आत्मीय स्वजनों एक घटना से अपनी बात का प्रारम्भ कर रहा हूॅं। कुछ दिनों पहले मैंने अपने घर के निर्माण हेतु नींव की खुदाई करवाई। अचानक शीत )तु की वर्षा प्रारम्भ हो गई। पानी सड़क से बहकर नींव की ओर जाने लगा। हम मिट्टी डालकर उसको रोकने का प्रयास करने लगे। अगले दिन हल्की बूंदाबांदी हो रही थी। मैंने उस परिस्थिति का निरीक्षण किया तो मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि मात्र हल्की वर्षा से पानी नहीं भर रहा बल्कि पानी का रिसाव कहीं ओर से भी हो रहा है। गहराई से जाॅंचने पर पता चला कि सड़क के किनारे एक पाइप के जोड़ से हल्का रिसाव हो रहा है जब वर्षा में मिट्टी नरम हुई तो वह भी आकर ऊपर रिसने लगा। उसको ठीक करने पर ही पानी नींव की ओर जाना बन्द हुआ
मानव जीवन में भी दो सतह हैं एक ऊपरी और एक भीतरी। जब ऊपरी सतह कमजोर होती है तो भीतरी सतह का रिसाव उसको प्रभावित करने लगता है। यह रिसाव यदि दूषित है अर्थात् विकारपूर्ण है तो हमारा स्वास्थ्य व व्यक्तित्व दोनों ही गड़बड़ा जाते हैं। व्यक्ति समस्या का समाधान मात्र ऊपरी सतह पर ढूॅंढता है व इस प्रकार के उलाहने देता है। मैं तो पूरा परहेज करता हूॅं फिर भी रोग पीछा नहीं छोड़ता परन्तु अमुक व्यक्ति अण्डा, मीट, शराब सब कुछ खा पी रहा है फिर भी स्वस्थ रहता है। कारण उसकी भीतरी परत अधिक मजबूत है जो ऊपर के दूषित रिसाव को सहन कर पा रही है।
एक बार मेरा एक विद्यार्थी पेट के रोगों के कारण दुःखी रहता था अपनी मित्र मण्डली के साथ बैठा हुआ था। यार दोस्तों ने उसको समझाया कि वह इतना परहेज करता है इसलिए दुःखी रहता है उनकी तरह थोड़ा-थोड़ा दारु पीना शुरू करें तो वह भी हट्टा कट्टा हो जाएगा। उनकी सलाह मान उसने थोड़ा पीना प्रारम्भ किया। प्रारम्भ में कुछ राहत मिली तो और पीने लगा। धीरे-धीरे उसका लीवर व नर्वस सिस्टम कमजोर होता गया। एक वर्ष बाद वह बड़ी जटिल रोगों की अवस्था में मेरे पास आया व जीवन रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगा। बड़ी कठिनाई से वर्षों माथा पच्ची के बाद वह पुनः ठीक हो पाया। मैंने उसे कहा कि अभी वह युवा था जिस कारण बच गया यदि उम्र अधिक होती तो बचाना सम्भव न होता अतः भविष्य में ऐसी गलती न करे।
यह बड़ी दुःखद स्थिति है आज बड़ी सॅंख्या में युवा वासनाओं के गड्ढों में जाने अनजाने कूद रहे हैं। जिनके हाथ-पैर मजबूत हैं वो तो सह जाते हैं परन्तु जो कमजोर हैं वो हाथ-पैर तुड़वा बैठते हैं। अतः समाज की देखा-देखी गलत परम्पराओं के प्रचलन को न अपनाएॅं अपितु सदा )षि परम्परा का अनुसरण कर ‘स्वस्थ भारत’ के निर्माण में सहयोग करें।
मित्रों व्यक्ति में पाॅंच प्रकार की परतें होती हैं
1. अन्नमय कोष
2. प्राणमय कोष
3. मनोमय कोष
4. विज्ञानमय कोष
5. आनन्दमय कोष
