Friday, December 23, 2016

विश्वामित्र राजेश

भारतवर्ष में अनेक आध्यात्मिक संस्थाए सक्रिय है जिनमें लगभग 24 संस्थाए तो ऐसी है जिनमे से प्रत्येक से कम से कम एक-एक करोड़ व्यकित जुड़ा है। इनमे से पाँच के नाम दिए जा रहे हैं-
1.    गायत्री परिवार
2.    राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ
3.    ब्रहम कुमारीज
4.    आर्य समाज
5.    इस्कान
    यदि ये संस्थाए वास्तव में राष्ट्र हित व जनहित के लिए समर्पित हैं तो इनको हाथ मिलाना चाहिए। राष्ट्र हित के मुद्दो पर एक साथ मिलकर कार्य करना चाहिए। जो संस्था यह कहती है कि वो केवल आध्यात्मिक हैं समाज सुधार से उनका कोई लेना-देना नहीं है वो सम्भवतः बड़ी भूल पर हैं। यदि किसी मोहल्ले में आग लगी है और उस मोहल्ले का कोई व्यक्ति यह कहे कि मेरा इस आग से कोई लेना-देना नहीं हैं तो वह आध्यात्मिक कैसे हो सकता है। आज समाज अनेक कुरीतियांे की आग मेें जल रहा है उसको बुझाना हम सभी का दायित्व है। बन्दा वैरागी आत्म-कल्याण के लिए एकान्त में तप कर रहे थे। पूज्य गुरुदेव गोविन्द सिंह जी उनसे मिले व उन्होंने उनकी आत्मा को झनकझोल कि आध्यात्मिक व्यक्ति स्वार्थी कैसे हो सकता है। अर्जुन ने भी श्री कृष्ण को यही समझाया था कि कर्म योग को नजरन्दाज कर जो आध्यात्मिक होने की बात करता है वह ढोंगी है वह अपने अहं की पुष्टि करता है।
    संस्थाओं के पास ऐसी बड़ी जन शक्ति है जो संवेदनशील है अच्छी परम्पराओं के लिए ग्रहणशील हैं व संस्थाओं के प्रति किसी न किसी रूप में समर्पित हैं। यदि 24 करोड़ की इस जन शक्ति को हम युग निर्माण के हिसाब से प्रशिक्षित करें तो एक बड़ा आन्दोंलन सम्भव है।
    परन्तु संस्थाओं के इस अभियान में अनेक प्रकार की बाधाएँ समाज के समने आ रही है।
1. पहल कठिनाई यह है कि अधिकतर जगह विस्तार अर्थात Quantity  का ही हल्ला मचा हुआ है। अर्थात संस्थाए बड़ी सँख्या में अपने सदस्य बनाकर अपना विस्तार कर रही हैं। भीतरी सुधार अथवा Quality  पर ध्यान नहीं दिया जा रहा हैं पर अभियान में कोई सफलता नहीं मिल रही है। हिमालय की ऋषि सत्ताओं ने सन 2011 में इस गलत नीति पर अपना रोष जाहिर किया था।
2. दूसरी कठिनाई यह है कि अनेक संस्थाओ में   Lower Conscious अर्थात अपरिपक्व व्यक्तित्व बड़े पदो पर बैठे हैं जिन्हे समाज सुधार से अधिक अपनी पद-प्रतिष्ठा की चिन्ता है। इससे वहाँ कार्यकत्ताओं में बड़ा असन्तोष उत्पन्न होता है। ठलुओं, चापलुसों व अंहकारियों को हलवा-पूरी मिलती है व निष्ठावान बेचारे भटकते रहते हैं। अतः या तो पद Rotation में हो या ऐसे व्यक्तियों को पद छोड़ने के लिए मजबूर किया जाए।
3. संस्थाओं में रजोगुण व तमोगुण बढ़ने पर Negative Carriers उत्पन्न हो जाते हैं। उसका कारण यह होता है कि ऐसे व्यक्ति संस्थाओं में बड़े जोश-खरोश के साथ जुड़ते हैं परन्तु कोई न कोई उनकी महत्वाकांक्षा भी साथ रहती है। पाँच-दस वर्ष कार्य करने पर जब उनका वह उद्देश्य (Hidden objective) पूरा नहीं होता तो वो पस्त हो जाते हैं व Negative Carriers की तरह व्यवहार करना प्रारम्भ कर देते हैं अब उनके द्वारा समाज को केवल
Negativity ही दी जाती है।                                 Catch Negative                       Great Negative                                                                                                 Give Negative

