Sunday, January 24, 2016

श्यामचरण लाहिड़ी part-2

एक बार योगिराज के साले राजचन्द्र सान्याल के उच्च शिक्षा प्राप्त युवा पुत्र तारकनाथ, पेट के किसी असाध्य रोग से आक्रान्त थे। लम्बी चिकित्सा के बावजूद किसी प्रकार का लाभ न होते देखकर वे वायु-परिवर्तन के लिये कानपुर जाकर अपने पिता के एक घनिष्ठ मित्र के यहाँ रहने लगे। इस दरम्यान वहाँ के एक व्यक्ति ने उनसे कहा- ‘‘औषधि के द्वारा तुम्हारा यह रोग दूर नहीं होगा। यदि तुम्हें किसी महात्मा का आर्शीवाद प्राप्त हो जाए तो यह शीद्य्र ही दूर हो जायेगा।’’ और यह भी बताया कि ‘‘गोरखपुर में एक ऐसे महात्मा हैं। वहाँ जाकर जल्द ही उनकी कृपा प्राप्त करने की चेष्टा करो।’’ तारकनाथ गोरखपुर जाने की तैयारी करने लगे; उसी समय उनके पिता के मित्र ने सारी बातें सुनकर कहा- ‘‘तुम्हारे घर में ही महात्मा हैं और तुम महात्मा की खोज में कहीं और जा रहे हो?’’ तारकनाथ ने विस्मयपूर्वक पूछा ‘‘मेरे यहाँ महात्मा कहाँ से आ गए? मैंने तो कभी किसी महात्मा की चर्चा सूनी नहीं।’’ उनके पिता के मित्र ने कहा- ‘‘क्या तुम अपने फूफा श्यामचरण लाहिड़ी को जाने नहीं? वे ही महात्मा हैं। उनका आशीर्वाद प्राप्त करने की चेष्टा करो तभी कल्याण होगा।’’
     तारकनाथ को आश्चर्य हुआ। उनके फूफा एक महात्मा हैं, ऐसी बात इसके पहले उन्होंने कभी सुनी नहीं। कितनी बार उनके घर जा चुके हैं, उनसे कितनी बातें की है; किन्तु उनमें महात्मा जैसा कुछ दिखा नहीं।
     तारकनाथ काशी लौट आए और अपने पिता को साथ लेकर अपने फूफा से भेंट की।
     फूफा ने सारी बातें सुनकर तारकनाथ को एक टोटके वाली दवा दीं। तारकनाथ उसका इस्तेमाल करके नीरोग हो गए। उसके पश्चात् तारकनाथ उनसे योग की दीक्षा लेकर साधना में तल्लीन हो गए। किसी प्रकार के उपार्जन की चेष्टा न करते हुए देखकर योगिराज ने उन्हें कम साधना करने का आदेश दिया और कहा- ‘‘साधना भी करनी होगी और व्यवसाय के द्वारा जीविका का निर्वाह भी करना होगा। दूसरे के सहारे रहकर जीवन व्यतीत करना उचित नहीं। अपनी गृहस्थी स्वयं ही चलाना उचित है।’’
     यही तारकनाथ उसके पश्चात् अँगरेजी के प्रधान अध्यापक होने के बावजूद साधना के उच्चतम शिखर पहुँचने में समर्थ हुए थे।
     इससे साबित होता है कि योगिराज स्वयं को कितना गोपन रखते थे।
     एक बार की घटना है। योगिराज की मझली लड़की हरिकामिनी ससुराल से यहाँ आई है। अचानक उसे एश्यिाटिक काॅलरा हो गया। काशीमणि देवी ने योगिराज से अनुरोध किया कि जैसे भी हो कोई व्यवस्था करो और लड़की को बचाओ। तुम्हारे रहते हुए लड़की क्या मर जायेगी?
