Thursday, March 28, 2013

आश्चर्य किन्तु सत्य-शुभ कर्मों की शक्ति (तीनों योगो का समन्वय )

एक बार लेखक पी. एच. ड़ी. का कार्य करते-करते कंधे के दर्द से पीड़ित हो गया। सांय काल थोड़ी निराश मुद्रा में चुपचाप लेटा हुआ था। उस समय देव समाज मिशन के एक 80 वर्ष के वृद्ध कार्यकर्ता लेखक से मिलने आये व उनका हाल चाल पूछा। लेखक की इस स्थिति से वह दु:खी हुए वे उसके कंधे पर हाथ रखकर तीन बार शुभ हो- शुभ हो कहा। उसके बाद एक छोटी सी प्रार्थना गायी। लेखक को कंधे के दर्द से तुरन्त राहत मिली व उसके मन में प्रसन्नता की लहर दौड़ गर्इ। आश्चर्य की बात यह है कि देव समाज मिशन के लोग ईश्वर का अस्तित्व नहीं मानते। केवल शुभ कर्मों को करते-करते उनकी आत्मा इतनी शक्तिशाली हो जाती है कि उनके संकल्प से रोग दूर किये जा सकते हैं । तथ्य यह है कि यह संसार कर्मप्रधान है।
कर्मप्रधान विश्व करि राखा , जो जस  करर्इ तस फलु चाखा।
यदि लगातार व्यक्ति शुभ कर्मो को करता रहे व अपने संगी साथियों के लिए श्रेष्ठ  भावना रखे तो भी वह आत्मबल सम्पन्न महापुरूष बन सकता है। तीन योगों- कर्म योग, ज्ञान योग व भक्ति योग में कर्म योग को प्रधानता दी गर्इ है। यदि व्यक्ति निष्काम कर्म योग करता है तभी उसकी आत्मिक उन्नति सम्भव है, मात्र ज्ञान व भक्ति योग से नहीं।
पाण्डवों के साथ स्वयं कृष्ण थे, परन्तु उनसे ध्युत क्रीड़ा की गलती हो गर्इ जिसका बड़ा भंयकर परिणाम उन्हें भुगतना पड़ा। कर्म योगी निस्वार्थ कर्म व शुभ कर्मो में स्वयं को खपा देता है। ज्ञान योगी वैराग्य से पूर्ण होता चला जाता है। भक्ति योग साधक के भीतर प्रेम की भावना भरता रहता है। ध्यान योग व्यक्ति को अन्तर्मुखी बनाकर आत्म चिन्तन सिखाता है।
कर्इ बार व्यक्ति उलझा रहता है कि क्या बड़ा क्या छोटा ? लेखक के मतानुसार सभी का अपना-अपना महत्व है। सुर्इ चाकू तलवार सबकी अपनी-अपनी उपयोगिता है। विवेकी पुरूष समुचित स्थान पर वस्तु का उचित उपयोग जानता है। ऐसे ही कुशल साधक सभी योगों को अपनी उन्नति के लिए प्रयोग करता है। सामान्य तौर पर उन्नति का प्रारम्भ कर्म योग से हौता है जब शुभ कर्मो द्वारा प्रारब्ध का बोझ हल्का हो जाये तभी ज्ञान योग द्वारा वैराग्य आ पाता है। वैराग्य दृढ़ होने पर ही भक्ति योग द्वारा प्रेम रस उत्पन्न होता है। यदि वैराग्य न आये तो इसी प्रेम रस  के मोह अथवा वासना में परिवर्तित होते देर नही लगती। सभी मार्ग एक दूसरे के पूरक है। यदि कर्म योग सधेगा तो बुद्धि निर्मल होगी जिससे ज्ञान योग आयेगा। यदि ज्ञान आया तो व्यक्ति संसार विरक्त होगा वह अपने जीवन लक्ष्य की ओर बढे़गा ऐसी स्थिति में अनासक्त आत्मा प्रभु कृपा व प्रभु प्रेम का दीदार करेगी। व्यक्ति निश्चिन्त होकर जो मार्ग पसन्द आये उस पर आगे बढ़ता रहे। धीरे-धीरे निस्वार्थ कर्म, वैराग्य व प्रेम उसकी आत्मा के आभूषण बनते जाएंगे व जीवन आन्नद व शांति से भरपूर हो जायेगा।

