Sunday, January 31, 2016

योगिराज तैलंग स्वामी PART-II

स्वामी के इस कथन के बाद ही उमाचरण ने पूछा- ‘‘सचमुच क्या ईश्वर का दर्शन मिल सकता है?’’
      स्वामीजी ने कहा- ‘‘साधना करने पर गुरु-कृपा से दर्शन मिल सकता है। क्या तुम प्रत्यक्ष दर्शन करना चाहते हो?’’
      उमाचरण ने कहा- ‘‘प्रभो, तब तो मैं धन्य हो जाऊँगा। मेरे लिए सौभाग्य की बात है कि स्वयं भगवान् को गुरु के रूप में प्राप्त किया है। बिना भगवान् के भगवान् का दर्शन कैसे हो सकता है?’’
      ‘‘इस वक्त जाओ। दिन ढले, शाम को आना।’’
      गुरु की इस आज्ञा को मानकर उसी दिन शाम को उमाचरण आश्रम पर आये। थोड़ी देर बाद स्वामीजी ने कहा- ‘‘बगल के कमरे में काली की मूर्ति है। जाओ, दर्शन कर आओ।’’
      स्वामीजी की आज्ञा के अनुसार उमाचरण वेदी की बगल वाली कोठरी में गये। भीतर माँ काली की पत्थर की मूर्ति थी। मूर्ति को प्रणाम करने के बाद वे चुपचाप आकर बैठ गये।
      ‘‘क्या माँ को यहाँ देखना चाहते हो?’’
      ‘‘गुरुदेव, क्या मेरा ऐसा सौभाग्य है जो उन्हें यहाँ देख सकूँगा? माँ को देखना और जगत्माता को देखना बराबर है। अगर आप इस दीन के प्रति कृपा करें तो कृतार्थ होऊँगा।’’
      उमाचरण को स्थिर भाव में बैठने को कहकर स्वामीजी ध्यानस्थ हो गये। लगभग एक घंटे बाद उनका ध्यान भंग हुआ। उमाचरण ने प्रत्यक्ष रूप में देखा-कुमारी बालिका की भांति उक्त पाषाणमयी माँ धीरे-धीरे चलकर उनके सामने आकर खड़ी हो गयीं। दीपक के प्रकाश में चैतन्यमयी, सर्वमंगला, विश्वरूपिणी जगत्माता प्रत्यक्ष रूप में दण्डायमान है। उमाचरण सचेतन होते हुए अचेतन हो गये।
      स्वामीजी ने हंसकर कहा- ‘‘अब तुम भीतर जाकर देख आओ, जहाँ काली मूर्ति थी, वहाँ है या नहीं?’’
      वे भयभीत और विहृल भाव से भीतर गये तो देखा- वहाँ देवी-मूर्ति नहीं है। यह देखकर वे और भी भयभीत हो उठे और तेजी से चलकर स्वामीजी के निकट आ गये। अब गौर से मूर्ति को वे देखने लगे। इस समय देवी की जीभ बाहर नहीं निकली हुई थी और न पैरों के नीचे महादेव थे। बाबा के आज्ञानुसार उन्होंने माँ के चरणों को स्पर्श कर चरण-रज सिर से लगाया। चरण-स्पर्श करते समय मनुष्यों की भांति नरम अनुभव हुआ। देर तक वे देवी-मूर्ति को देखते रहे। इसके बाद बाबा ने माँ को भीतर जाने का इशारा किया। माँ धीरे-धीरे अपने कमरे में चली गयीं।
      उमाचरण ने पूछा- ‘‘गुरुदेव, पाषाण-मूर्ति कैसे चल रही थी? जो कुछ मैंने देखा, क्या वह सत्य था?’’
      स्वामीजी ने कहा- ‘‘तुम्हारा जड़ शरीर कैसे चलता है?’’
      उमाचरण- ‘‘मनुष्य के शरीर में आत्मा और चैतन्य दोनों है, इसलिए यह चलता है।’’
      स्वामीजी- ‘‘सिद्धि-साधकों के गुण से मिट्टी, धातु तथा पाषाण में आत्मा और चैतन्य का संचार हो जाता है, इसलिए मूर्तियाँ चलने लगती हैं, बोलने लगती हैं और कार्य करती हैं।’’
      दूसरे दिन गंगा-स्नान करने के बाद स्वामीजी ने कहा- ‘‘आज रात को एक बार आना। इसके बाद तुम्हें यहाँ आने की जरूरत नहीं होगी।’’
      उसी दिन रात को उमाचरण जब आये तब स्वामीजी ने उन्हें प्रसाद खिलाया। इसके बाद कुछ प्रणालियों के बारे में समझाया जिससे आत्मदर्शन होता है बोले- ‘‘आज से तुम बंधन में फंस गये। इन क्रियाओं को नित्य करते रहना। अगर लापरवाही करोगे तो मुझे करना पडे़गा। दिन को अवसर न मिले तो रात को करना। रात को न मिले तो भोर में करना, पर करना अवश्य। समय नहीं मिलता,
      यह बहाना मत करना। अगर लापरवाही करोगे तो मुझे पता चल जायगा। धर्म के विषय में किसी से बहस मत करना। मैं कुछ नहीं हँू मेरा कुछ नहीं है, इस बात को हमेशा याद रखना। मैंनामक जो देह है, यह कुछ नहीं है। सब ईश्वर की देह है।’’
      इसके बाद उन्होंने कहा- ‘‘अब तुम अपनी आँखें बन्द कर लो। जब पुकारूँ तब खोलना।’’
      इतना कहकर स्वामीजी ध्यानस्थ हो गये। लगभग एक घंटे बाद स्वामीजी ने उमाचरण को पुकारते हुए कहा- ‘‘अब आँखें खोलो और बताओ कि इस वक्त हम कहाँ हैं?’’
      उमाचरण ने देखा कि वे उस कमरे में नहीं हैं जिसमें अभी कुछ देर पहले थे। इस वक्त गंगा के गर्भ में है। एक पलंग पर गुरुदेव बैठे हैं और वे पलंग के एक किनारे हैं। पलंग पर सफेद गद्दा, तोशक और चादर बिछी है। तीन ओर तीन मसनद है। एक मसहरी टंगी है। गुरुदेव लेटे हुए हैं।
      उमाचरण ने सारी बातें बतायीं तब स्वामीजी ने कहा- ‘‘अगर हम गंगा के भीतर हैं तो गंगा में पानी है या नहीं, यह देखो।’’
      उमाचरण ने झुककर अपने हाथ से पानी का स्पर्श किया। उन्हें भय लगा कि कहीं पलंग सहित पानी में डूब न जाय। वे स्वामीजी को स्पर्श कर बैठे रहे। थोड़ी देर बाद स्वामीजी ने कहा- ‘‘अब पुनः अपनी आँखें बन्द कर लो।’’
      आज्ञानुसार उमाचरण ने अपनी आँखें बन्द कर ली। कुछ देर बाद गुरुदेव ने कहा- ‘‘अब अपनी आँखें खोलकर बताओ कि हम कहाँ हैं?’’
      इस बार आँखें खोलने पर उन्होंने देखा कि आश्रम के उसी कमरे में हैं जहाँ इसके पूर्व थे। सामने बाबा लेटे हुए हैं। उमाचरण को यह स्वप्र जैसा लगा। बाबा उमाचरण की ऊहापोह स्थिति को समझते हुए बोले- ‘‘यह आश्चर्य की बात नहीं है। मनुष्य अगर वास्तविक मनुष्यत्व प्रापत कर ले तो उसकी जैसी इच्छा होगी, वह वैसा कर सकता है। यह सब दिखाने का कारण यह है कि तुममें दृढ़ विश्वास उत्पन्न हो जाय। ऐसी बातें तुम स्वयं आयत्व कर सकते हो।’’
      25 चैत के दिन बाबा ने कहा- ‘‘यहाँ जो कुछ तुमने देखा या सुना, इसे किसी अविश्वासी के सामने मत प्रकट करना। धर्म का सहारा लेकर दिन गुजारना। असली काम में गफलत न हो। तुम्हेें सब समझा दिया और लिखा दिया। अब तुम्हें ठहरने की जरूरत नही है। जहाँ नौकरी करते थे, वहीं चले जाओ। तुम विवाहित हो, पत्नी तथा बच्चों का पालन-पोषण तुम्हें ही करना है।’’
      गुरुदेव की आज्ञा मानकर उमाचरणजी विभिन्न तीर्थों का दर्शन करते हुए मुंगेर आ गये और अपने गुरुदेव का प्रचार करने लगे।
      उमाचरण जिस दवा कम्पनी में काम करते थे, वहाँ एक मजेदार घटना हुई। कम्पनी के मैनेजर महेन्द्रनाथ घोष ने एक दिन कहा- ‘‘उमाचरण, रोकड में छः सौ रूपये की कमी है। याद करो, यह रकम किसी को दी गयी है या लिखने में भूल हो गयी है?’’
      इन दोनों व्यक्तियों के जिम्मे हिसाब-किताब और लेन-देन की जिम्मेदारी रहती है। उमाचरण उसी कमरे में रहते थे, जिसमें कार्यालय की सारी चाभियाँ रहती है। दोनों व्यक्तियों ने श्रम करके खोजा, पर कुछ पता नहीं चला। दोनों ही यह संदेह करने लगे कि हम दोनों मंे कोई चोर है। धीरे-धीरे तीन माह गुजर गये, पर कोई सुराग नहीं मिला। नौकरी से बढ़कर गबन का प्रश्न दोनों को परेशान करने लगा।
      अन्त में इस मुसीबत से छुटकारा पाने के लिए उमाचरणजी काशी चले आये। सोचा, बाबा को सारी बातें बताकर मुक्ति का उपाय पूछ लूँगा।
      आश्रम में आकर ज्योंही वे बाबा को प्रणाम करके एक ओर बैठे, त्योंही बाबा ने कहा- ‘‘क्यों बेटा, कार्यालय में रुपयों की गड़बड़ी करके यहाँ पता लगाने आये हो?’’