Thursday, December 8, 2016

युग नायक क्षमताओं का दोहन न करें


         युग सैनिक देवात्मा हिमालय के युग निर्मण के महायज्ञ में अपनी भागीदारी निभाते हुए युग नायकों की श्रेणी में आ रहे हैं। देवात्मा हिमालय की चैबीस हजार नायको की माँग की पूर्ति हेतु यह दिव्य अभियान चल रहा है। इस अभियान की सफलता हेतु प्रज्ञा परिजनों को अनेक सावधानियाँ रखनी है। जिसमे एक विशेष सावधानी यह है कि युग सैनिक अपनी क्षमताओं व सम्पदाओं का दोहन न करें। महाकाल प्रज्ञा पुत्रों को तीन सम्पदाएँ प्रदान कर रहा है- ओजस (अच्छा स्वास्थय), तेजस (प्रचण्ड मनोबल) एवं वर्चस (आध्यात्मिक विभूतियाँ)
यह विनम्र निवेदन है कि परिजन अपनी शारीरिक क्षमताओं का देाहन न करें। शरीर की अपनी सीमाएँ हैं। प्रत्येक युग निर्माणी को अपने शारीरिक क्षमताओं का उचित आंकलन करना चाहिए व उसी अनुसार अपने दायित्वों का वहन करना चाहिए। आवश्यकता से अधिक बोझ लम्बे समय तक उठाना शारीरिक सम्पदा का दोहन माना जाएगा जो उम्र बढ़ने के साथ-साथ समस्याएँ भी लेकर आएगा।
टापकी ईष्र्या, द्वेष, पद-प्रतिष्ठा की महत्त्वाकांक्षा से व्यक्ति की मानसिक क्षमताओं का दोेहन हो जाता है। कई बार अनेक प्रकार के भयों की चपेट में व्यक्ति फंस जाता है। प्रज्ञा परिजन इस प्रकार तालमेल बैठाएँ जिससे उनका तेजस बढ़ता रहे। 
टनेक परिजनों को महाकाल ने आध्यात्मिक विभूतियाँ प्रदान की। जिससे व्यक्ति में लोगों को आध्यात्मिक मार्गदर्शन देने की इच्छा उत्पन्न हुई। दूसरो को ऊपर खींचने के चक्कर में व्यक्ति अपनी आध्यात्मिक क्षमताओं का दोहन कर बैठा। यह ध्यान रखें कि डूबते हुए को बचाने के लिए रस्सी डाली जाए अपनी भुजा न पकडायी जाए। रस्सी यदि हम न खींच पाए तो छोड़कर अपना बचाव किया जा सकता है। परन्तु भुजा यदि पकड़ में आ गई तो वह हमें भी अपने साथ डुबाकर ले जा सकता है।
विशेष रूप से ध्यान रखने वाली बात यह है कि यदि किसी की किसी प्रकार के कष्ट निवारण में सहायता भी करनी है तो स्वयं कर हैं यह भाव न लाएँ। वरण गुरु सत्ता को बीच में अवश्य लाएँ। उनसे प्रार्थना करें। इससे वह भार व्यक्ति के ऊपर सीधा नहीं आएगा अपितु महाकाल की समर्थ सत्ता के अनुसार ही कार्य होगा व भार भी वही ग्रहण करेंगे। साधक में थोड़ा सा अहं बचा होता है तो वह स्वयं को बीच में ले आता है पता तब चलता है जब उसकी कमर उस भार से टूट जाती है।
यदि हमारी शारीरिक, मानसिक अथवा आध्यात्मिक क्षमताओं में कमी आती है तो हम नायक पद से वंचित हो जाएँगें। यह ठीक ऐसा है जैसे खिलाड़ी अपनी सामथ्र्य का ध्यान में रखते हुए मैदान में खेल का अभ्यास करते हैं। मान लीजिए मैं बैडमिन्टन का खिलाड़ी हूँ। पाँच मैच की मेंरी सामथ्र्य है उतना खेलकर मुझमें ताजगी व शक्ति प्रतीत होती है परन्तु जोश में आकर 10 मैच खेल जाता हूँ जिससे बड़ी थकान व टूटन प्रतीत होती है। यह मेरे लिए हानिकारक सिध्द हो सकता है। माॅस पेशियों के बजाय मजबूत होने के उनमे विकृतियाँ आ सकती है। मैंने ऐसे कई खिलाड़ी देखे है जो पहले बहुत बैडमिन्टन खेलते थे परन्तु उनकी माॅस-पेशियाँ खिचाव में आ कई व डाक्टर्स की राय से उनको खेलना छोड़ना पड़ा।