     योगिराज के मन में कोई उद्विग्नता नहीं, जैसे कुछ हुआ ही नहीं। काशीमणि देवी बार-बार अनुरोध करती हैं कि जैसे भी हो लड़की को बचाओ।
     योगिराज ने बिना कुछ कहे एक अपामार्ग की जड़ और ढाई गोलमिर्च देते हुए
 कहा- ‘‘ये दोनों एक साथ पीसकर पिला दो।’’
काशीमणि देवी ने सोचा विवाहिता लड़की है क्या पता कुछ हो जाये तो उसकी ससुराल में तरह-तरह की बात उठेगी, इसलिए डाक्टर की दवा ही ठीक है। वे योगिराज द्वारा दी गई दवा न देकर डाक्टर की दवा ही देने लगी। किन्तु दूसरे दिन लड़की का स्वर्गवास हो गया।
      योगिराज अन्य दिनों की तरह उस दिन भी शाम को गीता की व्याख्या कर रहे हैं और उनके सुयोग्य शिष्य पंडित पंचानन भट्टाचार्य गीता के मूल श्लोक का पाठ कर रहे हैं। अनेक भक्त उपस्थित हैं। इसी बीच ऊपर के कमरे में जोर-जोर से रोने की आवाज सुनाई पड़ी । सभी उपस्थित व्यक्ति विचलित हो गये। कारण पूछने पर योगिराज ने बताया कि- ‘‘मझली लड़की मर गई, इसीलिये सभी रो रहे हैं। लगता है श्मशान ले जाने वाले आये हैं।’’
      भट्टाचार्य महोदय ने गीता की पुस्तक को बन्द करते हुए कहा- ‘‘बस आज यही तक।’’
      योगिराज ने गम्भीरता पूर्वक कहा- ‘‘वे लोग अपना काम करें, तुम लोग अपना काम करो।’’
      उपस्थित सभी भक्तों ने कहा- ‘‘इस समय गीता की व्याख्या सुनने के लिये मन में धैर्य और स्थैर्य नहीं है आज बन्द रहने दिया जाये।’’
      योगिराज के मन में कोई उद्वेलन नहीं- जैसे कुछ हुआ ही नही। शान्त स्वर में उन्होंने कहा- अच्छा तो फिर बन्द रक्खो।
      दूसरे दिन योगिराज के साले राजचन्द्र सान्याल ने आकर योगिराज से पूछा- प्रियजनों की मृत्यु या वियोग में जो दुःख सामान्य व्यक्ति को होता है, वैसा क्या तुम्हें होता है?
      योगिराज ने मुसकराते हुए कहा- ‘‘दुःख तो सभी को होग; किन्तु ज्ञानी व्यक्ति के पक्ष में कुछ पार्थक्य है। जैसे पत्थर की गोली को अगर सख्त जगह पर जोर से मारो तो वह उछलती हुई दूर निकल जायेगी; किन्तु उसी को यदि नर्म मिट्टो पर जोर से मारो तो वह उसमें धँस जायेगी। इसी प्रकार ज्ञानी व्यक्ति को दुःख आघात नहीं दे सकता है। आघात उस पर भी होता है, किन्तु लौट जाता है और अज्ञानी उसी आघात से हाय-हाय करते हैं।’’
      जल में तैरत कमल के पत्तों की तरह सांसारिक जीवन का निर्वाह करते हुए यह महान गृहीयोगी कितनी सहजता के साथ दुःख, क्लेश-कष्ट से सदैव निर्लिप्त रहा करते थे। ठीक उसी तरह जिस प्रकार गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है-
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ । समदुःखसुखंधीरं सोऽमृत्वाय कल्पते ।।
      अर्थात् समस्त सुख-दुख में समभाव से जो धैर्यवान व्यक्ति व्यथित नहीं होते, उन्हें अमरत्व एवं शाश्वत आनन्द प्राप्त होता है।
      योगिराज प्रतिदिन सायंकाल गंगा के किनारे राणामहल घाट पर टहलने जाया करते थे। वहीं गंगा-तट पर भक्त कृष्णाराम का घर था। योगिराज कुछ देर तक टहलकर कृष्णाराम के मकान के बरामदे में बैठा करते और गीता के सम्बन्ध में नाना प्रकार की व्याख्याएँ करते। उसके बाद अँधेरा होने के पर्व ही वे घर वापस आकर बैठकखाने में बैठ कर भक्तों को उपदेश दिया करते। रात के नौ बजते ही सभी भक्त चले जाते। इसी क्रम में वे जब भक्तों को उपदेश देते तब कभी किसी समय ऐसा भी देखने में आता  िकवे अचानक हाथ जोड़ कर माथे से लगाकर प्रणाम करते। उपदेश के समय बीच-बीच में वे इसी तरह की मुद्रा में क्यों प्रणाम करते, यह उपस्थित भक्तों की समझ में नहीं आ पाता और पूछने का साहस भी नहीं जुटा पाते। इस प्रकार धीरे-धीरे भक्तों में एक कौतूहल की सृष्टि हुई।
