धन्यवाद अनुरोध के लिए। एक गांव में गरीब पति पत्नी थे। बीमारी और गरीबी के कारण पति का स्वर्गवास हो गया। पत्नी ने आगे के जीवन यापन के लिए गांव के लोगो से काम पर रखने की ( नौकरी) सहायता मांगी। परन्तु अशुभ स्त्री मान किसी ने भी उसे सहायता नहीं दी। बहुत दिनों से भूखी बिचारी एक द्वार पर भोजन की याचना के लिए गई। सुबह सुबह एक विधवा स्त्री को द्वार पर खड़ा देख उस घर की मालकिन ने गुस्से में आंगन में पड़ा कचड़ा उसके आंचल में डाल दिया।
चित्र गूगल से लिया है।
वो दुखियारी विधवा बिना कुछ बोले उस कचड़े को आंचल में भरकर चली गई। चलते चलते वो गांव से दूर निकल आईं, रास्ते में कुछ साधु दिखे। उन साधुओं ने उससे कहा, "जब कोई राह न बची हो तो ईश्वर की राह पर चलो"। साधुओं ने उसे भी अपनी टोली में शामिल कर लिया। उनके साथ वो जंगल में जाकर ईश्वर भक्ति में लीन हो गई। अपनी कुटिया के बगल मे उसने उस तिरस्कार रूपी कचड़े को रख दिया।
साधुओं की सेवा और उनके लिए भोजन बनाने के साथ वो उनसे ईश्वर का ज्ञान और भजन सुना और गाया करती। उसकी ईश्वर के प्रति निष्ठा, निस्वार्थ भक्ति और भजन ने उसे एक पवित्र, और ज्ञानी साध्वी बना दिया तथा उसके चर्चे अब आस पास के गांव में भी होने लगे।
संयोगवश उसके गांव के लोग भी उसके दर्शन के लिए उसकी कुटिया में आए। साध्वी से अपनी समस्याओं का ईश्वरीय हल पाकर गांव वाले उसकी जयजयकार करते नहीं थकते।
जिज्ञासावश एक भक्त ने उस साध्वी से पूछा, " माता, यूं तो आपके आश्रम के आस पास स्वच्छता और निर्मलता मनमोहक है, परन्तु आपकी कुटिया के बाजू में कचड़े का ढेर क्यों लगा है,ये समझ से परे है"।
साध्वी ने कहा, " ये मेरे जीवन की पहली भिक्षा है, जिस गांव में मैं रहती थी, वहां एक सुबह एक महिला ने मेरे आंचल में इस कचड़े को भिक्षा स्वरूप भेट किया था। ईश्वर की इच्छा मान मैंने इसे रख लिया और कुटिया के बाजू मे डाल दिया"।
जिस महिला ने ये किया था, उसे अब सबकुछ याद आ गया, उसने साध्वी को भी पहचान लिया, उनके पास हाथ जोड़कर क्षमा मांगी, और आश्चर्य से पूछा, " क्षमा चाहती हूं माता, परन्तु मैंने तो थोड़ा सा ही कचड़ा दिया था, लेकिन यहां तो कचड़े का ढेर है"।
साध्वी बोली, " इंसान के द्वारा किए गए सारे कर्म समयानुसार प्रफ्फुलित होते है, और फिर वापस उसी के पास लौटकर आते है। तुम्हारा कर्म बढ़कर कचड़े का बड़ा ढेर बन गया है, ये तुम्हे ही एक दिन वापस मिलेगा। हम जो भी सोचते है या करते है वो अज्ञात रूप से प्रकृति और ब्रम्हांड में ऊर्जा के रूप में विद्यमान होता है, और समय समय पर उसी रूप में हमे वापस मिलता है। कर्म अच्छे हो या बुरे दोनो के फल मिलते है। आप आकाश में जितनी रफ्तार से कंकड़ उछालोगे, उससे ज्यादा रफ्तार से वो वापस आपके पास वापस आएगा।"
महिला साध्वी की बातें सुन उसके चरणों में गिर पड़ी और इन सबसे मुक्ति की प्रार्थना करने लगी।
साध्वी ने कहा, तुम राजा पृथु की तरह ऐसा कुछ करो जो धर्म के दृष्टिकोण से तो उचित हो,लेकिन लोगों की दृष्टि में अनुचित।
महिला को उसके बुरे कर्मो से मुक्ति का मार्ग मिल गया था। उसे सूचना मिली की गांव के बाहर जो मंदिर है वहां के पुजारी जी बीमार है। महिला रोज शाम पूर्ण श्रृंगार कर लाल जोड़े में गांव के बीच से होती हुई मंदिर की ओर जाती। और पुजारी जी के घर (जो की मंदिर पीछे ही था, ) जाकर एक पुत्री की भांति उनकी सेवा करती। रोजाना उसका श्रृंगार और जाना लोगो को दिखता, लेकिन किसी ने ये पता लगाने की कोशिश नहीं की कि वो कहां जाती है। लोग उसके बारे में तरह तरह की निंदनीय बाते करने लगे " देखो तो ज़रा इसे घर में पति होते हुए भी रोजाना शाम को श्रृंगार पटार कर ना जाने किससे मिलने जाती है"। "अरे मिलने नहीं मुंह काला करने जाती है"। " कितना भला पति है इसका, इसे तनिक भी चिंता नहीं है लोक लाज की"। इस तरह से पूरे गांव ने उसकी निन्दा शुरू कर दी। उसके पति ने भी बात सुनी और क्रोधवश सच पूछा। फिर महिला ने पुजारी के पास जाकर सच से अवगत कराया।
महिला साध्वी की कुटिया गई तो देखा की वहां कचड़े का ढेर नहीं है, सिर्फ थोड़ा सा कचड़ा पड़ा है।
साध्वी बोली, " लोगो ने जितनी बार तुम्हारी अनुचित निन्दा की उतनी बार तुम्हारे बुरे कर्म उन्हें बराबर बराबर प्राप्त हुए। साथ ही तुमने निस्वार्थ भाव से पुजारी की सेवा की, परिणामस्वरूप तुम्हारे हिस्से का कचड़ा साफ हो गया। मगर जो मूल कर्म तुमने किया है उसका कचड़ा तो तुम्हे वापस मिलेगा ही। ये तुम्हारा कर्म है। जितना तुमने मेरे भिक्षा पात्र मे मेरे खाने के लिए दिए थे उतना तो तुम्हें खाना ही पड़ेगा।
"कोई कितना भी उपाय, दान, पुण्य करले उसका कर्म दोष कट तो जाएगा पर उसका मूल नष्ट नहीं होगा, उतना तो भरना ही पड़ेगा, जब हम किसी की बेवजह निंदा करते हैं, तो हमें उसके पाप का बोझ भी उठाना पड़ता है। तथा हमें अपने किये गये कर्मों का फल तो भुगतना ही पड़ता है। अब चाहे हँसकर भुगतें या रोकर। हम जैसा देंगे, वैसा ही लौटकर वापिस आयेगा।
With Thanks by Reena Singh