सहस्त्रार की साधना
युग)षि श्रीराम आचार्य जी के कारण में प्रवेश के साथ आनन्दमय कोष का अनावरण हो
चुका है। आनन्दमय कोष के अनावरण से सहस्त्रार का जागरण बहुत ही सुलभ व सरल हो गया।
व्यक्ति पहले जन्म-जन्मांतरों की साधना के उपरान्त सहस्त्रार पर पहुॅंचता था
परन्तु आज मात्र 40 दिन की साधना के
द्वारा ही सहस्त्रार पर अपनी चेतना के अनुभव कर सकता है। इसके जहाॅं अनेक लाभ हैं
वहाॅं कुछ कठिनाइयाॅं भी हैं इसके निम्न उदाहरण से समझा जा सकता है।
जब मैं छोटा था तो पहले साईकिल चलाना सीखा, जब मैं 18 वर्ष का हुआ तो गियर ;ळमंतद्ध वाला स्कूटर चलाना सीखा तथा नौकरी लगने के उपरान्त 10 वर्ष पश्चात् कार चलाना सीखा। कार चलाने में मुझे कभी कोई कठिनाई का अनुभव
नहीं हुआ क्योंकि गियर व ड्राइविंग का अनुभव पहले ही बहुत था। परन्तु यदि सीधे कार
चलाना किसी को सीखना हो तो क्या किया जाए? पहले साईकिल, फिर गियर स्कूटर फिर
कार या सीधे कार। समय को बचाने व अन्य झंझट से मुक्ति के लिए अधिकतर सीधे कार
चलाना ही सीखना चाहेंगे। उसमें थोड़े खतरे तो ज्यादा हैं परन्तु समय की पर्याप्त
बचत है। दूसरा जिनकी उम्र अधिक है तो कैसे साइकिल चलाना सीखें यह भी एक प्रश्न
उठेगा।
इसी प्रकार साधना की बात आती है। पहले समय में साधना का पूरा विधि विधान था।
लोग पहले गुरु के आश्रम में जाकर दस-बाहर वर्ष निष्काम सेवा करके पर्याप्त चित्त
शुद्धि करते थे। फिर मूलाधार चक्र से साधना प्रारम्भ करके दस-दस वर्ष एक-एक चक्र
पर साधना करके उसको सिद्ध करते जाते थे व उस चक्र की शक्ति को अपने अन्दर धारण
करते रहते थे। उन दिनों लोग मूलाधार व स्वाधिष्ठान पर अधिक प्रयोग करते थे इस कारण
शरीर से बड़े स्वस्थ व बलवान होते थे। रावण नाभिचक्र ;मणिपूरद्ध तक सिद्ध था व पवन सुत हनुमान अनाहत चक्र सिद्ध थे। अनाहत चक्र वायु
तत्व के प्रतिनिधि है अतः उन्हें पवनसुत कहा गया। रावण नाभि चक्र सिद्ध होने के
पर्याप्त अग्नि, शौर्य व सामथ्र्य का धनी था। जो लोग
अनाहत से उळपर के चकों में निकलते थे उन्हें )षि मुनियों श्रेणी में रखा जाता था।
ये )षि लोग स्ािूल के साथ-साथ सूक्ष्म वातावरण के परिष्कार का भी पूर्ण प्रयास
करते थे। यदि सूक्ष्म वातावरण दूषित है तो स्ािूल में आसुरी प्रवृत्तियों लोगों को
जकड़कर जीते-जागते राक्षसों में बदलती रहेंगी। ये असुर छद्म वेश धारी भी होते हैं
जैसे कालनेमि आदि। वैसे कथा-कीर्तन, भजन, ध्यान, जप आदि करेंगे परन्तु भीतर से पूरे असुर होंगे व आश्रमों में गुण्डागर्दी
वेश्यावृत्ति को पोषण देने वाले होंगे।
बात यह हो रही है कि आजकल लोगों का जीवन बहुत व्यस्त हो गया है यदि यह कहा जाए
कि साधना के लिए पूरा जीवन समर्पित करें तो कितने तैयार हो पाएॅंगे। और उसमें से
कितने बीच में छोड़कर भागेंगे तो कितने भोगवादी वातावरण की ओर ललचाती नजर से देखते
रहेंगे कि कहाॅं साधना के चक्कर में फंस गए न माया मिली न राम।
इसी उलझन में निकालने के लिए देवसत्ताओं ने एक नई व्यवस्था को जन्म दिया जिसके
सूत्रधार श्री अरविन्द व श्रीराम आचार्य जी रहे। इस व्यवस्था के अन्तर्गत कोई भी
साधक 24 से 40 वर्ष के अन्तराल में सहस्त्रार का भेदन कर व प्रयोग जानकर जीवमुक्त की श्रेणी
में आ सकता है। यदि प्रयास पूर्ण मनोयोग से किया जाए तो सहस्त्रार सिद्ध गौतम
बुद्ध भी बन सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि व्यक्ति 24-25 वर्ष की उम्र से भी अध्यातम की दुनिया में कदम रखे तो साठ वर्ष तक जीवन के
