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जिन नियमों को अपनाकर व्यक्ति स्वस्थ जीवन जी पाए उनकी जानकारी व
वैज्ञानिक विवेचन नीचे दिया जा रहा है। अच्छा तैराक वह होता है जिसे नदी ष्ेऽ सभी
भंवरों की जानकारी होती है न कि वह जो भंवर में फंस जाए। यह संसार भी एक भवसागर है
जिसमें अनेक भंवर होते हैं। यदि एक बार व्यक्ति भंवर में फंस जाए तो निकलने में
काफी कठिनाई होती है, प्राण जाने का भय भी रहता है। इसी प्रकार यदि व्यक्ति किसी गम्भीर रोग ष्ेऽ
चंगुल में फंस जाए तो बहुत दर्द सहना पड़ता है व प्राण जाने का खतरा भी मंडराता
रहता है। इसीलिए समझदारी इसी में है कि हम यथा सम्भव स्वास्थ्य ष्ेऽ स्वर्णिम
सूत्रों का विस्तृत अध्ययन व पालन करने का प्रयास अवश्य करें। स्वास्थ्य के
सूत्रों को पाठकों को अपनी प्रकृति के अनुसार ग्रहण करना चाहिए। स्वस्थ व्यक्ति के
लिए सूत्र अलग हैं व रोगी के लिए अलग। उदाहरण के लिए शीतल जल में स्नान से बहुत
लाभ होता है परन्तु यदि ज्वर पीडि़त व्यक्ति ठण्डे जल से नहा ले तो हानि भी हो
सकती है। इसी प्रकार घी खाने से व्यक्ति हष्ट-पुष्ट बनता है परन्तु जिसका हाजमा
कमजोर है वह यदि घी खा ले तो पेट दर्द अथवा दस्त से पीडि़त हो सकता है। अतः पाठकों
से विनम्र निवेदन है कि विवेक का प्रयोग करते हुए अथवा किसी उत्तम वैद्य के
परामर्श से साथ ही सूत्रों का लाभ उठाएॅं। ये सूत्र निम्नलिखित हैं।
1. भूख व भोजन
अच्छे स्वास्थ्य ष्ेऽ लिए यह
आवश्यक है कि उचित भूख लगने पर ही भोजन किया जाए। ऐसा क्यों करें? कारण यह है कि जो भोजन हम करते हैं उसका परिपाक आमाशय में होता है। यदि भूख
ठीक न हो तो आमाशय ष्ेऽ द्वारा भोजन ठीक से नहीं पकता अथवा पचता। इस कारण भोजन से
जो रस उत्पन्न होते हैं वो दूषित रहते हैं। ये रस व्यक्ति में रोग उत्पन्न करते
हैं व स्वास्थ्य खराब करते हैं। इस समस्या ष्ेऽ आयुर्वेद में आमवात कहा जाता है।
किसी ने सत्य ही कहा है-
”आम कर दे काम तमाम“
श्।ड। पे जीम जमतउ नेमक पद ।लनतअमकं वित मदकवजवगपदे. ज्ीम ष्।उंष् ंतम
मदकवजवगपदे वितउमक पद जीम पदजमेजपदमे कनम जव ंिनसजल कपहमेजपवद. ज्ीम सवू कपहमेजपअम
पितम समंके जव वितउंजपवद व िमितउमदजंजपवद पदेपकम जीम पदजमेजपदमे ंदक जींज पद जनतद
बंद पदबतमंेम जीम वितउंजपवद व िचने ंदक उनबने. ज्ीम वितउंजपवद व िष्।उंष् पे
पदबतमंेमक प िजीम विवक पे तपबी पद ंिेज विवकेए चंबांहमक विवकए इनतहमतेए चप्र्रंेए
दवद.अमह कपमज ंदक वजीमत ीमंअल हतमंेल पजमउे.
