Sunday, August 28, 2016

सिद्ध महात्मा श्री कृष्णाश्रमजी

सुंदर प्रशांत भागीरथी छलछल करती हुई बह रही है । इसके आसपास एकांत अरण्य व आसमान से बातें करनेवाले हिमाच्छादित पर्वत है । उस असाधारण आहलादक दृश्य को देख ऐसा लगता है कि यहीं रह जाये और थोडा समय तपश्चर्या करके आत्मानुभव से जीवन को कृतार्थ करें । उत्तराखंड में गंगोत्री का सुंदर प्रदेश प्रथम दर्शन में ही मन को मुग्ध कर देता है और उसे आध्यात्मिक भावनाओं से भर देता है । इसीसे हर साल हजारों यात्री उनका पुण्यप्रवास करते हैं और जब वापस लौटते हैं तो उस पुनित पुराणप्रसिद्ध प्रदेश की स्मृति को भी साथ लेकर चलते है ।

हिमालय के उस गंगोत्री धाम में भगवती भागीरथी के सामने के किनारे पर एक छोटी-सी कुटिर में एक महापुरुष विराजमान है । हिमालय की उस ऋषिमुनि-सेवित भूमि में बसनेवाले महाप्रतापी महात्माओं में से एक को देखना हो तो आइए उनका दर्शन करें ।

गंगोत्री की ठंडी में भी वे दिगंबर दशा में शरीर को स्थिर और सीधा रखकर पद्मासन में बैठे हैं । उनकी तन की त्वचा श्याम होते हुए भी आभायुक्त है । आँखे शांत, तेजस्वी एवं विशाल है और मस्तक पर जटा सुशोभित है । वे पराल पर बैंठे है । दर्शनार्थी आते हैं और जाते हैं फिर भी वे अडिग रहते है । घंटो तक पद्मासन में बैठे रहते हैं । बरसों से मौनव्रत रखते हैं, किसीसे बातचीत नहीं करते फिर भी यदि कोई जिज्ञासु जन प्रश्न पूछते हैं तो जमीन पर उँगली से लिखकर उत्तर देते हैं । वे जवाब बडे ही महत्वपूर्ण और संक्षिप्त होते हैं ।

एक जिज्ञासुने एक बार हिंमत करके उनसे प्रश्न पूछा, ‘महाराज, जीवन का ध्येय क्या है उन्होंने उँगली से जमीन पर लिखकर फौरन उत्तर दिया, ‘अपने को पहचानना ।’

इससे जिज्ञासु के मन का समाधान हो गया । स्वरूप का साक्षात्कार, सच्चिदानंद रूप परमात्मा का दर्शन अथवा आत्मानुभव ही जीवन का ध्येय है इसकी प्रतीति हो गई ।

कभी महापुरुष की इच्छा हो या उन्हें प्रेरणा हो तो वे बिना पूछे भी उत्तर देते हैं । वैसे ही एक घटना की बात कहूँ । उत्तरप्रदेश के धनिक, सुविख्यात पुरुष एक बार गंगोत्री की यात्रा पर गये । उनके साथे एक औरत थी जो उनकी पत्नी न थी । उन्होंने उनकी मुलाकात ली ।

उनकी पत्नी का देहांत हो गया था और इसके बाद एक बेघर, बेसहारा और साधारण ज्ञातिवाली स्त्री को परिवारजनों का तीव्र विरोध होने पर भी अपनी पत्नी के रूप में घर में रखा था । उसके साथ विधिपूर्वक शादी नहीं की थी । गंगोत्री में उसको लेकर वे उन प्रातःस्मरणीय महात्मा का दर्शन करने गये तब उन्होंने अपने जीवन की वह वैयक्तिक बात गुप्त रखी फिर भी यह बात ताडकर महात्मा ने लिखकर कहा, ‘इस स्त्री को घर में रखी है सो अच्छा किया । एक दुर्दशाग्रस्त नारी का उध्धार हुआ । परंतु उसे छोडना नहीं और दुःखी भी नहीं करना । उसका बराबर ध्यान रखना ।’

यह पढकर धनिक के आश्चर्य का कोई ठिकाना न रहा । उस महापुरुष को मेरी इस गुप्त बात का पता कैसे चला ? इतना अवश्य समज में आया कि महात्मा की शक्ति असाधारण है तभी मेरे जीवन को जान सके हैं । यद्यपि उन्हें संतो में श्रद्धा न थी फिर भी उन महापुरुष के प्रति उनके मन में आदर पैदा हुआ । वे उनके भक्त बन गये । स्मृति को सदा बनाये रखने के लिए उन्होंने कैमेरा से तसवीरें ली । उनका अधिक समय लाभ मिल सके इस हेतु से गंगोत्री में ज्यादा समय रूके ।