      उमाचरणजी बाबा की एषणा-शक्ति से परिचित थे। उन्होंने दबी जबान से कहा- जी हाँ।
      स्वामीजी ने कहा- ‘‘जैसे तुम लापरवाह हो, वैसे ही तुम्हारे सहयोगी हैं। अमुक महीने के अमुक तारीख को पांच सौ रुपये भेजे गये हैं। कलकत्ता के नरसिंह दत्त को 300 रूपये और स्टैनिस्ट्रीट कम्पनी को 200 रूपये। तुमने ड्राफ्ट बनवाया और रजिस्ट्री भी की थी। रसीद अमुक फाइल में है। उन लोगों ने प्राप्ति सूचना की रसीद भी भेजी, जो फाइल में है। लेकिन दोनों रकम रोकड़ में दर्ज नहीं है। रहा अब एक सौ रूपये का सवाल। उसे घोष महाशय स्वयं ही खोज निकालेंगे।’’
      इसके बाद स्वामीजी बिगड़कर बोले- ‘‘तुम्हें मैंने मना किया था कि मेरे बारे में कहीं किसी से कोई चर्चा मत करना। मुंगेर में जाकर तुमने प्रचार किया। फलस्वरूप वहाँ से काफी लोग यहाँ दीक्षा लेने चले आते है। मैं इन लोगों से तंग आ गया हँू। अब तुम मंुगेर में नहीं रह सकोगे। अब यहाँ से वापस जाकर चीफ इंजीनियर, शिलांग, आसाम के पते पर एक आवेदन पत्र भेज देना। वहाँ से स्वीकृति पत्र आते ही वहाँ चले जाना।’’
      उमाचरण ने कहा- ‘‘गुरुदेव मैंने प्रचार नहीं किया है यह सत्य है कि आपके बारे में मैंने अपने दो-चार मित्रों से चर्चा की थी।’’
      स्वामीजी ने कहा-‘‘एक बात जान लो। मैं पाँच-छः माह के भीतर देहत्याग करूंगा। समाचार भेजूंगा तब आना। कल ही तुम मंुगेर चल जाओ।’’
      मंुगेर आकर घोष महाशय से सारी बातें कहने पर फाइलों की जाँच की गयी। अब एक सौ रूपये की समस्या रह गयी। अचानक एक दिन घोष बाबू प्रसन्नता से चीख उठे- ‘‘मुखर्जी बाबू, मिल गया। एक सौ का भी हिसाब मिल गया।’’
      ‘कहाँ मिला?’
      घोष महाशय ने कहा-‘‘अभी कुछ रोज पहले आफिस के सामानों की रंगाई हुई थी। सन्दूक में ताजा रंग लगा था। सो उसमंें सौ रुपये का नोट चिपक गया। यह देखो, नोट में रंग के दाग हैं। आपके गुरुदेव ने ठीक ही कहा था। आप ऐसे गुरु के शिष्य हैं, यह बड़े सौभाग्य की बात है।’’ 

      इन्ही उमाचरण मुखोपाध्यात्मा जी ने तेलंग स्वामी की जीवानी सन् 1918 में बंगला भाषा में छपवाई थी। तत्पश्चात् श्री विश्वनाथ मुखर्जी द्वारा एक बहुत सुन्दर प्रयास भारतीय योगियों के जीवन चरित को समाज में पहुँचाने का किया गया है। भारत के महान योगीअनुराग प्रकाशन वाराणसी से छपा उनकी बहुत सी सुन्दर सात खण्डो में प्रकाशित पुस्तके है। इसके पश्चात योगी चरितामृतकी श्रृंखला द्वारा योगियों को पावन चरित के घर-घर पहुँचाने का एक अभियान प्रारम्भ किया जा रहा है। भारत की धर्म परायण जनता से विनम्र अनुरोध है कि इस पुनीत कार्य में अपना सहयोग अवश्य दें। पुस्तक की 10 या 24 प्रतियाँ मंगाकर अपने मित्र बन्धुओं, रिश्तेदारों को जन्मदिन, दीपावली एवं अन्य अवसरों (जैसे पुण्य दिवस, श्राद्ध तेरहवीं आदि) पर भेंट करें। इससे योगियों का आशीर्वाद आप तक पहँुचेगा व आपके मनोरथ पूर्ण होंगे। यह सर्वाविदित है कि लेखक ने यह पुस्तकें आर्थिक लाभ की आशा से नहीं लिखी हैं। इंटरनेट प्रयोग करने वाले इन पुस्तकों का प्रचार अवश्य करें। पुस्तके की सोफ्ट काॅपी के लिए हमें मेल करें।  

योगिराज तैलंग स्वामी

काशी में अनादि काठ से ऋषि मुनि साधना करते हुए है। कहा जाता है आज भी ऐसे सन्त है जो यहाँ गोपनीय ढंग से रहते है जिनके बारे में सामान्य लोगों को जानकारी नहीं है। जिनके मठ, आश्रम या सम्प्रदाय है, केवल उनके जानकारी है।
      काशी ही वह नगरी है जहाँ महर्षि वेदव्यास आए ओर उनकी स्थापना हुई। महात्मा बुद्ध ने भी अपना सर्वप्रथम उपदेश यही सारनाथ में दिया था। शास्त्रार्थ के लिए पतंजलि आदि थे यही पर एक चांडाल ने जगदमुख शंकराचार्य को परास्त कर तत्वज्ञान का बोध कराया था। कबीर ने यही अपने उपदेशों का ताना बाना फैलाया, तुलसी दाद जी ने यही अपने मर्मस्पर्शी अडान गाए। श्री वल्लाक्तचार्य ने यहाँ आकर महाप्रभु की बैठकस्थापित की। इनमें अधिकांश लोगों के मठ आश्रम है व अनेक प्रकार के शिष्य है।
      परन्तु तेंलग स्वामी ने कभी कोई मठ, मन्दिर, आश्रम स्थापित करने में रूचि नही ली। एक बार एक बड़े विद्वान ने काशी के लोगों से उनके पता ठिकाना व स्वभाव के बारे में पूछा तो उनके यह उत्तर मिला- ‘‘उनकी बात मत पूछिए। अजीब बाबा है न जात पात का विचार और न रहन सहन। जो कोई जो कुछ देता है, खा जाते है, किसी के साथ बात करना पसन्द नहीं करते। हमेशा नंगे रहते है। गार्मी में तप्त बालू पर सोते हुए मिलते है तो जाडे में गंगा में डूबे रहते है। सुनते है कि दो-दो, तीन-तीन दिन पानी से बाहर नहीं निकलते। कभी-कभी मुर्दे की तरह गंगा मैया के ऊपर तैरते पड़े रहते है। उनकी उम्र का भी कुछ अता पता नही है। कब से वो काशी में निवास कर रहे है यह भी किसी के ज्ञात नही है।’’ तेलंग स्वामी की एक ओर विशेषता थी जल्दी से किसी के शिष्य बनाना पसन्द नहीं करते थे। पंचगंगा घाट उनका प्रिय स्थान था। श्रदालु व भक्त उनके दर्शन हेतु वहाँ जाया करते थे।
      एक बार स्वामी जी एक आश्रम में बैठे हुए थे। श्रद्वालुओं की भीड़ लगी थी। स्वामी जी के दर्शन हेतु दो बंगाली बाबू आए। स्वामी जी को प्रणाम कर वहीं खड़े हो गए। स्वामी जी ने इन्हें वापिस जजाने का इशारा किया। एक बंगाली बाबू तो वहाँ से चले गए दूसरे अड़कर वहीं बैठ गए। स्वामी जी लोगों की भीड़ पसन्द नहीं करते थे। एक ग्वाला स्वामी जी के ईशार से लोगों के बाहर धकेलता था। स्वामी जी ने ग्वाले को ईशारा किया। ग्वाले ने आदेश पाते ही उस व्यक्ति के धक्का देते हुए कहा- ‘‘जल्दी बाहर निकलो। बाबा का दर्शन करने आए थे, वह हो गया। अब यहाँ बेकार भीड़ लगाने की जरूरत नही है।’’ उस व्यक्ति ने ग्वाले को धक्का देते हुए कहा- ‘‘मैं कही जाऊँगा। जाना है तो तुम जाओ। इस प्रकार दोनों आपस में झगडने लगे। यह दृश्य देखकर स्वामी जी ने उक्त बाबू व अपने एक सेवा मंगलदास के अपने निकट बुलाया। मंगलदास के दीवार पर लिखे संस्कृत के श्लोक का मतलब समझाने के कहा।