..;क्त. टपातंउ ब्ींनींदद्ध
यह आमवात ही सन्धिवात का मूल कारण होता है।
परन्तु आज विडम्बना यह है कि
व्यक्ति को खुलकर भूख लगना ही भूख लगना ही बंद हो गया है प्राष्ृऽतिक भूख व्यक्ति
को लग नहीं पा रही है। बस दो या तीन समय भोजन सामने देख व्यक्ति भोजन कर डालता है।
ऐसी स्थिति में व्यक्ति भूख से कम खाए। भोजन पेट की भूख से तीन चैथाई करें। एक
चैथाई पेट खाली रखें। जब पेट भरने लगे अथवा डकार आ जाए तो भोजन करना बन्द कर दें।
ठूस-ठूस कर खाने से शरीर भारी हो जाता है। भूख से अधिक खाने पर पाचन तन्त्र पर एक
दबाव बनता है। पेट, आमाशय, आॅंतें मिलकर पाचन तन्त्र बनता है, इसमें फूलने सिकुड़ने की क्रिया
होती रहती है, और उलट पुलट के जिए जगह की गुंजाईश रखे जाने की आवश्यकता पड़ती है। इस सारे
विभाग में ठूॅंस-ठूॅंस कर भरा जाए और कसी हुई स्थिति में रखा जाए, तो स्वभावतः पाचन में बाधा पड़ेगी, अवयवों पर अनावश्यक दबाव-खिंचाव
रहने से उनकी कार्यक्षमता में घटोतरी होती जाएगी। उन अंगों से पाचन के निमित्त जो
रासायनिक स्त्राव होते हैं,
उनकी मात्रा न्यून रहेगी और सदा हल्की-भारी कब्ज बनी रहेगी।
आहार के सम्बन्ध में यह विशेष
उल्लेखनीय है कि सच्ची एवं परिपक्व भूख लगने पर ही खाना खाएॅं। रुस के स्वास्थ्य
विशेषज्ञ ब्लाडीमार कोरेचोवस्को का मत है - भूख से जितना अधिक खाते हैं, समझना चाहिए कि उतना ही विष खाते हैं।
बच्चों ष्ेऽ लिए भोजन में
कोई नियम नहीं रखने चाहिए। जब इच्छा हो खाएॅं। युवाओं ष्ेऽ पौष्टिक भोजन
नियमानुसार करना चाहिए व प्रौढ़ भोजन सन्तुलित करें।
अपवाद ;म्गबमचजपवदेद्धः
बहुत से व्यक्ति डायबिटिज व अन्य घातक
रोगों ष्ेऽ चंगुल में फंस कर बहुत कमजोर हो गए हैं। ऐसे लोगों को यह सुझाव दिया
जाता है कि हर दो तीन घण्टें में ष्ुऽछ न ष्ुऽछ खाते रहें अन्यथा बहुत दुर्बलता
अथवा अम्लता ;।बपकपजलद्ध बनने लगेगी।
2. भोजन का समय
दो समय भोजन काना अच्छा होता है। भोजन करने का सबसे अच्छा समय प्रातः 8 से 10 बजे व सांय 5 से 7 बजे ष्ेऽ बीच है। यदि कोई भारी खाद्य पदार्थ लेना है तो प्रातः ष्ेऽ भोजन में
ही लें, क्योंकि पाचन क्षमता सूर्य से प्रभावित होती है। 12 बजे ष्ेऽ आस-पास पाचन क्षमता सर्वाधिक होती है, अतः 10 बजे तक किया गया भोजन बहुत अच्छे से पच जाता है। अन्न वाले खाद्य पदार्थ दो
बार से अधिक न लें। परन्तु आवश्यकतानुसार तीन बार भी भोजन किया जा सकता है।
सांयकाल भोजन हल्का करें। भोजन का पाचन सूर्य पर निर्भर करता है। सूर्य की ऊष्मा
से नाभिचक्र अधिक सक्रिय होता है। भोजन पचाने में लगी अग्नि को जठराग्नि कहा जाता
है जिसका नियंत्रण नाभि चक्र से होता है। जिनका नाभि चक्र सुस्त हो जाता है, कितना भी चूर्ण चटनी खा लें भोजन ठीक से नहीं पच पाता। गायत्री का देवता सविता
;सूर्यद्ध है अतः नाभि चक्र को मजबूती ष्ेऽ लिए गायत्री मंत्र का आधा घण्टा जप
अवश्य करें। दो ठोस आहारों के बीच 6 घण्टें का अन्तर रखें। 3 घण्टें से पहले ठोस आहार न लें। अन्यथा अपच होगा जैसे हाण्डी में यदि कोई दाल
पकाने के लिए रखी जाए उसके थोड़ी देर बाद दूसरी दाल डाल दी जाए तो यह सब कच्चा पक्का
हो जाएगा। बार-बार खाने से भी यह स्थिति उत्पन्न होती है। भोजन के पश्चात् 6 घण्टें से अधिक भूखे न रहें। इससे भी अम्लता इत्यादि बढ़ने का खतरा रहता है।
3. भोजन की प्रकृति
रोटी ष्ेऽ लिए मोटा प्रयोग करें यह आॅंतों में नहीं चिपष्ेऽगा। मैदा अथवा
बारीक आटा आॅंतों में चिपक कर सड़ता है जिससे आॅंतों ष्ेऽ संक्रमण ;इन्फेक्शनद्ध का खतरा बढ़ जाता है।
साबूत दालें भिगोकर अंष्ुऽरित कर खाएॅं। भोजन का जरूरत से ज्यादा पकाएॅं
नहीं। भोजन ष्ेऽ विषय में कहा जाता है - हितभुक, )तभुक मितभुक हितभुक का
अर्थ है वह भोजन करें तो हितकारी हो। जैसे