आए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास


पहले संत दशकों तक जंगलों में तप करते थे। सिद्धि प्राप्त होने पर भी अपना प्रचार नहीं करते थे। स्वयं को छिपाकर रखते थे। चेले बनाने से बचते थे। कहावत थी गुरू कीजे जानकर-पानी पीजे छानकर। तब संतो का जीवन न्यूनतम आवश्यकताओं के कारण प्रकृति के साथ सन्तुलनकारी होता था। पर जब से धार्मिक टी. वी. चैनल बढ़े हैं। तब से धर्म का कारोबार भी खूब चल निकला है। अब कथावाचकों और धर्माचार्यों का यश रातो-रात विश्व भर में फैल जाता है। फिर चली आती है चेलों की बारात, लक्ष्मी की बरसात और लगने लगती है गुरू सेवाकी होड़। नतीजतन हर चेला अपनी क्षमता से ज्यादा गुरू सेवामें जुट जाता है। भावातिरेक में गुरू के उपदेशों का पालन करने की भी सुध नहीं रहती। परिणाम यह होता है कि चेले गुरू के जीवनकाल में ही गुरू के आदर्शो की अर्थी निकाल देते हैं। रोकने-टोकने वाले को गुरूद्रोह का आरोप लगाकर धमका देते हैं। गुरू की आड़ में अपनी दबी हुर्इ महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में जुट जाते हैं।
संत कहते हैं कि पैसे वाला और सुन्दर स्त्री गुरू को ही शिष्य बना लेते हैं । खुद शिष्य नही बनते हैं। परिणाम यह होता है कि विरक्त संतो के शिष्य ही ऐश्वर्य का साम्राज्य खड़ा कर लेते हैं। शंकराचार्य जी ने सारे भारत का भ्रमण कष्टपूर्ण यात्रा में किया और बेहद सादगी का जीवन जीया। आज आपको शंकराचार्यों का वैभव देखकर आदिशंकराचार्य के मूल स्वरूप का आभास भी नहीं हो सकता। इसके अपवाद संभव हैं। सूली पर चढ़ने वाले चरवाहों के साथ सादगी भरा जीवन जीने वाले यीशु मसीह की परम्परा को चलाने वाले पोप रोम स्थित वेटिकन सिटी में चक्रवर्ती सम्राटों जैसा जीवन जीते हैं। गरीब की रोटी से दूध और अमीर की रोटी से खून की धार टपकाने वाले गुरू नानक देव जी गुरूद्वारों  के सत्ता संघर्ष को देखकर क्या सोचते होंगे ? यही हाल लगभग सभी धर्मों का है ।
अब सवाल आता है कि धर्माचार्यों के अस्तित्व, ऐश्वर्य, शक्ति व विशाल शिष्य समुदायों की उपेक्षा तो की नहीं जा सकती। उनके द्वारा की जा रही गुरू सेवाको रोका भी नहीं जा सकता है, पर क्या उसका मूल्यांकन करना गुरूद्रोह माना जाना चाहिए? अब एक संत ने कहा कि अपने नाम के प्रचार से बचो, अपने फोटो होर्डिग, पोस्टरों और पर्चों में छपवाकर बाजारू औरत मत बनो। पर उनके ही शिष्य रात-दिन अपनी फोटो अखबारों और पोस्टरों में छपवाने में जुटे हों, तो इसे आप क्या कहेंगे? संत कहते हैं कि प्रकृति के संसाधनों का संरक्षण करो, उनका विनाश रोको। पर उनके शिष्य प्राकृतिक संसाधनों पर महानगरीय संस्कृति थोपकर उनका अस्तित्व ही मिटाने पर तुले हो तो इसे क्या कहा जाए?  संत कहते हैं कि राग द्वेष से मुक्त रहकर सबको साथ लेकर चलो तभी बड़ा काम कर पाओगे। पर चेले राग द्वेष की अग्नि में ही जलते रहते हैं,  उन्हें लक्ष्य से ज्यादा अपने अहं की तुष्टि की चिंता रहती है। ऐसे चेले भौतिक साम्राज्य का विस्तार भले ही कर लें, पर संत की आध्यात्मिक परम्परा को आगे नहीं बढ़ा पाते। संत के समाधि लेने के बाद उसके नाम के सहारे अपना कारोबार चलाते हैं पर संत हृदय नवीनतम समाना। संत  का हृदय मक्खन के समान कोमल होता है। वे अपने कृपा पात्रों के दोष नहीं देखते। इसका अर्थ यह नहीं कि उनके चेले हर वह काम करें जो संत की रहनी और सोच के विपरीत हो?
जहां-जहां धर्माचार्यों के मठ या आश्रम हैं वहीं-वहीं सेवा के अनेक प्रकल्प भी चलते हैं। जब तक यह सेवा शिक्षा, स्वास्थ्य, गऊ सेवा, भजन, प्रवचन या प्रार्थना तक सीमित रहती है तब तक समाज में कोर्इ समस्या पैदा नहीं होती, पर जब उत्साही चेले ग्रामीण विकास या जल, जंगल व जमीन के विकासकी चिंता करने लगते हैं तब बहुत बड़ा खतरा पैदा हो जाता है। इन सभी समस्याओं को गहरी और अनुभवी सोच के बिना हल करना संभव नहीं होता, क्योंकि बिना समझ के किया गया विकास प्राय: विनाशकारी होता है। वह प्रकृति के संसाधनों पर भार बन जाता है। ऐसा सेवा और ऐसे विकास से तो अपने परिवेश को उसके हाल पर छोड़ देना बेहतर होगा। कम से कम गलत आदर्श तो स्थापित नहीं होगें, पर सुनता कौन है? जब छप्पड़ फाड़कर पैसा आता है तब बुद्धि उल्लू की संवारी करने लगती है। मदहोश होकर चेले अपने गलत निर्णय को भी बुल्डोजर की तरह बाकी लोगों पर थोपने लगते हैं। ऐसे में मठो में सत्ता संघर्ष शुरू हो जाते हैं। आए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास। इससे समाज का बड़ा अहित होता है, क्योंकि चेलों की मार्फत गुरू आज्ञाके संदेश पाने वाले भोले-भाले अनुयायी चेलों की वाणी को ही गुरूवाणी मानकर उसका पालन करने में जुट जाते हैं। फिर सेवा कम और अहं तुष्टि ज्यादा होती है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं ।
आवश्यकता इस बात की है कि यदि किसी संत या उनके शिष्यों के पास अकूत दौलत बरस रही हो और वे समाज की सेवा करना चाहते हैं या पर्यावरण को सुधारना चाहते हैं तो उन्हें ऐसे लोगों की बात सुननी चाहिए जो उस क्षेत्र के विशेषज्ञ या अनुभवी हों। एक तरह का सेतु बंधन हो। सही और सार्थक ज्ञान का समन्वय यदि समर्पित शिष्यों के उत्साह के साथ हो जाए तो बड़े-बड़े लक्ष्य बिना भारी लागत के भी प्राप्त किए जा सकते हैं। इसकी विपरीत परिस्थिति में भारी संसाधन खपाकर छोटा-सा भी लक्ष्य प्राप्त करना दुष्कर हो जाता है। पर ऐसे चेलों रूपी बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे? यह कार्य तो संत और गुरू को ही करना होगा। एक फोड़े को फोड़ने के लिए गुरू को सर्जन की तरह अपने सभी शिष्यों की मानसिक शल्यचिकित्सा करनी होगी। तभी उनका संकल्प सही मायनों में पूरा होगा।

