स्वामी के इस कथन के बाद ही उमाचरण ने
पूछा- ‘‘सचमुच क्या ईश्वर का
दर्शन मिल सकता है?’’
स्वामीजी ने कहा- ‘‘साधना करने पर गुरु-कृपा से
दर्शन मिल सकता है। क्या तुम प्रत्यक्ष दर्शन करना चाहते हो?’’
उमाचरण ने कहा- ‘‘प्रभो, तब तो
मैं धन्य हो जाऊँगा। मेरे लिए सौभाग्य की बात है कि स्वयं भगवान् को गुरु के रूप
में प्राप्त किया है। बिना भगवान् के भगवान् का दर्शन कैसे हो सकता है?’’
‘‘इस वक्त जाओ। दिन ढले, शाम को आना।’’
गुरु की इस आज्ञा को मानकर उसी दिन शाम को उमाचरण आश्रम पर आये। थोड़ी देर
बाद स्वामीजी ने कहा- ‘‘बगल के कमरे में काली की मूर्ति है।
जाओ, दर्शन कर आओ।’’
स्वामीजी की आज्ञा के अनुसार उमाचरण वेदी की बगल वाली कोठरी में गये। भीतर
माँ काली की पत्थर की मूर्ति थी। मूर्ति को प्रणाम करने के बाद वे चुपचाप आकर बैठ
गये।
‘‘क्या माँ को यहाँ देखना चाहते हो?’’
‘‘गुरुदेव, क्या मेरा ऐसा सौभाग्य है जो उन्हें यहाँ
देख सकूँगा? माँ को देखना और जगत्माता को देखना बराबर है।
अगर आप इस दीन के प्रति कृपा करें तो कृतार्थ होऊँगा।’’
उमाचरण को स्थिर भाव में बैठने को कहकर स्वामीजी ध्यानस्थ हो गये। लगभग एक
घंटे बाद उनका ध्यान भंग हुआ। उमाचरण ने प्रत्यक्ष रूप में देखा-कुमारी बालिका की
भांति उक्त पाषाणमयी माँ धीरे-धीरे चलकर उनके सामने आकर खड़ी हो गयीं। दीपक के
प्रकाश में चैतन्यमयी, सर्वमंगला, विश्वरूपिणी
जगत्माता प्रत्यक्ष रूप में दण्डायमान है। उमाचरण सचेतन होते हुए अचेतन हो गये।
स्वामीजी ने हंसकर कहा- ‘‘अब तुम भीतर जाकर देख आओ,
जहाँ काली मूर्ति थी, वहाँ है या नहीं?’’
वे भयभीत और विहृल भाव से भीतर गये तो देखा- वहाँ देवी-मूर्ति नहीं है। यह
देखकर वे और भी भयभीत हो उठे और तेजी से चलकर स्वामीजी के निकट आ गये। अब गौर से
मूर्ति को वे देखने लगे। इस समय देवी की जीभ बाहर नहीं निकली हुई थी और न पैरों के
नीचे महादेव थे। बाबा के आज्ञानुसार उन्होंने माँ के चरणों को स्पर्श कर चरण-रज
सिर से लगाया। चरण-स्पर्श करते समय मनुष्यों की भांति नरम अनुभव हुआ। देर तक वे
देवी-मूर्ति को देखते रहे। इसके बाद बाबा ने माँ को भीतर जाने का इशारा किया। माँ
धीरे-धीरे अपने कमरे में चली गयीं।
उमाचरण ने पूछा- ‘‘गुरुदेव, पाषाण-मूर्ति
कैसे चल रही थी? जो कुछ मैंने देखा, क्या
वह सत्य था?’’
स्वामीजी ने कहा- ‘‘तुम्हारा जड़ शरीर कैसे चलता है?’’
उमाचरण- ‘‘मनुष्य के शरीर में आत्मा और चैतन्य दोनों
है, इसलिए यह चलता है।’’
स्वामीजी- ‘‘सिद्धि-साधकों के गुण से मिट्टी,
धातु तथा पाषाण में आत्मा और चैतन्य का संचार हो जाता है, इसलिए मूर्तियाँ चलने लगती हैं, बोलने लगती हैं और
कार्य करती हैं।’’
दूसरे दिन गंगा-स्नान करने के बाद स्वामीजी ने कहा- ‘‘आज रात को एक बार आना। इसके बाद तुम्हें यहाँ आने की जरूरत नहीं होगी।’’
उसी दिन रात को उमाचरण जब आये तब स्वामीजी ने उन्हें प्रसाद खिलाया। इसके
बाद कुछ प्रणालियों के बारे में समझाया जिससे आत्मदर्शन होता है बोले- ‘‘आज से तुम बंधन में फंस गये। इन क्रियाओं को नित्य करते रहना। अगर
लापरवाही करोगे तो मुझे करना पडे़गा। दिन को अवसर न मिले तो रात को करना। रात को न
मिले तो भोर में करना, पर करना अवश्य। समय नहीं मिलता,
यह बहाना मत करना। अगर लापरवाही करोगे तो मुझे पता चल जायगा। धर्म के विषय
में किसी से बहस मत करना। मैं कुछ नहीं हँू मेरा कुछ नहीं है, इस बात को हमेशा याद रखना। ‘मैं’ नामक जो देह है, यह कुछ नहीं है। सब ईश्वर की देह
है।’’
इसके बाद उन्होंने कहा- ‘‘अब तुम अपनी आँखें बन्द कर
लो। जब पुकारूँ तब खोलना।’’
इतना कहकर स्वामीजी ध्यानस्थ हो गये। लगभग एक घंटे बाद स्वामीजी ने उमाचरण
को पुकारते हुए कहा- ‘‘अब आँखें खोलो और बताओ कि इस वक्त हम
कहाँ हैं?’’