लक्ष्य को पाना सम्भव है। ध्यान रहें यह सुविधा मात्र अवतार काल में ही मिलती है।
अब प्रश्न यह उठता है कि इस हिसाब से तो बहुत से लोग जीव-मुक्त की श्रेणी में
आने चाहिए क्योंकि शान्तिकुॅंज हरिद्वार की स्ािापना के साथ साधना के प्राण
प्रत्यावर्तन, चन्द्रायण व अनेक उच्चस्तरीय शिविर
पूज्य गुरुदेव ने लगाए। परन्तु सन् 1990 में जब आचार्य जी ने देखा कि किसी को भी साधना व आत्म-ज्ञान के मार्ग पर
आपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई है तो उन्होंने अपने अन्तिम संदेश में यह दुःखद घोषणा
कर दी कि वो कोई भी उत्तराधिकारी छोड़कर नहीं जा रहे हैं।
आज इस बात की परम आवश्यकता है कि इस विषय पर पर्याप्त बोध हो कि किन कारणों के
चलते साधना में आपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई। यदि कुछ लोगों को मिली है तो उनके
नाम सार्वजनिक किए जाएॅं जिसमें अन्य लोग भी उनकी दिव्य चेतना का विधिवत् लाभ उठा
सकें। ताकि परम्परा का निर्वाह चालू रहें। यह भी संभावना है कि गुरु जी के समय के
लोग आने वाले पाॅंच-सात वर्षों में शरीर छोड़ जाएॅं और वह नाम ज्ञान-विज्ञान आगे न
जा पाएॅं।
एक दिन मुझे मेरे एक पुराने मित्र का फोन आया कि वो क्रियायोग की दीक्षा लेने
राॅंची जा रहे हैं। यह जानकर में हतप्रभ रह गया। कारण यह था कि आज से 20 वर्ष पूर्व मैंने इनको गायत्री परिवार से जोड़ा था और इन्होंने 10-12 वर्ष गायत्री परिवार के बहुत कार्य किया। इनका कहना था कि उम्र बढ़ने के साथ
अब तीव्र साधना की इच्छा उठ रही है व हमारे ;गायत्री परिवारद्ध मिशन में साधना के मार्गदर्शन की कोई समुचित व्यवस्था न तो
केन्द्रों पर है न ही क्षेत्रों में। केन्द्रों पर कोई प्रकोष्ठ भी इस प्रकार का
नहीं है जहाॅं व्यक्ति जाकर अपनी साधना सम्बन्धी समस्याओं का निदान पा सके। जो
एक-दो चेहरे सार्वजनिक रूप् से सामने आते भी हैं वो व्यवस्था व प्रचार-प्रसार में
ही व्यस्त हैं व चलते रहते ही लोगों से थोड़ा बहुत बात करते हैं। इस घटना से मेरे
हृदय को बड़ी चोट लगी कि जिस व्यक्ति पर मैंने पाॅंच वर्षों तक मेहनत की व मिशन का
एक नैष्ठिक कार्यकत्र्ता बनाया वह आन मिशन से किसी कारणवश उपेक्षित महसूस कर रहा
है। ऐसे बहुत से व्यक्ति हो सकते हैं जिनकी आत्मा तीव्र साधना की मांग कर रही हो
वो या तो इधर उधर जाकर दीक्षित हो जाएॅंगे या भटक जाएॅंगे, यदि हमने उनके लिए समुचित मार्गदर्शन की व्यवस्था नहीं बनाई।
प्रश्न यह उठता है कि सहस्त्रार के जागरण के उपरान्त भी व्यक्ति साधना में
उच्चस्तरीय सफलता या सि(ि तक क्यों नहीं पहुॅंच पा रहा है। उत्तर बहुत ही सरल है
कि प्रत्येक चक्र के जहाॅं गुण हैं वहाॅं अवगुण भी हैं। अवगुणों का अर्थ है कि इन
दोषों के बढ़ने का खतरा चक्र जागरण के उपरान्त बढ़ जाता है। नीचे के चक्र काम
वासना को भड़का सकते हैं। अनाहत से अनियन्त्रित भावावेश आ सकता है। आज्ञा चक्र से
व्यक्ति अहंकारी हो सकता है। सहस्त्रार के चलते ही यह मानें कि सूक्ष्म जगत् का
द्वार खुल गया। सूक्ष्म जगत् में देवी व आसुरी दोनों सत्ताएॅं सक्रिय हैं। दोनों
दरवाजे ;सहस्त्रारद्ध से अन्दर घुसने का प्रयास
करेंगी व जिसको अधिक भोजन मिलेगा व पुष्ट होता चला जाएगा। यह कार्य इस प्रकार से
होता है कि व्यक्ति भ्रमित हो जाता है व थोड़ी सी भी असावधानी उसको डूबा सकती है।
कई बार व्यक्ति परवशता का अनुभव करता है। वह करना कुछ चाहता है परन्तु जो उस पर