      एक दिन जब उन्होंने उपेदश देते हुए अचानक प्रणाम किया तब उसी समय एक व्यक्ति घर से बाहर आकर देखता है कि एक भक्त योगिराज के बरामदे में साष्टांग प्रणाम कर रहा है और योगिराज उसी प्रणाम को स्वीकार कर रहे हैं। घर के भीतर से देखने का उपाय नहीं था। इस प्रकार बाहर से जब भी कोई उनके प्रति अपना प्रणाम निवेदित करता तब वे उसका प्रत्याभिवादन करते। यहाँ तक कि बहुत दूर से भी यदि उन्हें कोई प्रणाम करता तो वे उसका प्रत्याभिवादन करते यह भी देखने में आता। पास और दूर, भीतर और बाहर सभी कुछ उनके निकट स्वच्छ हो गया था। सभी के भीतर वे उसी एक को ही देखते।
      योगिराज ने कभी भी अपना प्रचार या प्रसार नहीं चाहा। इसीलिए वे किसी को अपना चित्र या फोटो खींचने की अनुमति नहीं देते थे। एक दिन सभी भक्तों ने उनका चित्र या फोटो खिंचवाने का निर्णय लिया और उनके ही एक भक्त एवं कुशल फोटोग्राफर गंगाधर दे को बुलाकर लाया गया। अब उन लोगों ने योगिराज की सहमति के लिए निवेदन किया। इस पर योगिराज ने कहा- ‘‘फोटो खीचने की कोई जरुरत नहीं। फोटो खींचने पर भविष्य में तुम सब साधना छोड़कर फोटो की ही पूजा शुरु कर दोगे।’’
      किन्तु भक्त कहाँ छोड़ने वाले थे। उनके बार-बार अनुरोध करने पर अन्त में योेगिराज ने फोटो खींचने की अनुमति दे दी। गंगाधर बाबू के साथ सभी भक्त प्रसन्नता के साथ फोटो लेने के लिए तैयार हो गये। योगिराज कैमरा के सामने जाकर बच्चों जैसी उत्सुकता के साथ कमरा के तमाम कल-पुर्जों के बारे में जानकारी लेने लगे। गंगाधर बाबू ने भी उत्साह पूर्वक कैमरे के विभिन्न अंशों के बारे में बताना-समझाना शुरू किया।
      किन्तु फोटो लेने के समय गंगाधर बाबू को एक बड़े संकट का सामना करना पड़ा। कैमरे के लेन्स में योगिराज की छवि प्रतिबिम्बित ही नहीं हो रही है। उन्होंने सोच कैमरे में कहीं कोई त्रुटि है। किन्तु परीक्षा करके देखा कि दूसरों का चित्र लेन्स में ठीक-ठाक प्रतिबिम्बित हो रहा है। गंगाधर बाबू को इतनी देर में सारा रहस्य समझ में आ गया। उन्होंने देखा कि योगिराज मुस्करा रहे है । इस बार गंगाधर बाबू ने हाथ जोड़ते हुए निवेदन किया- ‘‘आप दया करें नही ंतो फोटो नहीं खिच पायेगी और न तो भक्तों की मनोकांछा ही पूर्ण होगी।’’
      योगिराज ने इस बार हँसते हुए कहा- ‘‘खीचा, फोटो खींचो।’’ इस बार कैमरे के लेन्स में उनका चित्र स्पष्ट प्रतिबिम्बत होने लगा।
      इस समय उनके लाखों अनुयायियों या अनुगामी भक्तों के पास जो चित्र देखने को मिलता है उसे उस दिन गंगाधर दे ने खींचा था। इसके अतिरिक्त उनका दूसरा चित्र नहीं खींचा गया। किन्तु आश्चर्य की बात है कि कहीं भी किसी दुकान पर उनका चित्र नहीं मिलता। सम्भवतः वे प्रचार-प्रसार के प्रति विरक्त थे इसीलिए इस प्रकार की गोपनीयता पालन किया है। फोटो देखने पर सहज ही कोई अनुमान कर सकता है कि योगिराज का शरीर कितना सुडौल और सुन्दर था। वे योगी सुलभ दे हके अधिकारी थे। उनकी आँखों की ओर देखने से लगता था जैसे बड़ी तीक्ष्णता के साथ पूरे विश्व-ब्रह्माण्ड को देख रहे हों। वह शाम्भवी मुद्रा की स्थिति है।