क्षमताओं के लगातार दोहन से बैटरी डिसचार्ज हो जाती है जो किसी काम की नहीं रहती। बिगड़ी हुई चीज को संवारने में, घायल हुए सैनिक के इलाज में बहुत समय, साधन खर्च होते हैं।
जब कोई प्रज्ञा परिजन भावनावश इस प्रकार की कोई मूर्खता कर बैठता है तो देवसत्ताओं को उसको सही करने में बहुत ताकत लगानी पड़ती है। अतः यह निवेदन है कि भावावेश में आकर अपनी क्षमताओं का दोहन न किया जाय।
यह बात भी सत्य है कि भगवान महाकाल सर्व समर्थ है व हमारा कुछ भी नुकसान नहीं होने दिया जाएगा। परन्तु भगवान भी प्रकृति के नियमों का उल्लंघन नहीं करता है वह भी नियमों के अन्तर्गत मर्यादा से बंधा हैं अतः तेज दौड़ने के कारण यदि कहीं गिर जाए तो भगवान सम्भालने अवश्य आएगा परन्तु चोट लग ही चुकी होगी।
महाकाल की सत्ता ने हमें एक आदर्श जीवन जीकर दिखाया अन्तिम समय तक वो शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक शक्तियों से भरे पूरे रहे। शरीर से इतने बलिष्ठ थे कि लगभग 65-70 वर्ष की अवस्था में जग एक सांड नियंत्रण से बाहर होकर आश्रम को नुकसान पहुँचाने लगा तो उसको भी काबू कर बाहर निकाल फेंका।
चाकूओं के अनेक घाव सहकर भी उनके मनोबल में कोई कमी नहीं आयी। कहने का बड़ा सीधा अर्थ है कि हमें शरीर, घर परिवार, आर्थिक स्थिति व युग निर्माण की गतिविधियाँ सभी में उचित तालमेल बैठाकर इस प्रकार चलना है कि हमारा कोई भी पक्ष कमजोर न रहे। समाज के सम्मुख एक आदर्श उदाहरण बनने का प्रयास करना है तभी आचार्य के रूप में समाज हमें स्वीकार कर पाएगा व हमसे सच्चे हृदय से जुड़ेगा व प्रेरणा पाएगा। पुस्तकें बेचने, प्रवचन करने, मेले ठेले लगाने व कथा कहानियाँ बांचने से काम नहीं चलने वाला क्योंकि यह सब कार्य तो अनेक संस्थाए अब अच्छे रूप में कर ही रही हैं। हममे यदि कुछ विशेषता है तो हम उनसे एक कदम आगे बढ़कर दिखाएँ।
आज का प्रबुध्द वर्ग केवल कोरी बातों पर विश्वास नहीं करता। हर कोई यही कह रहा है कि उनका गुरु सबसे बड़ा है व उनका मिशन सबसे बढ़िया है व उनका साधन पथ सर्वोत्तम है। यदि हमारा सर्वोपरि है तो सिध्द करके दिखाएँ, प्रमाणित करें अन्यथा कार्य के बाद विवाद में न उलझें। यह तभी सम्भव होगा जब हमारी शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक क्षमताएँ उच्च हांेगी व जनता भी उसको स्वीकार करेगी। अभी हम मात्र पुस्तकों की बात करते हैं, गुरु की बात करते हैं वह आवश्यक भी है परन्तु इसके साथ-साथ स्वयं का आदर्श प्रस्तुत करना भी परम आवश्यक है।                                                                                                         (विश्वामित्र राजेश)

