मन को ढालने एवं उसकी क्रियाओं को नियमित करने के उपाय भी बहुत सरल हैं। वास्तव में हमने स्वयं अपने खाली क्षणों में मन को इधर उधर निरुद्देश्य भटकने के लिए छोड़ कर बिगाड़ दिया है। यह आदत वर्षों तक रही और अब भटकना इसका दूसरा स्वाभाव सा बन गया है। अब यदि हमम न को प्रतिबन्ध में रखकर नियंत्रित करना चाहें तो हमें बहुत कम सफलता मिलेगी। हम इसे जितना ही बलपूर्वक दबाने का प्रयत्न करते हैं उतना ही यह विरोध करता और उछलता है जिससे और अधिक अशान्ति उत्पन्न्ा होती है। मन की क्रियाओं को नियन्त्रित करने का उचित उपाय उसे किसी एक पवित्र विचार पर जमा देना है (जैसा हम ध्यान में करते हैं) और उसमें से सभी अवांछित एवं फालतू विचारों को निकाल देना हैं। कुछ दिनों के निरन्तर अभयास के पश्चात् मन नियमित एवं अनुशासित हो जाता है और अधिकांश आन्तरिक अशान्ति निकल जाती है। अवांछित विचारों से मुक्ति पाने का सर्वोत्तम उपाय है कि हम उन्हें अनिमन्त्रित अतिथियों की भाँति मानें और उनकी ओर ध्यान न दें। वे तब असिंचित पौधों की भाँति मुरझा जायेंगे और अन्त में वही पवित्र विचार हमारे अन्दर प्रमुख हो जायेगा। इस स्थिति की प्राप्ति का एकमात्र उपाय किसी योग्य शिक्षक के मार्गदर्शन में ध्यान करना है। ध्यान के निरन्तर अभ्यास से मन शान्त एवं स्थिर हो जायेगा। और अवांछित विचार हमें त्रस्त नहीं करेंगे।
मैं बहुधा प्रारम्भिक अभ्यासियों को ध्यान के समय मन के भटकते रहने के विषय में शिकायतें करते हुए सुनता हँू। ध्यान आरम्भ करते के प्रथम दिन से ही वे चाहते हैं कि उनका मन बिल्कुल निश्चल हो जाय, परन्तु जब वे विभिन्न्ा भावों और विचारों को मन में मँडराते हुए पाते हैं तो वे अत्यन्त उद्विग्र हो जाते हैं। मैं उन्हें यह स्पष्ट कर दूँ कि हम अपने अभ्यास में मन को पूर्णतः विचारहीन बनाने का नहीं अपितु उसकी विभिन्न्ा क्रियाओं को केवल व्यवस्थित करने का प्रयास करते हैं। हम उसके स्वभाविक कार्य को नहीं रोकना चाहते, केवल उसे व्यवस्थित एवं अनुशासित दशा में लाना चाहते हैं। यदि मन की क्रियायें आरम्भ में ही रोक दी जाये ंतो हमें कदाचित् ध्यान करने की बिलकुल आवश्यकता ही न रह जाये। ध्यान तो उसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए एकमात्र साधन है। ध्यान के फलस्वरूप समय बीतने पर एकाग्रता आती है। ध्यान करते समय मन में आने वाले बाह्य विचारों के प्रति सर्वथा उदासीन होकर ध्यान करना ही उचित तरीका है। अवांछित विचारों को दूर करने के लिए मानसिक द्वन्द्व बहुधा असफल हो जाता है, क्योंकि वह ऐसी तगड़ी प्रतिक्रिया उत्पन्न्ा कर देता है जिससे पार पाना साधारण मनुष्य के लिए बहुधा असम्भव हो जाता है और जो कभी-कभी मानसिक उथल-पुथल अथवा पागलपन का भी कारण बन सकता है। यह उनके लिए सम्भव हो सकता है जिन्होंने ब्रह्मचर्य द्वारा विचारों के प्रवाह को सफलतापूर्वक सम्हालने तथा उनकी प्रतिक्रियाओं के प्रभावों को