंगन कर रहे हैं! इससे बढ़कर एक शिष्य की क्या उपलब्धि हो सकती है, आचार्य?’
श्री रामानुज- उस दिन तूने मुझसे एक वरदान माँगा था। क्या आज मैं तुझसे कुछ माँग सकता हूँ?
कुरेश (श्री चरणों में गिरकर)- आप आज्ञा दें, आचार्य। मैं उसे पूरा करने को तत्पर हँू।
श्री रामानुज- मैं चाहता हँू, तू श्री भगवान वरदराज से अपनी दृष्टि के लिए प्रार्थना कर।
कुरेश- पर आचार्य, आपने ही तो हमें सिखाया है कि ये आँखें हमें सिर्फ माया का दर्शन कराती हैं और मायापति से दूर रखती हैं। फिर मैं इन मायावी आँखों को क्यों माँगू?
श्री रामानुज- मेरे लिए... मेरी प्रसन्नता के लिए... मेरे आनंद के लिए तू भगवान पेरूमाव्ठ से दृष्टि माँग। मैं आशीर्वाद देता हँू कि उसी क्षण से तू देख पाएगा।
    कुरेश कांचीपुरम के मंदिर में भगवान पेरूमाव्ठ के सामने उपस्थित हुआ। हाथ जोड़े और यह ऐतिहासिक प्रार्थना की- हे श्री भगवान! हे वरदराज पेरूमाव्ठ! मेरे गुरु की प्रसन्नता के लिए मैं आपसे दृष्टि माँगता हँू... पर मेरी एक और विनय है। मेरी इस दृष्टि को ऐसी अनन्यता दीजिए कि यह केवल दो दृश्यों पर ही केन्द्रित रहे। एक, आप पर; दूसरे, मेरे गुरुदेव श्री रामानुजाचार्य जी के दिव्यतम स्वरूप पर। अन्य कोई दृश्य मुझे देखने की अभिलाषा नहीं। कृपा करें, वरदराज!प्रार्थना तत्क्षण सुनी गई। मानों स्वयं भगवान श्री गुरु की आज्ञा का पालन करने को तत्पर थे। ऐसी थी, दक्षिण भारत के शिष्य कुरेश की अनन्य गुरु-भक्ति! जिसने गुरु को सदा के लिए अपनी पलकों में कैद कर लिया था!

साभार अखंड ज्ञान ;अगस्त २०१४द्ध

Sunday, August 17, 2014

गुरु भक्ति की पाराकाष्ठा part 1

दक्षिण भारत का एक अपूर्व क्षेत्र -श्रीरंगम। सांस्कृतिक और अलौकिक, दोनों ही परिमल बसी हुई थी यहाँ। आचार्य रामानुज अपने मठ में शिष्यों के संग निवास कर रहे थे।
एक शुभ दिवस- श्रीरंगम की गलियों से भगवान श्री रंगनाथ की शोभा-यात्रा निकल रही थी। पुष्पसज्जित रथ पर भगवान की सुन्दर मुर्ति स्थापित थी। ऊपर झूमर वाला छत्र झूल रहा था। दाएँ-बाएँ रेशमी पंखे झुलाए जा रहे थे। धूप-दीप, नैवेद्य से आरती-पूजन हो रहा था। ढोल, मजीरे और शहनाइयों की मधुर ध्वनियाँ थीं। सैकड़ों-छबीली मनोहर झाँकी पूरे श्रीरंगम को निहाल कर रही थी। जहाँ से भी यह शोभा-यात्रा गुजरती, गृह-दवार तुरन्त खुल जाते। खिड़कियाँ और झरोखे भी अनावृत हो जाते। उमंग भरी आँखें बाहर झाँकने लगतीं। कोई भी खुद को बंद किवाड़ो के पीछे थाम नहीं पा रहा था। भगवान श्री रंगनाथ के दर्शन का ऐसा ज्वार उठा था-श्रीरंगम की वीथिकाओं में!
यही मनोहर झाँकी पूरी सज-धज के साथ श्री रामानुजाचार्य जी के मठ के पास भी पहुँची। आचार्य जी के मठ के आँगन विराजमान थे। उनका एक शिष्य वदुगा नंबि रसोई घर में था। अपने आचार्य के लिए दूध गर्म कर रहा था। कुछ ही क्षणों में शोभा यात्रा मठ के दार पर पहुँच गई। सुगंधि और ध्वनियों ने वायुमंडल को मुग्ध कर दिया।
श्री रामानुज जी ने भी द्वार से बाहर झाँका। मुस्कुराए, उनकी बालवत् सहजता सतह पर आ गई। बड़े उत्साह से उन्होंने अपने शिष्य को पुकारा-वदुगा् ओ वदुगा बाहर आ! भगवान पेरुमाल का दर्शन कर ले
...देख, कितनी मनोहर झाँकी है... पेरूमाव्ठ की यात्रा गुज़र रही है! आ जा! दर्शन कर ले!
     आचार्य बड़े उत्साहित थे। शायद कुछ परखना चाह रहे थे। धीरे-धीरे यात्रा गुज़र गई। आचार्य पुनः आँगन में स्थापित अपने आसन पर आसीन हो गए। तेज़ कदमों से वदुगा रसोई से बाहर आ रहा था। उसके हाथों में गर्मागर्म दूध था, जिससे भाप उठती दिख रही थी। उसे देखते ही आचार्य ने ऊँचे स्वर में झिड़का- अब क्या गति दिखा रहा है! गज तो निकल गया। बाहर पूँछ भर रह गई होगी। तुझसे पेरूमाव्ठ के दर्शन छूट गए!रामानुजाचार्य जी ने मानो वदुगा को चिढ़ा सा दिया।
     पर उधर शिष्य में कोई प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिली। उसने सहजता से गर्म दूध का प्याला गमछे से पकड़ कर आगे बढ़ाया, बोला- कोई नहीं! उस मूर्ति वाले पेरूमाव्ठ के दर्शन छूट गए तो क्या! इस (रामानुजाचार्य जी की ओर संकेत करते हुए) जीते-जागते पेरूमाव्ठ की सेवा तो मुझसे बीच में नहीं छूटी न! आप अपने पेरूमाव्ठ को संभालो! मुझे मेरे पेरूमाव्ठ को संभालने दो।इतना कहकर वदुगा आचार्य को पंखा झलने लगा। रामानुजाचार्य जी मुस्कुरा दिए। उनकी आँखों में चमक थी। ठीक वैसी ही जैसी एक सच्चा हीरा परखने पर जौहरी की आँखों में होती है। पर उन्होंने अपना यह गर्व दर्शाया नहीं। बस दूध की घूँट भरते हुए बोले- आज तूने इस दूध में क्या मिलाया है? स्वाद बहुत बढ़ गया है।
वदुगा- जी, कुछ नया नहीं! वही सब जो प्रतिदिन मिलाता हँू।

