इसे आरम्भ करते हुए
गुरुदेव वसिष्ठ ने श्रीराम और कथा में उपस्थित अन्य सभी से कहा-‘‘रानी चुड़ाला की कथा
बड़ी प्रेरक और पावन है। इस कथा का घटनाक्रम इस सत्य को प्रकाणित करता है कि आत्मज्ञान
प्राप्त करने और योगााभ्यास करके सब विभूतियाँ एवं अलौकिक शक्तियाँ प्राप्त करने का
स्त्रियों को उतना ही अधिकार है, जितना कि पुरुषों को। वैसे भी आध्यात्मिक
ज्ञान तो प्राणिमात्र के लिए है। यदि स्त्री आत्मज्ञान में स्थित हो जाए तो वह अपने
पति को अथवा अन्य किसी पुरुष को उसी प्रकार आत्मज्ञान का लाभ करा सकती है, जैसा कि एक पुरुष दूसरे पुरुष को करा सकता है।’’ इतना कहकर ऋषि वसिष्ठ ने श्रीराम
की ओर सारगर्भित दृष्टि से देखा और कहा-‘‘ रानी चुड़ाला की कथा में न केवल आत्मोपलब्धि
का सच्चा मार्ग है, बल्कि आत्मज्ञानी की जीवनशैली भी है।’’
वसिष्ठ ऋषि के इन वचनों
को सभी ध्यानपूर्वक सुन रहे थे। रानियों एवं अन्य नारियों ने इस तत्त्व को सुनकर प्रसन्नता
की अनुभूति प्राप्त की कि नारियाँ परुषों की ही भाँति आत्मज्ञान की योग्य अधिकारी हैं।
नारी हृदयों में पुलकन को प्रस्फुटित करते हुए ब्रह्मर्षि कह रहे थे-‘‘ वर्षों पूर्व
की बात है, जब मालव देश में शिखिध्वज नाम का एक बहुत सुंदर, बलवान और प्रतापी राजा राज्य करता था। उसका विवाह सौराष्ट देश की राजकन्या से हुआ।
वह बहुत सुंदर, विदुषी और बुध्दिमान थी। इस राजरानी का नाम चुड़ाला था। राजा
शिखिध्वज एवं रानी चुड़ाला में एक दूसरे के प्रति घनिष्ठ प्रेम व आकर्षण था। दोनों ही
अपनी युवावस्था के दौर में थे। उनके जीवन में वे खूब आनंद से जीवन के सभी प्रकार के
सुख, भोग रहे थे।
सुखों को भोगते हुए
भी उन दोनों के मन में गहन विचारशीलता थी। इसी विचारशीला के कारण सब प्रकार के भोगों
को भोगते-भोगते एक दिन उनके मन में यह विवेक उत्पन्न हुआ कि हमारे पास संसार का सारा
ऐश्वर्य और सारे भोगों को भोगने के साधन हैं। हम लोग एब प्रकार के भोगों का बार-बार
आस्वदान भी कर चुके हैं। इन्हें भोगने में हमारा बहुत सा जीवन व्यतीत हो चुका हैं।
अब तो शरीर की सारी शक्ति भी क्षीण हाने लगी है, लेकिन तब भी हृदय की तृप्ति और शांति नहीं है। क्या सचमुच मनुष्य जीवन इसीलिए है
कि सदा ही यह शरीर और इंद्रियों के सुखों को अनुभव करने में लगा रहे और फिर भी उसको
किसी स्थायी सुख, किसी प्रकार की तृप्ति और शांति का
अनुभव न हो। विषयों के द्वारा उत्पन्न होने वाले सभी सुख क्षणिक और दुःख में परिणत
होने वाले हैं। फिर भला कौन सा सुख है, जो चिरस्थायी है?