रोकने के लिए काफी ओजस् उत्पन्न्ा कर लिया है। परन्तु साधारण मनुष्य के लिए यह लगभग असम्भव है। यदि विचारों को दूर रखने के लिए संघर्ष करने के स्थान पर हम केवल उनके प्रति उदासीन रहें तो बहुत शीद्य्र ही वे अपना प्रभाव खों देंगे और हमें परेशान करना बन्द कर देंगे। तब वे काफिले पर भूँकने वाले कुत्तों के समान होंगे जिनकी किंचित् मात्र परवाह किये बिना काफिला आगे बढ़ता जाता है। जब हम विचारों को रोकने के लिए इन पर ध्यान देते हैं, तो उस एकाग्रता के कारण उन्हें शक्ति मिलती है तथा वे और बलवान हो जाते है।
आजकल कुछ लोगों के लिए एक आम बहाना यह हो गया है कि अत्यधिक व्यस्तता के कारण उन्हें ध्यान अथवा ऐसे किसी अभ्यास के लिए समय नहीं मिलता। किन्तु यह एक प्रसिद्ध उक्ति है कि अत्यधिक व्यस्त व्यक्ति के ही पास अत्यधिक अवकाश रहता है। मैं समझता हँू कि मनुष्य के पास उसके काम से कहीं अधिक समय रहता है। समय के अभाव की शिकायत केवल समय की गलत व्यवस्था के कारण ही है। यदि हम अपने समय का पूर्ण सदुपयोग करें तो हमें समयाभाव की शिकायत करने का कभी कारण न मिलेगा। फिर, कुछ और लोग हैं, जो थोड़े अधिक स्पष्टवादी हैं और स्वीकार करते हैं कि वे समयाभाव के कारण नहीं अपितु अपनी लापरवाही और आलस्य की दुस्तर आदतों के कारण पूजा के लिए समय नहीं निकाल पाते। उनके लिए मैं कहूँगा कि वे अपने व्यापार या व्यवसाय में तो शायद कभी लापरवाही या काहिली नहीं बरतते। उनमें तो वे अपनी सारी व्यक्तिगत असुविधाओं, यहाँ तक कि बीमारियों के बावजूद पूरे मनोयोग से जुटे रहते है; केवल इसलिए कि इससे उन्हें कुछ धन लाभ हो पायेगा। भौतिक लाभ की उत्कण्ठा से वे सभी असुविधाओं एवं व्याधियों की परवाह नहीं करते। इसी प्रकार यदि लक्ष्य प्राप्ति की हमारी लगन तीव्र है तो हमारी लापरवाही एवं काहिली हमारे प्रयास अथवा उन्न्ाति के मार्ग में बाधक नहीं होगी। यदि हम प्राचीन ऋषियों के इतिहास पढ़े ंतो हमें ज्ञात होगा कि उन्होंने असलियत पाने के लिए जीवन के सभी सुखों का त्याग कर दिया था। वे त्याग एवं तपस्या का जीवन व्यतीत करते थे और अपने परम प्रिय उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हर प्रकार के दुःख एवं कष्ट सहते थे। लक्ष्य प्राप्ति की तीव्र लगन उन्हें अन्य सभी वस्तुओं से विमुख कर देती थी और वे मार्ग में आने वाली कठिनाइयों एवं विषमताओं की परवाह किये बिना अपने पथ पर दृढ़ रहते थे। ध्येय प्राप्ति के लिए ऐसी तीव्र लगन एवं दृढ़ संकल्प पूर्ण सफलता के लिए अत्यन्त आवश्यक हैं। मैं आपको विश्वास दिला दूँ कि आप आध्यात्मिक क्षेत्र में महान उन्न्ाति कर सकते हैं यदि आप केवल अपना ध्यान ईश्वर की ओर केन्द्रित करके संकल्प, विश्वास व श्रद्धा के साथ आगे बढ़ें, फिर चाहे आप गृहस्थ जीवन के सभी झंझटों और तकलीफों से घिरे हुए कितनी भी प्रतिकूल दशा में क्यों न रह रहे हों, तब आपका व्यस्त जीवन आपके मार्ग में कोई बाधा न डालेगा।