दूध ष्ेऽ साथ मूली व दही ष्ेऽ साथ खीर लेना अहितकारी है परन्तु ष्ेऽले ष्ेऽ साथ
छोटी इलाइची एवं चावल ष्ेऽ साथ नारियल की गिरी लाभप्रद है )तभुक का अर्थ है भोजन
)तु ष्ेऽ अनुष्ूऽल हो उदाहरण ष्ेऽ लिए ग्रीष्म )तु में आटे में गेहूॅं ष्ेऽ साथ जौ
पिसवाना लाभप्रद रहता है क्योंकि जौ की प्रष्ृऽति शीतल होती है परन्तु वर्षा )तु
में गेहूॅं ष्ेऽ साथ चना पिसवाना आवश्यक है वर्षा )तु में वात ष्ुऽपित होता है
जिसको रोकने ष्ेऽ लिए चना बहुत लाभप्रद रहता है। अन्यथा व्यक्ति कमर दर्द व अन्य
पीड़ाओं से ग्रस्त हो सकता है। अन्तिम मितभुक का अर्थ है भूख से कम भोजन करें। पेट
को ठूॅंस-ठूॅंस कर न भरें।
4. भोजन के समय की स्थिति
भोजन से पूर्व अपनी मानसिक स्थिति शान्त कर लें। भोजन शान्त मन से चबा-चबा कर
व स्वाद ले-लेकर करें। यदि भोजन में रस आए तो वह शरीर को लगता है अन्यथा खाया-पीया
व बेकार निकल गया तथा पचने में मेहनत और खराब हो गई। भोजन करते हुए किसी भी प्रकार
ष्ेऽ तनाव, आवेश, भय, चिन्ता ष्ेऽ विचारों से ग्रस्त न हों। भोजन ईश्वर का प्रसाद मानकर प्रसन्न मन
से करें। भोजन को खूब चबा-चबा कर खाना चाहिए। आचार्य भाव मिश्र कहते हैंः-
ईष्र्याभयक्रोध् समन्वितेन, लुब्धेन रुग् दैन्यनिपीडितिेन।
विद्वेष युक्तेन च सेव्यमान, अन्नं न सम्यष््ऽ परिपाकमेतिû
अर्थात् भोजन ष्ेऽ समय ईष्र्या, भय, क्रोध, लोभ, रोग, दीनता का भाव, विद्वेष रखने से खाया हुआ अन्न भली-भाँति नहीं पचता है, जिससे रस रक्तादि की उत्पत्ति भी ठीक प्रकार शु( रूप से नहीं होती है। अतः
सुखपूर्वक बैठकर प्रसन्नता से धीरे-धीरे खूब चबा-चबा कर भोजन करना चाहिए।
भोजन ष्ेऽ समय कोई अन्य काम जैसे पुस्तक पढ़ना, टीवी देखना न करें।
भोजन को सही से चबाने पर उसमें पाचक रसों का समावेश उपयुक्त मात्रा में होता है।
यदि जल्दी जल्दी में भोजन को पेट की भट्टी में झोंक दिया जाए तो इसका परिणाम अपच, दस्त तथा गैस उत्पति के रूपमें अनुभव किया जा सकता है। जो लोग अप्रसन्न मन से
भोजन करते हैं उनके शरीर में कीटोन्स ;विषाक्त तत्वद्ध बढ़ने लगते हैं।
अतः जो भी भोजन ग्रहण करें प्रसन्न मन से भगवान् को धन्यवाद देना न भूलें।
5.
दिन में भोजन के पश्चात् थोड़ी देर
विश्राम एवं सांयकाल लगभग 100-200 कदम अवश्य चलें।
6. भोजन ष्ेऽ पश्चात् एक घण्टे तक जल न पीएँ। यदि आवश्यकता लगे तो भोजन ष्ेऽ बीच
अल्पमात्रा में पानी पीएँ,
क्योंकि अधिक जल पीने से पाचक रस मन्द हो जाते हैं।
7. सप्ताह में एक दिन इच्छानुसार स्वादिष्ट भोजन कर सकते हैं। पाँच दिन सामान्य
भोजन करें व एक दिन व्रत अवश्य करें। सामान्य भोजन में मिर्च मसालों का प्रयोग कम
से कम करें।
8. घी का सेवन वही करें जो शारीरिक कार्य अधिक करते हैं। मानसिक कार्य करने वाले
घी का सेवन अल्प मात्रा में ही करें। पित्त प्रकृति वालों के लिए घी का प्रयोग
लाभप्रद होता है।
9. दूध या पेय पदार्थों को जल्दी-जल्दी नहीं गटकना चाहिए। धीरे-धीरे चूस-चूस कर
पीना चाहिए। पेय पदार्थों का तापक्रम न तो अधिक गर्म हो न ही अधिक शीतल।
10. घी में तले हुए आलू, चिप्स आदि का प्रयोग कम से कम करना चाहिए। तलने ष्ेऽ स्थान पर भाप द्वारा
पकाना कहीं अधिक गुणकारी व सुपाच्य होता है।
11. क्या खाया? कितना खाया? यह महत्वपूर्ण नहीं है,
बल्कि कितना पचाया यह महत्वपूर्ण है।
12. भोजन जीवन का साधन मात्र है। शु(, सात्विक व स्वच्छ भोजन से ही जीवन
अच्छा हो सकता है।
13. इतना मत खाओ कि तुम्हारा शरीर आलसी हो जाए।
14. दिनान्ते च पिवेद् दुग्धं निशान्ते च जलं पिबेत्।
भोजनान्ते पिवेत् तक्रं वैद्यस्य किं प्रयोजनम्û
यदि रात्रि ष्ेऽ शयन से पूर्व दुग्ध, प्रातःकाल उठकर जल ;उषापानद्ध और भोजन ष्ेऽ बाद तक्र ;मट्ठाद्ध पिएँ तो जीवन में वैद्य
की आवश्यकता ही क्यों पड़े?