Monday, November 14, 2016

युग नायकों की समीक्षा व निवेदन

जब तक था अज्ञान का अंधेरा
गलतियाँ हुई
अब है समय भरपाई का
एक स्थान पर 24 कुण्डी यज्ञ का आयोजन हुआ। बड़े मनोयोग से गायत्री परिवार के कार्यकर्ताओं ने इसकी तैयारी की। निमन्त्रण पाकर मुझे भी यज्ञ में सम्मिलित होने का सुअवसर प्राप्त हुआ। पहले दिन कलश यात्रा थी। यह क्या यहाँ तो 24 कलश उठाने के लिए 24 महिलाएँ नहीं मिल पा रही हैं। कार्यकर्ता बेचारे शर्म के मारे पानी-पानी हुए थे। मेरी आँखों में भी आँसू थे। जहाँ कभी अश्वमेघ यज्ञ हुआ था लाखों लोग एकत्र हुए थे वहाँ आज यह स्थिति।
     दूसरे दिन उपस्थिति थोड़ा बढ़ी परन्तु आँकड़ा तीन अंको तक नहीं पहुँच पाया। अन्तिम दिन रविवार को फिर भी उपस्थिति ठीक रही।
    मेरी आत्मा में अनेक प्रश्न उभरे! क्या सन् 2000 के उपरान्त गायत्री परिवार में वृ(ि हुई अथवा गिरावट आयी। क्या हम अपनी समीक्षा करने से डरते हैं? परीक्षा के लिए कितनी तैयारी है कया विद्यार्थी को उसका आंकलन नहीं करना चाहिए?
युग निर्माण के लिए हम कितना सशक्त हैं कितने संगठित है। क्या यह समीक्षा हमारे लिए अनिवार्य नहीं है? विस्तृत समीक्षा ‘युग के विश्वामित्र का आहवान्’ पुस्तक ;लेखक डा. राजेश अग्रवालद्ध में पढ़ने को मिलती है। यहाँ पर भी कुछ चर्चा की जा रही है।
शास्त्रों के अनुसार ‘गायत्री ब्राहम्ण की कामधेनु है’ 
इसका सीधा सा अर्थ है कि गायत्री का प्रयोग यदि सतोगुणी हुआ तो वह कामधेनु के समान साधक के जीवन में फलदायी हो जाती है। थोड़ा विस्तार में चिन्तन करें तो पाँएगें कि गायत्री जप से जो ऊर्जा उत्पन्न होती है व्यक्ति का मन उसका प्रयोग तीन तरह के प्रयोजनों को पूरा करने में करता है। पहला सतोगुणी, दुसरा रजोगुणी, तीसरा तमोगुणी। आत्म-चिन्तन करें कि हमारे मन मेें किस प्रकार के भाव अधिक उठते हैं-
1. मुझे अपने गुरु का काम करना है व एक आचार्य की भूमिका निभानी है।
2. मैंने जो मंच से बोला वह मेरे गुरु की प्रेरणा थी।
3. मान-अपमान मेरे गुरु को समर्पित है।
4. जीवन की आहुति गुरु के चरणों में, कर्म खर्च में निर्वाह।
5. अपने लिए कठोर व दूसरो के लिए उदार।
6. मेरी ख्याति गायत्री परिवार में दिन रात बढ़ रही है। मैं व मेरा परिवार पूजनीय बन जाए।
7. मुझे गायत्राी परिवार में बड़ा पद प्राप्त हो। मुझे लोग मुखिया की तरह सम्मान करें।
8. मैं अपनी तप साधना से किसी का भी भला-बुरा कर सकता हूँ।
9. मैं बड़ा लेखक, वक्ता हूँ मेरे भाषण व लेखन से इतने लोग प्रभावित होते हैं।
10. मैं गायत्री परिवार में इतने लम्बे समय से जुड़ा हूँ मैंने गुरुदेव का बहुत साहित्य पढ़ा है मुझे अब कुछ और पढ़ने की आवश्यकता नहीं है।
11. उसने मेरे चरित्र पर दोष लगाया जरा मिल जाए उसकी अच्छी तरह खबर लूँगा।
12. उसने मेरा इतना नुकसान कर दिया इसका बदला मैं लेकर रहूँगा।
13. उसे पता नहीं उसने किसका अपमान किया है उसका सर्वनाश हो जाएगा।
14. बहुत अच्छा हुआ जो उसका कार्यक्रम फलाप हो गया हमसे पूछे बिना कैसे कार्य सम्पन्न हो सकता था।
15. अच्छा हुआ जो उस पर कष्ट आया, मुझे उसने परेशान कर रखा था। भविष्य में भी वह कभी सुखी नहीं रहेगा।
यह समझाने के लिए एक सैम्पल बनाया गया है जिसमंे पहले 5 विचार सतोगुणी, दूसरे 5 विचार रजोगुणी व तीसरे 5 विचार तमोगुणी प्रकृति के हैं