      म्ंगलदास बोलने लगे- ‘‘तुम बाहर 18 रूपये का खरीदा नया जूता खोलकर मुझे देखने आए हो। अगर कोई उसे युवा ले गया तो तुम्हें यहाँ से नंगे पैर वापिस जाना पड़ेगा। यही बात तुम सोच रहे हो। अब तो तुम साधु के संग के लिए आसक्त हो अथवा अपने जूते के लिए। तुम्हें चिता करने के जरूरत नहीं है। अभी जूता सुरक्षित है शीद्य्र वापिस जाकर पहन लो।’’
      वहाँ जितने लोग मौजूद थे यह सुनकर सभी अवाक्र रह गए। बाहर आने पर लोगो ने उनसे पूछा कि क्या वो वास्तव में जूते के बारे में सोच रहे थे। उक्त व्यक्ति ने कहा- ‘‘हाँ महाशय! वास्तव में अपने जूते के बारे में चिन्ता कर रहा था।’’
      एक व्यक्ति उमा चरण स्वामी जी के पास अक्सर आया करते थे व उनसे दीक्षा लेने की इच्छा रखते थे। स्वामी जी उन्हें अक्सर बल देते थे। एक बार वे स्वामी जी के पास बैठकर अपने आवेग के रोक नही सके व जोर-जोर से रोने लगे। स्वामी जी ने उन्हें शान्त बैठने की आज्ञा दी व कल सुबह आने को कहा। इससे उन्हें आशा बंधी कि कल दीक्षा मिल सकती है। वह अगले दिन प्रातः गंगास्नान करके बड़े उत्साह के साथ स्वामी जी के पास आए व उनका चरण रज लेकर उनके पास बैठ गए। उनके एक पत्थर का टुकडा, एक लोटा पानी व गेरू देकर घिसने का ईशारा किया। उमाचरण दोपहर तक गेरू घिरते रहे। दोपहन के स्वामी जी ने भोजन के लिए भेज दिया। जब लौटकर आए तो पुनः गेरू घिरने के आदेश हुआ। सांयकल एक ब्रहमचारी वहाँ आए व गेरू से आश्रम की दीवार पर श्लोक लिख दिए। इस प्रकार 15 दिन तक यही क्रम चलता रहा। इससे उनके हाथ की हालत बिगड गयी व हाथ से भोजन करना भी कठिन हो गया। जब 28 दिन गेरू घिसने पर उनका हाथ बेकर हो गया तो वे बाबा के चरणो पर माथ टेककर रोने लगे।
      अब उनके दूसरा काम सौंप दिया गया। हिन्दी के श्लोके का बंगाली में अनुवाद कराया गया। धीरे-धीरे करके स्वामी जी व उमाचरण में अध्ययन के विषम में ज्ञान प्रश्नोतरी चलने लगी। उमाचरण प्रसन्न थे कि अक्सर मौन रहने वाले स्वामी जी उनसे बातें करने लगें हैं।
      उमाचरण ने कहा- ‘‘जब आपकी मुझपर इतनी कृपा हुई है तब मेरा उद्धार कर दीजिए।’’
      ‘‘यह अत्यन्त कठिन समस्या है। अब तक तुम आजाद पक्षी की तरह उड़ रहे हो। दीक्षा लेने पर बंधनों में फंस जाओगे। इस वक्त जाओ। रात को आना तब बातचीत की जायगी।’’
      शाम के समय आने पर बाबा उन्हें साथ लेकर छोटी कोठरी में आये। यहाँ बैठने के साथ बोले- ‘‘तुम मुझसे योग-शिक्षा लेने को सोच रहे हो। लेकिन तुम योग-शिक्षा के लिए अनधिकारी हो। इससे अच्छा है कि उपासना-मार्ग अपनाओ। इसी माघ महीने की तृतीया तिथि, पुष्य नक्षत्र में चन्द्रग्रहण होगा। ग्रहण तक तुम्हें प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। क्योंकि बिना शुद्ध देह हुए दीक्षा नहीं दी जायगी। इसी चन्द्रग्रहण के दिन तुम्हारा शरीर शुद्ध कर दूँगा।’’
      इसके बाद कुछ सामानों के नाम लिखवाने के बाद बोले- ‘‘गंगा स्नान करने के बाद एक आसन पर बैठकर जप करना पड़ेगा।’’
      इसके बाद एक मंत्र उन्होंने लिखवाया और कहा कि जप समाप्त होने के बाद सारी सामग्री किसी सत् ब्राह्मण को दान में देना। उमाचरण को यह मालूम था कि ग्रहण के समय सत् ब्राह्मण दान नहीं लेते। जब उन्होने यह समस्या स्वामीजी के सामने रखी तब बाबा ने हँसते हुए कहा- ‘‘उन सामग्रियों का नाम लेकर जो ब्राह्मण तुमसे दान मांगेगा, उसे दे देना। इससे काम सिद्ध हो जायेगा।’’
      आसानी से काम सिद्ध हो जाने पर उमाचरण की उत्कण्ठा समाप्त हो गयी। अब वे माघ तृतीया की प्रतीक्षा करने लगे। ग्रहण के दिन सारी क्रिया करने के बाद ज्योंही वे आसन से उठे त्योंही एक ब्राह्मण आया और उन सामग्रियों का नाम लेकर दान मांगा।
      सारी सामग्री लेकर वह व्यक्ति भीड़ में गायब हो गया। दूसरे दिन उमाचरण नित्य की भांति बाबा के पास आकर बोले- ‘‘बाबा, आपकी आज्ञा के अनुसार सारा कार्य समाप्त हो गया।’’
      ‘‘अब तुम्हारा शरीर भी शुद्ध हो गया। तुम्हें दीक्षा दे दूँगा।’’
      इसी दिन तीसरे पहर कुछ संन्यासी स्वामीजी के पास बैठे किसी विषय पर विचार-विमर्श करते रहे। बाबा के पास अक्सर ऐसे संत आते रहते हैं। अपनी समस्या का समाधान कराते हैं। सन्तों के जाने के बाद अचानक तेज बारिश होने लगी। यह देखकर उमाचरण ने घर जाने की आज्ञा मांगी। बाबा ने कहा- ‘‘अभी नहीं, बैठे रहो।’’
      बाहर वर्षा का वेग बढ़ता गया। मकानों से गिरनेवाली जलाधार से गलियाँ भरने लगी। बिजली के कड़कने और मेघों का गर्जन निरन्तर जारी रहा। दो घंटे गुजर गये, पर पानी रुकने का नाम नहीं ले रहा था। इस बीच आज्ञा प्राप्त न होने पर उमाचरण ने सोचा- शायद आज बाबा आश्रम में ही रखेंगे?
      इतना सोचना था कि बाबा ने कहा- ‘‘अब तुम जा सकते हो।’’
      इस आदेश को सुनकर उमाचरण बाबू व्याकुल हो उठे। बाहर वर्षा में कोई कमी नहीं हुई थी। वेग से पानी गिरने और बहने की आवाजें सुनाई दे रही थीं। ऐसे भयंकर मौसम में कैसे घर तक जायेंगे? बाबा की ओर करुणा दृष्टि से देखते हुए उमाचरण ने कहा- ‘‘जरा पानी का वेग कम हो जाय तब-’’
      बात पूरी भी नहीं हुई थी कि बाबा ने कहा- ‘‘नहीं, तुरन्त रवाना हो जाओ देर मत करो।’’
      इस आदेश की अवहेलना करने का साहस उन्हें नहीं हुआ। सहन पार करने के बाद मंगलदास से मुलाकात हुई। उसे अपनी मुसीबत कहने की गरज से उमाचरण ने कहा- ‘‘बाहर घना अंधकार है। पानी रुक भी नहीं रहा है। ऐसे भयंकर मौसम में बाबा का आदेश हुआ कि तुरन्त घर चले जाओ। अब आप ही बताइये घर कैसे जाऊँ?’’