ये पाॅंचों परतें प्याज के छिलकों की तरह एक के भीतर एक गुॅंथी होती हैं। ये पाॅंचों आपस में इस प्रकार जुड़ी ;प्दजमतसपदामकद्ध हैं कि एक-दूसरे के सतत आदान-प्रदान पर निर्भर रहती हैं। यदि किसी भी परत में विकार आ गए तो उसका दूषित रिसाव दूसरी परतों को भी प्रभावित अवश्य करता है।
प्राचीन काल में )षि स्तर के व्यक्ति होते थे जो अपनी प्रज्ञा दृष्टि से यह पता लगा लेते थे कि व्यक्ति की किस परत में क्या समस्या है। उसी अनुसार रोग का निदान करते थे। आज के युग में ऐसे व्यक्ति दुर्लभ हैं। अतः स्वस्थ व सुखी रहने के लिए हमें इन पाॅंचों कोषों के स्तर पर विविध जानकारियाॅं रखना आवश्यक है। यह सब विशद् ज्ञान का एक समुद्र हैं जिसमें से एक लौटा पानी निकालने का प्रयास इस पुस्तक के किया गया है।
समय की विडम्बना यह है कि हमने अपनी )षि परम्परा को ही तहस-नहस कर डाला। हर जाग्रत आत्मा को उस परम्परा के पुनरूत्थान के लिए अपनी प्रतिभा का नियोजन किसी न किसी रूप् में अवश्य करना चाहिए। मात्र स्वार्थ, भोग, पद-प्रतिष्ठा, विलास का जीवन जीने वालों को काल, प्रड्डति व भगवान कोई भी क्षमा नहीं करेगा। यह एक चिर सत्य है। जब मोहल्ले में किसी घर में आग लगी हो तो उस आग को बुझाने की जगह जो व्यक्ति अपने घर की दीवार ऊॅंची कर रहा हो वह कितना बड़ा मूर्ख होगा। यही मूर्खता आज का सभ्य समाज कर रहा है। सोचता है कि अधिक से अधिक धन, वैभव बटोर लें तो बड़े-बड़े चिकित्सालयों में इलाज कराना सम्भव हो पाएगा। अपने स्वार्थ में अन्धे महानुभावों को यह नहीं दिख रहा यदि )षि परम्परा का पुनरूथान समय रहते नहीं हो पाया तो सब कुछ तहस-नहस हो जाएगा। जिस आने वाली पीढ़ी के लिए धन, वैभव, मान-सम्मान इकट्ठा किया जा रहा है वह अपने पूर्वजों की करतूतों पर उनके मुॅंह पर थूकेगी। अतः प्रत्येक प्रतिभावान समर्थ व्यक्ति ‘स्वस्थ भारत’ के निर्माण के लिए अपना योगदान निःस्वार्थ भाव से अवश्य प्रस्तुत करे।
हमारे ज्ञान-विज्ञान से विदेशी लोग बहुत लाभ उठा रहे हैं। उदाहरण के लिए धतुरा एक वनस्पति है जो शिव को प्रिय है। इसका अर्थ यह था कि धतूरे का उपयोग हम शिव अर्थात् कल्याणकारी कार्यों में ही करेंगे। आज होम्योपैथी में धतूरे से बेलाडोना नामक दवा का निर्माण होता है जो बच्चों के संक्रमण वाले रोगों व बड़ों के नर्वस सिस्टम की समस्याओं में बहुत ही उपयोगी सि( होती है। हमारा दुर्भाग्य है कि हम अपने पूर्वजों के अनमोल शोध कार्य के ‘स्वस्थ भारत’ के निर्माण के लिए जन जन तक नहीं पहुॅंचा पाए। जिस कारण स्वस्थ रहना ही आज के युग में एक विकट समस्या बनता चला जा रहा है।
)षियों की इस वेदना को महसूस कर ही इस पुस्तक का लेखन प्रारम्भ किया गया है। आशा है पाठकों के लिए लाभप्रद होगी व हमारे पाठक जन-जन, घर-घर तक पुस्तक पहुॅंचाने में हमारा सहयोग अवश्य करेंगे।