अनेक साधकों की यह कुण्ठा रहती है कि इतना गायत्री जप किया फिर भी कुछ नहीं मिला। यदि हमारे मन में सतोगुणी विचारों की प्रधानता है तो ही गायत्री मन्त्र हमरे लिए कामधेनु के समान फलीभूत होने लगेगा। यह नहीं सोचना चाहिए कि रजोगुण व्यर्थ है जीवन निर्वाह के लिए रजोगुण चाहिए व सुरक्षा के लिए तमोगुण भी चाहिए। आसुरी शक्तियों से मिशन को बचाने के लिए तमोगुण भी आवश्यक है। यह खेल थोड़ा उलझा हुआ है व जो त्रिगुणतीत है वही तीनों गुणों को आवश्यकतानुसार उपयोग करने में समर्थ हैं।
संसार के अधिकतर प्राणी रजोगुण व तमोगुण की चपेट में हैं। जिसका परिणाम बड़ा ही घातक हो रहा है। सभी मिशनों की लगभग एक सी ही राम कहानी है-
इतना किया जप-तप, हाथ नहीं कुछ आया है।
लोगों को दिए उपदेश बहुत, स्वयं कुछ नहीं पाया है।।
यदि मिशनों के नामी-गिरामी कार्यकत्र्ताओं की सर्जीकल सटाइक हो जाए तो पता चलेगा कि किसी का दिल रोगी है तो किसी का पेट रोगी है तो कोई सिर दर्द व कमर दर्द से परेशान है।
धर्म-तन्त्र भी रजोगुण व तमोगुण की चपेट में है। एक ही गुरु के दो शिष्य एक-दूसरे को नीचे गिराने के लिए एक दूजे के ऊपर तन्त्र प्रयोग कर रहे हैं इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है।
परमपूज्य गुरुदेव ने प्रारम्भ से ही मिशन को रजोगुणी लोगो से बचाकर भावनाशीलों व त्याग द्वारा पोषित किया। इसी क्रम में उन्होंने अनेक धनवानों के प्रभाव से मिशन को बचाया यह सर्वविदित है। कुछ धनवानों का उन्होंने गुप्त रूप से सहयोग लिया परन्तु उनको मिशन में कहीं भागीदारी नहीं दी। ऐसे कईं उद्योगपति हैं जो डूबती हुई स्थिति में गुरुदेव के पास आए। गुरुदेव ने उनसे धन का एक भाग युग-निर्माण के लिए मांगा परन्तु उनको मिशन की योजनाओं से अलग रखा।
आज रजोगुणी व तमोगुणी लोगो के बढ़ते प्रभाव से मिशन में गुड़-गोबर की स्थिति उत्पन्न हो गयी है। जगह-जगह बड़े-बड़े भवनों का निर्माण हुआ है परन्तु भावनाशीलों की सख्यँा घटी है। शक्तिपीठो पर झगड़े झंझट बढे़ हैं। इसी कारण नए युवा मिशन से नहीं जुड़ पाए।
जो सम्पर्क में आए स्थिति व मानसिकता देखकर भाग खड़े हुए। गायत्री परिवार के शुभ-चिन्तकों, बड़े कार्यकत्ताओं, नायकों से यह विनम्र अनुरोध है कि वो अपनी जिम्मेदारी समझें व आसुरी शक्तियों द्वारा उत्पन्न मतिभ्रम से बाहर निकलें। समुद्र मंथन की भाँति आत्म चिन्तन करें। सारी बात समझ आएगी परतें खुलती जाँएगी, अहं के असुरी मकड़ जाल से मुक्ति मिलेगी। जब बालक को प्यार की भाषा समझ नहीं आती तो दूसरी भाषा बड़ी कष्टदायी होती है। मैं अपनी कलम से इसको नहीं लिखना चाहता हूँ।
युग नायकों की मानसिकता जिस दिन सही हो जाएगी। उस दिन युग-निर्माण के उपर छाया कोहरा हटने लगेगा। एक छोटी सी कहानी के द्वारा यह समझाया जा रहा है-
यूरी गैलर- ज्ीवनहीज च्वूमत या संकल्प शक्ति से चलती घड़ियों व संकल्प शक्ति से अंकुरित हो गया।
युग नेतृत्व के लिए उदारता आवश्यक- एक बार एक राजा जो बहुत ही न्यायप्रिय था भेष बदल कर घूमा करता था। वह एक गाँव में पहुँचा वहाँ गन्ने की बहुत अच्छी फसल हुयी थी। एक बूढ़ी माता खेत की देखभाल कर रही थी। 
