अंतर्यात्रा विज्ञान के प्रयोग अपनी प्रगाढ़ता में हमें शक्तिस्रोत से जोड़ते हैं। यहाँ तक कि हमें हमारे व्यक्तित्व व अस्तित्व को शक्तिपुज के रूप में परिवर्तित एवं रूपांतरित करते हैं। इस चमत्कारिक सत्य को पढ़कर यह जिज्ञासा जागनी स्वाभाविक है-कैसे? किस तरह? इन प्रश्नों के समाधान में बस इतना कहना है कि हमारी वास्तविकता, हमारी यथार्थता, यानी कि हमारी स्वयं की अंतरसत्ता-अंतरात्मा स्वाभाविक ही समस्त शक्तियों का स्रोत व शक्तिपुंज है, लेकिन हम इसकी अनुभूति से सदा अनजान व अपरिचित बने रहते हैं। संभवत: इस अनुभूति में अनेक अवरोध हैं, अड़चने हैं। योग के प्रयोग क्रमिक रूप से इन सभी अवरोधों, अड़चनों को समाप्त करते हैं। और तब हमारे अस्तित्व के कण-कण से, व्यक्तित्व के रोम-रोम से शक्ति की तरंगें सूर्य रश्मियों की तरह प्रवाहित होने लगती हैं।
सामान्य जीवन क्रम में हमारी वृत्तियाँ बहिर्मुखी हैं। जो हमें बाहर दिखता है, उसी के बारे में हम अनुभव कर पाते हैं। शरीर की शक्तियों व सामथ्र्य का परिचय हमे इसी रूप में मिलता है। इन्हें विकसित करने के प्रयास भी बाहरी होते हैं। विचारों व भावनाओं का अनुभव बाहरी नहीं है, आंतरिक है, इसलिए इनकी शक्ति व सामथ्र्य के बारे में हम जान नहीं पाते। बस, जो थोड़ा-बहुत आंतरिक अनुभव हो पाता है, उसमें हम स्वयं को उलझा-फँसाकर दुखी-परेशन होते रहते हैं। विचारों के अविराम द्वंद्व और भावनाओं के निरंतर विक्षोभ ही इनकी कहानी हैं। अंतर्यात्रा विज्ञान के प्रयोग हमें इस जटिल-कठिन स्थिति से उबारते हैं। इनके द्वारा हम स्वयं की वृत्तियों को अंतर्मुखी बनाकर इनकी शक्तियों का परिचय पाते हैं और क्रमिक रूप से स्वयं की अंतरसत्ता से जुड़कर उत्तरोत्तर शक्तिसंपन्न बन जाते हैं। क्या बिना किन्हीं बारही साधनों के शक्तिसंपन्न बनना, समर्थ होना संभव है? अंतर्यात्रा विज्ञान इसका उत्तर सुनिश्चित हाँ में देता है, लेकिन योग विज्ञान के लिए व्यक्ति व व्यक्तित्व का शक्तिसंपन्न व समर्थ-बलशाली होने से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण है उसका सद्गुणसंपन्न होना, गुणवान होना, मानवीय मूल्यों के प्रति सचेष्ट एवं समर्पित होना। इन योगकथा की पिछली कड़ी में इसी सच की चर्चा व व्याख्या की गर्इ थी। इस कथा-कड़ी के पिछले सूत्र में कहा गया था कि मैत्री आदि गुणों पर संयम कर लेने से उस गुणवत्ता विशेष में बड़ी क्षमता आ जाती है। योग के अनुसार समर्थ होने से, शक्तिसंपन्न होने से अधिक जरूरी है सद्गुणसंपन्न होना; क्योंकि सद्गुणों के अभाव में शक्ति के दुरुपयोग की संभावना हमेशा बनी रहती है। गुणहीन व्यक्तियों के पास जो भी शक्ति आती है, वो हमेशा दुरुपयोग करते हैं, फिर यह शक्ति चाहे सामाजिक हो, राजनीतिक हो या फिर वैज्ञानिक अथवा आध्यात्मिक। इसीलिए पहले सद्गुण, फिर शक्ति। इसीलिए महर्षि पतंजलि पहले सद्गुणों की चर्चा-चिंतन करने के बाद अब बल की, शक्ति की चर्चा अपने इस अगले सूत्र में करते हैं-
बलेषु हस्तिबलादीनि।। 3/14।।
शब्दार्थ-बलेषु- (भिन्न-भिन्न) बलों में (संयम करने से); हस्तिबलादीनि- हाथी आदि के बल के सदृश (संयम के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार के) बल प्राप्त होते हैं।
भावार्थ- हाथी आदि के बल पर संयम करने से, संयम के अनुरूप हाथी आदि के बल के सदृश बल व शक्ति प्राप्त होती है।