रामानुजाचार्य जी- अच्छा तो, बाहर से नहीं, भीतर से मिलाया होगा। हा...हा...हा... (आचार्य मुक्त हास कर उठे)

लघु कथाएँ



ऐसे भी होते है शिष्य
 एक आश्रम में एक गुरु जी अपने शिष्यों के साथ रहते थे, जिनमें से कुछ शिष्य बहुत परिश्रमी थे, जबकि कुछ बहुत बातूनी भी थे। एक दिन गुरु जी ने नये शिष्य से कहा कि बेटा, जाओ कुएं से पानी भर लाओ। शिष्य ने जवाब दिया कि गुरु जी एक ही बाल्टी है, यदि यह कुएं में गिर गई तो काम बिगड़ जायेगा।
          गुरुजी ने थोड़ी देर बाद उसी शिष्य से कहा कि जाओ जंगल से लकड़ी काट लाओ। शिष्य ने बड़ी नम्रता से कहा कि गुरु जी अभी यहाँ पर मेरे सिवा और कोई नहीं है, यदि मैं जंगल चला गया तो आपकी देखरेख कौन करेगा? कुछ समय पश्चात् गुरु जी ने फिर कहा कि बरसात होने की संभावना है, जाओ छत के ऊपर चढ़कर देख लो सब कुछ ठीक तो है। इस पर शिष्य ने फटाक से उत्तर दिया कि यह तो घोर अपराध होगा, मैं ऊपर छत पर चढूँ और आप नीचे रहें, मैं पापी कहलाऊँगा।
 सायंकाल गुरु जी ने उसी शिष्य को अपने पास बुलाकर कहा कि बेटा जाओ खाना खा लो। शिष्य ने विनम्र भाव से हाथ जोड़कर कहा कि गुरु जी आपने सुबह से तीन काम बताये, वह मैंने नहीं किये, यदि चैथा काम भी नहीं किया तो आप नाराज़ हो जायेंगे। यह काम मैं जल्दी ही कर लेता हँू। आजकल अधिकतर ऐसे ही कामचोर शिष्य मिलते हैं, जो अपनी बातों से गुरुजनों को भी समझाने का प्रयास करते हैं। और यह सोचते हैं कि मैंने अच्छा गुरु जी को मूर्ख बनाया। शायद वे यह नहीं जानते कि गुरु से किसी के मन का भाव छिपा हुआ नहीं है। ऐसा कर वे औरों को नहीं, बल्कि अपने आपको धोखा दे रहे हैं। ऐसा करने से वे कभी सच्चे साधक नहीं बन सकते और वे जीवन में भटकाव के अतिरिक्त और कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकते।