मुसाफिर के भेष में राजा ने बूढ़ी माता से उसकी फसल के विषय में पूछताछ की। माता ने पहले तो मुसाफिर को गन्ने का रस पिलाया। मुसाफिर उसके अतिथि सत्कार से बहुत प्रसन्न हुआ। ऐसा रस उसने कभी नहीं पिया था। माता ने अतिथि को बताया कि राज्य का स्वामी बहुत ही श्रेष्ठ व्यक्ति है उसी के प्रताप से गाँव-खेत हरे भरे रहते हैं।
अब राजा को यह लगा कि जब उसके प्रताप से खेती हरी-भरी है तो इसका एक भाग उसके राज कोष को मिलना चाहिए। राजा ने अब प्रजा पर कर लगा दिया। राज कोष भरता रहा व राजा खुब प्रसन्न हुआ। इस प्रकार जीन वर्ष बीत गए। राजा एक बार वेश बदलकर प्रजा का हाल जानने के लिए निकला व उसी स्थान पर पहुँचा।
बूढ़ी माता ने पुनः दो गन्नें तोड़े व रस निकाला। गिलास इस बार आधा भरा था। राजा ने रस पिया तो उतना स्वादिष्ट भी नहीं लगा। मुसाफिर के भेष में राजा ने पूछा कि पहले तो गन्ने से अधिक रस निकलता था अब कम क्यों? इस पर बूढ़ी माता ने बड़ा सुन्दर उत्तर दिया-
‘‘जब से राजा दया हीन हुआ है यह धरती भी रस हीन हो गयी है।’’
राजा यह उत्तर सुनकर भौचक्का रह गया उसे अपनी गलती पर भारी पश्चाताप हुआ व उसने तुरन्त कर वापिस दिए।
आज भी समाज की यही विडम्बना है। अनेक मिशनों के पास भारी सम्पत्ति है धन-दौलत है परन्तु कार्यकत्र्ताओं में असन्तोंष है।
रजोगुणी व्यक्तित्वों का सहयोग मिशन को अवश्य लेना चाहिए परन्तु युक्तिपूर्वक उनके हाथ में मिशन की कमान न सौंपे। वर्षों पुरानी बात है हमारे छप्ज् में स्वदेशी पर एक बड़ा आयोजन हुआ। एक बड़े उद्योगपति को उसका मुख्य अतिथि बनाया गया जिससे कार्यक्रम का खर्च निकल आए। मैं भी कार्यक्रम के आयोजको में से एक था। मुख्य अतिथि का भाषण हुआ स्वदेशी की जोरदार वकालत हुई परन्तु छप्ज् के एक विद्यार्थी ने खड़े होकर मुख्य अतिथि से प्रश्न किया ‘‘ ैपत आप जिस गाड़ी में आए हैं वह तो विदेशी कम्पनी की है व यहाँ स्वदेशी की वकालत कर रहे हैं।’’ मुख्य अतिथि का तो मानो खू नही सूख गया व कार्यक्रम प्राणहीन सा नजर आने लगा। हमारी एक मुर्खता ने 15 दिन की मेहनत पर पानी फेर दिया।
इस प्रकार नायकों की त्रुटियाँ, अविवेकपूर्ण निर्णय, व्यक्तित्व की खामियाँ युग-निर्माण की गाड़ी में बैक गियर लगा देती है। युग-निर्माण में सुलझें हुए नायकों की भर्ती आवश्यक है। अच्छा तो यही है कि जो स्वयं को इस लायक नहीं समझते या जिनसे यह पवित्र प्लेटफार्म दूषित हो रहा है वो स्वयं को शीघ्र परिवर्तित कर लें या इसको छोड़ दें। उचित व समर्थ लोगों को सौंपने का प्रयास करें। इससे उनका सम्मान भी बना रहेगा एव वो विपत्तियों से भी बचे रहेंगे। युग-निर्माण में विलम्ब देवशक्तियाँ सहन नहीं करेंगी।
युग-नायको से विनम्र अनुरोध है कि वो अपने व्यक्तित्व को इस लायक बनाएँ कि एक श्रेष्ठ आचार्य के रूप में जनता उसका सम्मान करे। गलतियाँ आगे और नहीं सही जा सकती हैं। अब तो भरपाई का समय है जो पुरानी त्रुटियाँ हुई हैं ईमानदारी से उनकी भरपाई होनी चाहिए।
युग-निर्माण की टेन जितना लेट चल रही ह ैअब उसके सुपर-फास्ट गति से दौड़ने का समय आ गया है।
लेखक का विनम्र अनुरोध है व युगऋषि की चेतावनी।
पहले तो जन सामान्य को चेतावनी दी जाती थी अब पाँच करोड़ के विशाल गायत्री परिवार के लिए भी चेतावनी जारी हो चुकी है। युग-निर्माण की चुनौती के लिए एक-एक कदम सोच समझकर रखें जो कि हमारे गुरु को प्रसन्नता प्रदान कर सके।
विश्वामित्र राजेश।