भारतीय समाज की स्थिति बड़ी भयावह हो चुकी है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र चारों वर्ग भ्रष्टाचार की लपेट में आकर अपने धर्म से च्युत हो गए हैं। ऐसे में व्यक्ति कैसे स्वस्थ व सुरक्षित रह सकता है? ब्राह्मण वर्ग जो त्याग व तप का जीवन जीता था, समाज को आदर्शों, सि(ान्तों पर चलने की प्रेरणा देता था, अपने लाभ के लिए समाज को ग्रह नक्षत्रों, शनि, पितृों, ज्योतिष, कर्मकाण्डों में उलझा कर रख दिया है। बड़े-बड़े आश्रमों, मन्दिरों को महत्त्वाकांक्षी लोगों ने हथिया रखा है जो मात्र ऊॅंचे-ऊॅंचे भवनों के निर्माण में जुटे रहते हैं जिससे उनकी प्रसि(ि हो सके। उस धन को यदि जन कल्याण में नियोजित किया गया होता तो समाज का कितना भला होता यह उन्हें कैसे समझ आए। स्वयं जीव भाव में जीने वाला व्यक्ति वेद, शास्त्रों व भगवद्गीता पर लच्छेदार प्रवचन करेगा तो जनता पर क्या प्रभाव पड़ेगा।
जब व्यक्ति जीवभाव में जीता है तो उसे शरीर और उससे जुड़े रिश्ते-नाते, परिवार प्रिय होते हैं। इस कारण जीवभाव में जीने वाला व्यक्ति परिवारवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद को बढ़ावा देता है। जब व्यक्त् िआत्मभाव में जीता है तो वह मात्र धर्म की स्ािापना के अनुसार सोचता है। शरीर व उससे जुड़े रिश्ते नातों को महत्त्व नहीं देता। महाभारत के प्रथम दिन अर्जुन जीव भाव में थे। अपने सामने अपने बन्धुओं, शिक्षकों व रिश्तेदारों को देख उनका मोह सताने लगा व धर्म की रक्षा के अपने कर्तव्य से बचकर भागने लगे। भगवान ड्डष्ण ने उनका जीव भाव नष्ट कर आत्म भाव जाग्रत कर दिया तो वो यु( के लिए तैयार हो गए। आज भगवद्गीता पर बड़े-बड़े सेमिनार, सम्मेलन होते हैं परन्तु कितने विद्वान आत्मभाव में जीते हैं। मात्र बढि़या-बढि़या प्रवचन, विवेचन कर अपना कर्तव्य पूर्ण मान लेते हैं। धर्म के लिए यु( स्तर का प्रयास करने का साहस, अपने प्राणों को दाॅंव पर लगाकर मानवीय मूल्यों की स्थापना, युग निर्माण के लिए अपनी आहुति, अपना आत्मदान करने का संकल्प करने वाले लोग कितने हैं। ऐसे व्यक्ति ही गीता के कर्मयोग पर चलने के लिए समाज को प्रेरित कर सकते हैं। शेर की खाल ओढ़े गीदड़ों की सच्चाई जब सामने आती है तब पता चलता है कि लोग धर्म, शास्त्रों व गीता को अपने स्वार्थों व महत्त्वांकाक्षाओं की पूर्ति का माध्यम बना रखे हैं। ये वही लोग हैं जो साधु वेश में संस्ड्डति रूपी सीता का हरण कर रहे हैं। अपनी ताकत के अभिमान में यह भूल जाते हैं कि रावण व कंस का क्या हाल हुआ था। रावण से अधिक शक्तिशाली तो ये नही हैं। इस बार धरती पर राम, ड्डष्ण, बु( का ही नहीं अपितु महा अवतार होने जा रहा है जो पिछले दो हजार वर्षों की गन्दगी को साफ कर ‘स्वच्छ भारत-स्वस्थ भारत’ ‘सशक्त भारत-विश्वामित्र भारत’ के संकल्प को पूर्ण करेगा। जिनके भीतर यह चेतना काम करती है वो अपने अन्दर एक तड़प, छटपटाहट, कुछ श्रेष्ठ करने की इच्छा महसूस करते हैं, चैन से सो भी नहीं पाते, उच्च व दिव्य भावों से भरे रहते हैं।
क्षत्रिय वर्ग के लोग जो ताकत व दम-खम रखते हैं वो उसका उपयोग भोग विलास अथवा अत्याचार में कर रहे हैं। अन्याय, अनीति, अधर्म को देख कितने लोगों का खून खोलता है। क्या यह वही भूमि है जहाॅं लोग अपने प्राणों पर खेलकर धर्म, इन्सानियत की रक्षा करते थे! वैश्य वर्ग के लोग अपने तुच्छ लाभों के लिए हर जगह मिलावट किए दे रहे हैं। शूद्र वर्ग जो तीनों वर्णों की सेवा करता था, नशेखोरी व गलत आदतों में पड़कर जीवन बर्बाद कर रहा है। कहने का तात्पर्य यह है कि समाज की व्यवस्था ही चैपट हो चुकी है। ऐसी कठिन परिस्थिति में हम एक सुन्दर आदर्श समाज के सामने रख सकें यह समय की मांग है। जिस पर प्रभु की ड्डपा होती है उसकी आत्मा मात्र अपने स्वार्थ के लिए नहीं जी सकते। वह सदा उच्च व दिव्य जीवन की ओर स्वयं को बढ़ाने के लिए मचलता रहता है।
पुस्तक का लेखन कार्य प्रारम्भ करते हुए मेरे मन में इस प्रकार के विचार उमड़ रहे थे कि मेरा अपना परिवार ही अनेक प्रकार के रोगों से जूझता है फिर मुझे किसी को उपदेश देने का क्या अधिकार है? यह जिज्ञासा जब मैंने अपने एक परम मित्र से व्यक्त की तो उन्होंने तपाक से उत्तर दिया कि एक गम्भीर रोगी ही एक अच्छे मार्गदर्शक की भूमिका निभा सकता है क्योंकि वह रोग की जटिलताओं को स्वयं अनुभव करता है। यदि किसी पर कोई समस्या आपबीती हो उससे बढि़या समाधान उस समस्या का कौन बताएगा। इस उत्तर ने मेरा आत्मविश्वास बहुत बढ़ा दिया व मैंने अपने गुरु व इष्ट आराध्य का नाम लेकर पुस्तक का लेखन प्रारम्भ कर दिया। आप सभी सहयोगियों व पाठकों के उज्ज्वल भविष्य व स्वस्थ जीवन की मंगल कामना करते हुए अपनों से अपनी बात को पूर्ण करता हूॅं।
एक बार एक राजा के दरबार में एक बहुत तीक्ष्ण बु(ि का मंत्री था। इस कारण दूसरे मंत्री उससे जलते थे। एक समय ऐसा आया जब राजा के राज में कुछ विपरीत परिस्थितियों का उदय हुआ। सभी ने इसका ठीकरा उस बु(िमान मन्त्री के सिर फोड़ दिया। राजा को भी क्रोध आया व उसको ऊॅंची मीनार की ऊपरी मंजिल पर कैद कर लिया। मन्त्री की पत्नी बहुत दुःखी थी। जब उसको कैद कर ले जाया जा रहा था तो उसने अपनी पत्नी के पास से गुजरते हुए कहा कि उसकी मुक्ति के लिए रेशम की डोर भेजो। पत्नी की कुछ समझ में नहीं आया वह गुरु के पास गयी व रेशम की डोर का रहस्य पूछा। गुरु मुस्कराए और बोले - ‘पुत्री! तू एक भृंगी ;कीड़ाद्ध पकड़कर ला और उसके पैरो में सूत बाॅंध दे, फिर उसकी मूॅंछ के बालों पर शहद की बूॅंद टपकाकर उसे मीनार की चोटी की ओर मुॅंह करके छोड़ देना।’ पत्नी को कुछ समझ में न आया, पर उसने गुरु की आज्ञा का पालन किया। भृंगी शहद की सुगंध का पीछा करते-करते मीनार की सबसे ऊॅंची मंजिल पर जा पहुॅंचा। सूत के वहाॅं पहुचने पर उसके सहारे डोरी और डोरी के सहारे रस्सा वहाॅं पहुॅंचाया गया। रस्से का सहारा लेकर मंत्री वहाॅं से मुक्त हो गया। धीरे - धीरे परिस्थितियाॅं सामान्य हुई व राजा को अपनी भूल पर पश्चाताप हुआ। राजा अपने बु(िमान मन्त्री को पुनः खोजकर उसका पद सम्मान समेत प्रदान किया।