      मंगलदास ने कहा- ‘‘घबराने की कोई बात नहीं है, बंगाली बाबू। आप बाबा का नाम लेकर रवाना हो जाइये। इस आदेश के पीछे कोई रहस्य है, वर्ना वे ऐसा न कहते।’’
      मंगलदास की सलाह से उमाचरण को विश्वास हो गया। वे बाबा के पास आकर उनका चरण-स्पर्श कर मूसलाधार बारिश में रवाना हो गये। बाहर गलियों में घुटने भर पानी जमा था। अंधेरा होने के कारण सामने कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। तेज बारिश के कारण कान सुन्न पड़ गये। लेकिन इस यात्रा में उन्हें विचित्र अनुभव हुआ। वर्षा का एक बूँद जल भी उनके शरीर पर नहीं गिर रहा था। लगता था जैसे सिर के ऊपर बड़ी छतरी लगाये हुए हैं। कुछ दूर आगे बढ़ने पर एक गली से एक आदमी आगे-आगे लालटेन लेकर चलने लगा। इस भयंकर अंधेरे में रोशनी का सहारा पाकर उमाचरण आश्वस्त हो गये।
      आगे-आगे चलनेवाले व्यक्ति को कई बार आवाज दी ताकि उसके साथ-साथ चलें, पर उसने सुना नहीं। उन्होंने सोचा- शायद तेज बारिश के कारण उसे मेरी आवाज सुनाई नहीं दी। वे स्वयं तेजी से आगे बढ़ने लगे ताकि उसके पास पहुँच जायँ। इधर उमाचरण तेजी से चलने लगे तो लालटेन वाले व्यक्ति की गति भी तेज हो गयी। दोनों व्यक्तियों के फासले में कोई कमी नहीं हुई।
      अन्त में थकर अपनी चाल से वे चलने लगे। आश्चर्य की बात यह रही कि लालटेन वाला व्यक्ति उनके आगे-आगे उन्हीं मार्गों से चलता रहा, जिस रास्ते वे घर जाते हैं। घर के पास आते ही लालटेन वाला व्यक्ति न जाने कहाँ गायब हो गया। समझते देर नहीं लगी कि यह चमत्कार बाबा की कृपा से हुआ है। यही वजह है कि बाबा ने इस दुर्योग में जाने का आदेश दिया था।
      नियमानुसार दूसरे दिन उमाचरण को बाबा के साथ गंगा-स्नान के लिए जाना पड़ा। बाबा अपने ढंग से स्नान करते हैं। कम-से-कम दो घंटे लगते हैं। कभी बहाव के उल्टी तरफ तैरते हैं, कभी शवासन लगाये भासमान रहते हैं और कभी पानी में डुबकी लगाकर न जाने कहाँ गायब हो जाते हैं। जबतक बाबा पानी से बाहर नहीं निकलते तबतक उमाचरण को घाट की सीढि़यों पर बैठकर उनके आने का इन्तजार करना पड़ता है।
      उस दिन बाबा जब स्नान करके ऊपर आये तब उनका शरीर उमाचरण ने रोज की तरह पोंछ दिया। बाद में आश्रम पर आ गये। आश्रम में आकर उन्होंने कहा- ‘‘आज तुम्हें दीक्षा दूँगा। शान्त होकर बैठो।’’
      पहले बाबा ने कुछ क्रियाएँ बतायीं। इसके बाद कान में बीज मंत्र सुनाया। बोले- ‘‘इसी मंत्र का जाप करते रहना।’’

      कुछ देर ठहरकर बोले- ‘‘अब कुछ महत्व की बातें बता रहा हँू, इन्हें ध्यान से सुनो। इन बातों का पालन करते रहना। जिस कार्य के लिए जितना बोलना हो, उतना ही कहना। व्यर्थ की बातें मत करना। इससे तेज क्षय होता है। किसी धर्म से द्वेष मत करना। जिसे जिस धर्म पर विश्वास है, उसे उसी धर्म से मुक्ति मिलती है। आहारदि से धर्म नष्ट नहीं होता, केवल मुक्ति पाने मे देर होती है। मुसलमानों को भी मुक्ति प्राप्त होती है। व्याकुल भाव से उन्हें जो पुकारेगा, वह उन्हें प्राप्त करेगा। जिन घटनाओं को देखकर तुम चकित हुए हो, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। मनुष्य अगर वास्तविक मनुष्य हो तो वह भी यह सब कार्य कर सकता है। केवल आहार-विहार करने के लिए मनुष्य की सृष्टि नहीं हुई है। भगवान् में जितनी शक्ति है, मनुष्य में भी वही शक्तियाँ है। भगवान् ने मनुष्य को यह सब शक्तियाँ देकर उसे श्रेष्ठ बनाया है। कोई भी व्यक्ति उस शक्ति का उपयोग करना नहीं जानता। भगवान् हमेशा हमारे साथ रहते हैं। उन्हें जानने या देखने की इच्छा किसी को नहीं होती।’’

Sunday, January 24, 2016

योगिराज Shyama Charan Lahiri part-3

योगिराज चाहते थे कि सभी लोग गृहस्थ-जीवन में रहकर स्वयं अपने द्वारा उपार्जित अर्थ के माध्यम से ही जीविका का निर्वाह करें एवं साथ ही साथ योग-साधना करते हुए धीरे-धीरे आत्मोन्नति के मार्ग पर अग्रसर हों। उन्होंने स्वयं उसी आदर्श को उपस्थित किया है। वे स्वयं साधारणसहजसरल तथा आडम्बरहीन जीवन जीकर योग की साधना करते हुए साधना के उच्च शिखर पर पहुँचे थे। और गृहस्थ या सांसारिक व्यक्ति के सामने एक उज्जवल आदर्श की स्थापना की है। हम यह नहीं जानते कि इस प्रकार का आदर्श और किसी ने स्थापित किया है या नहीं। संसार में रहकर साधना और भजन करने के लिये समयाभाव की दलील यदि कोई देता तो वे उसे नहीं मानते थे। बल्कि वे कहा करते थे कि यदि सचमुच किसी में ईश्वर-साधना की सदिच्छा या अच्छी भावना का संस्कार है तो वह सांसारिक व्यस्तता के बावजूद उसे कर सकता हैं। दूसरों पर निर्भर रहकर जीविका-निर्वाह करने की वृत्ति का वे कभी भी समर्थन नहीं करते थे। वे जानते थे कि आधुनिक स्वोपार्जनरत मनुष्य को अर्थ-संकट से ग्रस्त समाज के ऊपर निर्भर रहना पड़ता है। इसीलिए वे प्राचीन योगियों के कठोर आदर्शों का अनुमोदन नहीं करते थे। अपने घर में गुप्त रूप से साधना-रत योगियों की सुख-सुविधा के प्रति ही अत्यधिक आग्रहशील थे। उन्होंने ही सर्वप्रथम ऋषियों द्वारा प्रदर्शित कठिन योग की प्रणालियों को सामान्य लोगों के लिए उपयोगी बनायायोग के बन्द द्वार को खोलकर सब के लिए सुगम योगमार्ग बनाया। उन्हें पता था आधुनिक क्षीणजीवी या कमजोर मनुष्य के पक्ष में प्राचीन योग की कठोर साधना सम्भव नहीं। इसीलिए उसकी प्राचीन जटिलताओं को सुलझाते हुए सर्वसाधारण के पक्ष में उसे प्रत्यक्ष फलप्रदआडम्बरहीनसहजसाध्य तथा सरल योग-साधना के रूप में परिवर्तित किया। उनके इस प्रयास के पूर्व प्राचीन कठोर योग-साधना सर्वसाधारण के लिए असम्भव-सा प्रतीत होता था। इस युग में उन्होंने ही सर्वप्रथम इस कठोर प्राचीन योग साधना को उपयोगिता की ऐसी दिशा प्रदान की है जो सबके लिए कल्याणकारी है। उनका यह प्रयास मानव समाज के लिए अविस्मरणीय रहेगा। उनके इस प्रयास ने मानव समाज को आत्मानुसंधान की दिशा में और भी उच्च स्तर पर प्रतिष्ठित कर दिया है। आज योग-साधन गृहस्थ मनुष्य-समाज के लिए कोई कठिन कार्य नहीं है। हमारे प्राचीन ऋषिगण भी योगसिद्ध मुक्त पुरुष थे। उन्होंने भी संसारिक जीवन में बँधकर विवाहित जीवन का निर्वाह करते हुए वर्णश्रम विधि के अनुसार योगयुक्त स्थिति में सभी कार्य सम्पन्न किया है। यही भारतीय संस्कृति की धारा है।  
      योगिराज कहा करते थे कि प्रत्यक्ष दर्शन के बिना प्रेमभक्ति एवं प्यार का जन्म नहीं होता। जैसे पुत्रहीन के लिए पुत्र-प्रेम सम्भव नहीं किन्तु पुत्र-जन्म के साथ ही उस पुत्र के प्रति क्या पूरा प्रेम-प्यार जाग उठता हैनहींतत्काल ऐसा नहीं होताकिन्तु पुत्र को प्रतिदिन जितना ही देखेगा लालन-पालन करेगा उतना ही धीरे-धीरे पुत्र के प्रति आकर्षण अनजाने ही बढ़ता जाएगा। जिसने ईश्वर को कभी देखा नहीं उसमें अनुमान से उसके प्रति सच्ची प्रेम-भक्ति कैसे सम्भव हैसम्भवतः पूर्व जन्म में अर्जित संस्कारों के कारण लाखों व्यक्तियों में किसी एक के भीतर वैसे प्रेम की अभिव्यक्ति हो सकती है। प्रतिदिन प्राणकर्म रूप या प्राणायाम सम्बन्धी कौशलपूर्ण योग-कर्म या अभ्यास करते रहने से कुछ न कुछ आत्मज्योति के दर्शन अवश्य ही होते रहते है प्रतिदिन जितनी ही आत्मज्योति का दर्शन प्राप्त होता रहेगाउतनी ही तुम्हारे भीतर अज्ञात रूप से प्रेम-भक्ति की अभिव्यक्ति होगी। तब केवल उस अपरूप चिर निर्मल आत्मज्योति के दर्शन की इच्छा जाग्रत होगी जिसका दर्शन इस दृश्यमान जगत में सम्भव नहीं। इस प्रकार प्रत्यक्ष दर्शन में जितनी ही वृद्धि होती रहेगी उतनी ही उसके प्रति प्रेम-भक्ति भी विकसित होती रहेगी। अन्त में जब निर्निमेष दृष्टि से आत्मज्योति के दर्शन में तन्मय हो जाने पर प्रेम-भक्ति की रसानुभूति में उन्मत्त हो जाओगे। तभी अज्ञान-पाश के कट जाने पर शुद्ध भक्ति जन्मेगी। अतएव ईश्वर सत्ता के दर्शन के बिना ईश्वर के प्रति सच्ची प्रेम भक्ति सम्भव नही। वह सम्पूर्णतः प्राणकर्म या प्राणायाम सापेक्ष है।