बड़ा रहस्यमय व अद्भुत है यह सूत्र। जीवन व प्रकृति की समस्त शक्तियों की कुंजी है यह। जो कुछ भी हम चाहते हैं, उसी पर संयम को केंद्रित कर देना है, फिर वैसा ही घटित होने लगेगा; क्योंकि व्यक्ति अनंत है, असीम है। जैसा रूप या स्वरूप, सद्गुण या शक्ति हम पाना चाहते हैं, वैसा ही संयम से पा सकते हैं, फिर सभी तरह के चमत्कार संभव हो सकते हैं। सब कुछ हमारे ऊपर निर्भर करता है। तब अगर हम हाथी जैसे अथवा किसी अन्य जैसे शक्तिशाली होना चाहते हैं तो हो सकते हैं, बस, उस विचार को बीज की भाँति भीतर सँजोकर, उसे संयम से पोषित करना है। इस सूत्र का दुरुपयोग भी संभव है। सूत्र तो बस, कुंजी है। अगर कोर्इ व्यक्ति शैतान का रूप रखना चाहता है या कोर्इ गलत रूप लेना चाहता है, तो वह उस भाँति हो सकता है। हालाँकि गलती करने वालों के लिए प्रकृति का दंड- विधान सतत सक्रिय है, फिर भी गलत करना संभव तो है ही।
सत्य यही है कि जितना गलत उपयोग भैतिक विज्ञान का संभव है, उतना ही गलत उपयोग अंतर्यात्रा विज्ञान या योग विज्ञान का भी संभव है। योग का गलत उपयोग न हो सके, इसीलिए इसके प्रथम चरण में ही व्यक्तित्व-जीवन के परिष्कार की सुनिश्चित व्यवस्था की गर्इ है। भौतिक विज्ञान ने परमाणु ऊर्जा की खोज की है, उसका घातक प्रक्षेपण करके पूरी पृथ्वी को जलाकर भस्म किया जा सकता है। इस समूची धरती को कब्रिस्तान में बदला जा सकता है, लेकिन इसके सदुपयोग से पूरी धरती के सारे शहर जगमगाए जा सकते है। ऊर्जा की सभी जरूरतें पूरी की जा सकती हैं। युगऋषि परमपूज्य गुरुदेव इस सूत्र की व्याख्या में कर्इ उदाहरण दिया करते थे। उनका कहना था कि इस सूत्र के रहस्य को पुरातनकाल में कुछ लोगों ने जान लिया था। उनमें से एक वानरराज बालि थे, दूसरे अंजनी पुत्र हनुमान। इन दोनों में हनुमान का ज्ञान बालि से कहीं अधिक था। हालाँकि बालि को भी बल पर संयम की असाधारण क्षमता प्राप्त थी। इसी वजह से जो भी प्रतिपक्षी उसके सामने आता, बालि उसकी समस्त शक्तियों को स्वयं में आत्मसात् कर लेता था। उसका स्वयं का बल तो उसके पास था ही। इस तरह उसके सामने प्रतिपक्षी योद्धा का बल घटकर आधा रह जाता; जबकि उसका स्वयं का बल ड्योढ़ा-दूना हो जाता। इस तरह बालि की विजय सुनिश्चित होती और प्रतिपक्षी की पराजय सुनिश्चित। संयम की इस प्रक्रिया की प्रवीणता ने बालि को अहंकारी, दंभी बना दिया था। अपने छोटे भार्इ सुग्रीव का उसने सब कुछ छीन लिया। बाद में हनुमान की सहायता से भगवान श्रीराम ने उसे दंडित किया। हालाँकि उन्हें भी उसे छिपकर मारना पड़ा; क्योंकि प्रत्यक्ष होने पर संभावना यही थी कि बालि उनकी शक्तियों पर संयम करके उन्हें भी आत्मसात् कर लेता।
प्रकृति के दंड-विधान के अनुरूप बालि को दंडित होना पड़ा। बालि के स्वभाव के ठीक विपरीत हनुमान भगवान के परम भक्त एवं विनम्र थे। जनसेवा-र्इश्वरसेवा उनका ध्येय था। वह धरती की शक्तियों पर संयम करने में निष्णात होने के साथ प्रकृति की समस्त दिव्य शक्तियों, देव शक्तियों पर संयम करने में निष्णात थे, परंतु उनहें अपने बल पर कोर्इ भी अभिमान न था। इसीलिए तो वह प्रभु की योजना व कार्य में उनके सहयोगी बने। उनसे सभी का कल्याण हुआ। आज भी वह अपने सद्गुणों व शक्ति के कारण अनगिनत जनों के आराध्य हैं। उनका उदाहरण देते हुए परमपूज्य गुरुदेव कहा करते थे, संयम की योग्यता व प्रयोग-विधि के आदर्श है-हनुमान, जिन्होंने अपनी शक्तियों का उपयोग सदा ही लोक-कल्याण में किया। जिनके जीवन का एक ही ध्येय वाक्य था-राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम। यही तो है संयम के सदुपयोग की परिभाषा।
अखंड ज्योति दिसम्बर २०१३ से साभार
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