15. दीर्घ आयु के लिए भोजन का क्षारीय होना आवश्यक है। क्षार व अम्ल का अनुपात 3ः1 होनी चाहिए। जो लोग अम्लीय भोजन करते हैं उसमें उनको रक्त-विकार अधिक तंग
करते हैं। कुछ शोधों के निष्कर्ष यह भी बताते हैं कि भोजन में क्षार तत्व बढ़ाकर
हृदय की धमनियों के इसवबांहम भी खोलें जा सकते हैं। भोजन में अम्लीय पदार्थों की
मात्रा कम रखें।
स्वस्थ रहने के लिए रक्त की क्षारीयता 80 प्रतिशत तथा अम्लता 20 प्रतिशत होनी चाहिए। यह सन्तुलन बना रहता है, तब तक रोगों का भय
नहीं रहता है। आज की पश्चिम जीवनशैली को अपनाकर हमारे देश में अस्पताल और डाॅक्टर
दोनों बढ़ने पर तथा नई-नई दवाओं का आविष्कार होने पर भी रोग और रोगी दोनों ही घटने
का नाम नहीं ले रहे हैं। आवश्यकता है क्षारीयता प्रदान करने वाले खाद्यों का
उत्पादन भी बढ़ाया जाए और जीवनशैली में भी लाया जाए। रक्त को क्षारीयता प्रदान
करने वाले खाद्यों में चोकर युक्त आटे की रोटी, अंकुरित अनाज, मूली, गाजर, टमाटर, पत्तागोभी, हरा धनिया, मेथी, पालक, बथुआ, चने इत्यादि शाक-सब्जी,
सलाद तथा सभी ताजे पके हुए मीठे फल लेने चाहिए। सभी फल एवं
हरी सब्जियों का प्रयोग करें। अंकुरित मूॅंग, अंकुरित चना, अंकुरित सोयाबीन इत्यादि का भरपूर प्रयोग करें। मैदा, बेसन, बिना छिलके की दालें एवं सफेद चीनी, सफेद नमक, तेल, शराब, चाय, काॅफी, कोल्ड-ड्रिंक्स जैसे बोतलबंद पेय, बिस्कुट, ब्रैड , आचार, चाट, कचैड़ी, समौसा, नमकीन एवं पराठें, पूड़ी आदि खून में अम्लता बढ़ाकर रोग पैदा करते हैं अतः स्वास्थ्य रक्षा के
लिए अपने दैनिक भोजन में अधिकाधिक फल तथा हरी सब्जियों को स्थान देना चाहिए।
16. तीन सफेद विषों का प्रयोग कम से कम करें - सफेद नमक, सफेद चीनी व सफेद मैदा।
17. फल सब्जियों में ।दजपवगपकंदजे पर्याप्त मात्रा में होते हैं। इनका प्रयोग
लाभप्रद रहता है।
18. कभी-कभी बादाम व अखरोट का भिगोकर सेवन करते रहें। इससे जोड़ों की ग्रीस
अर्थात् ताकत बनी रहती है अखरोट में व्उमहं3होता है जो सेहत के लिए जरुरी है।
19. जितना सम्भव हो जीवित आहार लें। अधिक तला भुना पदार्थ व जंक फूड मृत आहारों की
श्रेणी में आते हैं।
20. गेहूॅं, चावल थोड़ा पुराना प्रयोग करें।
21. घर में फ्रिज में कम से कम सामान रखने का प्रयास करें। पुराना बारीक आटा व
सब्जी का प्रयोग जोड़ों के दर्द को आमन्त्रित करता है।
22. भोजन के उपरान्त वज्रासन में बैठना बहुत लाभकारी होता है। भोजन करने के
पश्चात् एक दम न सोएॅं न दिन में, न रात में।दिन में भोजन के पश्चात्
