Friday, December 20, 2013

सुभाषित

नत्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सवे वयमतः परम्।।2/12।।
आत्मा नित्य हैइसलिए शोक करना व्यर्थ है। वास्तव में ऐसा नहीं है कि मैं किसी काल में नहीं था अथवा तू नहीं था अथवा ये राजा लोक नहीं थेन ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरूषं पुरूषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।।2/15
हे पुरूषश्रेष्ठ् सुख दुःख को समान समझने वाले जिस धीर पुरूष को इन्द्रियों के विषय व्याकुल नहीं करते हैं वह मोक्ष के योग्य होता है।
य एनं वेŸिा हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतौ नायं हन्ति न हन्यते।।2/19
जो आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता हैवे दोनों ही नहीं जानतेक्योंकि आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसी के द्वारा मारा जाता है।
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।2/20
यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्म लेता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है क्योंकि यह अजन्मानित्यसनातन और पुरातन हैशरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता।
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत!
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि।2/30
हे अर्जुन! यह आत्मा सबके शरीरों में सदा ही अवध्य (जिसका वध नहीं किया जा सके) है। इस कारण सम्पूर्ण प्राणियों के लिये तू शोक करने योग्य नहीं है।
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गतेषूपजायते।
सङ्गत्सा´्जायते कामः कामात्क्रोधेऽभिजायते।।2/62।।
विषयों का चिन्तन करने वाला पुरूष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती हैआसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पडक्ष्ने से क्रोध उत्पन्न होता है।
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽतु विधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।।2/67
क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेते हैवैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरूष की बुद्धि को हर लेती है।
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमा´्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति।।2/71
जो पुरूष सम्पूर्ण कामनाओं को त्यागकर ममता रहित अहंकार रहित और स्पृहा रहित हुआ विचरता हैवही शान्ति को प्राप्त होता है।
सुभाषित
निम्नलिखित सुभाषित कण्ठस्थ कीजिए-
     हस्तस्य भूषणं दानं सत्यं कण्ठस्य भूषणम्।
     श्रोत्रस्य भूषणं शास्त्रं भूषणैः किं प्रयोजनमफ्।।1।।
     अर्थः हाथ का गहना दान देनागले का गहना सत्य बोलनाकान का गहना शस्त्र सम्मत बातों को सुननाजिनके पास ये गहने हैं उनको अन्य धन सोने-चाँदी के गहनों से क्या मतलबअर्थात् कुछ भी मतलब नहीं।
     विद्या ददाति विनयंविनयात् याति पात्रताम्।
     पात्रत्वाद् धनमाप्नोतिधनाद्धर्मः ततः सुखम्।।2।।
     अर्थः विद्या विनम्रता देती हैविनम्रता से योग्यता आती हैयोग्यता से धन प्राप्त होता हैधन से धर्म होता हैधर्म से सुख की प्राप्ति होती है।
     पिबन्ति नद्यः स्वयमेव नाम्भः स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः।
     धाराधरो वर्षति नात्महेतोः परोपकाराय सतां विभूतयः।।3।।
     अर्थः जिस प्रकार नदियाँ स्वयं जल नहीं पीतीवृक्ष स्वयं फल नहीं खातेमेघ स्वयं के लिए वर्षा नहीं करतेउसी प्रकार सज्जनों की विभूतियाँ भी दूसरों की भलाई के लिए होती हैं।
     व्यायामपुष्टगात्रस्यबुद्धिस्तेजो यशोबलम्।
     प्रवर्धन्ते मनुष्यस्यतस्माद् व्यायाममाचरेत।।4।।
     अर्थः व्यायाम से मनुष्य का शरीर पुष्ट होता हैबुद्धि तीव्र होती है तथा यश और बल की वृद्धि होती हैइसलिए व्यायाम करना चाहिए।
     उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनौरथैः।
     न हि सुप्तस्य सिंहस्यप्रविशन्ति मुखे मृगाः।।5।।
     अर्थ: परिश्रम करने से ही कार्य की सिद्धि होती हैइच्छाओं से नहींक्योंकि सोए हुए सिंह के मुँह में हिरन स्वयं प्रवेश नहीं करते हैंअर्थात् कर्म करने से ही कार्य सिद्ध होते हैं।
संतवाणी
दोहे
     निम्नांकित दोहे कण्ठस्थ कीजिए और भावार्थ समझने का प्रयत्न् कीजिए-
     दुःख में सिमरिन सब करैं सुख में करै न कोय।
     जो सुख में सुकिरन करै दुःख काहे को होय।।!।।
     साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।
     सार-सार को गहि रहे थोथो देय उड़ाय।।2।।
     मीठी वाणी बोलिए तजि मायाअभिमान।
     ना जाने किस वेश में मिल जाये भगवान।।3।।
     रहिमन देखि बड़ेन को लघु न दीजिए डारि।
     जहाँ काम आवै सुई कहा करै तरवारि।।4।।
     कपट भाव मन में नहीं सबसे सरल स्वभाव।
     नारायण ता भक्त की लगे किनारे नाव।।5।।