Thursday, October 13, 2016

सोयाबिन

मित्रो आज से 40-45 वर्ष पहले भारत मे कोई सोयाबीन नहीं खाता था !
फिर इसकी खेती भारत मे कैसे होनी शुरू हुई ??  ये जानने से पहलों आपको मनमोहन सिंह द्वारा किए गए एक समझोते के बारे मे जानना पड़ेगा !
मित्रो इस देश मे 1991 के दौर मे Globalization के नाम पर ऐसे-ऐसे समझोते हुये कि आप चोंक जाएंगे ! एक समझोते के कहानी पढ़ें बाकि विडियो में है ! तो समझौता ये था कि एक देश उसका नाम है होललैंड और वहां के सुअरों का गोबर (टट्टी) वो भी 1 करोड़ टन भारत लाया जायेगा ! और डंप किया जायेगा ! ऐसा समझोता मनमोहन सिंह ने एक बार किया था !  जब मनमोहन सिंह को पूछ गया के यह समझोता क्यूँ किया ???? तब मनमोहन सिंह ने कहा होललैंड के सुअरों का गोबर (टट्टी) quality में बहुत बढ़िया है ! फिर पूछा गया कि अच्छा ये बताये की quality में कैसे बढ़िया है ??? तो मनमोहन सिंह ने कहा कि होललैंड के सूअर सोयाबीन खाते है इस लिए बढ़िया है !!  मित्रो जैसे भारत में हम लोग गाय को पालते है ऐसे ही हालेंड के लोग सूअर पालते है वहां बड़े बड़े रेंच होते है सुअरों कि लिए ! लेकिन वहाँ सूअर मांस के लिए पाला जाता है ! सूअर जितना सोयाबीन खाएगा उतना मोटा होगा ,और उतना मांस उसमे से निकलेगा ।  तो फिर मनमोहन सिंह से पूछा गया की ये हालेंड जैसे देशो मे सोयाबीन जाता कहाँ से है ???  तो पता चला भारत से ही जाता है !! और मध्यपरदेश मे से सबसे ज्यादा जाता है !!!
मित्रो पूरी दुनिया के वैज्ञानिक कहते है अगर किसी खेत में आपने 10 साल सोयाबीन उगाया तो 11 वे साल आप वहां कुछ नहीं उगा सकते ! जमीन इतनी बंजर हो जाती है !
अब दिखिए इस मनमोहन सिंह ने क्या किया ! होललैंड के सुअरों को सोयाबीन खिलाने के लिए पहले मध्यप्रदेश में सोयाबीन कि खेती करवाई ! खेती कैसे करवाई ??
किसानो को बोला गया आपको सोयाबीन की फसल का दाम का ज्यादा दिया जाएगा !
तो किसान बेचारा लालच के चक्कर मे सोयाबीन उगाना शुरू कर दिया! और कुछ डाक्टरों ने रिश्वत लेकर बोलना शुरू कर दिया की ये सेहत के लिए बहुत अच्छी है आदि आदि !
तो इस प्रकार भारत से सोयाबीन होलेंड जाने लगी ! ताकि उनके सूअर खाये उनकी चर्बी बढ़े और मांस का उत्पादन ज्यादा हो ! और बाद मे होललैंड के सूअर सोयाबीन खाकर जो गोबर (टट्टी) करेगे वो भारत में लाई जाएगी ! वो भी एक करोड़ टन सुअरों का गोबर(टट्टी ) ऐसा समझोता मनमोहन सिंह ने लिया ! और ये समझोता एक ऐसा आदमी करता है जिसको इस देश में Best Finance Minster का आवार्ड दिया जाता है !  और लोग उसे बहुत भारी अर्थशास्त्री मानते है !! 
मित्रो दरअसल सोयाबीन मे जो प्रोटीन है वो एक अलग किस्म का प्रोटीन है उस प्रोटीन को शरीर का एसक्रिटा system बाहर नहीं निकाल पाता और वो प्रोटीन अंदर इकठ्ठा होता जाता है ! जो की बाद मे आगे जाकर बहुत परेशान करता है ! प्रोटीन के और भी विकल्प हमारे पास है ! जैसे उरद की दाल मे बहुत प्रोटीन है आप वो खा सकते है ! इसके अतिरिक्त और अन्य दालें है !! मूँगफली है,काला चना है आदि आदि । 
http://rajivdixitji.com/16355/reality-of-soya-bean-in-india/