थोड़ी देर विश्राम व सांयकाल लगभग 100-200 कदम अवश्य चलें।
23. भोजन के पश्चात् दाई साॅंस चलाना अच्छा होता है। इससे जठाराग्नि तीव्र होती है
व पाचन में मदद मिलती है।
24. पानी सदा बैठकर धीरे-धीरे पिएॅं, एकदम न गटकें। जल पर्याप्त मात्रा
में पिएॅं अन्यथा भ्पही ठच् शिकार हो जाएॅंगे। सामान्य परिस्थितियों में जल इतना
पीएॅं कि 24 घण्टें में 6 बार मूत्र त्याग हो जाए। मूत्र त्याग करते समय अपने दाॅंत बीच कर रखें।
नियमित दिनचर्याः
अधिकांश व्यक्ति अपनी जीवन-शैली को अस्त-व्यस्त रखते हैं इस कारण रोगों की
चपेट में आने लगते हैं। रोगी होने पर एलोपैथी अथवा अन्य चिकित्सकों से इलाज कराते
हैं, परन्तु जीवन-चर्या को ठीक करने की ओर ध्यान नहीं देते। इस कारण रोग जिद्दी ;बीतवदपबद्ध होने लग जाते हैं। जब रोग घातक स्थिति तक पहुॅंच जाता है तभी आॅंख
खुलती है व रोग ष्ेऽ निवारण ष्ेऽ लिए बहुत परेशानी उठानी पड़ती है। यदि हम पहले से
ही सचेत रहकर अपनी जीवनचर्या पर नियन्त्रण रखें तो हम )षियों ष्ेऽ अनुसार ‘जीवेम शरदः शतम्’ अर्थात् 100 वर्ष तक स्वस्थ जीवन जी सकते हैं। इसष्ेऽ लिए हमें निम्न सूत्रों को जीवन में
अपनाना होगा।
25.
प्रातःकाल सूर्योदय से दो घण्टा पूर्व
अवश्य उठें। )षियों ने इसे ब्रह्ममुहूत्र्त की संज्ञा दी है। इस समय की वायु में
जीवनी शक्ति सर्वाधिक होती है। वैज्ञानिकों ने शोध किया है कि पेड़-पौधों की वृ(ि
इस समय व संधिकाल ;दिन-रात ष्ेऽ मिलने का समयद्ध में सबसे अधिक होती है।
26.
प्रातः उठने ष्ेऽ पश्चात् ऊषा पान ;जलपानद्ध करें। यह जल ताजा पी सकते हैं। यदि रात को ताम्र पात्र में जल भरकर
रख दें वह पीना अधिक लाभप्रद है। ताम्र पात्र को विद्युत रोधी लकड़ी, रबड़, प्लास्टिक ष्ेऽ ऊपर रखें इससे पानी में ऊर्जा निहित हो जाती है। यदि सीधा जमीन
या स्लैब आदि पर रख दें तो यह ऊर्जा जमीन में चली जाती है। शीत )तु में जल को
हल्का गर्म करष्ेऽ पीयें व ग्रीष्म )तु में सादा ;अधिक ठण्डा न होद्ध
लें। जल की मात्रा इच्छानुसार लें। जितना पीना आपको अच्छा लगे- आधा किलो, एक किलो, सवा किलो उतना पी लें। जोर-जबरदस्ती न करें। कई बार अधिक पानी-पीने ष्ेऽ चक्कर
में हृदय की धड़कन बढ़ती है या पेट में दर्द आदि महसूस देता है, अतः जितना बर्दाश्त हो उतना ही पानी पिया जाए।
27.
जल पीकर थोड़ा टहलने ष्ेऽ पश्चात् शौच
ष्ेऽ लिए जाएँ। मल-मूत्र त्यागते समय दाँत थोड़ा भींचकर रखे व मुँह बंद रखें।
मल-मूत्र त्याग बैठकर ही करना उचित होता है।
28.