उमाचरण ने देखा कि वे उस कमरे में नहीं हैं जिसमें अभी कुछ देर पहले थे।
इस वक्त गंगा के गर्भ में है। एक पलंग पर गुरुदेव बैठे हैं और वे पलंग के एक
किनारे हैं। पलंग पर सफेद गद्दा, तोशक और चादर बिछी है। तीन
ओर तीन मसनद है। एक मसहरी टंगी है। गुरुदेव लेटे हुए हैं।
उमाचरण ने सारी बातें बतायीं तब स्वामीजी ने कहा- ‘‘अगर
हम गंगा के भीतर हैं तो गंगा में पानी है या नहीं, यह देखो।’’
उमाचरण ने झुककर अपने हाथ से पानी का स्पर्श किया। उन्हें भय लगा कि कहीं
पलंग सहित पानी में डूब न जाय। वे स्वामीजी को स्पर्श कर बैठे रहे। थोड़ी देर बाद
स्वामीजी ने कहा- ‘‘अब पुनः अपनी आँखें बन्द कर लो।’’
आज्ञानुसार उमाचरण ने अपनी आँखें बन्द कर ली। कुछ देर बाद गुरुदेव ने कहा-
‘‘अब अपनी आँखें खोलकर बताओ कि हम कहाँ हैं?’’
इस बार आँखें खोलने पर उन्होंने देखा कि आश्रम के उसी कमरे में हैं जहाँ
इसके पूर्व थे। सामने बाबा लेटे हुए हैं। उमाचरण को यह स्वप्र जैसा लगा। बाबा
उमाचरण की ऊहापोह स्थिति को समझते हुए बोले- ‘‘यह आश्चर्य की
बात नहीं है। मनुष्य अगर वास्तविक मनुष्यत्व प्रापत कर ले तो उसकी जैसी इच्छा होगी,
वह वैसा कर सकता है। यह सब दिखाने का कारण यह है कि तुममें दृढ़
विश्वास उत्पन्न हो जाय। ऐसी बातें तुम स्वयं आयत्व कर सकते हो।’’
25 चैत के दिन बाबा ने कहा- ‘‘यहाँ जो कुछ तुमने देखा
या सुना, इसे किसी अविश्वासी के सामने मत प्रकट करना। धर्म
का सहारा लेकर दिन गुजारना। असली काम में गफलत न हो। तुम्हेें सब समझा दिया और
लिखा दिया। अब तुम्हें ठहरने की जरूरत नही है। जहाँ नौकरी करते थे, वहीं चले जाओ। तुम विवाहित हो, पत्नी तथा बच्चों का
पालन-पोषण तुम्हें ही करना है।’’
गुरुदेव की आज्ञा मानकर उमाचरणजी विभिन्न तीर्थों का दर्शन करते हुए
मुंगेर आ गये और अपने गुरुदेव का प्रचार करने लगे।
उमाचरण जिस दवा कम्पनी में काम करते थे, वहाँ एक
मजेदार घटना हुई। कम्पनी के मैनेजर महेन्द्रनाथ घोष ने एक दिन कहा- ‘‘उमाचरण, रोकड में छः सौ रूपये की कमी है। याद करो,
यह रकम किसी को दी गयी है या लिखने में भूल हो गयी है?’’
इन दोनों व्यक्तियों के जिम्मे हिसाब-किताब और लेन-देन की जिम्मेदारी रहती
है। उमाचरण उसी कमरे में रहते थे, जिसमें कार्यालय की सारी
चाभियाँ रहती है। दोनों व्यक्तियों ने श्रम करके खोजा, पर
कुछ पता नहीं चला। दोनों ही यह संदेह करने लगे कि हम दोनों मंे कोई चोर है।
धीरे-धीरे तीन माह गुजर गये, पर कोई सुराग नहीं मिला। नौकरी
से बढ़कर गबन का प्रश्न दोनों को परेशान करने लगा।
अन्त में इस मुसीबत से छुटकारा पाने के लिए उमाचरणजी काशी चले आये। सोचा,
बाबा को सारी बातें बताकर मुक्ति का उपाय पूछ लूँगा।
आश्रम में आकर ज्योंही वे बाबा को प्रणाम करके एक ओर बैठे, त्योंही बाबा ने कहा- ‘‘क्यों बेटा, कार्यालय में रुपयों की गड़बड़ी करके यहाँ पता लगाने आये हो?’’
