मनुष्य के चिन्तन और व्यवहार से मनुष्य का आचरण बनता है। जिस तरह का मनुष्य आचरण करता है, वैसा वातारण बनता है। वातावरण से परिस्थितियाँ बनती हैं और वही सुख, दुःख, स्थान, पतन का निर्धारण करती है। जमाना बुरा है, कलयुग का दौर है, परिस्थितियाँ कुछ प्रतिकूल बन गयी हैं, भाग्यचक्र कुछ उल्टा चल रहा है, यह कहकर लोग मन को हल्का करते हैं, पर इससे समाधान कुछ नहीं होता। जन समाज में से ही तो अग्रदूत निकलते हैं। प्रतिकूलता का दोषी मुर्धन्य राजनेताओं को भी ठहराया जा सकता है पर भूलना नहीं चाहिए इन सब का उद्गम केन्द्र मानवीय अन्तराल ही है। आज की विषम परिस्थितियों को बदलने की जो आवश्यकता समझते हैं उन्हें कारण की तह तक जाना होगा। अन्यथा सूखे पेड़, मुरझाते वृक्ष़ को हरा-भरा बनाने के लिए जड़ की उपेक्षा करके पत्ते सींचने जैसी विडम्बना ही चलती रहेगी। आज अन्तः के उद्गम से निकलने तथा व्यक्तित्व परिस्थितियों का निर्माण करने वाली आस्थाओं का स्तर गिर गया है। मनुष्य ने अपनी गरिमा खो दी है और संकीर्ण स्वार्थपरता का विलासी परिपोषण ही उसके जीवन का लक्ष्य बन गया है। वैभव सम्पादन और उद्धत प्रदर्शन, उच्छृंखलता दुरुपयोग ही सबको प्रिय है। समृद्धि बढ़ रही है पर उसके साथ रोग शोक कलह भी प्रगति पर है। प्रतिभाओं की कमी नहीं पर श्रेष्ठता संवर्धन व निकृष्टता उन्मूलन हेतु प्रयास ही नहीं बन पड़ते। लोक मानस पर पशु प्रवृतियों का ही आधिपत्य है। आदर्शों के प्रति लोगों का न तो रुझान है न ही उमंग है। दुर्भिच्छ सम्पदा का नहीं आस्थाओं का है। स्वास्थ्य की गिरावट, मनोरोगों की वृद्धि, अपराधी वृत्ति तथा उद्दण्डता सारे वातावरण में संव्याप्त हैं और ये ही अदृश्य जगत में उस परिस्थिति को विनिर्मित कर रही है जिसके रहते धरती महाविनाश युद्ध की विभिषिकाओं के बिल्कुल समीप आ खड़ी हुयी है।
ओउम् शान्ति शान्ति!
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