मंजन जलपान करने से पहले भी कर सकते हैं
व शौच जाने ष्ेऽ बाद भी। ब्रश से ऊपर-नीचे करष्ेऽ मंजन करें। सीधा-सीधा न करें।
यदि अंगुली का प्रयोग करना हो तो पहली अंगुली तर्जनी का प्रयोग न करें। अनामिका ;त्पदह थ्पदहमतद्ध अंगुली का प्रयोग करें, क्योंकि तर्जनी अंगुली से कभी-कभी ;मनः स्थिति ष्ेऽ अनुसारद्ध हानिकारक तरंगें निकलती हैं जो दाँतों, मसूड़ों ष्ेऽ लिए हानिकारक हो सकती है। कभी-कभी नीम की मुलायम दातुन का प्रयोग
अवश्य करें। इससे दाँतों ष्ेऽ कीटाणु मर जाते हैं यदि नीम की दातुन से थोड़ा-बहुत
रक्त भी आए तो चिन्ता न करें। धीरे-धीरे करष्ेऽ ठीक हो जाएगा। ष्ुऽछ देर नीम की
दातुन करते हुए रस चूसते रहें उसष्ेऽ पश्चात् थोड़ा-सा रस पी लें। यह पेट ष्ेऽ
कीटाणु मार देता है। यदि पायरिया ष्ेऽ कारण दाँतों से रक्त अधिक आए तो बबूल की
दातुन का प्रयोग करें वह काफी नरम व दाँतों को मजबूती प्रदान करने वाली होती है।
मंजन दोनों समय करना अच्छा रहता है- प्रातःकाल व रात्रि सोने से पूर्व। परन्तु
दोनों समय ब्रश न करें। एक समय ब्रश व एक समय अंगुलि से मंजन करें। अधिक ब्रश करने
से दाँत व मसूढ़े कमजोर होने का भय बना रहता है। मंजन करने ष्ेऽ पश्चात् दो अंगुलि
जीभ पर रगड़कर जीभ व हलक साफ करें। हल्की उल्टी का अनुभव होने से गन्दा पानी आँख, नाक, गले से निकल आता है। इससे टान्सिलस की शिकायत नहीं होती।
29.
स्नान ताजे जल से करें, गर्म जल से नहीं। ताजे जल का अर्थ है जल का तापक्रम शरीर ष्ेऽ तापक्रम से कम रहना
चाहिए। छोटे बच्चों ;5 वर्ष से कमद्ध ष्ेऽ लिए अधिक ठण्डा जल नहीं लेना चाहिए। शरद् )तु में भी जल
का तापक्रम शरीर ष्ेऽ तापक्रम से कम ही होना चाहिए, परन्तु बच्चों, वृ(ों व रोगियों को गुनगुने जल से स्नान करना चाहिए। स्नान सूर्योदय से पूर्व
अवश्य कर लेना चाहिए। रात्रि में पाचन तन्त्र ष्ेऽ क्रियाशील रहने से शरीर में एक
प्रकार की ऊष्मा ;ीमंजद्ध बनती है जो शीतल जल में स्नान करने से शांत हो जाती है, परन्तु यदि सूर्योदय से पूर्व स्नान नहीं किया गया तो सूर्य की किरणों ष्ेऽ
प्रभाव से यह ऊष्मा और बढ़ जाती है तथा सबसे अधिक हानि पाचन तन्त्र को ही पहुँचाती
है।
30. स्नान ष्ेऽ पश्चात् भ्रमण ;तेज चाल सेद्ध, योगासन, प्राणायाम, ध्यान, पूजा का क्रम बनाना चाहिए। इसष्ेऽ लिए प्रतिदिन आधा से एक घण्टा समय अवश्य
निकालना चाहिए। बच्चों को भी मंदिर में हाथ जोड़ने, चालीसा आदि पढ़ने का अभ्यास
अवश्य कराना चाहिए।
शारीरिक श्रम व व्यायाम
31. स्वस्थ व्यक्ति प्रतिदिन इतना श्रम अवश्य करें कि उसष्ेऽ शरीर से पसीना निकलता
रहे। इससे खून की सफाई हो जाती है। जो व्यक्ति पर्याप्त मेहनत नहीं करता उसको
व्यायाम, योगासन अथवा प्रातः सांय तीन चार कि.मी. पैदल चलना चाहिए।
32. हमारा सम्पूर्ण शरीर माॅंसपेशियों का बना है। माॅंसपेशियों की ताकत बनाए रखने
ष्ेऽ लिए उचित शारीरिक श्रम अथवा व्यायाम अनिवार्य है।
33. चीन ष्ेऽ लोग
स्वस्थ व ताकतवर होते हैं क्योंकि वो साइकिलों का प्रयोग खूब करते हैं। पहले
महिलाएॅं घर का कार्य स्वयं करती थी इससे बहुत स्वस्थ रहती थी, परन्तु आज ष्ेऽ मशीनी युग ने हमारी माता-बहनों का स्वास्थ्य चैपट कर दिया है।
यह हमारे सामने प्रत्यक्ष है कि बागडि़यों व पहाड़ी महिलाओं को प्रसव में बहुत कम
कष्ट होता है। उनष्ेऽ यहाॅं आराम से घर पर ही बच्चे पैदा हो जाते हैं क्योंकि वो
मेहनत बहुत करती हैं।
34. शारीरिक श्रम व्यक्ति अपनी सामथ्र्य ष्ेऽ अनुसार करें। यदि रोगी व दुर्बल
व्यक्ति अधिक मेहनत कर लेगा तो उसे लाभ ष्ेऽ स्थान पर हानि भी हो सकती है। इस
स्थिति में पैदल चलना बहुत लाभप्रद रहता है।
35. समाज में ष्ुऽछ अच्छी परिपाटियाॅं अवश्य चलें। जैसे प्रातः अथवा सांय पूरा
परिवार मिलकर स्वयं लघु वाटिका चलाए ष्ुऽछ फल, फूल, सब्जियाॅं उगाए। इससे
परिवार को अच्छी सब्जियाॅं मिलेंगी व शारीरिक श्रम भी होगा।
36.