इस पुस्तक में भी इस प्रकार के कुछ सूत्र-संकेत दिए गए हैं, जिनसे व्यक्ति अपने जटिल रोग से भी मुक्त हो सकता है। आवश्यकता ठीक से समझने व मनन करने की है।
मानव जीवन में भी दो सतह हैं एक ऊपरी और एक भीतरी। जब ऊपरी सतह कमजोर होती है तो भीतरी सतह का रिसाव उसको प्रभावित करने लगता है। यह रिसाव यदि दूषित है अर्थात् विकारपूर्ण है तो हमारा स्वास्थ्य व व्यक्तित्व दोनों ही गड़बड़ा जाते हैं। व्यक्ति समस्या का समाधान मात्र ऊपरी सतह पर ढूॅंढता है व इस प्रकार के उलाहने देता है। मैं तो पूरा परहेज करता हूॅं फिर भी रोग पीछा नहीं छोड़ता परन्तु अमुक व्यक्ति अण्डा, मीट, शराब सब कुछ खा पी रहा है फिर भी स्वस्थ रहता है। कारण उसकी भीतरी परत अधिक मजबूत है जो ऊपर के दूषित रिसाव को सहन कर पा रही है।
एक बार मेरा एक विद्यार्थी पेट के रोगों के कारण दुःखी रहता था अपनी मित्र मण्डली के साथ बैठा हुआ था। यार दोस्तों ने उसको समझाया कि वह इतना परहेज करता है इसलिए दुःखी रहता है उनकी तरह थोड़ा-थोड़ा दारु पीना शुरू करें तो वह भी हट्टा कट्टा हो जाएगा। उनकी सलाह मान उसने थोड़ा पीना प्रारम्भ किया। प्रारम्भ में कुछ राहत मिली तो और पीने लगा। धीरे-धीरे उसका लीवर व नर्वस सिस्टम कमजोर होता गया। एक वर्ष बाद वह बड़ी जटिल रोगों की अवस्था में मेरे पास आया व जीवन रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगा। बड़ी कठिनाई से वर्षों माथा पच्ची के बाद वह पुनः ठीक हो पाया। मैंने उसे कहा कि अभी वह युवा था जिस कारण बच गया यदि उम्र अधिक होती तो बचाना सम्भव न होता अतः भविष्य में ऐसी गलती न करे।
यह बड़ी दुःखद स्थिति है आज बड़ी सॅंख्या में युवा वासनाओं के गड्ढों में जाने अनजाने कूद रहे हैं। जिनके हाथ-पैर मजबूत हैं वो तो सह जाते हैं परन्तु जो कमजोर हैं वो हाथ-पैर तुड़वा बैठते हैं। अतः समाज की देखा-देखी गलत परम्पराओं के प्रचलन को न अपनाएॅं अपितु सदा )षि परम्परा का अनुसरण कर ‘स्वस्थ भारत’ के निर्माण में सहयोग करें।
मित्रों व्यक्ति में पाॅंच प्रकार की परतें होती हैं
1. अन्नमय कोष
2. प्राणमय कोष
3. मनोमय कोष
4. विज्ञानमय कोष
5. आनन्दमय कोष
ये पाॅंचों परतें प्याज के छिलकों की तरह एक के भीतर एक गुॅंथी होती हैं। ये पाॅंचों आपस में इस प्रकार जुड़ी ;प्दजमतसपदामकद्ध हैं कि एक-दूसरे के सतत आदान-प्रदान पर निर्भर रहती हैं। यदि किसी भी परत में विकार आ गए तो उसका दूषित रिसाव दूसरी परतों को भी प्रभावित अवश्य करता है।