      प्रत्येक मनुष्य के शरीर मे मूलाधार चक्र में कुण्डलिनी शक्ति सोई हुई है। इस शक्ति को जब तक प्राणायाम या प्राण-कर्म द्वारा जगाया नहीं जा सकता तब तक साधन-भजन बाह्य आडम्बर है। साधना का उद्देश्य यह नहीं कि कि स्वर्ग-लोक में मृत्यु के पश्चात् वहाँ के आनन्द और ऐश्वर्य का उपभोग करेंगे। वैसे भोग की प्राप्ति तो बिना साधना के भी हो सकती है। वह तो किए गए सुकर्म का फल भोग मात्र हैसच्ची साधना का फल नहीं। साधना के द्वारा जीव की प्रगाढ़ मोह-निद्रा जब टूट जाती है तब उसे शिवत्व अथवा स्थिरत्व प्राप्त होता है अर्थात् वह पूर्णत्व प्राप्त कर लेता है। इसलिए योगी को कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत करना ही होगा। जीव का आत्मा शिवस्वरूप हैमंगलमय है जो मोह और अज्ञान से ढंका हुआ है। यह शिवरूपी आत्माव्योमतत्त्व अर्थात् विशुद्ध चक्र में शव के रूप में सुप्त है। इस सुप्तावस्था को जगाना होगा। प्राण-कर्म या प्राणायाम द्वारा कंठ में वायु के स्थिर होने से ही सुप्तावस्था चली जाती है। और कंठ में वायु स्थिर होने से ही नीलकंठ की संज्ञा प्राप्त होती है अर्थात् वायु की स्थिरता ही कंठ में नीलकंठता की परिभाषा है। शरीरस्थ पांच चक्र पांच तत्त्व के केन्द्र है। पृथ्वीजलअग्नि (तेज)वायु (मरुत) एवं व्योम (अकाश) प्रत्येक केन्द्र में अवस्थित है। शक्ति सभी चक्रों में समान-मात्रा में स्थित है। किन्तु मूलाधार चक्र में शक्ति के जाग्रत होने पर वह वायवीय शक्ति सुषुम्ना के भीतर से ऊपर की ओर उठती रहती है और क्रमशः सभी चक्रों में स्थित शक्ति को जाग्रत करते हुए पूर्ण रूप से जाग्रत होकर पाँचों चक्रों को मुक्त कर देती है। और तब इस स्थिति में अज्ञान का आभास तक नहीं मिलता। तब आत्मा का अज्ञान निद्रारूपी आवरण के छिन्न होने पर दूर हो जाता है और अन्त में शिव-शक्ति का मिलन होता है।
      कृष्णराम के दो पुत्र और एक कन्या रात खा-पीकर सो गये। उनकी पत्नी ने विनयपूर्वक उनसे कहा- ‘‘छोटे लड़के के जनेऊ या यज्ञोपवीत का समय पार कर गया उसके जनेऊ की कोई व्यवस्था आपने नहीं की। जितनी जल्दी हो सके उपनयन-संस्कार की व्यवस्था करो।’’
      कृष्णराम गरीब ब्राह्मण थेकिसी प्रकार गृहस्थी का निर्वाह हो जाता था। लड़के के उपनयन संस्कार के लिए पैसा कहाँ। वे गुरु महाराज के अनन्य भक्त और सेवक थे। कृष्णराम को इन सब बातों की कोई चिन्ता नहीं। पत्नी को सान्त्वना देते हुए कहा- ‘‘गुरु महाराज की जब कृपा होगी उपनयन की ठीक व्यवस्था हो जायेगी। मेरे पास तो पैसे नहीं हैअकारण चिन्ता करके क्या करूँगा। जिसकी चिन्ता है वे स्वयं ही करेंगे।’’
      कृष्णराम दूसरे दिन सुबह उठकर गुरु महाराज को साथ में लेने गंगा स्नान के लिए प्रतिदिन की तरह योगिराज के घर गये। योगिराज आसन पर बैठे थे। कृष्णराम के प्रणाम करते ही योगिराज ने अपने आसन के नीचे से तीस रुपया निकाल कर दिया और कहा- इस रुपये के द्वारा शास्त्रानुसार अपने लड़के का उपनयन संस्कार करो। आडम्बर अथवा दिखावे का कोई प्रयोजन नहीं।’’ कृष्णराम ने लज्जित होते हुए कहा- ‘‘गुरु महाराजआप मुझ पर हमेशा कृपा करते हैं। मैं तो ठीक से आपकी सेवा भी नहीं कर पाता। मुझे आप रुपया क्यों देंगे?’’
      योगिराज ने कहा- ‘‘देखो कृष्णाराम देनेवाला मालिक तो एक ही है वे तो किसी-न-किसी के हाथ से ही देते हैं। अभी वे मेरे हाथ से ही दे रहे हैं तो फिर तुम लोगे क्यों नहीं?’’
      कृष्णाराम ने सम्मान पूर्वक उस रुपये को ले लिया।
      पाँचकोड़ी वन्द्योपाध्याय योगिराज के एक प्रिय भक्त थे जिनकी साधना अत्यन्त उन्नत थीकिन्तु गृहस्थी के पंकिल या गँदले परिवेश में रह कर भगवत्-साधना करना अत्यन्त कठिन देखकर उनके मन में वैराग्य का उदय हुआ। उन्होंने मन ही मन निश्चय किया कि घर-बार छोड़ कर चले जाएँगे। किन्तु इसके पहले गुरुदेव की अनुमति चाहिए। वन्द्योपाध्याय जी ने एक दिन गुरुदेव के पास आकर संन्यास लेने की अनुमति प्राप्त करने के लिए निवेदन किया।
      योगिराज ने उनकी सारी बात सुनकर गम्भीर स्वर में कहा- ‘‘तुम्हारे जनेऊ का भार अधिक है या जटा का भार अधिक हैतुम क्या साधु की हैसियत से स्वयं का प्रचार करना चाहते हो ताकि लोग तुम्हें मानें-जाने और कुछ अर्थोपार्जन होदेखोगेरुआ वस्त्र पहनने से लोग यदि साधु हो सकते तो गधे-घोडे़ सभी साधु हो जाते। उनका भी रंग तो गेरुआ है तो फिर उन्हें साधु क्यों नहीं कहोगेयह सब पागलपन छोड़ोगृहस्थी में रहो स्वयं जो उपार्जन कर सकते हो उसी जीविका पर जीवन का निर्वाह करो और ईश्वर की साधना करो। दूसरों से दान लेकर जीवन-यात्रा का निर्वाह नहीं करोगे।’’
      अन्त में सिर झुकाए पाँचकोड़ी वन्द्योपाध्याय चले गये। यही आगे चलकर केशवानन्द ब्रह्मचारी के नाम से विख्यात हुए थे।
      योगिराज कहा करते थे कि भारतवर्ष में अध्यात्म-जगत के कंकाल स्वरूप मठमिशन एवं आश्रम का अभाव नहीं है। मठ-मिशन करने से ईश्वर की साधना नहीं होती। ये सब ईश्वर की साधना में बाधा उपस्थित करते है। किस प्रकार मठ और मिशन का प्रचार-प्रसार होइसी ओर ध्यान लगा रहता है। इसीलिए वे एकान्त एवं गोपन साधना पर अधिक बल देते थे। उनका कहना था कि गेरुआ पहनने पर लोग साधु के रूप में पहचान सकते हैकिन्तु साधना में व्याघात या बाधा पड़ती है। सफेद कपड़े में लोग पहचान नहीं सकते और साधना भी भली भाँति हो सकती है। संन्यासी-जीवन अत्यन्त कठिन हैइसी कारण उन्होंने किसी भक्त को संन्यासी होने की अनुमति नहीं प्रदान की। हालाँकि पहले से ही संन्यासी में दीक्षित उनके अनेक भक्त थे। वे गृहस्थ को घर-संसार में ही रहने को कहा करते थे और संन्यासी को संन्यास आश्रम में रहने को उपदेश देते। उनका उपदेश था कि जो जिस आश्रम में है वह उसी आश्रम में रहकर आत्मसाधना करे। परिवर्तन की कोई आवश्यकता नहीं। ऐसी स्थिति में ही कल्याण होगा। वे पोशाक परिवर्तन का निषेध करते। वे कहते थे कि रंगीन पोशाक पहनकर साधु होने से ही ईश्वर की प्राप्ति होगी ऐसी-बात नहीं हैं जो जिस पोशाक में है और जो जिस परिवेश में है वही तुम्हारे अनुकूल है। उसी प्रकार रहकर ही आत्मसाधना करते रहो तभी जीवन सफल होगा।  
महाप्रयाण
मरते मरते जग मरामरना ना जाने कोय ।
ऐसा मरना कोई ना मराजे फिर न मरना होय ।।
मरना है दुई भांति काजो मरना जाने कोप ।
रामदुआरे जो मरेफिर ना मरना होय ।।
            संसार में लोगों की मृत्यु हो रही है परन्तु किस भांति मरना चाहिए यह कोई नहीं जानने का प्रयास करता। कोई भी उस विधि को नहीं जानता जिससे दोबारा न मरना पडे। वस्तुतः मरण दो प्रकार का होता है एक सामान्य मृत्यु है व दूसरी मृत्यु है राम दुआरे मृत्यु अर्थात् उसमें दोबारा जीवन का जन्म नहीं होता।
