ज्योतिषशास्त्र
के अनुसार, यह समय कलियुग के अंत तथा सतयुग के आरम्भ का है, इसलिए भी इस समय को युगसंधि की वेला कहा जा रहा
है। यद्यपि कुछ रूढि़वादी पंडितों का कथन है कि युग 8 लाख 32 हजार वर्ष का होता
है। उनके अनुसार अभी एक चरण अर्थात् एक लाख आठ हजार वर्ष हो हुए है। इस हिसाब से
तो अभी नया युग आने में 3 लाख 28 हजार वर्ष की देरी है। वस्तुतः यह प्रतिपादन
भ्रामक है। शास्त्रों में कहीं भी ऐसा उल्लेख नहीं मिलता कि 8 लाख 32 हजार वर्ष का
एक युग होता है। सैकड़ों वर्षों तक धर्म-शास्त्रों पर पंडितों और धर्मजीवियों का
ही एकाधिकार रहने से इस सम्बन्ध में जनसाधारण भ्रान्त ही रहा और इतने लम्बे समय तक
की युगगणना के कारण उसने न केवल मनोवैज्ञानिक दृष्टि से पतन की निराशा भरी, प्रेरणा दी वरन् श्रद्धालु भारतीय जनता को
अच्छा हो या बुरा, भाग्यवाद से बँधे
रहने के लिए विवश किया। इस मान्यता के कारण ही पुरुषार्थ और पराक्रम पर विश्वास
करने वाले भारतीयों को अफीम की घूँट के समान इन अतिरंजित कल्पनाओं का भय दिखाकर अब
तक बौद्धिक पराधीनता में जकड़ें रखा गया। इस सम्बन्ध में ज्ञातव्य है कि जिन शास्त्रीय
सन्दर्भों से युगगणना का यह अतिरंजित प्रतिपादन किया है, वहाँ अर्थ को उलट-पुलट कर तोड़ा-मरोड़ा ही गया
है। जिन सन्दर्भों को इस प्रतिपादन की पुष्टि के लिए प्रस्तुत किया गया है, वे वास्तव में ज्योतिष के ग्रन्थ हैं। वह
प्रतिपादन गलत नहीं है, प्रस्तुतीकरण ही
गलत किया गया है अन्यथा मूल शास्त्रीय वचन अपना विशिष्ट अर्थ रखते हैं। उनमें
ग्रह-नक्षत्रों की भिन्न-भिन्न परिभ्रमण गति तथा ज्योतिषशास्त्र के अध्ययन में
सुविधा की दृष्टि से ही यह युगगणना है। जितने समय में सूर्य अपने ब्रह्माण्ड की एक
परिक्रमा पूरी कर लेता है, उसी अवधि को चार
बड़े भागों में बाँटकर चार देवयुगों की मान्यता बनाई गई और 8 लाख 32 हजार वर्ष का
एक देवयुग माना गया। प्रचलित युगगणना के साथ ताल-मेल बिठाने के लिए छोटे युगों को
अंतर्दशा की संज्ञा दे दी गई और उसी कारण वह भ्रम उत्पन्न हुआ, अन्यथा मनुस्मृति, लिंग पुराण और भागवत आदि ग्रन्थों में जो
युग-गणना प्रस्तुत की गई है वह सर्वथा भिन्न ही है। मनुस्मृति में कहा गया है-
ब्राह्मस्य तु
क्षपाहस्य यत्प्रमाणं समासतः ।
एकैकशो युगानां
तु क्रमशस्तन्न्ािबोधत।।
चत्वार्याहुः
सहस्त्राणि वर्षाणां तत्कृतं युगम्।
तस्य तावच्छती
संध्या संध्यांशश्च तथाविधः।
इतरेषु ससंध्येषु
ससंध्यांशेषु च त्रिषु।
एकापायेन
वर्तन्ते सहस्त्राणि शतानि च।।
अर्थात-ब्रह्माजी
के अहोरात्र में सृष्टि के पैदा होने और नाश होने में जो युग माने गए हैं, वे इस प्रकार हैं-चार हजार वर्ष और उतने ही शत
अर्थात् चार सौ वर्ष की पूर्व संध्या और चार सौ वर्ष की उत्तर संध्या, इस प्रकार कुल 8600 वर्ष का सतयुग, इसी प्रकार तीन हजार छह सौ वर्ष का त्रेता, दो हजार चार सौ वर्ष का द्वापर और बारह सौ वर्ष
का कलियुग।
हरिवंश पुराण के
भविष्यपर्व में भी युगों का हिसाब इसी प्रकार बताया गया है, यथा-
अहोरात्रं
भजेत्सूर्यो मानवं लौकिकं परम्।।
तामुपादाय गणनां
श्रृणु संख्यामरिन्दम।।
चत्वार्येव
सहस्त्राणि वर्षाणां तु कृतं युगम्।
तावच्छती
भवेत्सन्ध्या सन्ध्यांशश्च तथा नृप।।
त्रीणि
वर्षसहस्त्राणि त्रेता स्यात्परिमाणतः।
तस्याश्च त्रिशती
संध्या सन्ध्यांशश्च तथाविधः।
तथा वर्षसहस्त्रे
द्वे द्वापरं परिकीर्तितम्।
तस्यापि द्विशती
सन्ध्या सन्ध्यांशश्च तथाविधः।।
कलिर्वर्षसहस्त्रं
च संख्यातोऽत्र मनीषिभिः।
तस्यापि शतिका
सन्ध्या सन्ध्यांशश्चैव तद्विधः।।
अर्थात्-हे
अरिदंभ! मनुष्यलोक के दिन-रात का जो विभाग बतलाया गया है उसके अनुसार युगों की
गणना सुनिए, चार हजार वर्षों का एक कृतयुग होता है और उसकी
संध्या चार सौ वर्ष की तथा उतना ही संध्यांश होता है। त्रेता का परिमाण तीन हजार
वर्ष का है और उसकी संध्या तथा संध्यांश भी तीन-तीन सौ वर्ष का होता है द्वापर को
दो हजार वर्ष कहा गया है उसकी संध्या तथा संध्यांश दो-दो वर्ष के होते हैं। कलियुग
को विद्वानों ने एक हजार वर्ष का बतलाया है और उसकी संध्या तथा संध्यांश भी सौ
वर्ष के होते हैं।
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