प्राचीन काल में )षि स्तर के व्यक्ति होते थे जो अपनी प्रज्ञा दृष्टि से यह पता लगा लेते थे कि व्यक्ति की किस परत में क्या समस्या है। उसी अनुसार रोग का निदान करते थे। आज के युग में ऐसे व्यक्ति दुर्लभ हैं। अतः स्वस्थ व सुखी रहने के लिए हमें इन पाॅंचों कोषों के स्तर पर विविध जानकारियाॅं रखना आवश्यक है। यह सब विशद् ज्ञान का एक समुद्र हैं जिसमें से एक लौटा पानी निकालने का प्रयास इस पुस्तक के किया गया है।
समय की विडम्बना यह है कि हमने अपनी )षि परम्परा को ही तहस-नहस कर डाला। हर जाग्रत आत्मा को उस परम्परा के पुनरूत्थान के लिए अपनी प्रतिभा का नियोजन किसी न किसी रूप् में अवश्य करना चाहिए। मात्र स्वार्थ, भोग, पद-प्रतिष्ठा, विलास का जीवन जीने वालों को काल, प्रड्डति व भगवान कोई भी क्षमा नहीं करेगा। यह एक चिर सत्य है। जब मोहल्ले में किसी घर में आग लगी हो तो उस आग को बुझाने की जगह जो व्यक्ति अपने घर की दीवार ऊॅंची कर रहा हो वह कितना बड़ा मूर्ख होगा। यही मूर्खता आज का सभ्य समाज कर रहा है। सोचता है कि अधिक से अधिक धन, वैभव बटोर लें तो बड़े-बड़े चिकित्सालयों में इलाज कराना सम्भव हो पाएगा। अपने स्वार्थ में अन्धे महानुभावों को यह नहीं दिख रहा यदि )षि परम्परा का पुनरूथान समय रहते नहीं हो पाया तो सब कुछ तहस-नहस हो जाएगा। जिस आने वाली पीढ़ी के लिए धन, वैभव, मान-सम्मान इकट्ठा किया जा रहा है वह अपने पूर्वजों की करतूतों पर उनके मुॅंह पर थूकेगी। अतः प्रत्येक प्रतिभावान समर्थ व्यक्ति ‘स्वस्थ भारत’ के निर्माण के लिए अपना योगदान निःस्वार्थ भाव से अवश्य प्रस्तुत करे।
हमारे ज्ञान-विज्ञान से विदेशी लोग बहुत लाभ उठा रहे हैं। उदाहरण के लिए धतुरा एक वनस्पति है जो शिव को प्रिय है। इसका अर्थ यह था कि धतूरे का उपयोग हम शिव अर्थात् कल्याणकारी कार्यों में ही करेंगे। आज होम्योपैथी में धतूरे से बेलाडोना नामक दवा का निर्माण होता है जो बच्चों के संक्रमण वाले रोगों व बड़ों के नर्वस सिस्टम की समस्याओं में बहुत ही उपयोगी सि( होती है। हमारा दुर्भाग्य है कि हम अपने पूर्वजों के अनमोल शोध कार्य के ‘स्वस्थ भारत’ के निर्माण के लिए जन जन तक नहीं पहुॅंचा पाए। जिस कारण स्वस्थ रहना ही आज के युग में एक विकट समस्या बनता चला जा रहा है।
)षियों की इस वेदना को महसूस कर ही इस पुस्तक का लेखन प्रारम्भ किया गया है। आशा है पाठकों के लिए लाभप्रद होगी व हमारे पाठक जन-जन, घर-घर तक पुस्तक पहुॅंचाने में हमारा सहयोग अवश्य करेंगे।
भारतीय समाज की स्थिति बड़ी भयावह हो चुकी है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र चारों वर्ग भ्रष्टाचार की लपेट में आकर अपने धर्म से च्युत हो गए हैं। ऐसे में व्यक्ति कैसे स्वस्थ व सुरक्षित रह सकता है? ब्राह्मण वर्ग जो त्याग व तप का जीवन जीता था, समाज को आदर्शों, सि(ान्तों पर चलने की प्रेरणा देता था, अपने लाभ के लिए समाज को ग्रह नक्षत्रों, शनि, पितृों, ज्योतिष, कर्मकाण्डों में उलझा कर रख दिया है। बड़े-बड़े आश्रमों, मन्दिरों को महत्त्वाकांक्षी लोगों ने हथिया रखा है जो मात्र ऊॅंचे-ऊॅंचे भवनों के निर्माण में जुटे रहते हैं जिससे उनकी प्रसि(ि हो सके। उस धन को यदि जन कल्याण में नियोजित किया गया होता तो समाज का कितना भला होता यह उन्हें कैसे समझ आए। स्वयं जीव भाव में जीने वाला व्यक्ति वेद, शास्त्रों व भगवद्गीता पर लच्छेदार प्रवचन करेगा तो जनता पर क्या प्रभाव पड़ेगा।
