प्रत्येक साधक यह चाहता है कि उसका ध्यान-जप में
मन लगे। क्या कारण है कि कुछ व्यक्ति आराम से तीन चार घण्टें जप कर लेते हैं व
अन्य दस पन्द्रह मिनट में ही उबने लगते हैं?
जिनके चित्त का भार अधिक होता है उनमें जड़ता
अधिक पाई जाती है जिस कारण वो अधिक तामसिक वृत्ति में रहते हैं। ऐसे बहुत से
व्यक्ति होते हैं जो ऊपर से साफ सुथरे दिखते हैं परन्तु चित्त का भार अधिक होने से प्रयास करने पर
भी जप ध्यान नहीं कर पाते। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो ऊपर से रजोगुणी दिखते हैं बाह्य जगत् में उलझे
हैं परन्तु चित्त का भार कम है। ऐसे व्यक्ति आम तौर पर सुखी जीवन जीने के कारण
ध्यान साधना की ओर प्रवृत्त नहीं होते। वातावरण के रंग में रंगे मौज-मस्ती का जीवन
जीते रहे होते हैं। ये यदि अन्तर्मुखी होकर साधना के मार्ग पर चलें तो शीघ्र
उन्नति कर सकते हैं।
चित्त का भार कर्म संस्कारों की प्रबलता से
बढ़ता है। कर्म संस्कारों के क्षीण करने के लिए भोगना एक माध्यम है, स्वयं के
प्रयासों से जूझना दुसरा माध्यम है तथा किसी आध्यात्मिक शक्ति के तप का हस्तक्षेप
तीसरा माध्यम है। आमतौर पर व्यक्ति को ये तीनों माध्यम अपनाने पड़ते हैं। यदि कर्म
संस्कार नीच प्रवृत्ति के हैं तो भोगना काफी दुखदायी रहता है। बार-बार रोग आना, दुर्घटनाएँ होना आदि समस्याएँ पैदा होती हैं। ज्ञान, भक्ति, कर्म, ध्यान, यज्ञ, आयुर्वेद, medical science सभी का सहारा लेना पड़ता है। उदाहरण के लिए एक साधक के कर्म संस्कार कटते समय
उसमें आवेश ( Anxiety ) पैदा होने लगे। आवेश पैदा होना बहुत से साधकों के जीवन में एक जटिल
समस्या है। यदि यह बढ़ जाए तो व्यक्ति मानसिक रूप से विकृत भी हो सकता है। साधक के
अपने मन को शान्त करने के लिए शान्ति के भावों को पैदा करना होता है। उन
आयुर्वेदिक दवाईयों का प्रयोग करना होता है जो पित्त शान्त करती हैं जैसे मुक्ता
पिष्टी ब्रह्म रसायन, खमीरा आदि। आवेश वाले वातावरण से स्वयं को दूर
रखना होता है। बढ़े हुए वायु तत्व को नियन्त्रित करने के कुछ साधनात्मक उपाय करने
होते हैं। अन्यथा ह्रदय की धड़कन बढ़ना, अधिक पसीना आना, बेचैनी उत्पन्न होना ये आवेश के लक्ष्ण हैं। यदि
नींद कम हो जाए तो उसके लिए एैलोपैथिक हल्की trangualizer भी प्रयोग करनी पड़
सकती है।
देवसताएँ अपनी तप शक्ति
का प्रयोग भी साधक के कर्म संस्कारों को काटने में करती हैं। श्री अरविन्द के
अनुसार इस प्रक्रिया में 30 वर्ष लग सकते हैं। परन्तु आज मानव में इतना
धैर्य कहाँ जो तीस वर्ष की प्रतीक्षा करें। आचार्य जी ने इस
प्रक्रिया को सरल बनाकर तीन से पांच वर्ष के भीतर कर्म संस्कारों के क्षय करने का
प्रयोग अनेक साधकों पर किया है।
यदि व्यक्ति को आध्यात्मिक जीवन जीना है तो सबसे
पहले उसे अपने कर्म-संस्कारों का क्षय करना होगा, क्योंकि आध्यात्मिक जीवन की डगर में सबसे बड़ी
बाधा उत्पन्न करने वाले ये कर्म संस्कार ही हैं। इसलिए अपनी जीवनशैली में तप-साधना, आराधना को
अनिवार्य रूप से सम्मिलित करना चाहिए, ताकि जीवन पिछले कर्म-संस्कारों के भार से
उबरता रहे।
हमारे देश में जितने भी महान संत एवं भक्त हुए
हैं, उनका जीवन भी
कुछ इसी प्रकार का था। वे भी हर क्षण-हर पल भगवान के लिए जीवन जीते थे और अपने किए
गए हर कार्य को भगवान को सौंपते थे। इस तरह वे जो भी कार्य करते थे, भगवद्शक्ति से
जुड़ कर करते थे। उन्हें यह एहसास होता था कि वे केवल यंत्र मात्र है और भगवान ही
उनके माध्यम से कार्य कर रहे हैं। यन्त्र तो केवल माध्यम होता है, कर्ता नहीं।
जो उस यन्त्र को बजाता है, वह असली कर्ता होता है और उस यन्त्र से जो
ध्वनि निकलती है, वह बजाने वाले के ऊपर निर्भर करती है। यन्त्र को इसके लिए कोई
चिन्ता नहीं करनी पड़ती। इसी कारण हमारे देश के सन्त व भक्त बहुत ही निश्चित व
निर्भीक रहते थे। उन्हें कोई चिन्ता नहीं सताती थी, वे हर पल स्वयं को भगवान के लिए समर्पित पाते थै।
भगवान के लिए जीवन जीना ही आध्यात्मिक जीवन है।
भगवान के साथ सतत जुड़ने से हमारे कर्मों का तेजी से क्षय होता है। हमारे विचारों
व भावनाओं में प्रखरता का समावेश होता है। जीवात्मा प्रकाशित होती है और आंतरिक
संबल मिलता है कि कोई है, जो सदैव उसके साथ है और उसे संरक्षण व
मार्गदर्शन प्रदान कर रहा है।
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