Thursday, December 8, 2016

युग नायक क्षमताओं का दोहन न करें


         युग सैनिक देवात्मा हिमालय के युग निर्मण के महायज्ञ में अपनी भागीदारी निभाते हुए युग नायकों की श्रेणी में आ रहे हैं। देवात्मा हिमालय की चैबीस हजार नायको की माँग की पूर्ति हेतु यह दिव्य अभियान चल रहा है। इस अभियान की सफलता हेतु प्रज्ञा परिजनों को अनेक सावधानियाँ रखनी है। जिसमे एक विशेष सावधानी यह है कि युग सैनिक अपनी क्षमताओं व सम्पदाओं का दोहन न करें। महाकाल प्रज्ञा पुत्रों को तीन सम्पदाएँ प्रदान कर रहा है- ओजस (अच्छा स्वास्थय), तेजस (प्रचण्ड मनोबल) एवं वर्चस (आध्यात्मिक विभूतियाँ)
यह विनम्र निवेदन है कि परिजन अपनी शारीरिक क्षमताओं का देाहन न करें। शरीर की अपनी सीमाएँ हैं। प्रत्येक युग निर्माणी को अपने शारीरिक क्षमताओं का उचित आंकलन करना चाहिए व उसी अनुसार अपने दायित्वों का वहन करना चाहिए। आवश्यकता से अधिक बोझ लम्बे समय तक उठाना शारीरिक सम्पदा का दोहन माना जाएगा जो उम्र बढ़ने के साथ-साथ समस्याएँ भी लेकर आएगा।
टापकी ईष्र्या, द्वेष, पद-प्रतिष्ठा की महत्त्वाकांक्षा से व्यक्ति की मानसिक क्षमताओं का दोेहन हो जाता है। कई बार अनेक प्रकार के भयों की चपेट में व्यक्ति फंस जाता है। प्रज्ञा परिजन इस प्रकार तालमेल बैठाएँ जिससे उनका तेजस बढ़ता रहे। 
टनेक परिजनों को महाकाल ने आध्यात्मिक विभूतियाँ प्रदान की। जिससे व्यक्ति में लोगों को आध्यात्मिक मार्गदर्शन देने की इच्छा उत्पन्न हुई। दूसरो को ऊपर खींचने के चक्कर में व्यक्ति अपनी आध्यात्मिक क्षमताओं का दोहन कर बैठा। यह ध्यान रखें कि डूबते हुए को बचाने के लिए रस्सी डाली जाए अपनी भुजा न पकडायी जाए। रस्सी यदि हम न खींच पाए तो छोड़कर अपना बचाव किया जा सकता है। परन्तु भुजा यदि पकड़ में आ गई तो वह हमें भी अपने साथ डुबाकर ले जा सकता है।
विशेष रूप से ध्यान रखने वाली बात यह है कि यदि किसी की किसी प्रकार के कष्ट निवारण में सहायता भी करनी है तो स्वयं कर हैं यह भाव न लाएँ। वरण गुरु सत्ता को बीच में अवश्य लाएँ। उनसे प्रार्थना करें। इससे वह भार व्यक्ति के ऊपर सीधा नहीं आएगा अपितु महाकाल की समर्थ सत्ता के अनुसार ही कार्य होगा व भार भी वही ग्रहण करेंगे। साधक में थोड़ा सा अहं बचा होता है तो वह स्वयं को बीच में ले आता है पता तब चलता है जब उसकी कमर उस भार से टूट जाती है।
यदि हमारी शारीरिक, मानसिक अथवा आध्यात्मिक क्षमताओं में कमी आती है तो हम नायक पद से वंचित हो जाएँगें। यह ठीक ऐसा है जैसे खिलाड़ी अपनी सामथ्र्य का ध्यान में रखते हुए मैदान में खेल का अभ्यास करते हैं। मान लीजिए मैं बैडमिन्टन का खिलाड़ी हूँ। पाँच मैच की मेंरी सामथ्र्य है उतना खेलकर मुझमें ताजगी व शक्ति प्रतीत होती है परन्तु जोश में आकर 10 मैच खेल जाता हूँ जिससे बड़ी थकान व टूटन प्रतीत होती है। यह मेरे लिए हानिकारक सिध्द हो सकता है। माॅस पेशियों के बजाय मजबूत होने के उनमे विकृतियाँ आ सकती है। मैंने ऐसे कई खिलाड़ी देखे है जो पहले बहुत बैडमिन्टन खेलते थे परन्तु उनकी माॅस-पेशियाँ खिचाव में आ कई व डाक्टर्स की राय से उनको खेलना छोड़ना पड़ा।