इस प्रश्न के उत्तर
के लिए उन्होंने विद्वाानों से परामर्श करने का निश्चय किया। उनके प्रश्न के उत्तर
में विद्वानों ने उनसे कहा-‘‘ आत्मज्ञान हो जाने पर मनुष्य को परमशांति और परमतृप्ति
का अनुभव होता है। वही प्राप्त कर लेना मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य है। आत्मज्ञान में
स्थित हो जाने पर परमानंद का अनुभव होता है। उस आनंद के सामने संसार के सब विषयों को
भोगने के सुख कुछ भी नहीं हैं। आत्मपथ में स्थित मनुष्य सदा ही तृप्त और सुखी रहता
है। वह न किसी वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा करता है और न ही किसी से घृणा करता है।’’
यह सुनकर राजा शिखिध्वज
एवं रानी चुड़ाला ने आत्मज्ञान प्राप्त करने का निश्चय किया। राजा की अपेक्षा रानी अधिक
बुध्दिमती और उद्योगशील थी। उसके विचार अधिक सूक्ष्म और निश्चयात्मक थे। इसी कारण उसे
थोड़े ही समय में आत्मज्ञान हो गया। आत्मज्ञान हाने पर उसके मुख पर प्रसन्नता और अलौकिक
सौंदर्य की झलक आ गई। दिन-पर-दिन उसका सौंदर्य, तेज और आनंद बढ़ने लगा। अभी राजा को आत्मज्ञान नहीं हुआ था। वह समझ न सका कि रानी
इतनी प्रसन्न और प्रफुल्लित क्यांे है? रानी ने राजा को बतलाया कि उसके हृदय
में अलौकिक आनंद का प्रकाश हो गया है। अब उसे सारा जगत आनंदमयी ही दिखाई दे रहा है।
राजा की समझ में रानी की यह बात न आती थी, क्योंकि जिसने आत्मानंद का स्वयं अनुभव न किया हो, उसके लिए यह जान पाना संभव नहीं कि आत्मानंद क्या है।
श्रानी ने अपने पति
को आत्मानुभव प्राप्त करने में सहायता देने की बहुत कोशिश की, किंतु राजा ने उसे अपनी पत्नी समझकर उसकी विशेष परवाह न की। उसके मन मे यही मिथ्याभिमान
बना रहता था कि पुरुष, स्त्री से अधिक समर्थ और प्रज्ञावान
होता है। इसी अभिमान के कारण अनेक प्रयत्न करने के बावजूद राजा शिखिध्वज को आत्माान
न हुआ। इसके लिए वन में जाने और एकांत साधना करने का निश्चय किया। रानी जब प्रातः जागी
तो उसने राजा को भवन में न पाया। अंत में उसने योगबल से सारी वास्तविक स्थिति ज्ञात
कर ली, परंतु उसने सभी राजपुरुषों एवं राज्य के निवासियों को यह नहीं
बताया कि महाराज ने राज्य का त्याग कर दिया है, वरन उसने सबको यह सूचित किया कि महाराज आवश्यक कार्य हेतु अभी राज्य से बाहर गए
हैं एवं कुछ दिन उपरांत लौटेंगे। राजा शिखिध्वज की अनुपस्थिति में रानी चुड़ाला स्वयं
कुशलतापूर्वक राज्य का संचालन करने लगी।
आत्मज्ञान होने के
साथ ही रानी चुड़ाला योग की विभूतियों एवं शक्तियों से भी संपन्न थी। इसीलिए एक दिन
उसने योगबल से ऋषिपुत्र का वेशा धारण किया और राजा के पास वन में पहुँच गई। उसने अपना
परिचय ऋषिकुमार कुंभज के रूप में राजा को दिया। कुंभज के रूप में रानी चुड़ाला ने राजा
को आत्मज्ञान संबंधी अनेक प्रकार की बातें सुनाईं और साथ ही उन्हें साधना की अनेक विधियाँ
भी बतलाईं।
इस उपदेश का पालन करने
के बाद राजा को धीरे-धीरे आत्मज्ञान होने लगा। आत्मज्ञान के परिपक्व हो जाने पर उसकी
स्थिति आत्मभाव में हो गई और वह जीवनमुक्त
हो गया। अब उसके मुख पर सदैव प्रसन्नता रहती थी। हर्ष और शोक से वह परे था। किसी कारण
से उसकी शांति भंग न होती थी। हर हालत में वह खुशहाल रहता था। उसके लिए न कुछ हेय था
और न उपादेय। वह सदा आत्मानंद में मग्न रहता था। संसार के किसी सुख की न तो उसे वासना
थी और न ही वह किसी दुःख से दुःखी रहता था।
अब रानी ने राजा की
जीवनमुक्त स्थिति की परीक्षा लेने के लिए कई आयोजन किए। उसने अपनी योगशक्ति से राजा
की सब प्रकार से परीक्षा ली। राजा सब प्रकार से अविचलित रहा। सुख-दुःख, हानि-लाभ उसमे कोई उद्वेग न कर सके। सब प्रकार से राजा की जीवनमुक्त स्थिति के
बारे में संतुष्ट हो जाने पर रानी चुड़ाला ने राजा को अपना वास्तविक परिचय दिया। यह
परिचय पाकर राजा ने रानी के प्रति कृतज्ञता प्रकट की। बाद में रानी के कहने पर वह अपनी
राजधानी वापस लौट आए और जीवनमुक्त की भाँति राज्य का कार्य करने लगे।
इस कथा को सुनाकर ब्रह्मर्षि
वसिष्ठ ने श्री राम और अन्य सभी से कहा-
शास्त्रार्थ गुरुमन्त्रादि
तथा नोत्तरक्षणमम्।
यथैता स्नेहशालिन्यो
भतृणां कुलयोषितः।।
अर्थात शास्त्र, गुरु, मंत्र आदि सभी साधन मिलकर भी उस मोहसागर से पार कराने में इतने
समर्थ नहीं हैं, जितनी कि स्नेह से भरी हुई फुलवारियाँ। इसलिए स्त्रियों को कभी
भी निरादर की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। जो अच्छे कुल की संस्कारवान कन्याएँ होती
हैं, वे अपने पति को संसारसागर से पार करने में सहायता करती हैं।
No comments:
Post a Comment