Friday, July 18, 2014

सद वाक्य

  1. अवांछनीय परिस्थिति से उभरने के लिए की गई पुकार का नाम ही प्रार्थना है।
  2. यदि मनुष्य के पास कोई ऐसा आदर्श नहीं है, जिसके लिए वह मर-मिट सके तो उसके पास ऐसा कुछ भी सार्थक नहीं है जिसके लिए वह जीवन जीए।
  3. व्यक्ति सुबह शाम जप, ध्यान व पूजा पाठ तो करता है परन्तु शेष दिन की गतिविधियों एवं व्यावहार में वह शुद्र मानसिकता और स्वार्थीपन दिखाता है। ऐसा व्यवहार घण्टों की ध्यान साधना द्वारा प्राप्त फल पर पानी फेर देता है। 
  4. सद्गुणों का विकास व्यक्ति की आध्यात्मिक प्रगति का एक मूलभुत अंग है। इसकी तुलना खेत में से कंकर पत्थर और खरपतवार निकालने से की जा सकती है जिसके बिना मिट्टी उपजाउ नहीं बन सकती। बिना सद्गुणों के विकास के व्यक्ति में वह पात्रता विकसित नहीं होती जिससे व्यक्ति आध्यात्मिक उळॅंचाईंयों को छू सके। मर्यादाएॅं और नैतिक मूल्य योग रूपी वृक्ष की जड़ के समान हैं।
  5. खाया पिया अंग लगेगा, दान किया संग चलेगा, बाकि बचा जंग लगेगा।
  6. दो जरूरी काम खुश रहें व खुश रखें।
  7. वाणी की अपेक्षा व्यक्तित्व से उपदेश देना कहीं अधिक प्रभावशाली है।
एक दुआ है रब्ब से,
किसी का दिल न दुःखे मेरी वजह से।
ऐ खुदा कर दे कुछ ऐसी इनायत मुझपे कि
खुशियाॅं ही मिलें सबको मेरी वजह से।।

जो दूसरों के दुख में दुखी होकर दया करता है वह खुद दुःख दे छूट जाता है। जो दूसरों के कष्ट में खुशी मनाता है वह खुद कष्ट में जा गिरता है।


      शीत ष्ण सुख दुःख तथा शत्रु मित्र समान,
      बन निःसंग विचरे सदा सहे मान-अपमान।
      निंदा-सतुति सम जानता संतोष भरा मन में,
      स्थिरमति प्रिय वह भक्त है सर्वोपरि जग में|

न त्वहं कामये राज्यं, न स्वर्गं, न पुनर्भवम्।
कामये दुःखतप्तानाम् प्राणिनामार्तिनाशनम्।।
अर्थात् न मैं राज्य की कामना करता हूॅं, न स्वर्ग की और न मोक्ष की। मेरी तो बस एक ही मुराद है- दुःख आदि से तप्त प्राणी मात्र के सभी संतापों का नाश हो।

हमारी प्रवृत्ति दूसरों की बाह्य अवस्था देखकर उनके बारे में अच्छे-बारे की धारणाएं बनाने और केवल उनके दुर्गुणों को ढूंढ़ने की है। किन्तु यदि हम उनकी सतह के नीचें खोजेंगे तो हम पायेंगे कि असंख्य तत्त्व मिलकर एक व्यक्ति के स्वभाव के निर्माण करते हैं। दूसरों में हमें जो देाष दिखते हैं वे विषम परिस्थितियों के परिणाम हो सकते हैं, या वे ऐसी मानसिक प्रतिक्रियायें हो सकती हैं जो सदमें, आघात, शोषण, परित्याग, मोह भंग, असुरक्षा की भावना, पीड़ा, उलझन या रोग से उत्पन्न होती हैं।


यदि हम किसी के बुरे आचरण के मूल कारण को समझ जायेंगे, तो घृणा की अपेक्षा उस पर करुणा दर्शायेंगे। क्योंकि क्या प्रत्येक आत्मा मूलतः अच्छी नहीं है? एक सज्जन रोग से घृणा करेगा, परन्तु रोगी से प्रेम करेगा।

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