From news paper writer Vineet Narayan

Friday, March 22, 2013

त्यागपत्र


विख्यात साहित्यकार विलियम फाकनर युवावस्था में डाकघर में क्लर्क थे। एक दिन डाकघर जाते समय उन्होंने एक महिला को दर्द से तड़पते हुए सड़क के किनारे पड़े देखा। उन्होंने उसे उठाया तथा अस्पताल ले गये। कई घंटे तक उसकी सेवा में लगे रहे।
दोपहर के समय जब वह डाकघर पहुंचे, तो अधिकारी ने कहा,'दफ्तर आने में इतना विलम्ब क्यों हो गया?' उन्होंने बताया कि एक रोगी की सहायता करने के कारण उन्हें विलम्ब हुआ। अधिकारी ने कहा, 'सेवा का ठेका क्या तुमने ही लिया हुआ है? अपनी ड्यूटी समय पर किया करो।' अधिकारी के वे शब्द उन्हें चुभ गये। अगले ही दिन उन्होंने त्यागपत्र दे दिया, जिसमे लिखा,'जीविका अर्जित करने के  लिए गुलाम की तरह रहना और अपने सामाजिक दायित्वों तक का पालन न कर पाना मेरे लिए असंभव है। मैं त्यागपत्र देता हूँ।'
उसके बाद सेवा कार्यों में समय लगाने के साथ-साथ उन्होंने लेखन कार्य भी शुरू कर दिया। आगे चलकर उन्हें साहित्य सेवा के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

वैश्य समाज के गौरव



प्रस्तुत लेख इसलिए लिखा गया है कि व्यक्ति  अपनी जाति के गौरव को पहचाने अपनी जाति के महान पुरुषों  के चरित्र से प्रेरणा लें. इस लेख से अर्थ न लगाया जाए कि जातिवाद को बढ़ावा दिया जा रहा है. हम प्रत्येक जाति के उच्च चरित्र को यहाँ प्रस्तुत करने के इच्छुक है कृपया हमारा मार्गदर्शन करें जिस-जिस जाति के चरित्र हमारे संज्ञान में आते रहेंगे उनका उल्लेख किया जाता रहेगा.
वैश्य  जाति अपनी दानवीरता, धर्म प्रेमिता, सौम्य व्यक्तित्व  के लिए सराहनीय मानी जाती रही है. अनेक गौशालाएं, विद्दालयों का संचालन वैश्य  जाति का उदारह्र्द्यता के कारण ही सम्भव हो पाया है वैश्य जाति के कुछ श्रेष्ठ  चरित्र निम्न है.
1 संजय अग्रवाल:-बाबरी मस्जिद कांड मे गोली लगने से यह नौजवान सर्वप्रथम शहीद हुआ था. सुरक्षा चक्र का घेरा तोड़कर तेजी से यह गुम्बद के ऊपर जा चढ़े और अपनी धर्म संस्कृति की रक्षा करते हुए अमर हो गए.

Tuesday, March 12, 2013

सिद्ध योगी बाबा नीम करौली

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आगरा के पास फिरोजाबाद, उत्तर प्रदेश के गाँव अकबरपुर में जन्मे लक्ष्मी नारायण शर्मा फर्रूखाबाद, उत्तर प्रदेश के गांव नीम करौली में कठिन तप करके स्वयं ही नीम करौली बन गए। उनकी अलौकिक शक्तियां पूरे देश में, यहां तक की विश्व में इतनी अधिक प्रकाशित हुर्इ कि उनका नाम किसी से अनजान न रह गया। पं0 गोविंद वल्लभ पंत, डॉ0 संपूर्णानंद, राष्ट्रपति वी0वी0 गिरि, उपराष्ट्रपति गोपाल स्वरूप पाठक, राज्यपाल व केंद्रीय मंत्री रहे के0 एम0 मुंशी, राजा भद्री, जुगल किशोर बिड़ला, महाकवि सुमित्रानंदन पंत, अंग्रेज जनरल मकन्ना, देश के पहले प्रधानमंत्री पं0 जवाहर लाल नेहरू और भी ऐसे अनेक लोग बाबा के दर्शन के लिए आते रहते थे। बाबा राजा-रंग, अमीर-गरीब, सभी का समान रूप से पीड़ा-निवारण करते थे। उनके उपदेश लोगों को पतन से उबारते और सन्मार्ग-सत्पथ पर चलाते।
बाबा के दर्शनों के लिए साधारण गाँवों के लोगों से लेकर शहरी लोगों, बड़ अफसरों, राजनेताओं का ताँता लगा रहता था, लेकिन बाब बड़े ही अलमस्त, मनमौजी और भाव प्रिय थे। कोर्इ उन्हें भाव से याद करे तो अनायास ही बिना बुलाए उसके घर पहुँच जाते और यदि किसी के भाव में कमी रह जाए तो बड़े से बड़े व्यक्तित्व से भी न मिले। एक बार वह गुलजारी लाल नंदा, जो उस समय देश की राजनीति में अतिविशिष्ट माने जाते थे, उनसे भी न मिले थे।
बाबा नीम करौली ने देश के अनेक स्थानों पर हनुमान मंदिर बनाए। इन हनुमान मंदिरों की श्रंखला में उन्होंने एक मंदिर कानपुर में भी बनाया, जो पनकी में स्थित है। बाबा द्वारा बनाए गए हनुमान मंदिरों की विलक्षणता से सर्वजन परिचित हैं। वह स्वयं हनुमान भक्ति करके हनुमानमय हो गए थे। कॉपी पर राम-नाम लिखना उन्हें प्रिय था। वह कहा करते थे, खाली नहीं करोगे, तो भरेगा कैसे? सूर्य ने क्या कभी अंधकार देखा है? यह हमारे जीवन में संकीर्ण मनोवृतियों की कालिमा है, जो हमें कमी की अनुभूति कराती है, अन्यथा उस पूर्ण के दरबार में कमी कहाँ! वह सबको बताया करते थे कि भगवान अपनी प्रकृति में पूर्ण रूप से विद्यमान है। वे सर्वत्र हैं और कभी भी हमारी आँखों से ओझल नहीं होते। यदि हम उन्हें नहीं देख सकते तो दोष हमारा है। हम भेददृष्टि से काम लेते हैं। हमारी संकीर्ण मनोवृतियां हमें इस प्रकार उलझाए रहती हैं कि हम सदा उन्हें भूल जाते हैं।