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छेªयः स्यान्निश्रितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शधि मां त्वां प्रपन्नम्।। (2/)
अर्थात् ‘‘कायरता रूपी दोष से उपहत स्वभाव वाले तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हँू कि जो साधन निश्रित कल्याणकारक होवह मेरे लिए कहिएक्योंकि मैं आपका शिष्य हँूइसलिए आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिए।’’
यच्छेªयः स्यान्निश्रतं ब्रहि तन्मे।
शिष्यस्तेऽहं शधि मां त्वां प्रपन्नम्।। (2/)
अर्थात्- ‘‘जो भी साधन मेरे लिए निश्रित कल्याणकारक होवह मेरे लिए कहिएक्योंकि मैं आपका शिष्य हँूइसलिए आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिए।’’ परम पूज्य गुरुदेव ने कहा था कि जो शांतिकुञ में रहने वाले कार्यकत्र्ता हैंयदि सन् 2000 तक भी मेरे साथ गाड़ी खींच ले गएजो बाहर हैंवे मेरे विचारों से जुड़े रहकर प्रचार प्रसार करते रहेतो उनका निश्रित ही कल्याण हो जायगा।
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्ररति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहड.ारः स शान्तिमधिगच्छति।। (2/)
अर्थात् जो पुरुष संपूर्ण कामनाओं को त्यागकर ममतारहितअहंकार रहित और स्पृहारहित हुआ विचरता हैवही शांति को प्राप्त होता है एवं स्थितप्रज्ञ कहलाता है।
अगले श्रोक में भगवान् कहते हैं-
दुःखेष्वनुद्विग्रमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोध स्थितधीर्मुनिरुच्यते।। (2/)
अर्थात् दुखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होतासुखों की प्राप्ति में जो सर्वथा निस्पृह है तथा जिसके रागभय और क्रोध नष्ट हो गाए हैंऐसा मुनि स्थिर बुद्धि कहा जाता है। दुखों के कारण तो कई आते हैंपर उन्हें स्थितप्रज्ञा सहन कर लेता हैउद्विग्र नहीं होता। उसे सुख की कामना भी नहीं होती। सुख पाने की आकांक्षा में वह उद्विग्र भी नहीं होता। वह वीतराग हो जाता है। स्वयं को रागभयक्रोध से परे चलकर अपनी मनः स्थिति उच्चस्तर की बना लेता है। हम जैसे सामान्य व्यक्ति सुखों की इच्छा बराबर बनाए रखते हैंदुख में परेशान हो जाते हैं। यही हममें व स्थितप्रज्ञ में सबसे बड़ा अंतर है। परमपूज्य गुरुदेव कहते थे कि दुख को तप बना लो एवं सुख को योग बना लो। 
यः सर्वत्रानभिस्त्रेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।। (2/)
अर्थात् जो पुरुष स्त्रेहरहित होकर उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष रखता हैउसकी बुद्धि स्थिर है। इसी प्रकार अगले श्रोक में एक महत्वपूर्ण बात भगवान् के श्रीमुख से निकलती है-
यदा संहरते चायं कूर्मोऽड्र.ानीव सर्वशः।।
इंद्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।। (2/)
अर्थात् ‘‘कछुआ सब ओर से अपने अंगों को जैसे समेट लेता हैवैस ही जब यह पुरुष इंद्रियों के विषयों से इंद्रियों को सब प्रकार से हटा लेता हैतब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिए)।’’

गीता कहती है कि एक साधक स्तर का व्यक्ति संभव है कि इंद्रियों को विषयों से हटा लेपर वे मन पर हमला न कर देंइसलिए उसे सूक्ष्म इंद्रिय निग्रह में निष्णात होना चाहिए। यह विनोबा का मत है। आगे इकसठवें श्लोक में भगवान् कहते है-
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।। (2/)
अर्थात्- ‘‘ इसलिए हर साधक के लिए अभीष्ट है कि वह इन संपूर्ण इंद्रियों को वश में करके समाहित चित्त हो मरे परायण होकर ध्यान में बैठे क्योंकि जिस पुरुष की इंद्रियाँ वश में होती हैंउसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है।’’ 

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