                                                                                                             -सन्त कबीर
            मृत्यु का नाम सुनते ही अच्छे-अच्छो का रक्त चाप ;ठण्च्ण्द्ध बढ़ जाता है। व्यक्ति इस नाम से दूर भगाना पसन्द करता है। परन्तु योगी मृत्यु की तैयारी स्वयं करता है। वह इस सत्य से भयभीत नहीं होता। इसका प्रमाण योगिराज के शिष्य युक्तश्वर जी के शिष्य योगानन्द परमहंस जी ने यू.एस.ए में इच्छा मृत्यु का वरण करके दिया था।
            श्रीभगवद्गीता च्संददपदह व िक्मंजी के विषय में क्या कहती है निम्न पता चलता है।
         प्रयाणकाले मनसाऽचलेनभकत्या युक्तो योगबलेन च व
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपति दिव्यम् ।।
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूध्न्र्याधयात्मनं प्राणमास्थितो योग धारणाम् ।।
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ।।
                                                                                                                          गीताः
            अर्थात् प्रयाण-काल में स्थिरचित्त होकर भक्तिपूर्वक जो योगबल द्वारा दोनों भौंहों के बीच प्राण को धारण करते हुए ईश-स्मरण करता है वह दिव्य परमात्मस्वरूप पुरुष को प्राप्त करता है। समस्त इन्द्रियों पर नियंत्रण करके अर्थात् इन्द्रियों द्वारा बाह्य विषयों को ग्रहण न करते हुए मन को निसलम्ब भाव से स्थिर करके दोनों भौहों के बीच प्राण को सम्पूर्णतः स्थापित करके एकाक्षर ब्रह्म नाम रूप ओंकार का जप करते-करते मुझे (कूटस्थ को) स्मरण करते हुए जो देह त्याग करते हैं उन्हें परम गति की प्राप्ति होती है। 
            एक दिन योगिराजने मधुर मुस्कान के साथ शान्त में काशीमणि देवी से कहा- ‘‘देखों! अब मेरा यहाँ का काम समाप्त हो गया। जाने का समय आ गयाकेवल ‘‘माह रहूँगाउसके बाद चला जाऊँगा। तुम लोग शोक मत करना’’। महायोगी अपने महाप्रस्थान का दिन निश्चित कर मानव लीला की समाप्ति के लिए प्रस्तुत हो गए। 26 सितम्बर 1895 ई. बृहस्पतिवार के महाष्टमी के दिन अपने मकान में भगवद्गीता के श्लोके की धीमे और मधुर स्वर में व्याख्या कर रहे है सूर्योस्त की बेला है बाहर अष्टमी के गाजे बाजे बज रहे हैं। सभी का मन बोझित है योगिराज पदमासन लगाकर बैठ गए। आँखों में आँसू भरे तमाम भक्तों की ओर देखते हुए बोले- ‘‘अब मेरे जाने का समय हो गया। तुम लोग शोक मत करो। नश्वर दे हके न रहने पर की सद्गुरु की सत्ता रहती है। मैं हमेशा तुम लोगों के साथ हँू।’’ साँयकल 5 बजकर 25 मिनट पर उन्होंने महाप्रयाण किया। सभी भक्तो ने अपनी श्रद्धा निवेदित करते हुए उन्हें अन्तिम प्रणाम कर गृहस्थ आश्रम की मर्यादा के अनुसार अन्त्येष्टि संस्कार सम्पन्न किया। योगिराज एक अमृतमय ज्योतिर्तोक की यात्रा पर चले गए किन्तु जिस आदर्श की उन्होंने स्थापना की और मुक्तिमार्ग की खोज की उस पर चलकर आज लाखों नर-नारी अपने जीवन का कल्याण कर रहे हैं।

श्यामचरण लाहिड़ी part-2

एक बार योगिराज के साले राजचन्द्र सान्याल के उच्च शिक्षा प्राप्त युवा पुत्र तारकनाथ, पेट के किसी असाध्य रोग से आक्रान्त थे। लम्बी चिकित्सा के बावजूद किसी प्रकार का लाभ न होते देखकर वे वायु-परिवर्तन के लिये कानपुर जाकर अपने पिता के एक घनिष्ठ मित्र के यहाँ रहने लगे। इस दरम्यान वहाँ के एक व्यक्ति ने उनसे कहा- ‘‘औषधि के द्वारा तुम्हारा यह रोग दूर नहीं होगा। यदि तुम्हें किसी महात्मा का आर्शीवाद प्राप्त हो जाए तो यह शीद्य्र ही दूर हो जायेगा।’’ और यह भी बताया कि ‘‘गोरखपुर में एक ऐसे महात्मा हैं। वहाँ जाकर जल्द ही उनकी कृपा प्राप्त करने की चेष्टा करो।’’ तारकनाथ गोरखपुर जाने की तैयारी करने लगे; उसी समय उनके पिता के मित्र ने सारी बातें सुनकर कहा- ‘‘तुम्हारे घर में ही महात्मा हैं और तुम महात्मा की खोज में कहीं और जा रहे हो?’’ तारकनाथ ने विस्मयपूर्वक पूछा ‘‘मेरे यहाँ महात्मा कहाँ से आ गए? मैंने तो कभी किसी महात्मा की चर्चा सूनी नहीं।’’ उनके पिता के मित्र ने कहा- ‘‘क्या तुम अपने फूफा श्यामचरण लाहिड़ी को जाने नहीं? वे ही महात्मा हैं। उनका आशीर्वाद प्राप्त करने की चेष्टा करो तभी कल्याण होगा।’’
     तारकनाथ को आश्चर्य हुआ। उनके फूफा एक महात्मा हैं, ऐसी बात इसके पहले उन्होंने कभी सुनी नहीं। कितनी बार उनके घर जा चुके हैं, उनसे कितनी बातें की है; किन्तु उनमें महात्मा जैसा कुछ दिखा नहीं।
     तारकनाथ काशी लौट आए और अपने पिता को साथ लेकर अपने फूफा से भेंट की।
     फूफा ने सारी बातें सुनकर तारकनाथ को एक टोटके वाली दवा दीं। तारकनाथ उसका इस्तेमाल करके नीरोग हो गए। उसके पश्चात् तारकनाथ उनसे योग की दीक्षा लेकर साधना में तल्लीन हो गए। किसी प्रकार के उपार्जन की चेष्टा न करते हुए देखकर योगिराज ने उन्हें कम साधना करने का आदेश दिया और कहा- ‘‘साधना भी करनी होगी और व्यवसाय के द्वारा जीविका का निर्वाह भी करना होगा। दूसरे के सहारे रहकर जीवन व्यतीत करना उचित नहीं। अपनी गृहस्थी स्वयं ही चलाना उचित है।’’
     यही तारकनाथ उसके पश्चात् अँगरेजी के प्रधान अध्यापक होने के बावजूद साधना के उच्चतम शिखर पहुँचने में समर्थ हुए थे।
     इससे साबित होता है कि योगिराज स्वयं को कितना गोपन रखते थे।
     एक बार की घटना है। योगिराज की मझली लड़की हरिकामिनी ससुराल से यहाँ आई है। अचानक उसे एश्यिाटिक काॅलरा हो गया। काशीमणि देवी ने योगिराज से अनुरोध किया कि जैसे भी हो कोई व्यवस्था करो और लड़की को बचाओ। तुम्हारे रहते हुए लड़की क्या मर जायेगी?
     योगिराज के मन में कोई उद्विग्नता नहीं, जैसे कुछ हुआ ही नहीं। काशीमणि देवी बार-बार अनुरोध करती हैं कि जैसे भी हो लड़की को बचाओ।
     योगिराज ने बिना कुछ कहे एक अपामार्ग की जड़ और ढाई गोलमिर्च देते हुए
 कहा- ‘‘ये दोनों एक साथ पीसकर पिला दो।’’
काशीमणि देवी ने सोचा विवाहिता लड़की है क्या पता कुछ हो जाये तो उसकी ससुराल में तरह-तरह की बात उठेगी, इसलिए डाक्टर की दवा ही ठीक है। वे योगिराज द्वारा दी गई दवा न देकर डाक्टर की दवा ही देने लगी। किन्तु दूसरे दिन लड़की का स्वर्गवास हो गया।
      योगिराज अन्य दिनों की तरह उस दिन भी शाम को गीता की व्याख्या कर रहे हैं और उनके सुयोग्य शिष्य पंडित पंचानन भट्टाचार्य गीता के मूल श्लोक का पाठ कर रहे हैं। अनेक भक्त उपस्थित हैं। इसी बीच ऊपर के कमरे में जोर-जोर से रोने की आवाज सुनाई पड़ी । सभी उपस्थित व्यक्ति विचलित हो गये। कारण पूछने पर योगिराज ने बताया कि- ‘‘मझली लड़की मर गई, इसीलिये सभी रो रहे हैं। लगता है श्मशान ले जाने वाले आये हैं।’’
      भट्टाचार्य महोदय ने गीता की पुस्तक को बन्द करते हुए कहा- ‘‘बस आज यही तक।’’
      योगिराज ने गम्भीरता पूर्वक कहा- ‘‘वे लोग अपना काम करें, तुम लोग अपना काम करो।’’
      उपस्थित सभी भक्तों ने कहा- ‘‘इस समय गीता की व्याख्या सुनने के लिये मन में धैर्य और स्थैर्य नहीं है आज बन्द रहने दिया जाये।’’
      योगिराज के मन में कोई उद्वेलन नहीं- जैसे कुछ हुआ ही नही। शान्त स्वर में उन्होंने कहा- अच्छा तो फिर बन्द रक्खो।
      दूसरे दिन योगिराज के साले राजचन्द्र सान्याल ने आकर योगिराज से पूछा- प्रियजनों की मृत्यु या वियोग में जो दुःख सामान्य व्यक्ति को होता है, वैसा क्या तुम्हें होता है?