इन्द्रिय संयम - इस नियम ष्ेऽ अन्तर्गत
जीभ व जननेन्द्रिय का संयम आता है। जिह्वा संयम ष्ेऽ लिए सप्ताह में एक दिन अस्वाद
व्रत अर्थात् बिना नमक मिर्च मसालों का अस्वाद भोजन करें। जननेन्द्रिय संयम ष्ेऽ
लिए अश्लील वातावरण से बचने का प्रयास करें। गलत वातावरण बड़े-बड़े जितेन्द्रिय का
भी पतन कर देता है।
विवाहित व्यक्ति भी गृहस्थ जीवन में मर्यादानुसार ही सम्भोग करें। 25 से 35 वर्ष तक ष्ेऽ गृहस्थी हफ्ते, दो हफ्ते में एक बार, 35 से 45 वर्ष की आयु तक ष्ेऽ गृहस्थी तीन चार सप्ताह में एक बार व इससे ऊपर दो चार
माह में एक बार ही मिलें। महिलाओं ष्ेऽ )तुकाल में यह वर्जित है क्योंकि इस समय
प्रष्ृऽति अनुष्ूऽल नहीं होती।
37. आहार, निद्रा व ब्रह्मचर्य इन तीनों बातों से स्वास्थ्य पर बहुत प्रभाव पड़ता है।
आहार में मांस, अण्डा, शराब, मिर्च-मसाले व अधिक नमक से बचना चाहिए। निद्रा छः से आठ घण्टे ष्ेऽ बीच लेनी
चाहिए व अश्लील चिन्तन से बचना ही ब्रह्मचर्य है।
38. जीवन आवेश रहित होना चाहिए। ईष्र्या-द्वेष, बात-बात पर उत्तेजित होने का
स्वभाव जीवनी शक्ति को भारी क्षति पहुँचाता है।
39. रात्रि को सोते समय मच्छरों से बचने ष्ेऽ लिए मच्छरदानी का प्रयोग करना चाहिए।
कीटनाशकों का कम से कम प्रयोग करना चाहिए। लम्बे समय तक मच्छरनाशक रसायनों ष्ेऽ
उपयोग से मनुष्य को सर्दी-जुकाम, पेट में ऐंठन और आँखों में परेशानी का
सामना करना पड़ सकता है। ये लक्षण और विड्डतियाँ पायरेथ्राइडस नामक ड्डत्रिम
कीटनाशक ष्ेऽ कारण होती हैं जो कीटों ष्ेऽ तंत्रिका तन्त्र पर हमला करता है।
सेफ्टी वाच समूह ‘सी.यू.टी.एस.’ ने अपने नए प्रकाशन ‘इज इट रियली सेफ’ में बताया है कि ये रसायन मानव शरीर ष्ेऽ लिए बहुत-ही विषैले और हानिकारक होते
हैं।
40.