गंगोत्री के उस पुण्यप्रदेश में हिमाच्छादित शैलमाला से घिरे हुए एकांत शांत आश्रम में बरसों से रहते और अपने दर्शनमात्र से प्रेरणा प्रदान करनेवाले वे महापुरुष कौन है, जानते हैं आप ? वे हैं महात्मा कृष्णाश्रमजी ।

उनके पास बैठने मात्र से या उनके दर्शन मात्र से हृदय में एक प्रकार की गहरी शांति, सात्विकता व प्रसन्नता की अनुभूति होती है । ऐसा लगता है मानों हम वाल्मीकि, वसिष्ठ या विश्वामित्र आदि महात्मा पुरुष के पास आ पहुँचे हों । वे सनातन चिरस्थायी शांति में स्नान करते हुए बैठे हैं । उन्हें किसी प्रकार का प्रवचन या भाषण करने की जरूरत नहीं होती । उनका जीवन ही शास्त्र या प्रवचन समान होता है । उनकी उपस्थिति ही विश्व के लिए आशीर्वादरूप होती है । वे अपने आदर्श ज्योतिर्मय जीवन के द्वारा ही अनेकों के जीवन में क्रांति पैदा करते हैं, प्रेरणा देते हैं या प्रकाश प्रदान करते हैं ।

कृष्णाश्रमजी की उम्र 100 वर्ष से ऊपर है फिर भी उनका शरीर स्वस्थ एवं सुदृढ है । वे अपना दैनिक जीवन नियमित रूप से बीताते हैं और आत्मिक विकास की उच्च अवस्था प्राप्त करने पर भी वे स्वावलंबी है और अपने निजी कार्य खुद करते हैं ।

गत अक्तूबर महीने में एक सज्जन उनके दर्शन को गये थे । एक दिन प्रातःकाल में जब वे उनके पास गये तो उन्होंने अजीब दृश्य देखा । कृष्णाश्रमजी दिगंबरावस्था में भागीरथी में स्नान करके हाथ में पानी से भरी दो बालटियाँ लेकर अपनी कुटिर की ओर आ रहे थे । कितना सुंदर व करुण दृश्य ! यह देख वह उनके पास दौडे और बालटी लेने का प्रयत्न करने लगे परंतु विफलता मिली ।

कृष्णाश्रमजी बालटी लेकर शांति से आश्रम में आये और पद्मासन लगाकर बैठ गये । फिर जमीन पर लिखकर कहा, ‘अपना काम जहाँ तक हो सके अपने हाथ से करना अच्छा । उसमें आनंद, आज़ादी और सुख है ।’

गंगोत्री में ही रहनेवाले उन्हीं के शिष्य स्वामी सुंदरानंदजी का कहना है कि कृष्णाश्रम का यह नित्य क्रम है । वे हररोज भागीरथी-गंगा से अपने हाथ से ही पानी भर लाते है ।

सुंदरानंदजी स्वामीजी के जीवन की एक दूसरी कथा भी कहते है । एक बार कुटिर के पीछेवाला पहाड गिर गया जिससे कुटिर को नुकसान हुआ और कृष्णाश्रमजी भी बडे घायल हुए । उनके सिर में व मुख में काँटे और लकडियाँ घुस गई । जख्मों से खून बहने लगा और वे बेहोश-से हो गये । यह देख सुंदरानंदजी का कलेजा फटने लगा । कृष्णाश्रमजी ने शिर, मुख व शरीर से काँटे और लकडियाँ निकालने को कहा और डोक्टर को बुलाने से साफ इन्कार कर दिया । सुंदरानंदने रोते दिल से उस सुचना के अनुसार कार्य किया । यह कार्य बहुत ही व्यथाजनक और पीडाकारी था फिर भी वे एकदम शांत रहे । उन्होंने उफ तक न की क्योंकि वे देहभाव से परे रह सकते थे । आँखे मुंदकर वे देहभाव से अतीत हो समाधिदशा में लीन हो गये । यह घटना याद कर सुंदरानंदजी आज भी गदगदित हो जाते हैं ।