      योगिराज ने मुसकराते हुए कहा- ‘‘दुःख तो सभी को होग; किन्तु ज्ञानी व्यक्ति के पक्ष में कुछ पार्थक्य है। जैसे पत्थर की गोली को अगर सख्त जगह पर जोर से मारो तो वह उछलती हुई दूर निकल जायेगी; किन्तु उसी को यदि नर्म मिट्टो पर जोर से मारो तो वह उसमें धँस जायेगी। इसी प्रकार ज्ञानी व्यक्ति को दुःख आघात नहीं दे सकता है। आघात उस पर भी होता है, किन्तु लौट जाता है और अज्ञानी उसी आघात से हाय-हाय करते हैं।’’
      जल में तैरत कमल के पत्तों की तरह सांसारिक जीवन का निर्वाह करते हुए यह महान गृहीयोगी कितनी सहजता के साथ दुःख, क्लेश-कष्ट से सदैव निर्लिप्त रहा करते थे। ठीक उसी तरह जिस प्रकार गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है-
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ । समदुःखसुखंधीरं सोऽमृत्वाय कल्पते ।।
      अर्थात् समस्त सुख-दुख में समभाव से जो धैर्यवान व्यक्ति व्यथित नहीं होते, उन्हें अमरत्व एवं शाश्वत आनन्द प्राप्त होता है।
      योगिराज प्रतिदिन सायंकाल गंगा के किनारे राणामहल घाट पर टहलने जाया करते थे। वहीं गंगा-तट पर भक्त कृष्णाराम का घर था। योगिराज कुछ देर तक टहलकर कृष्णाराम के मकान के बरामदे में बैठा करते और गीता के सम्बन्ध में नाना प्रकार की व्याख्याएँ करते। उसके बाद अँधेरा होने के पर्व ही वे घर वापस आकर बैठकखाने में बैठ कर भक्तों को उपदेश दिया करते। रात के नौ बजते ही सभी भक्त चले जाते। इसी क्रम में वे जब भक्तों को उपदेश देते तब कभी किसी समय ऐसा भी देखने में आता  िकवे अचानक हाथ जोड़ कर माथे से लगाकर प्रणाम करते। उपदेश के समय बीच-बीच में वे इसी तरह की मुद्रा में क्यों प्रणाम करते, यह उपस्थित भक्तों की समझ में नहीं आ पाता और पूछने का साहस भी नहीं जुटा पाते। इस प्रकार धीरे-धीरे भक्तों में एक कौतूहल की सृष्टि हुई।
      एक दिन जब उन्होंने उपेदश देते हुए अचानक प्रणाम किया तब उसी समय एक व्यक्ति घर से बाहर आकर देखता है कि एक भक्त योगिराज के बरामदे में साष्टांग प्रणाम कर रहा है और योगिराज उसी प्रणाम को स्वीकार कर रहे हैं। घर के भीतर से देखने का उपाय नहीं था। इस प्रकार बाहर से जब भी कोई उनके प्रति अपना प्रणाम निवेदित करता तब वे उसका प्रत्याभिवादन करते। यहाँ तक कि बहुत दूर से भी यदि उन्हें कोई प्रणाम करता तो वे उसका प्रत्याभिवादन करते यह भी देखने में आता। पास और दूर, भीतर और बाहर सभी कुछ उनके निकट स्वच्छ हो गया था। सभी के भीतर वे उसी एक को ही देखते।
      योगिराज ने कभी भी अपना प्रचार या प्रसार नहीं चाहा। इसीलिए वे किसी को अपना चित्र या फोटो खींचने की अनुमति नहीं देते थे। एक दिन सभी भक्तों ने उनका चित्र या फोटो खिंचवाने का निर्णय लिया और उनके ही एक भक्त एवं कुशल फोटोग्राफर गंगाधर दे को बुलाकर लाया गया। अब उन लोगों ने योगिराज की सहमति के लिए निवेदन किया। इस पर योगिराज ने कहा- ‘‘फोटो खीचने की कोई जरुरत नहीं। फोटो खींचने पर भविष्य में तुम सब साधना छोड़कर फोटो की ही पूजा शुरु कर दोगे।’’
      किन्तु भक्त कहाँ छोड़ने वाले थे। उनके बार-बार अनुरोध करने पर अन्त में योेगिराज ने फोटो खींचने की अनुमति दे दी। गंगाधर बाबू के साथ सभी भक्त प्रसन्नता के साथ फोटो लेने के लिए तैयार हो गये। योगिराज कैमरा के सामने जाकर बच्चों जैसी उत्सुकता के साथ कमरा के तमाम कल-पुर्जों के बारे में जानकारी लेने लगे। गंगाधर बाबू ने भी उत्साह पूर्वक कैमरे के विभिन्न अंशों के बारे में बताना-समझाना शुरू किया।
      किन्तु फोटो लेने के समय गंगाधर बाबू को एक बड़े संकट का सामना करना पड़ा। कैमरे के लेन्स में योगिराज की छवि प्रतिबिम्बित ही नहीं हो रही है। उन्होंने सोच कैमरे में कहीं कोई त्रुटि है। किन्तु परीक्षा करके देखा कि दूसरों का चित्र लेन्स में ठीक-ठाक प्रतिबिम्बित हो रहा है। गंगाधर बाबू को इतनी देर में सारा रहस्य समझ में आ गया। उन्होंने देखा कि योगिराज मुस्करा रहे है । इस बार गंगाधर बाबू ने हाथ जोड़ते हुए निवेदन किया- ‘‘आप दया करें नही ंतो फोटो नहीं खिच पायेगी और न तो भक्तों की मनोकांछा ही पूर्ण होगी।’’
      योगिराज ने इस बार हँसते हुए कहा- ‘‘खीचा, फोटो खींचो।’’ इस बार कैमरे के लेन्स में उनका चित्र स्पष्ट प्रतिबिम्बत होने लगा।
      इस समय उनके लाखों अनुयायियों या अनुगामी भक्तों के पास जो चित्र देखने को मिलता है उसे उस दिन गंगाधर दे ने खींचा था। इसके अतिरिक्त उनका दूसरा चित्र नहीं खींचा गया। किन्तु आश्चर्य की बात है कि कहीं भी किसी दुकान पर उनका चित्र नहीं मिलता। सम्भवतः वे प्रचार-प्रसार के प्रति विरक्त थे इसीलिए इस प्रकार की गोपनीयता पालन किया है। फोटो देखने पर सहज ही कोई अनुमान कर सकता है कि योगिराज का शरीर कितना सुडौल और सुन्दर था। वे योगी सुलभ दे हके अधिकारी थे। उनकी आँखों की ओर देखने से लगता था जैसे बड़ी तीक्ष्णता के साथ पूरे विश्व-ब्रह्माण्ड को देख रहे हों। वह शाम्भवी मुद्रा की स्थिति है।
      श्यामाचरण साधना के सर्वोच्च शिखर पर आरोहण करके आर्ष अवस्था को प्राप्त करने के बावजूद हमेशा सहजता एवं सरलता के साथ जीवन-यापन करते थे। अत्यन्त साधारण उनकी वेशभूषा थी। स्वल्पभाषी एवं मधुरभाषी श्यामाचरण कभी भी बिना किसी प्रयोजन के योग-विभूति के ऐश्वर्य को व्यक्त नहीं करते थे। कभी-कभी लीला या चमत्कार के बहाने अथवा मोक्षकामी भक्तों के विश्वास को दृढ़ करने की दृष्टि से ही उन्हें योग के चमत्कारों का प्रदर्शन करते देखा गया है। अध्यात्मशक्ति के मुख्यस्त्रोत के रूप में प्रतिष्ठित होकर भी योगिराज स्वयं को अत्यन्त क्षुद्र या अकिंचन समझते थे। भक्तों को भी इसी का उपदेश देते हुए कहा करते थे- ‘‘स्वयं को क्षुद्र या छोटा नहीं समझने पर आत्म-राज्य में प्रवेश नहीं किया जा सकता।’’ कई बार भक्तों से यह भी कहा करते कि- मैं गुरु नहीं हूँ; गुरु शिष्य के बीच कोई भेद या फर्क नहीं रखता हँू।’’
      उस समय योगिराज अध्यात्मशक्ति की ऊँचाई पर थे और अपनी अध्यात्म शक्ति के द्वारा मानव-कल्याण के लिए पतित पावन की भूमिका में प्रतिष्ठित थे। इसके अलावा उनमें कुछ ऐसी शक्ति थी कि केवल उनके दर्शन से ही लोगों का आध्यात्मिक रूपान्तर हो जाता था अनेक साधु-संन्यासी रात के गहरे एकान्त में उनके चरणों में बैठकर अत्यन्त दुरूह योग-साधना की शिक्षा प्राप्त करते थे और प्रातःकाल होते ही सभी चले जाते थे। इस प्रकार उन्होंने कितनी ही विनिद्र रातें काटी हैं। इसके लिए वे कभी उदास या निष्क्रिय नहीं दिखाई पड़ते थे। अवसन्नता का आभास ही नहीं था। हमेशा प्रसन्नता एवं प्रफुल्लता पूर्वक आगत भक्तों की इच्छा पूर्ण करने की चेष्टा किया करते थे। उस समय उनको देखने से लगता था जैसे कोई करुणा की घनीभूत मूर्ति हो। ऊँच-नीच के भेदाभेद से रहित होकर इस महायोगी को कई बार ऐसा करते देखा गया है कि वे स्वयं भक्तों की खोज-खबर रखते और उन पर अपनी अहैतुकी कृपा-दृष्टि रखते थे।