क्षमताओं के लगातार दोहन से बैटरी डिसचार्ज हो जाती है जो किसी काम की नहीं रहती। बिगड़ी हुई चीज को संवारने में, घायल हुए सैनिक के इलाज में बहुत समय, साधन खर्च होते हैं।
जब कोई प्रज्ञा परिजन भावनावश इस प्रकार की कोई मूर्खता कर बैठता है तो देवसत्ताओं को उसको सही करने में बहुत ताकत लगानी पड़ती है। अतः यह निवेदन है कि भावावेश में आकर अपनी क्षमताओं का दोहन न किया जाय।
यह बात भी सत्य है कि भगवान महाकाल सर्व समर्थ है व हमारा कुछ भी नुकसान नहीं होने दिया जाएगा। परन्तु भगवान भी प्रकृति के नियमों का उल्लंघन नहीं करता है वह भी नियमों के अन्तर्गत मर्यादा से बंधा हैं अतः तेज दौड़ने के कारण यदि कहीं गिर जाए तो भगवान सम्भालने अवश्य आएगा परन्तु चोट लग ही चुकी होगी।
महाकाल की सत्ता ने हमें एक आदर्श जीवन जीकर दिखाया अन्तिम समय तक वो शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक शक्तियों से भरे पूरे रहे। शरीर से इतने बलिष्ठ थे कि लगभग 65-70 वर्ष की अवस्था में जग एक सांड नियंत्रण से बाहर होकर आश्रम को नुकसान पहुँचाने लगा तो उसको भी काबू कर बाहर निकाल फेंका।
चाकूओं के अनेक घाव सहकर भी उनके मनोबल में कोई कमी नहीं आयी। कहने का बड़ा सीधा अर्थ है कि हमें शरीर, घर परिवार, आर्थिक स्थिति व युग निर्माण की गतिविधियाँ सभी में उचित तालमेल बैठाकर इस प्रकार चलना है कि हमारा कोई भी पक्ष कमजोर न रहे। समाज के सम्मुख एक आदर्श उदाहरण बनने का प्रयास करना है तभी आचार्य के रूप में समाज हमें स्वीकार कर पाएगा व हमसे सच्चे हृदय से जुड़ेगा व प्रेरणा पाएगा। पुस्तकें बेचने, प्रवचन करने, मेले ठेले लगाने व कथा कहानियाँ बांचने से काम नहीं चलने वाला क्योंकि यह सब कार्य तो अनेक संस्थाए अब अच्छे रूप में कर ही रही हैं। हममे यदि कुछ विशेषता है तो हम उनसे एक कदम आगे बढ़कर दिखाएँ।
आज का प्रबुध्द वर्ग केवल कोरी बातों पर विश्वास नहीं करता। हर कोई यही कह रहा है कि उनका गुरु सबसे बड़ा है व उनका मिशन सबसे बढ़िया है व उनका साधन पथ सर्वोत्तम है। यदि हमारा सर्वोपरि है तो सिध्द करके दिखाएँ, प्रमाणित करें अन्यथा कार्य के बाद विवाद में न उलझें। यह तभी सम्भव होगा जब हमारी शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक क्षमताएँ उच्च हांेगी व जनता भी उसको स्वीकार करेगी। अभी हम मात्र पुस्तकों की बात करते हैं, गुरु की बात करते हैं वह आवश्यक भी है परन्तु इसके साथ-साथ स्वयं का आदर्श प्रस्तुत करना भी परम आवश्यक है।                                                                                                         (विश्वामित्र राजेश)

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