साबूदाना एक माँसाहारी आहार है

आइये देखते हैं आपके पंसदीदा साबूदाना बनाने के तरीके को।
यह तो हम सभी जानते हैं कि साबूदाना व्रत में खाया जाने वाला एक शुद्ध खाद्य माना जाता है, पर क्या हम जानते हैं कि साबूदाना बनता कैसे है? आइए देखते हैं साबूदाने की हकीक़त को, फिर आप खुद ही निश्चय कर सकते हैं कि आखिर साबूदाना शाकाहारी है या मांसाहारी।
तमिलनाडु प्रदेश में सालेम से कोयम्बटूर जाते समय रास्ते में साबूदाने की बहुत सी फैक्ट्रियाँ पड़ती हैं, यहाँ पर फैक्ट्रियों के आस-पास भयंकर बदबू ने हमारा स्वागत किया। तब हमने जाना साबूदाने कि सच्चाई को।
साबूदाना विशेष प्रकार की जड़ों से बनता है। यह जड़ केरला में होती है। इन फैक्ट्रियों के मालिक साबूदाने को बहुत ज्यादा मात्रा में खरीद कर उसका गूदा बनाकर उसे 40 फीट से 25 फीट के बड़े गड्ढे में डाल देते हैं, सड़ने के लिए। महीनों तक साबूदाना वहाँ सड़ता रहता है। यह गड्ढे खुले में हैं और हजारों टन सड़ते हुए साबूदाने पर बड़ी-बड़ी लाइट्स से हजारों कीड़े मकोड़े गिरते हैं।
फैक्ट्री के मजदूर इन साबूदाने के गड्ढो में पानी डालते रहते हैं, इसकी वजह से इसमें सफेद रंग के कीट पैदा हो जाते हैं। यह सड़ने का, कीड़े-मकोड़े गिरने का और सफेद कीट पैदा होने का कार्य 5-6 महीनों तक चलता रहता है। फिर मशीनों से इस कीड़े-मकोड़े युक्त गुदे को छोटा-छोटा गोल आकार देकर इसे पॉलिश किया जाता है।
आप लोगों की बातों में आकर साबूदाने को शुद्ध ना समझें। साबूदाना बनाने का यह तरीका सौ प्रतीशत सत्य है। इस वजह से बहुत से लोगों ने साबूदाना खाना छोड़ दिया है। जब आपको साबूदाना का सत्य पता चल गया है, तो इसे खाकर अपना जीवन दूषित ना करें।
कृपया इस पोस्ट को समस्त सधर्मी बंधुओं के साथ शेयर करके उनका व्रत और त्यौहार अशुद्ध होने से बचाए।

Sunday, October 2, 2016

वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो !



वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो !

हाथ में ध्वजा रहे बाल दल सजा रहे
ध्वज कभी झुके नहीं दल कभी रुके नहीं
वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो !

सामने पहाड़ हो सिंह की दहाड़ हो
तुम निडर डरो नहीं तुम निडर डटो वहीं
वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो !

प्रात हो कि रात हो संग हो साथ हो
सूर्य से बढ़े चलो चन्द्र से बढ़े चलो
वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो !

एक ध्वज लिये हुए एक प्रण किये हुए
मातृ भूमि के लिये पितृ भूमि के लिये
वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो !

अन्न भूमि में भरा वारि भूमि में भरा
यत्न कर निकाल लो रत्न भर निकाल लो
वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो


द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी