सामान्य व्यक्ति की यह बहुत बड़ी कमजोरी होती है
कि किसी भी क्षेत्र में उसको छोटी बड़ी सफलता मिलते ही उसका अहं जाग उठता है। यह
अहं उसको उद्धण्डी बना देती है व देवत्व से उसका सम्पर्क कट जाता है। यदि
देवसत्ताओं ने उसको ऊपर उठाया है तो उन्हें उसके तन्त्र को ध्वस्त करते देर नहीं लगती। लेखक ने
अपने जीवन में ऐसे अनेक प्रसंग देखे हैं। लेखक के एक निकट मित्र (closed Friend) को अपनी साधना के संकेतों पर बड़ा गर्व था। उसकी भविष्यवाणिया अधिकतर सही
निकलती थी। उसकी (intution level) अधिक विकसित था कि कठिनाई के समय वह किसी की भी
आराम से सहायता कर सकता था। एक बार एक सन्त प्रवृत्ति के व्यक्ति उसकी मदद मागने आए। उसने किसी बात पर नाराज होकर उनका अपमान
कर दिया। उस सन्त व्यक्ति के अन्दर कुछ ऐसी बदुआये निकली कि साधक
की वो प( imtution power ) समाप्त हो गई वरण उलट हो गई। अब उसके निदेशों से लोगों को
नुक्सान होने लगे व भारी हानि उठानी पड़ी।
15 वर्ष पूर्व सहारनपुर के सरसावा के निकट ग्राम
में एक उच्च साधक उभरे। उन्होंने बहुतों का भला किया व साधना पथ पर चलाया। परन्तु
कुछ वर्षों पश्चात् जब उनमें अपनी साधना का अहं जागा तो वहाँ साधना के स्थान
पर दुर्गुण पनपने लगे। एक समय पुरे सहारनपुर में उनके नाम का डंका बजता था। परन्तु
देवसत्ताओं ने कुपित होकर उस पुरे तन्त्र को ध्वस्त कर दिया।
सन् 2011 का जन्म शताब्दी समारोह का हाल हम सभी ने देखा।
अपनी सफलताओं से हम गायत्री परिवार के लोगों का अहं बढ़ता चला जा रहा था जब अहं
बढ़ता है तो देवत्व घटता चला जाता है। जब देवत्व नहीं होता उसके नाम पर केवल
दिखावा और छलावा बढ़ जाता है तो देवसत्ताओं के कोप का भाजन हम सभी को बनना पड़ता
है। कल्पना भी नहीं की जा सकती थी कि इतना बड़ा झटका भी लग सकता है।
इसी प्रकार राजनीति के क्षेत्र में श्री अरविन्द
केजरीवाल एक अच्छे आदर्श राजनेता के रूप में उभर रहे थे। देवसत्ताओं के संरक्षण
में उनको सफलता भी मिल रही थी परन्तु उनकी पार्टी में दूसरे लोगों के विरूद्ध
ईष्र्या-द्वेष पनपने लगा। राष्ट्र व समाज सेवा गौण हो गई, दूसरों को नीचा
दिखाने की प्रवृत्ति बढ़ती गई। देवत्व की दिशा में बढ़ते संगठन पर कब आसुरी प्रभाव
हावी होने लगा यह आत्म विशेलषण लोग कर ही नहीं पाए। मोदी जी को जो विजय मिली है
यदि उस संगठन का अहं नहीं जागा, आध्यात्मिक संरक्षण बना रहा तभी कुछ
महत्त्वपूर्ण राष्ट्र के लिए कर पाएँगे। यदि कार्यकत्ताओं की आपसी महत्त्वाकांक्षाए जाग गई तो यह
नहीं कहा जा सकता कि कुछ बड़ा कार्य उनके माध्यम से सम्भव हो पाएगा। अतः विजय के
आधार पर, सफलता के समय
प्रसन्नता के साथ-साथ आत्म विश्लेषण भी करना हमारे लिए अधिक आवश्यक हो जाता है।
व्यक्ति को थोड़ा पैसा मिला तो गरूर हो गया, कोई पद मिला तो
गरूर हुआ, अच्छा स्वास्थय
मिला तो दूसरों को दबाना या मजाक बनाना प्रारम्भ कर दिया। इससे व्यक्ति की कामयाबी
टिक नहीं पाती। व्यक्ति को लम्बे समय तक सफल व निरोग जीवन के लिए अपने स्वभाव में
आत्म समीक्षा द्वारा उच्च भावों का विचार अवश्य करना चाहिए। अपने दुख के समय में
तो सभी भले होते हैं परन्तु सुख के समय में हम विन्रम रहें, मानव जाति की
अधिक से अधिक सेवा करें यही हमारा उद्देश्य हो। किसी ने सत्य ही कहा है-
"It is not the aptitude but the attitude, which takes us to altitude "
हमारी योग्यता नहीं परन्तु दृष्टिकोण व अच्छा
स्वभाव है, जो हमें जीवन की ऊचाइयों तक ले जाता है।
इसके लिए हमें निम्न सूत्र को जीवन में अपनाना
चाहिए
"BE Gentle to all, and stern to Yourself"अपने लिए कठोर व दूसरों के लिए उदार" अर्थात् दूसरों की थाली में छेद देखने से पहले अपनी थाली के छिद्रों को बन्द करने का प्रयास अवश्य करना चाहिए।
हम खुद तो बढि़या खा पी रहे हैं, आलीशान तरीके से
जी रहे हैं, अपने पैर पुजवा रहेहैं, अपने को बढि़या साधक बता रहे हैं। परन्तु दूसरों
को त्याग-तप पर लच्छेदार भाषण देते हैं। क्या हम जानते हैं कि इसका कितना बड़ा पाप
हम अपने सिर पर लाद रहे हैं, जो अगले कितने जन्मों तक हमें भोगना पड़ सकता
है। यही हमारी सबसे बड़ी समस्या है कि अच्छे समय में हम अधिक से अधिक सुख भोगना
चाहते हैं महत्त्वपूर्ण पदों पर बने रहना चाहते हैं चाहे उसकी योग्यता हममे हो या
न हों? सामाजिक व
आध्यात्मिक स्वयंसेवी कार्यकर्ता को बहुत सजग रहना चाहिए अन्यथा उसकी लापरबाही
उसके पापों का बोझ बढ़ाती जाएगी। यह बोझ एक दिन उसकी कमर तोड़ कर रख देगा यह सृष्टि
का कर्मफल सिद्धान्त है। परन्तु न जाने क्यों हम सभी सिद्धान्त दूसरों पर थोपना
चाहते हैं व सोचते है कि हम पर ये सिद्धान्त लागू नहीं होंगे। इसको कहते हैं ‘विनाशकाले
विपरीत बुद्धि।’
धर्मतन्त्र व राजतन्त्र दोनों ही क्षेत्र
इस होड़ से बचे नहीं हैं। कुर्सी की लड़ाई
सब जगह देखने को मिलती है। इस देश में वो राम वो भरत कहाँ जो सिंहासन को
लात मार आदर्शों व मर्यादा की रक्षा के लिए अपना सुख चैन कुर्बान करने की हिम्मत
रखते हों। जब तक उस स्तर के व्यक्तित्व नहीं उभर पाएँगे युग निर्माण की बातें ही बातें होती रहेंगी, उस दिशा में कोई
सार्थक कदम हम आगे नहीं बढ़ा पाएँगे।
हमें तो हर चीज का श्रेय लेने की आदत है लेकिन
यह पद पर बने रहकर हमसे कोई गलती हो जाए कोई दुर्घटना विफलता मिल जाए तो क्या हम
उसकी नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार करने की हिम्मत करते हैं? हम तो दोष
दूसरों के सिर मंडकर लीपा-पोती कर अपनी जान छुड़ाना चाहते हैं। एक महत्त्वपूर्ण पद
पाने के लिए व्यक्ति में योग्यता चाहिए परन्तु अपनी कमियों को स्वीकार करने के लिए
व पद त्याग के लिए हममें आत्मबल चाहिए जो एक श्रेष्ठ साधक में ही देखने को मिलता
है। मनोबल से हम कोई कार्य तब तक नहीं कर सकते जब तक हमारा आत्मबल जाग्रत न हो
जाए। युग निर्माण जैसी बातें बनाना बहुत सरल है परन्तु उस दायित्व को निभा पाने के
लिए तप के धनी ब्रह्मबल सम्पन्न आत्माएँ कैसे उत्पन्न
होंगी इसका जवाब कौन देगा? लेकिन मानव गलती पर गलती करता चला जाता है। उस
माध्यम का विरोध कर उसको मिटाना चाहता है जो उसको सचेत करता है। यदि रावण ने
विभीषण व मन्दोदरी की सलाह पर गौर किया होता तो उसका कुल नष्ट नही हुआ होता। सम्पूर्ण धन-वैभव का स्वामी एक दिन
इतनी दर्दनाक मौत मरा क्या वह सोच सकता था। महत्त्वपूर्ण पदों पर बैठै व्यक्ति यही
गलती करते हैं। धूर्त चापलूस उन्हें भरमाएँ रहते हैं। वो तो
सभी स्वार्थी होते हैं उन्हें किसी के भले बुरे से क्या लेना देना।
अपनी लेखनी से सच्चाई उजागर करने वाले व दिल की
बात कहने वाले लोग अंगुलियों पर गिनने लायक मिलते हैं क्योंकि उन्हें भय होता है
कि विभीषण की तरह लात पड़ सकती है। परन्तु इस राष्ट्र का पुरोहित चुप
नहीं रह सकता, हित की बात जनता के सामने अवश्य रखेगा वह अंजाम-परिणाम की चिन्ता नहीं करता।
कायर की भाँति अपनी आत्मा हनन नहीं करता, इस राष्ट्र के लिए अपना लहू बहाने के लिए संकल्पबध वह नश्वर
शरीर की मृत्यु से नहीं डरता।
जिस दिन मेरे राष्ट्र में सवा लाख लोग
ऐसे हो जाएँगे जो गलत को
गलत व सही को सही कहने की हिम्मत कर पाएँ उस दिन मैं मानूँगा कि युग निर्माण का प्रारम्भ हो गया है। ऐसे
लोगों को संगठित होना है जिनकी सोच व लक्ष्य किसी पद, प्रतिष्ठा, धन-दौलत तक
सीमित नहीं है। जो मुर्दे नहीं है अपितु जिनकी रगों में गुरुदेव का लहू दौड़ रहा
है। सुन्दरता, प्रंशसा, वैभव, सुविधा देखकर
जिनकी लार नहीं टपकती, जिन्होंने अपने ऊपर नियन्त्रण साधने का महत्त्वपूर्ण प्रयास किया
है। ऐसे आदर्श जिस दिन खड़े होना प्रारम्भ होंगे उस दिन युग निर्माण का सूर्य उदय
होगा। कोरी कल्पनाओं से, खाली गणनाओं से, ढोल-ढपली नगाड़े बजाने से क्या कोई युद्ध जीता
गया है? संग्राम में
आहुति देने वाले जिन्दा दिल इंसान चाहिए, वीर युवा चाहिए, जो युग निर्माण
के भागीरथ संकल्प को पूर्ण करने में सार्थक भूमिका निभा सकें।
जो भी परिजन अपनी साधना के द्वारा हिमालय की
देवसत्ताओं से जुड़ेगा वह अपने भीतर युग निर्माण के लिए एक प्रकार की छटपटाहट
महसूस करेगा। इसमे किसी का कोई बस नहीं चलता न इसको रोक पाना किसी के बूते की बात
है। आने वाले समय में 24, 000 देवत्माएँ जो इस प्रवाह को
महसूस कर रही हैं व पात्रता विकसित कर इसको धारण कर पाने में स्वयं को सक्षम बना रही हैं, युग निर्माण के
लिए महत्वपूर्ण कार्य करेंगी। इस प्रवाह को सहन करना भी आसान नहीं होता, कमियाँ रहने पर यह साधक
के लिए ही कष्टदायी हो जाता है। जिसका चयन हो रहा है, उसके भीतर
प्रवाह बहेगा। जो इसका विरोध करेगा वह नष्ट होता चला जाएगा। जो वास्तविकता को
समझेगा, इस प्रवाह का
सहयोग करेगा, महाकाल उस पर प्रसन्न होगा। स्वार्थ और मोह में अन्धा व्यक्ति यह सब ठीक से
समझ नहीं पाता और अपना नुक्सान कर ले जाता है।
यहाँ अवधूत बाबा
परमहंस परमानन्द जी के जीवन का प्रसंग दिया जा रहा है। देवरिया जिले के रामकोला गाँव में सन् 1912 में जन्में बाबा जी चित्रकूट के समीप कामदगिरी
पर्वत के जंगलो में कठिन तपस्या कर उच्चकोटि के सिद्ध पुरुषों में गिने जाते हैं।
युवावस्था में इनको जीवन में वैराग्य उत्पन्न होता है। उनको गुरु मानकर जीवन साधना
की ओर मुड़ जाता है। परमानन्द जी को बैरागी बातें देख घरवाले नाराज हो जाते हैं।
पहले तो इनको काफी समझाया गया, परन्तु जब कोई प्रतिफल नहीं निकला तो परिवार
वालों ने निश्चय किया कि असली जड़ इनका गुरु है, उसे मारकर भगा दिया जाए। इनके परिवार के लोगों