अभी भी वह ऐसी कुछ बातें भक्तों को बता रहे थे। उनकी बातें एक पंडित बड़ी ध्यान से सुन रहे थे.  उनके मन में आध्यात्मिक साधना के लिए मार्गदर्शन पाने की कसक जाग उठी, लेकिन मन की यह बात बाबा से कहने की हिम्मत नहीं हो रही थी। अंतर्यामी बाबा उनके मन के भाव जान गए और सामने खड़े लोगों से बाले- ‘‘अरे भार्इ! तुम लोग जरा उस पीछे खड़े पंडित जी को हमारे पास आने दो।’’ बाबा की बात सुनकर लोगों ने उन्हें आगे आने दिया। सामने आने पर बाबा उनसे बोले- ‘‘पं. जगदेव प्रसाद तिवारी नाम है न तुम्हारा?’’ ‘‘हाँ’’ बस, एक शब्द कहा उन्होंने। ‘‘तुम गायत्री जप करते हो न?’’ इस सवाल का उत्तर भी उन्होंने अपनी संक्षिप्त हाँसे दिया। तब बाबा ने फिर उनसे पूछा ‘‘अखण्ड ज्योति पत्रिका भी तो पढ़ते हो?’’ अबकी बार वह थोड़ अचरज में पड़े और बोले- ‘‘हाँ बाबा’’
इस पर बाबा नीम करौली ने कहा- ‘‘तुम गायत्री मंत्र का जप करते हो, अखण्ड ज्योति भी पढ़ते हो, फिर कमी क्या है?’’ फिर उन्होंने स्वयं ही अपने प्रश्न का उत्तर दिया - ‘‘कमी यह है कि तुम जो करते हो, उसके महत्त्व से परिचित नहीं हो। जो करते हो उसके महत्व को भी समझो। गायत्री ब्रह्मविद्या का मंत्र है। जो इसे श्रद्धा व मनोयोगपूर्वक करता है, उसे किसी अन्य साधना की जरूरत नहीं है। गायत्री-साधना यदि निरंतर होती रहे, तो आगे के रास्ते स्वयं खुलते हैं। अंतर्यात्रा का पथ स्वयं प्रकाशित होता है। इसलिए जो कर रहे हो, उसे करते चले जाओ। अविराम, निर्बाध, श्रद्धा-भाव से, दीर्घ काल तक, फिर तुम देखोगे कि सब कुछ स्वयं प्रकट हो जाएगा।’’ नीम करौली महाराज जब ये बाते बता रहे थे, तब बीच में पं0 जगदेव प्रसाद तिवारी ने अपनी शंका जाहिर करते हुए कहा- ‘‘करते-करते मन में किसी संत का प्रत्यक्ष मार्गदर्शन पाने की चाहत होती है।’’
इस बात पर बाबा बोले- ‘‘आध्यात्मिक साधनाओं का मार्गदर्शन करने के लिए तेरे पास अखण्ड ज्योति है न, उसके लेखों से प्रकाश प्रवाहित होता है, उसी से तेरा कल्याण होगा। ब्राह्मण हो, साधना करते हो, फिर भी अखण्ड ज्योति की महिमा से अनजान हो। अरे! सच को जानो, देखो मैं किसका नाम अपनी कापी में लिखता हूँ।’’ यह कहते हुए बाबा ने अपनी कापी उन्हें दिखार्इ, उस कॉपी में राम-राम-राम यही लिखा था। इतना कहकर उनसे वह धीरे से बोले- ‘‘जिनका नाम इस कापी में मैं लिखा करता हूँ, वहीं स्वयं अखण्ड ज्योति लिखते हैं। अगर वह स्वयं को इतना छिपाकर न रखें तो लोग उनकी चरणधूलि को ताबीज बनाकर पहनने लग जाएंगे, फिर उनका धरती पर रहकर काम करना कठिन हो जाएगा। तुम साधना करते हो, इसलिए मैंने तुमको सचार्इ बता दी। अखण्ड ज्योति के प्रति श्रद्धा तुम्हारी चेतना को उनसे जोड़ देगी, फिर सब कुछ स्वत: मिलता रहेगा। मैं जो कह रहा हूँ, उसे स्वीकारोगे तो अखण्ड ज्योति का जीवन दर्शन तुम्हें स्वयं जीवन के सत्य स्वरूप का दर्शन करा देगा।’’