साधारणतया लोग अपने को असली वस्तु की प्राप्ति के लिए अत्यन्त कमजोर एवं अयोग्य सोचकर ईश्वर की ओर झिझक के साथ बढ़ते हैं। पहले ही कदम पर किया गया और अन्त तक बना रहने वाला दृढ़ संकल्प निश्चय ही आपको पूर्ण सफलता प्रदान करेगा। इस क्षेत्र में यदि कोई दृढ़ मन से प्रवेश करता है तो समझ लीजिये कि आधा रास्ता तय हो गया। सारी कठिनाई और निराशा एक ही निगाह में पिघल जायेगी और सफलता की राह सरल हो जायेगी। इसके विपरीत, यदि मन आरम्भ में ही दुविधाग्रस्त होता है तो प्रयत्न भी आधे दिल से किये जाते हैं और परिणामतः आंशिक सफलता या असफलता ही हाथ लगती है। हमारा दृढ़ संकल्प कार्य सिद्धि के लिए हमें अज्ञात स्त्रोतों से शक्ति खींच लेने में समर्थ करता है। लक्ष्य प्राप्ति के लिए निरंतर वर्धमान उत्कंठा या बेचैनी से युक्त दृढ़ संकल्प हमारे प्रयत्नों की शक्ति को बढ़ा देगा और इस प्रकार हम अपनी आध्यात्मिक भलाई एवं उन्न्ाति के लिए मिलने वाले हर इशारे को समझते हुए उसी असलियत के सतत सम्पर्क में रहेंगे। इस प्रकार हमारी बेसब्री या हरदम की बेचैनी कि हम कम से कम समय में लक्ष्य तक पहँुचे, हमारी शीद्य्र सफलता के लिए सबसे जरुरी बात है। जब तक हम अपना वास्तविक ध्येय, शाश्वत शान्ति एवं स्थिरता न प्राप्त कर लें, हमें एक क्षण के लिए भी चैन न लेना चाहिये। किसी वस्तु के लिए तीव्र चाह स्वभावतः उसके लिए एक बेचैनी पैदा कर देती है। और, जब तक हम अपनी चाही हुई वसतु को न पा लें हमें शान्ति नहीं मिलती। इसलिये यह बेचैनी एक बहुत आवश्यक वस्तु है और जिस तरह भी हो उसे पैदा करना चाहिये। अतः शाश्वत शान्ति प्राप्त करने के लिए प्रारम्भिक दशा में हम अपने अन्दर बेचैनी और बेसब्री पैदा करते हैं। आपको देखने में यह विचित्र लगे कि मैं आपसे उसी वस्तु (बेचैनी) को उत्पन्न्ा करने की बात करता हँू जिसे लोग दूर करना चाहते हैं। परन्तु निश्चित एवं शीद्य्र सफलता के लिए एकमात्र यही रास्ता हैं। इस प्रकार से उत्पन्न्ा की गई बेचैनी अस्थायी होती है और मन में सामान्यः उत्पन्न्ा होने वाली बेचैनी से भिन्न्ा होती है। यह अधिक सूक्ष्म एवं अधिक आनन्दायक होती है। यह हमारे हृदय में दैवी प्रवाह का स्त्रोत खोल देती है और ईश्वरीय मण्डल में जाने के लिए हमारा मार्ग सुगम बना देती है। यदि आप किसी मनुष्य को पानी में डुबाने लगें तो आप देखेंगे कि वह आपके शिकंजे से छूटने के लिए अथक प्रयत्न करता है। इसका कारण केवल यही है कि पानी के बाहर शीद्य्र निकलने की उसकी बेचैनी उसके प्रयत्नों की शक्ति बढ़ा देती है और जब तक वह पानी से बाहर नहीं हो जाता है उसे चैन नहीं आता। उसी प्रकार शीद्य्र ही लक्ष्य तक पहुँचने की बेचैनी से उत्पन्न्ा होने वाले अथव प्रयत्नों से साक्षात्कार की राह पर हमारे कदम और भी तेज हो जायेंगे। और हम कम से कम समय में सरलतापूर्वक सफलता के द्वार तक पहँुच जायेंगे। शीद्य्र सफलता का यही सबसे सरल और कुशल उपाय है।