का यह निश्चय काफी महँगा पड़ा। परिवार में मौतों का सिलसिला चालू हो गया। एक के बाद एक करके घर के
सदस्य मरने लगे। एक बार स्थिति इतनी दयनीय हो गई कि शोकातुर लोगों ने एक शव को
इनके सामने रखते हुए कहा - " जब से तुम बैरागी बने हो तभी से घर की दुर्दशा हो रही है। जब सभी समाप्त हो जाएँगे तब अकेले भजन करना।"
इस दर्दनाक घटना से आपका मन विचलित हो उठा। इस ह्रदय विदारक दृश्य को देखकर आपने सोचा कि इस मार्ग
को छोड़ देना ही क्षेयस्कर है। ठीक इसी समय आपके गुरुदेव ने आपको सम्भाल लिया।
उन्होंने कहा - " संकट की इस घड़ी में विचलित मत हों। उनकी नीच हरकतों का प्रतिफल उन्हें भोगना ही पड़ेगा। तुम अपनी साधना में लगे रहो।" आप पुनः भारी मन से अपनी साधना में लग गए।
एक अन्य प्रसंग में आप कुम्भ में आए व कई दिन से
भूखे थे। सहसा आपको पता चला कि एक रानी संन्यासियों को भण्डारे में भोजन करा रही
है। आप वहाँ पहुँचे। परन्तु आपकी चित्र विचित्र हालत देख द्वार
पर खड़े सिपाही ने आपको धक्का देकर बाहर कर दिया। उसने कहा-"यह भण्डारा साधु महात्माओं के लिए है। तुम जैसे पागलों के लिए नहीं। यहाँ से निकल जाओ।"
इस अपमान से क्षुब्ध हो आप एक स्थान पर बैठ गए व
निश्चय किया कि भोजन के लिए कहीं नहीं जाएँगे। भगवान को खिलाने की इच्छा होगी तो स्वयं
प्रबन्ध करेंगे। इस प्रकार सोचकर आप चुपचाप बैठ गए। कुछ देर बाद एक व्यक्ति ने आकर
कहा - "महाराज, कृपा करके आप मेरे घर चलिए और भोजन करिए।
परमानन्द जी ने कहा- "भाई मैं किसी के घर जाकर भोजन नहीं करता, चाहो तो यहीं
लाकर भोजन कराओ।"
यह सुनकर वह व्यक्ति आपके लिए भोजन ले आया व
प्रसन्नतापूर्वक भोजन कराया। तभी वह सिपाही आपको ढूँढता हुआ वहाँ आया जिसने आपको
धक्का दिया था। इस वक्त वह पेट के दर्द से छटपटा रहा था। वह जोर जोर से शोर मचा कर
अपनी गलती प्रकट कर रहा था कि उसने इनको धक्का दे कर अपमानित किया इसी कारण यह
कष्ट है। सन्त स्वभाव के कारण आप उस सिपाही के निकट बैठ उसके पेट पर हाथ फेरने
लगे। थोड़ी देर में दर्द गायब हो गया व वहाँ दर्शकों की भीड़
जुटने लगी।
काश हम गुरुदेव के वो बैल बन जाते जो ब्रह्मकमल
खिलाने के लिए भूमि जोतते, गुरुदेव की आशाओं अपेक्षाओं पर खरे उतरते, परन्तु
दुर्भाग्यवश हम कहीं और उलझकर रह गए। अपना नाम चमकाने के चक्कर में अपने मुँह पर कालिख पोत गए। अपने सुख, चैन, पद-प्रतिष्ठा
पाने के चक्कर में अपनी कमर तुड़वा बैठे। यदि इतना सब कुछ सहकर भी, देखकर भी हमें समझ नहीं आई तो विनाशकारी परिणाम
हमारे पूरे कुल को भुगतना पड़ सकता है। सूक्ष्म जगत् से खतरनाक खेल प्रारम्भ होने
जा रहा है। देवत्व की डोर हमें ठीक से पकड़कर रखनी है। असावधानी होते ही, अहंकार आते ही
साधक देवत्व से असुरत्व की ओर परिणित हो सकता है। अतः निम्न मार्ग की ओर, निम्न भावों की
ओर पहला कदम उठते ही सावधान हो जाना है कि आगे बहुत बड़ा दलदल है जिससे उबर पाना
बहुत कठिन है। हे साधक! तू सत्य की ओर, देवत्व की ओर, अमृतत्व की ओर बढ़ व ब्रह्मज्ञान की दिव्य
संजीवनी पाकर सोये राष्ट्र को मृत प्रायः संस्कृति को पुनः जगा पुनः जीवन्त
बना।