भोजन बनाते समय साबुत दालों का प्रयोग
करना चाहिए। छिलका उतरी दालों का प्रयोग बहुत कम करना चाहिए। आटा चोकर सहित मोटा
प्रयोग में लाना चाहिए। बारीक आटा व मैदा कम से कम अथवा कभी-कभी ही प्रयोग करना
चाहिए। दाल, सब्जियों को बहुत अधिक नहीं पकाना चाहिए। आधा पका ;ींस िबववाद्ध भोजन ही पाचन व पौष्टिकता की दृष्टि से सर्वोत्तम है।
41. व्यस्त रहें, मस्त रहें ष्ेऽ सूत्र का पालन करना चाहिए। व्यस्त दिनचर्या प्रसन्नतापूर्ण ढंग
से जीनी चाहिए।
42. प्रातः उठते ही दिनभर की गतिविधियों की रूपरेखा बना लेनी चाहिए व रात्रि को
सोते समय दिन भर की गतिविधियों का विश्लेषण करना चाहिए। यदि कभी कोई गलती प्रतीत होती हो, तो भविष्य में उस त्रुटि को दूर करने का संकल्प लेना चाहिए।
43. शयन ष्ेऽ लिए बिस्तर पर मोटे बाजारू गद्दों का प्रयोग न करें, हल्ष्ेऽ रूई ष्ेऽ गद्दों का प्रयोग करें।
घर में अथवा आस-पास नीम चढ़ी गिलोय उगाकर रखें व हफ्ते पन्द्रह दिन एक-दो बार
प्रातःकाल उबालकर पीते रहें। गिलोय से शरीर स्वस्थ व निरोग रहता है। लीवर सुचारू
रूप् से काम करता है।
44. शीत )तु में दो तीन माह ;क्मबमउइमतए श्रंदनंतलए
थ्मइतनंतलद्ध आॅंवले का उपयोग करें। यह
बहुत ही उच्च कोटि का स्वास्थ्यवर्धक रसायन है।
45. प्रातःकाल सूर्योदय के समय सविता देवता को प्रणाम कर उत्तम स्वास्थ्य की कामना
करें व गायत्री मन्त्र पढ़ें। इससे सूर्य स्नान होता है। नस नाडि़यों के रोग जैसे
सर्वाइकल आदि नहीं होते।
46. वस्त्र सदा ढीलें पहने। नाड़े वाले कुर्ते-पजामे सर्वोतम वेश हैं। कसी जीन्स
आदि बहुत घातक होती हैं।
47. जब भी मिठाई खाएॅं, कुल्ला अवश्य करें।
48. घर में तुलसी उगाकर रखें इससे सात्विक ऊर्जा में वृद्धि होती है तथा वास्तु
दोष दूर होते हैं। समय-समय पर तुलसी का सेवन करते रहें।
49. मोबाईल पर लम्बी बातें न करें। यह दिमाग में टयूमर व अन्य व्याधियाॅं उत्पन्न
कर सकता है।
50. देसी गाय के दूध घी का सेवन करें। देसी गौ का सान्निधय भी बहुत लाभप्रद रहता
है।
51. दस-पन्द्रह दिन में एक बार घर में यज्ञ अवश्य करें। अथवा प्रतिदिन घी का दीपक
जलाएॅं।
52. ध्यान रहे लम्बे समय तक वासना, ईष्र्या, द्वेष, घृणा, भय, क्रोध के विचार मन में न रहें अन्यथा ये आपका स्नायु तन्त्र ;छमतअवने ैलेजमउद्ध विकृत कर सकते हैं। यह बड़ा ही दर्दनाक होता है न व्यक्ति
जीने लायक होता है न मरने लायक।
53. धन ईमानदारी से कमाने का प्रयास करें। सदा सन्मार्ग पर चलने का अभ्यास करें।
इससे आत्मबल बढ़ता है।
54. सदा सकारात्मक सोच रखे। यदि आपने किसी का बुरा नहीं सोचते तो आपके साथ बुरा
कैसे हो सकता है। यदि आपसे गलतियाॅं हुई हैं तो उनका प्रायश्चित करें। इससे उनका
दण्ड बहुत कम हो जाता है। जैसे डाकू वाल्मिकी ने लोगों को लूटा तो सन्त हो जाने पर
बेसहारों को सहारा देने वाला आश्रम बनाया।
55. रोग का उपचार नहीं कारण खोजिए। रोगों का इलाज औषधालय में नहीं भोजनालय में
देखिए।
56. यदि किसी को बार-बार जुकाम होता है तो नाक में रात्रि में सोने से पहले दो
बूॅंद शुद्ध सरसों का तेल अथवा गाय का घी डालें। इससे नेत्र ज्योति बढ़ती है।
दिमाग तेज होता है व नजला जुकाम आदि विकारों से राहत मिलती है।
57. रात्रि में सोने से पहले पैरों के तलवों पर सरसों के तेल की हल्की मालिश करने से नस-नाडि़याॅं मजबूत होती है व नींद
अच्छी आती है।
58. यदि किसी के हृदय की धड़कन बढ़ती है तो यह हृदय की माॅंसपेशियों की कमजोरी
दर्शाता है इसके लिए 10 पत्ते पीपल के लेकर दोनों तरफ से थोड़ा-थोड़ा कैंची से काटकर दो गिलास पानी
में उबाल लें। जब पानी एक गिलास बचे तो उसको हल्के नाश्ते के बाद 10-10 मिनट के उपरान्त तीन बार पीएॅं। इससे हृदय की माॅंसपेशियाॅं मजबूत होती हैं व
धड़कन में राहत मिलती है। पीपल का पत्ता हृदय की ेींचम का होता है व उत्तम ीमंतज
जवदपब माना जाता है। यह प्रयोग 10-15 दिन तक कर सकते हैं।
59. घर में प्रतिदिन घी का दीपक जलाने से नकारात्मक ऊर्जा नष्ट होती है व परिवार
के सदस्यों का तेज बढ़ता है। जिन लोगों को भूत-प्रेत, टोने-टोटकों का भय हो वो कभी-कभी 24 घण्टें अखण्ड दीप जलाएॅं।