Saturday, December 20, 2014

व्यंग्य, परिहास एवं असहयोग वृत्ति से बचें

भारतीय समाज में एक बहुत खराब वृत्ति उपज रखी है कि लोग एक-दूसरे का मजाक, परिहास व छींटाकशी में बहुत समय खराब करते हैं। हमारा गायत्री परिवार भी इसकी चपेट में आने से बचा नहीं है। अनेक स्थानों पर कई-कई समूह व मण्डल बने हैं जो एक-दूसरे को नीचा दिखाने के चक्कर में बहुत समय, साधन नष्ट करते हैं। यदि एक बाप के चार बेटे उसके कार्य में मिलजुल कर सहयोग न करें, अपने अहं को ऊॅंचा कर लड़ाई झगड़ा करें तो उस बाप को कितना कष्ट होगा कि क्या इसी दिन के लिए इनको पाल पोस कर बड़ा किया गया था?
गायत्री परिवार महाकाल का लीला सहचर, सहयोगी है उसका उत्तरदायित्व भी इस हिसाब से बहुत अधिक बनता है। उन्हें जनसामान्य से अधिक परिष्ड्डत, विवेकशील, सहनशील व सद्गुणी माना जा रहा है फिर उनमें ऐसी वृत्तियाॅं क्यों पनपने लगती हैं? पुराणों में इस सन्दर्भ में एक सुन्दर कथा आती है। 
एक बार ब्रह्मा जी के चारों मानस पुत्र सनक, सनन्दन, सनतकुमार व सनातन भी हरि दर्शनों की अभिलाषा लेकर वैकुण्ठ लोक पघारे। ये चारों ब्रह्म)षियों के समान उच्च कोटि के ज्ञानी थे परन्तु इन्होंने एक बार भगवान से यह वरदान माॅंगा कि उनकी उम्र सदा पाॅंच वर्ष की बनी रहे जिससे उनमें कोई विकार कभी न पनपें। इस कारण ये चारों बालकों के समान सुकुमार दिखते थे। भगवान विष्णु के द्वारपाल जय एवं विजय ने इन बालकों का परिहास किया कि श्री हरि के दर्शन तो बड़े-बड़े योगी, तपस्वियों, ज्ञानियों को दुर्लभ हैं तुम तो अभी बालक हो। ये चारों कुमार जय-विजय के अभद्र व्यवहार को सहन करते हुए उनसे भगवान के दर्शनों के लिए निवेदन करते रहे। जय-विजय अपने अहं के मद में उनके ब्रह्मतेज को पहचान न सके और उन पर अपने दंड से प्रहार कर दिया और बोले - ”मूर्ख बालकों श्री हरि तुम जैसे बालकों से कभी नहीं मिलेंगे। तुम सब यहाॅं से भागो अन्यथा तुम पर बहुत मार पड़ेगी।“
उनके इस अभद्र व्यवहार से कुपित होकर चारों ब्रह्मकुमारों ने जय-विजय को कहा-”भगवान श्री हरि का सान्निधय भी तुम्हें विवेक व विनम्रता न दे सका। यहाॅं रहकर भी तुम तमोगुण से घिरे हो। इसलिए हमारा शाप है कि तुम तमोगुण प्रधान राक्षस हो जाओ।“
ब्रह्मकुमारों के इस शाप से जय-विजय बहुत भयभीत हो गए व श्रीहरि को पुकारने लगे परन्तु अब पछिताए क्या होत है जब चिडि़या चुग गई खेत। जय और विजय धरती पर जाकर लंका में रावण व कुम्भकरण बने।
”होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ।
हॅंसेहु हमहि से लेहु फल बहुरि हॅंसेहु मुनि कोउû“
अर्थात्- तुम दोनों कपटी-पापी राक्षस होकर हमारी हॅंसी उड़ाने का फल प्राप्त करो।
निवेदन यही किया जा रहा है कि गायत्री परिवार के रूप् में हमें जो स्थान, पद, प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है उससे हम किसी दूसरे का मजाक न बनाएॅं, दूसरों को नीचा दिखाने का प्रयास न करें अन्यथा हम पर गुरुद्रोह का पाप लगेगा जिसके कुफल से हमारी रक्षा कोई भी नहीं कर पाएगा।