जब व्यक्ति जीवभाव में जीता है तो उसे शरीर और उससे जुड़े रिश्ते-नाते, परिवार प्रिय होते हैं। इस कारण जीवभाव में जीने वाला व्यक्ति परिवारवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद को बढ़ावा देता है। जब व्यक्त् िआत्मभाव में जीता है तो वह मात्र धर्म की स्ािापना के अनुसार सोचता है। शरीर व उससे जुड़े रिश्ते नातों को महत्त्व नहीं देता। महाभारत के प्रथम दिन अर्जुन जीव भाव में थे। अपने सामने अपने बन्धुओं, शिक्षकों व रिश्तेदारों को देख उनका मोह सताने लगा व धर्म की रक्षा के अपने कर्तव्य से बचकर भागने लगे। भगवान ड्डष्ण ने उनका जीव भाव नष्ट कर आत्म भाव जाग्रत कर दिया तो वो यु( के लिए तैयार हो गए। आज भगवद्गीता पर बड़े-बड़े सेमिनार, सम्मेलन होते हैं परन्तु कितने विद्वान आत्मभाव में जीते हैं। मात्र बढि़या-बढि़या प्रवचन, विवेचन कर अपना कर्तव्य पूर्ण मान लेते हैं। धर्म के लिए यु( स्तर का प्रयास करने का साहस, अपने प्राणों को दाॅंव पर लगाकर मानवीय मूल्यों की स्थापना, युग निर्माण के लिए अपनी आहुति, अपना आत्मदान करने का संकल्प करने वाले लोग कितने हैं। ऐसे व्यक्ति ही गीता के कर्मयोग पर चलने के लिए समाज को प्रेरित कर सकते हैं। शेर की खाल ओढ़े गीदड़ों की सच्चाई जब सामने आती है तब पता चलता है कि लोग धर्म, शास्त्रों व गीता को अपने स्वार्थों व महत्त्वांकाक्षाओं की पूर्ति का माध्यम बना रखे हैं। ये वही लोग हैं जो साधु वेश में संस्ड्डति रूपी सीता का हरण कर रहे हैं। अपनी ताकत के अभिमान में यह भूल जाते हैं कि रावण व कंस का क्या हाल हुआ था। रावण से अधिक शक्तिशाली तो ये नही हैं। इस बार धरती पर राम, ड्डष्ण, बु( का ही नहीं अपितु महा अवतार होने जा रहा है जो पिछले दो हजार वर्षों की गन्दगी को साफ कर ‘स्वच्छ भारत-स्वस्थ भारत’ ‘सशक्त भारत-विश्वामित्र भारत’ के संकल्प को पूर्ण करेगा। जिनके भीतर यह चेतना काम करती है वो अपने अन्दर एक तड़प, छटपटाहट, कुछ श्रेष्ठ करने की इच्छा महसूस करते हैं, चैन से सो भी नहीं पाते, उच्च व दिव्य भावों से भरे रहते हैं।