आलोचना
 एक नवविवाहित जोड़ा नए घर में रहने पहँुचा। उनके घर की मुख्य खिड़की में शीशे लगे हुए थे, जिससे दूसरे घर की छत दिखाई देती थी। अगली सुबह पत्नी ने पति से कहा, देखो, सामने वाली छत पर कितने मैले कपड़े फैलाए हुए है लगता है उन्हें कपड़े साफ करना भी नहीं आता। पति ने उसकी बात अनसुनी कर दी। कुछ दिन बाद पत्नी ने फिर यही बात कही। पति ने इस बार भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। जब भी पत्नी सामने की छत पर कपड़े फैले देखती, वह सामने वालों को कोसने लगती।
           कुछ दिनों बाद वे दोनों खिड़की के पास बैठे नाश्ता कर रहे थे। पत्नी की नज़र हमेशा की तरह सामने वाली छत पर गई और वह चहक उठी, ‘अरे, आज सूरज पश्चिम से उग आया है क्या? लगता है आज किसी और ने कपड़े धोए हैं। कितने साफ कपड़े धोए हैं।पति बोला, ‘उनके कपड़े जैसे पहले धुलते थे, वैसे ही धुले हैं। दरअसल, हमारी खिड़की का शीशा ही गंदा था, जिसे आज सुबह उठकर मैंनें साफ कर दिया।




Tuesday, August 12, 2014

हमेशा मुस्कुराते रहें!

            सी एक ऐसा शब्द है जिसके सुनने मात्र से ही हमारे चेहरे के भाव बदल जाते हैं और मन में उमंग पैदा होती है। वैसे तो हमें ईश्वर से कुछ प्राप्त करने के लिए तरह-तरह के उपाय जैसे- यज्ञतपस्याध्यानसमाधि आदि का सहारा लेना पड़ता हैपर एक ऐसा वरदानजिसे ईश्वर ने हमें जन्म के साथ ही दिया है और जिसका उपयोग करके हम कठिन से कठिन परिस्थितियोंसमस्याओं से मुक्ति पा सकते हैंउसका हमने उपयोग करना छोड़ दिया या हम उसे भूल गये। उस वरदान का नाम है सी। हसी एक ऐसी स्वाभाविक प्र￘िया है जिससे शरीर की सभी प्रणालिया एक साथ प्रभाव में आती हैं। इसके साथ-साथसने से हमारे फेफड़ों में आॅक्सीजन ग्रहण करने की क्षमता बढ़ती है व बन्द छि खुलते हैंरक्त भ्रमण व रक्त शोधन तीव्र होता है और चेहरे पर हसी लिए हुए व्यक्ति स्वतः ही सुन्दर लगता है यानि काम एकलाभ अनेक। इसलिए किसी ने क्या खूब कहा है कि ￟होठों पर मुस्कानहर मुश्किल आसान।
            यह एक विडम्बना ही है कि वैसे तो हम दावा करते हैं बड़े से बड़े कार्य करने काᅤᄀची से ᅤᄀची सफलता प्राप्त करने कापर इन सबकी दौड़ में हम हसना भूल गएजिसकी वजह से हम तरह-तरह के शारीरिकमानसिक रोगों में प्राप्त में फसते जा रहे हैं। खुशी की तलाश में हम खुशी से दूर हो गएढूढ़ने चले थे जिन्दगी और जिन्दगी से दूर हो गए। हसने से हमारे मस्तिष्क की 72,000 प्रणिक नस-नाडि़या एक साथ प्रभावित होती हैं तथा हारमोन्स संतुलित बनते हैंहमारी कार्यक्षमता व निर्णय लेने की क्षमता का भी विकास होता है। तो हम क्यों न इस ईश्वरीय देन का अधिक से अधिक उपयोग करलाभ उठाए
            शुरू-शुरू में हमें कोई भी कार्य करने के लिए प्रयास करना पड़ता हैपर धीरे-धीरे जैसे-जैसे हम अभ्यास करते हैं तो वही चीज हमारे स्वभाव में आ जाती है और फिर बिना प्रयास के ही स्वाभाविक रूप से हमें उसका लाभ मिलना प्रारम्भ हो जाता है। सदा प्रसन्न रहना भी ईश्वर की भक्ति है। ईश्वर आप से खुश रहता है जब आप हसते हैं। पर तब और भी ज्यादा प्रसन्न होता है जब आप किसी को हसाते हैं।
किसी ने सत्य कहा है -
गिले शिकवे न कभी दिल से लगा लेना
कभी मान जानाकभी मनालेना
कल का क्या भरोसा हम हों न हों

इसीलिए जब भी वक्त मिले,
थोड़ा हस लेनाथोड़ा हसा लेना