विचार क्रांति के प्रणेता - लोकनायक जयप्रकाश नारायण



विचार-क्रांति का बिगुल फूँकने पर ही संपूर्ण क्रांति के स्वर फूट सकते हैं। लोकनायक जयप्रकाश नारायण आंदोजनकारी छात्रों के एक समूह के साथ चर्चा कर रहे थे। वह बता रहे थे कि समता, स्वतंत्रता एवं भ्रातृत्व की भावना के आधार पर नए समाज का निर्माण संभव है। उन्होंने कहा कि यदि देश के किसी गाँव की प्रत्येक समस्या का चिंतन किया जाए और उसके संपूर्ण समाधान का प्रयास हो सके, तो समझो कि इसी प्रयास का बड़ा रूप संपूर्ण क्रांति का प्रयास बन जाएगा। मेरा मानना है कि रचना, संघर्ष, शिक्षण और संगठन की चतुर्विध प्रक्रिया से व्यापक बदलाव संभव है।
जे0 पी0 की बाते नर्इ पीढ़ी के युवाओं को प्रेरित कर रही थी। सभी को इस समय जे0 पी0 के वृद्ध शरीर में तेजस्वी, प्रखर एवं युवा व्यक्तित्व नजर आ रहा था। निष्ठावान-राष्ट्रवादी जयप्रकाश नारायण अपने छात्र जीवन से एक जुझारू स्वाधीनता सेनानी थे। मौलाना अबुल कलाम आजाद की पंक्तियों ने उनके अंतर्मन में क्रांति की ज्वाला भड़का दी, जब उन्होंने मौलाना को यह कहते सुना - ‘‘नौजवानों! अँगरेजी शिक्षा का त्याग करो और मैदान में आकर ब्रिटिश हुकूमत की ढहती दीवारों को धराशायी करो और ऐसे हिंदुस्तान का निर्माण करो, जो सारे आलम में खुशबू पैदा करे।’’
कुछ ऐसे ही स्वर 5 जून, 1975 को सायंकाल पटना के गांधी मैदान में लगभग पाँच लाख लोगों की अति उत्साही भीड़ ने भी सुने, ये स्वर जे0 पी0 के थे। उन्होंने कहा था - ‘‘यह क्रांति है मित्रों! और संपूर्ण क्रांति है।’’ जब प्रदर्शनकारी लोगों पर प्रशासन ने हिंसा और आक्रामकता का सहारा लेना तय किया तब उन्होंने कहा - ‘‘हमारा हथियार अहिंसा है। बोलो, आप वचन देते हो न कि शांत रहोगे?’’ उत्तर में पाँच लाख स्वर एक साथ उभरे, हमला चाहे जैसा होगा, हमारा हाथ नहीं उठेगा।
इसके बाद तो जे0 पी0 की आवाज सारे देश की आवाज बन गर्इ। स्वाधीनता के आंदोलनों में अनेक बार हिस्सा लेने वाले, अनेक बार जेल जाने वाले जयप्रकाश नारायण ने राष्ट्रिय स्वाधीनता के लिए हर कष्ट सहन किया। इस कार्य में दरबार की भागीदारी निभार्इ, उनकी सहधर्मिणी प्रभावती देवी ने। प्रभा के लिए महात्मा गांधी अपने सगे पिता की तरह थे। गांधी जी के लिए भी प्रभा अपनी लाड़ली बेटी की तरह थी। तथी तो उनके इस विवाह में गांधी जी ने अभिभावक की भूमिका निभार्इ थी। जयप्रकाश नारायण के अद्भूत एवं विलक्षण व्यक्तित्व के महात्मा गांधी एवं पं0 नेहरू बड़े ही प्रशंसक थे। सन् 1947 में देश की आजादी के बाद उन्हें सरकार में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित किया गया। उन्हें गृह राज्यमंत्री बनाए जाने का प्रस्ताव था, परंतु उन्होंने स्पष्ट रूप से इनकार कर दिया। अभी इन क्षणों में उनके समीप बैठे छात्र जे.पी. के इन गुणों से भरपूर परिचित थे। उन सभी को पता था कि आठ वर्ष लगातार अमेरिका में रहकर पढ़ार्इ करने वाले जयप्रकाश नारायण खालिस हिंदुस्तानी हैं। देश का हर दरद उनके दिल में महसूस होता है।
जे0 पी0 ने अपने समीप बैठे छात्रों को  कुछ संस्मरण सुनाए। इनमें से एक-दो संस्मरण नागालैंड में विद्रोहियों को शांति मार्ग की ओर प्रेरित करने से संबंधित थे। कुछ संस्मरण उनके और विनोबा भावे के प्रयत्नों से बीहड़ों और जंगलों में रहने वाले डाकुओं के आत्मसपर्पण से संबंधित थे। उन्होंने बताया कि कैसे वह और विनोबा भावे मिलकर उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश की सीमा पर उन दिनों बढ़ी हुर्इ डाकुओं की उग्र समस्या से निबट सके। अपनी इन यादों को ताजा करते हुए उन्होंने कहा- ‘‘ये सभी सफलताएँ विचार-क्रांति का ही छोटा रूप थीं। विचारों में परिवर्तन से ही इन सबके जीवन बदल सके।
विचार-क्रांति के सच को अपने जीवन में क्रियान्वित करने वाले, उसे संपूर्ण क्रांति की व्यापकता देने वाले जे0 पी0 की स्वयं परमपूज्य गुरूदेव श्री राम आचार्य  मुक्त कंठ से प्रशंसा करते थे। जब वह आपातकाल के विरोध में जनता की आवाज बने और सभी को अभय देते हुए कहा - ‘‘डरो मत! मैं अभी जिंदा हूँ।’’ तब गुरुदेव ने कहा था - ‘‘इस महान लोकनायक का साथ देने के लिए आध्यात्मिक शक्तियाँ भी कटिबद्ध एवं संकल्पित हैं।’’ इसका परिणाम सभी ने सन् 1977 में देखा और अनुभव किया कि परिवर्तन का तूफानी चक्र कैसे परिवर्तन करता है।
बाद में जब आठ अक्टूबर, 1977 को उनका देहावसान हुआ तो अनेकों आँखों मे आँसुओं के साथ परमपूज्य गुरुदेव की आँखों में भी आँसू थे। इस अवसर पर उन्होंने कहा था - ‘‘मैं स्पष्ट कहता हूँ, भारत देश जयप्रकाश जी को त्याग-तपस्या के प्रतीक और जनहित के लिए सर्वस्व निछावर करने वाले महान योद्धा तथा जनभावना को स्वर देने वाले विचार-क्रांति के महावीर की तरह हमेशा याद रखेगा।’’ उन्हें कभी कोर्इ मोह बाँध न सका, पद-लिप्सा उन्हें स्पर्श भी न कर सकी। वह तो बस, लोकसेवा का सूत्र थामें जीवन भर चलते रहे-जलते रहे। यह भारत देश का सामाजिक एवं राष्ट्रिय सत्य है कि भारत के सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन की थाली में वह तुलसीदल की तरह सर्वाधिक पवित्र आत्मा थे।  उनका संपूर्ण जीवन जैसे पुरातन शास्त्रों की पवित्रता की सर्वाधिक सटीक और सामयिक व्याख्या थी।