बालरूप में गुरुदेव के बच्चे सीनियर कार्यकत्ताओं से प्यार व सहयोग की आशा करते हैं व सीनियर लोग उनकी प्रतिभाओं को न पहचानकर उनकी उपेक्षा करते हैं तो उन्हें बड़ा कष्ट होता है। ऐसी व्यथा हमसे अनेक नए युवा कार्यकत्ताओं ने कही है जिसे सुनकर बहुत ही दुःख होता है।
कितनी संकीर्ण मानसिकता से लोग बात करते हैं कि बाहर के व्यक्त् िकी लिखी किताबें हम नहीं पढ़ेंगे, हम उसमें सहयोग नहीं करेंगे ये हमारे मिशन की नहीं हैं। यह कोई ठीक आधार नहीं है। आप पुस्तक को 100 विद्वान लोगों को पढ़ने को दीजिए व उनसे मिमकइंबा लें। यदि उनमें से 75ø लोग भी प्रशंसा करें तो लेखक को कितने अच्छे अंक मिले यह सोंचे। यदि कुछ अच्छा लिखा गया है, छपा है तो किसका है, किसने लिखाया है - गुरुसत्ता ने, देवसत्ताओं ने। क्योंकि व्यक्ति में इतनी सामथ्र्य नहीं कि कुछ उच्च कोटि का लिख सके। फिर क्यों अपने दिल इतने छोटे कर लेते हैं भाई, हमारी समझ में यह नहीं आ पाता। हृदय छोटा करने वालों का अनाहत चक्र खराब ;क्पेजनतइद्ध हो जाता है व उनको हृदय रोग व सर्वाइकल जैसे रोगों की सम्भावना बढ़ जाती है अतः यह उनके स्वास्थ्य के लिए भी अच्छा नहीं है। इसके विपरीत प्रभु से कामना करें हमारे मिशन में, हमारे भारत में हजारों श्रेष्ठ लेखक, हजारों श्रेष्ठ वक्ता, हजारों तपस्वी उत्पन्न हों जिससे युग निर्माण का कार्य बहुत तेजी से आगे बढ़ सके।
हमें व्यक्तिवाद, परिवारवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद, मिशनवाद की दीवारें तोड़नी है तभी तो हम एकता, समता, शुचिता का साम्राज्य ला पाएॅंगे। तोते की तरह बोलते अर्थात् उपदेश तो बढि़या-बढि़या करते हैं परन्तु दिलों में बहुत ऊॅंच-नीच भेदभाव पाल रखे हैं तो कैसे हमारा उ(ार हो पाएगा? समाज पर जितना प्रभाव हमारे उपदेशों का पड़ता है उससे अधिक हमारी मानसिकता व हमारे वलय ;।नतंद्ध का पड़ता है यह बहुत बड़ा वैज्ञानिक सत्य है। यदि हम अपनी मानसिकता को ठीक नहीं कर पाएॅंगे तो व्यर्थ में उपदेशों का कोई लाभ नहीं होगा। युग निर्माण को सार्थक व प्रभावी दिशा देने के लिए हमें कठोर आत्मचिन्तन की आवश्यकता है। जो लोग इस मिशन के वास्तव में हितैषी हैं उन्हें एक मंच पर लाकर अग्रिम पंक्ति में खड़ा करने की आवश्यकता है जिससे यह तो पता चले कि असली घी कौन सा है। यदि नकली अधिक मिल जाएगा तो हमें नुक्सान करने लगेगा। हमारे कार्यक्रम, हमारी योजनाएॅं कागजों में तो चलेगी परन्तु यथार्थ में फ्लाॅप शो बनकर रह जाएॅंगी।
अपने ही अपनों की टाॅंग खींचने की केकड़ा प्रवृत्ति ने इस देश का कितना विनाश किया यह इतिहास गवाह है। यदि यह प्रवृत्ति भारत में न रही होती तो मुस्लिम व अंग्रेजों का दमन चक्र हमें न सहना पड़ता। परन्तु आज भी यह प्रवृत्ति हमारे खून में फेली हुई है। युग निर्माण के कार्य में जो विलम्ब हो रहा है उसके लिए उत्तरदायी अनेक कारणों में से एक कारण इस प्रवृत्ति का हमारे गायत्री परिवार में पाया जाना है। बाहर के लेखकों द्वारा लिखी हुई अच्छी पुस्तकों का हम प्रचार-प्रसार कर सकते हैं परन्तु अपने मिशन के अच्छे लेखकों को मान्यता नहीं दे सकते या फिर सच्चाई से डरते हैं जो पीठ पीछे बुराइयाॅं करते फिरते हैं।
जब प्रोफेशनल काॅलेजों में हमारे युवा लोग हमारी संस्ड्डति व देवी-देवताओं का मजाक बनाते हैं तो मुझे बड़ा दुःख हुआ करता है। इतना ही दुःख मुझे तब भी होता है जब हमारे कुछ परिजन इन पुस्तकों को दुखकर नाक-मुॅंह सिकोड़ने लगते हैं। अच्छा होगा कि हम सभी अपनी घटिया मानसिकता का त्याग कर युग निर्माण के कार्य में क्यों विलम्ब हो रहा है इस पर व्यापक विचार विमर्श करें। यदि हमारी सेना में ही आन्तरिक कलह उत्पन्न होता रहेगा तो हम कैसे आसुरी प्रवृत्तियों के विरू( एकजुट हो पाएॅंगे।
पूज्य गुरुदेव का संकल्प-स्वप्न था कि गायत्री परिवार समाज में एक आदर्श बनकर उभरे, एक दीपक की तरह समाज को रोशन करें। अर्थात् इसके परिजन अधिक स्वस्थ हों, अधिक विवेकशील हों, एक-दूसरे के सहयोगी हों, अधिक उदार हों जिससे समाज प्रेरणा ले सके। गिनती बढ़ाने का राजनैतिक लाभ या अहंपरक लाभ तो मिल सकता है कि हम पाॅंच करोड़ हैं। परन्तु समाज के लिए यदि प्रेरणा बनना है तो 24 लाख ही बहुत हैं। पाॅंच करोड़ हैं परन्तु बिखरे पड़े हैं, दुःखी हैं, लड़ झगड़ रहे हैं यह अच्छा है अथवा 24 लाख हैं संगठित हैं, स्वस्थ हैं, समृ( हैं, सुखी हैं, सि(ान्तों से समझौता नहीं करते, खर्चीली शादियों नहीं करते यह अच्छा है। मुझे लगता है कि व्यापक आत्म मन्थन करके हम अपने को समर्थ बनाना है न कि अधिक लोगों को गायत्री परिवार में घुसेड़ने का प्रयास करना है। ये पक्तियाॅं लिखते हुए मुझे अपने पुराने दिनों की याद ताजा हो जाती है जब मैं लोगों के पीछे तब तक पड़ा रहता था जब तक वह मेरे साथ शान्तिकुॅंज न हो आए। परन्तु आज मेरा मन बदल चुका है व्यक्ति आराम से जुड़े, सोच-समझ कर जुड़े व )षि परम्परा को जीवन में धारण करने के उद्देश्य से जुड़े। हाॅं जी साल में एक दो बार कार्यक्रम-हवन में आ गए, मासिक सौ-दो सौ रूपया चन्दा दे दिया हो गए गायत्री परिवार के सदस्य। जब लड़के का विवाह हुआ तो दहेज, बहुत खर्चीली शादी की, लक्सरी जीवन जी रहे हैं। रात दिन पैसा कमाने की मशीन बने हुए हैं ऐसे व्यक्ति जुड़ते रहें व गायत्री परिवार की संख्या बढ़ती रहे तो कोई ज्यादा लाभ नहीं। )षियों का अनुशासन मानने के लिए कौन तैयार है उच्चस्तरीय जीवन कौन जीना चाहता है मुख्य बिन्दु यह है। इस प्रकार का वर्गीकरण करना आवश्यक है तभी हम युग-सैनिकों की सही गिनती कर पाएॅंगे, अन्यथा गुड़ गोबर मिला रहेगा व काखाॅं गोल-गोल घूमता रहेगा, एवं युग निर्माण का समय सन् 2000, फिर सन् 2011 फिर 2024 आगे खिसकता रहेगा। समाज को दिशा-निर्देश देने का जो कार्य हमें सौंपा गया है वह हमारे आचरण से पूर्ण होना है न कि हमारे प्रचार अभियान से अथवा लच्छेदार भाषणों से। अतः भविष्य की रूपरेखा हम बहुत सोच समझकर एवं व्यापक विचार विमर्श के आधार पर ही तैयार करें। इसीमें हम सबका हित है।

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