क्षत्रिय वर्ग के लोग जो ताकत व दम-खम रखते हैं वो उसका उपयोग भोग विलास अथवा अत्याचार में कर रहे हैं। अन्याय, अनीति, अधर्म को देख कितने लोगों का खून खोलता है। क्या यह वही भूमि है जहाॅं लोग अपने प्राणों पर खेलकर धर्म, इन्सानियत की रक्षा करते थे! वैश्य वर्ग के लोग अपने तुच्छ लाभों के लिए हर जगह मिलावट किए दे रहे हैं। शूद्र वर्ग जो तीनों वर्णों की सेवा करता था, नशेखोरी व गलत आदतों में पड़कर जीवन बर्बाद कर रहा है। कहने का तात्पर्य यह है कि समाज की व्यवस्था ही चैपट हो चुकी है। ऐसी कठिन परिस्थिति में हम एक सुन्दर आदर्श समाज के सामने रख सकें यह समय की मांग है। जिस पर प्रभु की ड्डपा होती है उसकी आत्मा मात्र अपने स्वार्थ के लिए नहीं जी सकते। वह सदा उच्च व दिव्य जीवन की ओर स्वयं को बढ़ाने के लिए मचलता रहता है।
पुस्तक का लेखन कार्य प्रारम्भ करते हुए मेरे मन में इस प्रकार के विचार उमड़ रहे थे कि मेरा अपना परिवार ही अनेक प्रकार के रोगों से जूझता है फिर मुझे किसी को उपदेश देने का क्या अधिकार है? यह जिज्ञासा जब मैंने अपने एक परम मित्र से व्यक्त की तो उन्होंने तपाक से उत्तर दिया कि एक गम्भीर रोगी ही एक अच्छे मार्गदर्शक की भूमिका निभा सकता है क्योंकि वह रोग की जटिलताओं को स्वयं अनुभव करता है। यदि किसी पर कोई समस्या आपबीती हो उससे बढि़या समाधान उस समस्या का कौन बताएगा। इस उत्तर ने मेरा आत्मविश्वास बहुत बढ़ा दिया व मैंने अपने गुरु व इष्ट आराध्य का नाम लेकर पुस्तक का लेखन प्रारम्भ कर दिया। आप सभी सहयोगियों व पाठकों के उज्ज्वल भविष्य व स्वस्थ जीवन की मंगल कामना करते हुए अपनों से अपनी बात को पूर्ण करता हूॅं।
एक बार एक राजा के दरबार में एक बहुत तीक्ष्ण बु(ि का मंत्री था। इस कारण दूसरे मंत्री उससे जलते थे। एक समय ऐसा आया जब राजा के राज में कुछ विपरीत परिस्थितियों का उदय हुआ। सभी ने इसका ठीकरा उस बु(िमान मन्त्री के सिर फोड़ दिया। राजा को भी क्रोध आया व उसको ऊॅंची मीनार की ऊपरी मंजिल पर कैद कर लिया। मन्त्री की पत्नी बहुत दुःखी थी। जब उसको कैद कर ले जाया जा रहा था तो उसने अपनी पत्नी के पास से गुजरते हुए कहा कि उसकी मुक्ति के लिए रेशम की डोर भेजो। पत्नी की कुछ समझ में नहीं आया वह गुरु के पास गयी व रेशम की डोर का रहस्य पूछा। गुरु मुस्कराए और बोले - ‘पुत्री! तू एक भृंगी ;कीड़ाद्ध पकड़कर ला और उसके पैरो में सूत बाॅंध दे, फिर उसकी मूॅंछ के बालों पर शहद की बूॅंद टपकाकर उसे मीनार की चोटी की ओर मुॅंह करके छोड़ देना।’ पत्नी को कुछ समझ में न आया, पर उसने गुरु की आज्ञा का पालन किया। भृंगी शहद की सुगंध का पीछा करते-करते मीनार की सबसे ऊॅंची मंजिल पर जा पहुॅंचा। सूत के वहाॅं पहुचने पर उसके सहारे डोरी और डोरी के सहारे रस्सा वहाॅं पहुॅंचाया गया। रस्से का सहारा लेकर मंत्री वहाॅं से मुक्त हो गया। धीरे - धीरे परिस्थितियाॅं सामान्य हुई व राजा को अपनी भूल पर पश्चाताप हुआ। राजा अपने बु(िमान मन्त्री को पुनः खोजकर उसका पद सम्मान समेत प्रदान किया।
इस पुस्तक में भी इस प्रकार के कुछ सूत्र-संकेत दिए गए हैं, जिनसे व्यक्ति अपने जटिल रोग से भी मुक्त हो सकता है। आवश्यकता ठीक से समझने व मनन करने की है।
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