आखिरी पचास सालों में हिमालय की भूमि में तीन सुविख्यात महापुरुष हो गये । एक तो ऋषिकेश के सुप्रसिद्ध संत स्वामी शिवानंद, दूसरे उत्तरकाशी के स्वामी तपोवनजी और तीसरे गंगोत्री के महात्मा कृष्णाश्रमजी ।

तीनों दक्षिण भारत में जन्मे और आत्मोन्नति के लिए हिमालय आ बसे थे । इनमें कृष्णाश्रमजी अत्यंत विलक्षण थे । गंगोत्री के शीतल प्रदेश में उनका मन लग गया और वे वहाँ रहकर योगसाधना करने लगे । पहले वे दंडी संन्यासी थे किंतु बाद में दंड और वस्त्रों का त्याग कर दिगंबर के रूप में रहने लगे ।

शीतल पवन की लहरें जहाँ चमडी को चीर देती है और साधारण जन का रहना जहाँ मुश्किल हो जाता है ऐसे तपःपूत प्रदेश में बाह्य शरीर का ध्यान न रख आंतरिक शरीर और मन की स्थिति को सुधारने के लिए मौन धारण करके साधना में जुट गये । नर करणी करे सो नारायण होइ – उस उक्ति के अनुसार नर से नारायण बनने के लिए उत्सुक हो गये । दृढ संकल्प, उत्साह, त्याग तथा निरंतर परिश्रम के बल पर कुछ ही समय में उनको उत्तम अवस्था की प्राप्ति हो गई और उन्हें शांति मिली ।

बरसों पहले पंडीत मदनमोहन मालवीयाजी उन्हें अत्याग्रह से बनारस हिंदु विश्वविद्यालय में ले आये थे । इससे बाह्य जगत उनसे परिचित हुआ ।

मोदीनगर वाले गुजरलाल मोदी उन्हें प्रायः चार साल पहले मंदिर का उदघाटन करने मोदीनगर में ले आये थे । कृष्णाश्रमजी ने कहा था, ‘मोही यहाँ आके अनशन करने को तैयार हुआ था, इसलिए मैंने उनके साथ जाने की बात मान ली ।’

शितकाल में वे उत्तरकाशी या गंगोत्री के निकट धराली के पास आकर निवास करते हैं । कृष्णाश्रमजी बरसों तक गंगोत्री में अकेले ही रहे परंतु एक दिन उनके पास एक औरत आ पहूँची । उसके रूप में उनके पास उनका शेष प्रारब्ध आया अथवा ईश्वरेच्छा आई ऐसा कहना अनुचित न होगा । वह औरत गंगोत्री के निकट बसे गाँव की परिणिता स्त्री थी । गृहक्लेश से तंग आकर गंगा में आत्महत्या करने निकली थी पर किस्मत उसे गंगोत्री खींच लाई । उसने कृष्णाश्रमजी से आश्रय देने की प्रार्थना की । महात्मा पुरुष ने करुणा से प्रेरित हो उसे पास रहने की अनुमति दी और निकट ही एक अलग कुटिर बनवा दी । तब से वह औरत उनकी सेवा में रहती है । उनका नाम उन्होंने भगवत-स्वरूप रखा है । भगवत-स्वरूप बडी विवेकी एवं सेवाभावी है और संस्कृत का अच्छा ज्ञान रखती है । दर्शनार्थियों के स्वागत का काम उसका है । गेरुए वस्त्रधारी भगवत-स्वरूप का आत्मिक विकास हुआ है ।


कृष्णाश्रमजी इतने महान होने पर भी उनका कोई पंथ या संप्रदाय नहीं है तथा उनके साथ सिद्धों का छोटा-बडा मंडल नहीं है । भारत की प्राचीन परंपरा के प्रतिनिधि समान वे समर्थ संत शिशु सी पवित्रता व सरलता से जी रहे हैं । प्राचीन परंपरा के या पुरानी पीढी के महान संत एक-के-बाद-एक बिदा हो रहे हैं । देहाध्यास से परे आत्मा की अनोखी दुनिया में साँस लेनेवाले कृष्णाश्रमजी हमारे बीच हैं तब तक उनके दर्शना का दुर्लभ लाभ लेना हमारे लिए आशीर्वादरूप होगा । कृष्णाश्रमजी भारत की विरल असाधारण संतविभूतिओं में से एक है । हिमालय में महान संतो की मिलनेच्छावालों को उनका दर्शन अवश्य करना चाहिए ।

- श्री योगेश्वर जी
http://www.swargarohan.org/sant-samagam-hindi/18
से साभार 

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