कब्जा कर ली उसी के अनुसार चलने हेतु-सोचने हेतु विवश होता है। धीरे धीरे व्यक्ति
उस परोक्ष सत्ता का गुलाम हो जाता है। वह परोक्ष यदि आसुरी है तो व्यक्ति जीता
जाता असुर हो जाता है।
इसके लिए बहुत ही संतुलित व संस्कारी व्यक्तित्व चाहिए। यदि व्यक्ति में
ईष्र्या, द्वेष, घृणा के बीज पड़े हैं तो वे घातक सिद्ध होते हैं। शुद्ध व पवित्र व्यक्ति पर
आसुरी सत्ताएॅं हावी नहीं होती क्योंकि वहाॅं उन्हें पोषण नहीं मिलता। समाज सेवा
से जो लोग जुड़े हैं वो अक्सर अपने द्वारा अथवा दूसरों के द्वारा उत्पन्न ईष्र्या, द्वेष, घृणा, क्रोध के वातावरण से गुजरते हैं। यदि इसको छमनजतंस करने की विद्या उन्हें नहीं
मालूम तो इसीमें उलझ जाते हैं।
उदाहरण के लिए श्री राम व रावण का युद्ध हुआ व रावण की पराजय हुई। अधिकाॅंश
असुर मारे गए। श्री राम की सेना में रावण व उसकी सेना के प्रति युद्ध के दौरान
घृणा व क्रोध उभरा। यह युद्ध की स्वाभाविक प्रवृत्तियाॅं हैं जहाॅं हिन्दू मुस्लिम
दंगे होते हैं वहाॅं चारों ओर नफरत, गुस्सा, भय फेला होता है। प्रभु श्रीराम यह
भाॅंप गए कि स्ािूल में तो असुर मारे गए परन्तु बची हुई सेना अभी भी सूक्ष्म से
असुरों का वाहक बन सकती है। अतः इसका निवारण अनिवार्य है। इसलिए उन्होंने लक्ष्मण
जी को आदेश दिया कि रावण बहुत ज्ञानी है केवल अपने अहं पर नियंत्रण न रखने के कारण
मारा गया किसी ने सत्य ही कहा है-
”तपस्वी को क्रोध पर, ज्ञानी को अहं पर व
भक्त को लोभ पर नियंत्रण की सर्वाधिक आवश्यकता है।“ जब लक्ष्मण जी ने भाई का संदेश सुना तो भोचक्के रह गए। श्री राम को वे अपना
आचार्य मानते थे। इस कारण उनकी आज्ञा का पालन श्रद्धावश करते थे। बड़े अकड़कर वो
अपनी सेना के साथ रावण के पास गए व भाई की आज्ञा को कह सुनाया। रावण मृत्युशैय्या
पर चुप पड़ा था। लक्ष्मण जी ने जाकर श्री राम से शिकायत की कि रावण कोई ज्ञान नहीं
दे रहा है। श्री राम ने लक्ष्मण को समझाया कि जब किसी से ज्ञान हो तो पहले उसके
प्रति घृणा हटाकर श्रद्धा जाग्रत करो फिर विनम्र बनकर उसके चरण छूकर प्रार्थना
करो। अब लक्ष्मण जी के पास कोई विकल्प न बचा। पूरी सेना के हृदय से घृणा के भाव
नष्ट हो गए तथा रावण ने वेदों का परम ज्ञान ेदकर सबको कृतार्थ किया।
कहने का भाव है कि यदि हमारा व्यक्तित्व बहुत सुलझा हुआ है। यदि हमें कठोर, आत्म-विश्लेषण ;ेमस ि।दंसलेपेद्ध का
अभ्यास है न हम अपने मनोभावों पर नियंत्रण रखने में सक्षम हैं तथा यदि हमें स्थिति
बिगड़ती नजर आए तो हमने कई आचार्य ऐसे बना रखे हैं जो स्ािूल से हमारी मदद करने
में समर्थ हों। तभी यह सहस्त्रार साधना फलीभूत हो पाती है अन्यथा हम वहीं के वहीं
अटके रहते हैं और कई बार तो कठिनाईयों में उलझ जाते हैं। जिनसे निकालने के लिए
देवसत्ताओं को जोर लगाना पड़ता है। परन्तु कभी-कभी हम इतने भ्रमित हो जाते हैं कि
हमें कुछ समझ नहीं आता कि क्या सही है और क्या गलत। ऐसे में किसी न किसी स्ािूल
मार्गदर्शन से ही परिस्थितियों पर नियन्त्रण सम्भव है। जब तक हम प्रचार प्रसार
करते रहे तब तक अर्थात् यह 2000 तक इसकी
आवश्यकता नहीं अनुभव की गई। परन्तु सहस्त्रार स्तर की साधना करने वालों के लिए यह
आवश्यकता अनुभव की जा रही है। क्योंकि यह थोड़ा नाजुक मामला हो जाता है और यदि
साधक की गाड़ी पटड़ी से उतर जाए तो वापिस आने से वर्षों मशक्कत करनी पड़ सकती है।
विश्वामित्र राजेश