      योगिराज के वास-स्थान से थोड़ी दूर पर ग्वाला जयपाल भगत की दूध और दही की दुकान थी। वह दिन भर बैठे-बैठे दूध-दही बेचता और देखता कि कितने लोग महाराज जी के पास आते-जाते है। कितने लोग उनकी कृपा पाकर धन्य होते हैं। महाराज जी के प्रति जयपाल की गहरी श्रद्धा थी। जयपाल सोचता कि वह तो मामूली आदमी है, उसे क्या महाराज की कृपा प्राप्त होगी? साहस पूर्वक जयपाल कुछ कह नहीं पाता था। एक दिन जयपाल रास्ते में जा रहा था। अचानक सामने से महाराज जी को आते हुए देखकर वह भक्ति पूर्वक विनम्रता के साथ उन्हें प्रणाम करके रास्ते के किनारे खड़ा हो गया। महाराज जी प्रत्याभिवादन करने के पश्चात् थोड़ा मुस्कराए और कहा- ‘‘जयपाल तुम कल आओगे, तुम्हें दीक्षा दूँगा।’’
      जयपाल ने भक्ति पूर्वक प्रणाम करके कहा- ‘‘महाराज जी की जय हो।’’ जयपाल आनन्द में निमग्न होकर सोचने लगा कि महाराज जी स्वयं बुलाकर कृपा कर रहे हैं- क्या मैं उनके उपदेश का पालन कर सकूँगा।
      दूसरे दिन जयपाल ठीक समय पर उपस्थित हुआ और दीक्षा प्राप्त की।
      परवर्ती काल में देखा गया कि उसी छोटी-सी दूध दही की दुकान से ही जयपाल ने काफी अर्थोपार्जन किया था। भक्त जयपाल धन-धान्य और पुत्र-परिवार से सम्पन्न होने के बावजूद अन्त में सब कुछ पुत्रों को सौंपकर गंगा के किनारे एक कुटी में अकेले ध्यानस्थ होकर बैठा रहता। जयपाल साधना की उच्च स्तरीय भूमि पर उत्तीर्ण हो चुका था।
      इस प्रकार बाँग्लादेश की भागीरथी के किनारे एक छोटे गाँव में ईंट बनाने के भट्ठे हितलाल सरकार काम करते थे। किसी तरह मामूली आमदनी से घर-गृहस्थी चलाते थे। किन्तु परोपकार की सहजात वृत्ति उनमे थी। किसी गरीब दुःखी के कुछ मांगने पर अपने एवं परिवार के कष्ट की बात भुलाकर उसी समय अपनी सामथ्र्य के अनुसार उसे दान दिया करते थे। हितलाल घर-परिवार के लिए सारे काम करते; किन्तु बीच-बीच में उनका मन पता नहीं कहाँ चला जाता। गंगा के किनारे वे घण्टों बैठे रहते। हालांकि वे समस्त कार्य करते थे लेकिन कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। पता नहीं, हितलाल क्या पाना चाहते थे। उन्हें लगता जैसे जीवन अपूर्ण रह गया।
      हितलाल प्रत्येक दिन की चर्या के अनुसार उस दिन भी काम पर गये थे। नियमित रूप से कत्र्तव्यों का पालन कर रहे थे। अचानक उनके भाव-जगत में एक परिवर्तन आया। अकारण ही चित्त अत्यन्त व्याकुल हो गया। उन्होंने सोचा। यहाँ रहने से कोई लाभ नहीं, अभी ही कहीं चला जाना होगा। सोचने के अनुसार ही काम करना है। कारखाना छोड़कर हितलाल ने चलना शुरू किया। उन्हें ऐसा लगा जैसे कोई अदृश्य शक्ति अपने प्रबल आकर्षण द्वारा खींचे लिए जा रही है। कहाँ जाना है, क्या करना है, उन्हें इसका पता नहीं। मंत्रमुग्ध होकर वे चले जा रहे हैं। कुछ देर बाद रेलवे स्टेशन पर आकर उन्होंने देखा कि ट्रेन खड़ी है। ट्रेन से वे हावड़ा स्टेशन आ गये। हितलाल को इसका कोई ध्यान नहीं रहा। टिकट घर क सामने जाकर उन्होंने कहा- ‘‘एक टिकट दीजिए।’’ टिकट बाबू ने पूछा- ‘‘कहाँ जायेंगे?’’
      हितलाल ने कहा- ‘‘यही कुछ रूपये हैं, इससे जो हो एक टिकट दे दीजिए।’’
      प्रौढ़ टिकट बाबू ने समझा कि यह भलेमानुष किसी कारण से परेशान है। इसीलिए उन्होंने पूछा- ‘‘आप क्या कभी काशी गये हैं?’’
      हितलाल ने कहा- ‘‘नहीं, कभी भी काशी नहीं गया।’’ टिकट बाबू ने मुसकराते हुए कहा- ‘‘तो फिर काशी जाइये। इस रूपये में वहाँ तक का टिकट हो जायेगा। बाबा विश्वनाथ की कृपा से शान्ति प्राप्त होगी।’’
      हितलाल को ज्ञात था कि काशी में बंगाली टोला नाम की एक जगह है। वहाँ अनेक बंगाली रहते हैं। काशी रेलवे स्टेशन पर उतर कर वे पूछते-पूछते बंगाली टोला की ओर रवाना हो गये। पतली गली से वे चल जा रहे हैं। थके-माँदे और भूख-प्यासे हितलाल कहाँ जायेंगे। पता नहीं- चलना है इसीलिए चले जा रहे हैं। अचानक उन्होंने देखा कि एक मकान से सौम्यमूर्ति एक सज्जन व्यक्ति बाहर आकर उन्हें बुला रहे हैं। ‘‘सुनिये, इधर आइये।’’
      हितलाल विस्मयपूर्वक आगे बढ़े और पास जाकर कहा- ‘‘आप मुझे पहचानते नहीं और मैं भी आपको नहीं पहचानता तो फिर आपने मुझे क्यों बुलाया?’’ सज्जन व्यक्ति ने हँसकर कहा- ‘‘वह सब बाद में, आप थके-माँदे और भूखे-प्यासे है, पहले, नहा-धोकर और खा-पीकर आराम कीजिए।’’
      हितलाल ने सोचा इस सज्जन को मेरी व्यथा-कथा कैसे मालूम हुई?
      हितलाल के लिए नहाने-धोने और खाने-पीने की तथा विश्राम की यथोचित व्यवस्था की गई। विश्राम के पश्चात् अन्यान्य लोगों से बातचीत के दौरान उन्हें पता चला कि वे वही महात्मा योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी है जिनके बारे में उन्होंने केवल उनका नाम भर सुन रखा था।     
      इसी बीच योगिराज ने हितलाल को अपने कमरे में बुलवाया और कहा- ‘‘आपकी दीक्षा-प्राप्ति का समय आ गया है इसलिए मैं ही आपको यहाँ लाया हँू।’’
      योगिराज के चरणों पर हितलाल लोट पड़े। महायोगी की कृपा प्राप्त करके हितलाल धन्य हो गये।
      योगिराज का पड़ोसी एक युवक चन्द्रमोहन दे अभी-अभी डाक्टरी पास करके घर लौटा है। चन्द्रमोहन, राममोहन के भाई थे। एक दिन चन्द्रमोहन ने आकर योगिराज को प्रणाम किया और आशीर्वाद प्राप्त करने की प्रार्थना की। आशीर्वाद देकर योगिराज आधुनिक चिकित्सा के बारे में विधि विषयों पर पूछ-ताछ करने लगे। चन्द्रमोहन नये डाक्टर हुए हैं उत्साह की कोई कमी नहीं। आधुनिक चिकित्सा-विज्ञान के तमाम पक्षे को वे समझाने लगे।
      योगिराज ने उनसे जानना चाहा कि चिकित्सा-विज्ञान में मृत की क्या संज्ञा है?
      मृत की संज्ञा के बारे में चन्द्रमोहन ने बतलाया।
      फिर मुस्कराते हुए मजाक के स्वर में योगिराज ने कहा- ‘‘चन्द्रमोहन मेरी जाँच करके देखो तो मैं जीवित हँू या मृत?’’
      चन्द्रमोहन ने जाँच की; लेकिन अवाक; योगिराज के शरीर में कही भी प्राण का संकेत नही। हृत्पिण्ड बन्द है । चन्द्रमोहन क्या कहें- सोच ही नहीं पा रहे हैं। अचानक योगिराज ने मुस्कराते हुए कहा- ‘‘तो फिर चन्द्रमोहन मुझे एक डेथ सर्टिफिकेट लिखकर दे दो।’’
      चन्द्रमोहन और भी आफत में पड़ गये। क्या उत्तर दें, सोच रहे हैं। अकस्मात उनके दिमाग में एक बात आई और उन्होंने कहा- डेथ सर्टिफिकेट तो लिख देता; किन्तु आप तो बात कर रहे हैं; मृत व्यक्ति तो बात नहीं कर सकता।
      योगिराज हँस पड़े और कहा- ‘‘ठीक ही कहते हो; किन्तु जान लो, तुम लोगों के आधुनिक विज्ञान से ऊपर और भी बहुत कुछ जानने के लिये है। वहाँ तुम लोगों के विज्ञान की पहुँच नहीं है, किन्तु योगी सहजता के साथ ही उस ज्ञान की खोज कर सकते है।’’
      यह घटना चन्द्रमोहन के जीवन की एक अविस्मरणीय घटना थी। परवर्तीकाल में एक सफल चिकित्सक होने के बावजूद वे अध्यात्म-मार्ग के पथिक थे।