मानव जीवन को
कुशलता व सफलतापूर्वक जीने के लिए भक्ति व शक्ति दोनें का विकास आवश्यक है। यदि हम
केवन एक पक्ष पर ही ध्यान देंगे तो जीवन कहीं न कहीं कष्ट कठिनाई से घिरने लगेगा।
इस सत्य को दर्शाने वाली एक रोचक पुराण कथा का वर्णन किया जा रहा हैः-
पुराण में चर्चा
हैः कोसल नरेश अनिरुद्ध एक काशीरात अविरुद्ध की। ये दोनों ही जगन्माता के
निष्ठावान भक्त थे। संयोग से इल दोनों को ही महर्षि मुद्गल का मार्गदर्शन प्राप्त
था। साझा मार्गदर्शन के बावजूद इनकी मति साझी न थी।इनके विचार अलग थे, प्रकृति या
स्वभाव भिन्न था। महर्षि मुद्गल ने इन्हें अनेक तरह से समझाया, पर इन दोनों को
बात पूरी न समझ में आई। अपने स्वभाव के अनुरूप कोसल नरेश अनिरूद्ध शक्ति की ओर
आकर्षित थेऋ जबकि काशीराज अविरूद्ध की रुचि भक्ति की ओर थी। अनिरुद्ध जिस तरह से
भक्ति को व्यर्थ समझते थे,
ठीक उसी तरह से
अविरुद्ध के लिए शक्ति निस्सार थी।
महर्षि ने उन्हें
अनेकों ढंग से समझाया। उनमें परस्पर मेल-मिलाव के प्रयास भी कराए, परन्तु उन्हें
इसमें कोई विशेष सफलता नहीं मिली। स्वभाव के भेद के साथ उनकी दिशाएॅं भी भिन्न
रहीं। हालाॅंकि ये दोनों ही महर्षि का विशेष आदर करते थे। इसीलिए उनके कारण इनमें
प्रत्यक्ष में कोई विवाद न था। इसी बीच महर्षि ने तप के लिए हिमालय की ओर प्रस्थान
किया। उनके प्रस्थान के साथ कोसल नरेश की शक्ति अब नियंत्रित न रही। काशी के राजा
अपनी भक्ति के कारण लोकप्रिय थे। उनका नाम चहुॅं ओर फेल रहा था। वे दीनों के रक्षक
और निराधार के आधार थे।
कोसलपति ने जब
उनकी कीर्ति का विस्तार देखा तो वे जल-भुन गए। झट उन्होंने सेना ली और काशी पर चढ़
आए। युद्ध में काशीराज हार गए और वन में भाग गए, पर किसी ने कोसल नरेश का स्वागत नहीं किया।
काशीराज की पराजय से वहाॅं की प्रजा दिन-रात रोने लगी। कोसल नरेश ने देखा कि प्रजा
उनका असहयोग कर कहीं विद्रोह न कर बैठे, इसलिए शत्रु को निःशेष करने के लिए उन्होंने घोषणा करा दी
कि जो काशीपति को ढूॅंढ़ लाएगा, उसे सौ मोहरें दी जाएॅंगी। जिसने घोषण सुनी, आॅंख-कान बंद कर
जीभ दबा ली।
इधर काशीराज
दीन-मलीन हो जंगलों में भटक रहे थे। एक दिन एक पथिक उनके सामने आया और पूछने लगा -
”वनवासी! इस वन का
कहाॅं जाकर अंत होता है औ काशी का मार्ग कौन-सा है?“ राजा ने पूछा - ”तुम्हारा वहाॅं जाने का कारण क्या है?“ पथिक बोला - ” मैं व्यापारी
हूॅं। मेरी नौका डूब गई है। अब द्वार-द्वार भीख माॅंगता फिरता हूॅं। मैंने सुना था
कि काशी का राजा बड़ा उदार है, अतएव उसी के दरवाजे जा रहा हूॅं, शायद वही मेरी
कुछ मदद कर सके।“ थोड़ी देर कुछ
सोचकर राजा ने कहा -”चलो, तुम्हें वहाॅं
पहुॅंचा ही आउळॅं। तुम बहुत दूर से परेशान होकर आए हो।“
इसके कुछ दिन बाद
कोसल नरेश की सभा में एक जटाधारी व्यक्ति आया। कोसल नरेश ने पूछा -” कहिए किसलिए
पधारे? जटाधारी ने कहा -
”मैं काशीराज
हूॅं। आपने मुझे पकड़ लाने वाले को सौ स्वर्ण मुद्राएॅं देने की घोषणा कराई है। बस, मेरे इस साथी को
धन दे दो। इसने मुझे पकड़कर आपके पास उपस्थित किया है।“ यह सुनकर उस
व्यापारी के साथ सारी सभा सन्न रह गई। प्रहरी की आॅंखों में भी आॅंसू आ गए।
कोसलपति भी सारी बातें जानकर स्तब्ध रह गए।
क्षण भर के बाद
उनका अंतर्विवेक जाग उठा,
वह बोले - ”महाराज! गुरुदेव
महर्षि मुद्गल सत्य कहते थे - शक्ति के साथ भक्ति न हो तो विवेक नहीं रह जाता। आज
आपके भक्तिपूर्ण जीवन के सान्निधय में मेरा विवेक जाग उठा है। आज के युद्ध में मैं
अपनी दुरंत आशा को जीतूॅंगा। आपका राज्य भी लौटा देता हूॅं, साथ ही अपना हृदय
भी प्रदान करता हूॅं“। बस, झट उन्होंने उनका
हाथ पकड़कर सिंहासन पर बिठला दिया और उनके मलिन मस्तक पर मुकुट चढ़ा दिया। सारी
सभा धन्य-धन्य कह उठी। व्यापारी को भी उसकी माॅंगी हुई स्वर्ण मुद्राएॅं मिल गईं।
इतने में महर्षि मुद्गल भी उसी सभा में पधार गए। काशीराज व कोसल नरेश, दोनों ने उन्हें
प्रणाम किया। उन्होंने इन दोनों को आशीर्वाद देते हुए कहा- ”अब तुम दोनों ठीक
समझे कि जगन्माता के नित्यस्वरूप को शक्ति व भक्ति के सुखद संयोग से ही समझा जा
सकता है।“