उमाचरणजी बाबा की एषणा-शक्ति से परिचित थे। उन्होंने दबी जबान से कहा- ‘जी हाँ।’
स्वामीजी ने कहा- ‘‘जैसे तुम लापरवाह हो, वैसे ही तुम्हारे सहयोगी हैं। अमुक महीने के अमुक तारीख को पांच सौ रुपये
भेजे गये हैं। कलकत्ता के नरसिंह दत्त को 300 रूपये और
स्टैनिस्ट्रीट कम्पनी को 200 रूपये। तुमने ड्राफ्ट बनवाया और
रजिस्ट्री भी की थी। रसीद अमुक फाइल में है। उन लोगों ने प्राप्ति सूचना की रसीद
भी भेजी, जो फाइल में है। लेकिन दोनों रकम रोकड़ में दर्ज
नहीं है। रहा अब एक सौ रूपये का सवाल। उसे घोष महाशय स्वयं ही खोज निकालेंगे।’’
इसके बाद स्वामीजी बिगड़कर बोले- ‘‘तुम्हें मैंने
मना किया था कि मेरे बारे में कहीं किसी से कोई चर्चा मत करना। मुंगेर में जाकर
तुमने प्रचार किया। फलस्वरूप वहाँ से काफी लोग यहाँ दीक्षा लेने चले आते है। मैं
इन लोगों से तंग आ गया हँू। अब तुम मंुगेर में नहीं रह सकोगे। अब यहाँ से वापस
जाकर चीफ इंजीनियर, शिलांग, आसाम के
पते पर एक आवेदन पत्र भेज देना। वहाँ से स्वीकृति पत्र आते ही वहाँ चले जाना।’’
उमाचरण ने कहा- ‘‘गुरुदेव मैंने प्रचार नहीं किया है
यह सत्य है कि आपके बारे में मैंने अपने दो-चार मित्रों से चर्चा की थी।’’
स्वामीजी ने कहा-‘‘एक बात जान लो। मैं पाँच-छः माह
के भीतर देहत्याग करूंगा। समाचार भेजूंगा तब आना। कल ही तुम मंुगेर चल जाओ।’’
मंुगेर आकर घोष महाशय से सारी बातें कहने पर फाइलों की जाँच की गयी। अब एक
सौ रूपये की समस्या रह गयी। अचानक एक दिन घोष बाबू प्रसन्नता से चीख उठे- ‘‘मुखर्जी बाबू, मिल गया। एक सौ का भी हिसाब मिल गया।’’
‘कहाँ मिला?’
घोष महाशय ने कहा-‘‘अभी कुछ रोज पहले आफिस के
सामानों की रंगाई हुई थी। सन्दूक में ताजा रंग लगा था। सो उसमंें सौ रुपये का नोट
चिपक गया। यह देखो, नोट में रंग के दाग हैं। आपके गुरुदेव ने
ठीक ही कहा था। आप ऐसे गुरु के शिष्य हैं, यह बड़े सौभाग्य
की बात है।’’
इन्ही उमाचरण मुखोपाध्यात्मा जी ने तेलंग स्वामी की जीवानी सन् 1918 में बंगला भाषा में छपवाई थी। तत्पश्चात् श्री विश्वनाथ मुखर्जी द्वारा
एक बहुत सुन्दर प्रयास भारतीय योगियों के जीवन चरित को समाज में पहुँचाने का किया
गया है। ‘भारत के महान योगी’ अनुराग
प्रकाशन वाराणसी से छपा उनकी बहुत सी सुन्दर सात खण्डो में प्रकाशित पुस्तके है।
इसके पश्चात ‘योगी चरितामृत’ की
श्रृंखला द्वारा योगियों को पावन चरित के घर-घर पहुँचाने का एक अभियान प्रारम्भ
किया जा रहा है। भारत की धर्म परायण जनता से विनम्र अनुरोध है कि इस पुनीत कार्य
में अपना सहयोग अवश्य दें। पुस्तक की 10 या 24 प्रतियाँ मंगाकर अपने मित्र बन्धुओं, रिश्तेदारों
को जन्मदिन, दीपावली एवं अन्य अवसरों (जैसे पुण्य दिवस,
श्राद्ध तेरहवीं आदि) पर भेंट करें। इससे योगियों का आशीर्वाद आप तक
पहँुचेगा व आपके मनोरथ पूर्ण होंगे। यह सर्वाविदित है कि लेखक ने यह पुस्तकें आर्थिक
लाभ की आशा से नहीं लिखी हैं। इंटरनेट प्रयोग करने वाले इन पुस्तकों का प्रचार
अवश्य करें। पुस्तके की सोफ्ट काॅपी के लिए हमें मेल करें।