      श्यामाचरण साधना के सर्वोच्च शिखर पर आरोहण करके आर्ष अवस्था को प्राप्त करने के बावजूद हमेशा सहजता एवं सरलता के साथ जीवन-यापन करते थे। अत्यन्त साधारण उनकी वेशभूषा थी। स्वल्पभाषी एवं मधुरभाषी श्यामाचरण कभी भी बिना किसी प्रयोजन के योग-विभूति के ऐश्वर्य को व्यक्त नहीं करते थे। कभी-कभी लीला या चमत्कार के बहाने अथवा मोक्षकामी भक्तों के विश्वास को दृढ़ करने की दृष्टि से ही उन्हें योग के चमत्कारों का प्रदर्शन करते देखा गया है। अध्यात्मशक्ति के मुख्यस्त्रोत के रूप में प्रतिष्ठित होकर भी योगिराज स्वयं को अत्यन्त क्षुद्र या अकिंचन समझते थे। भक्तों को भी इसी का उपदेश देते हुए कहा करते थे- ‘‘स्वयं को क्षुद्र या छोटा नहीं समझने पर आत्म-राज्य में प्रवेश नहीं किया जा सकता।’’ कई बार भक्तों से यह भी कहा करते कि- मैं गुरु नहीं हूँ; गुरु शिष्य के बीच कोई भेद या फर्क नहीं रखता हँू।’’
      उस समय योगिराज अध्यात्मशक्ति की ऊँचाई पर थे और अपनी अध्यात्म शक्ति के द्वारा मानव-कल्याण के लिए पतित पावन की भूमिका में प्रतिष्ठित थे। इसके अलावा उनमें कुछ ऐसी शक्ति थी कि केवल उनके दर्शन से ही लोगों का आध्यात्मिक रूपान्तर हो जाता था अनेक साधु-संन्यासी रात के गहरे एकान्त में उनके चरणों में बैठकर अत्यन्त दुरूह योग-साधना की शिक्षा प्राप्त करते थे और प्रातःकाल होते ही सभी चले जाते थे। इस प्रकार उन्होंने कितनी ही विनिद्र रातें काटी हैं। इसके लिए वे कभी उदास या निष्क्रिय नहीं दिखाई पड़ते थे। अवसन्नता का आभास ही नहीं था। हमेशा प्रसन्नता एवं प्रफुल्लता पूर्वक आगत भक्तों की इच्छा पूर्ण करने की चेष्टा किया करते थे। उस समय उनको देखने से लगता था जैसे कोई करुणा की घनीभूत मूर्ति हो। ऊँच-नीच के भेदाभेद से रहित होकर इस महायोगी को कई बार ऐसा करते देखा गया है कि वे स्वयं भक्तों की खोज-खबर रखते और उन पर अपनी अहैतुकी कृपा-दृष्टि रखते थे।
      योगिराज के वास-स्थान से थोड़ी दूर पर ग्वाला जयपाल भगत की दूध और दही की दुकान थी। वह दिन भर बैठे-बैठे दूध-दही बेचता और देखता कि कितने लोग महाराज जी के पास आते-जाते है। कितने लोग उनकी कृपा पाकर धन्य होते हैं। महाराज जी के प्रति जयपाल की गहरी श्रद्धा थी। जयपाल सोचता कि वह तो मामूली आदमी है, उसे क्या महाराज की कृपा प्राप्त होगी? साहस पूर्वक जयपाल कुछ कह नहीं पाता था। एक दिन जयपाल रास्ते में जा रहा था। अचानक सामने से महाराज जी को आते हुए देखकर वह भक्ति पूर्वक विनम्रता के साथ उन्हें प्रणाम करके रास्ते के किनारे खड़ा हो गया। महाराज जी प्रत्याभिवादन करने के पश्चात् थोड़ा मुस्कराए और कहा- ‘‘जयपाल तुम कल आओगे, तुम्हें दीक्षा दूँगा।’’
      जयपाल ने भक्ति पूर्वक प्रणाम करके कहा- ‘‘महाराज जी की जय हो।’’ जयपाल आनन्द में निमग्न होकर सोचने लगा कि महाराज जी स्वयं बुलाकर कृपा कर रहे हैं- क्या मैं उनके उपदेश का पालन कर सकूँगा।
      दूसरे दिन जयपाल ठीक समय पर उपस्थित हुआ और दीक्षा प्राप्त की।
      परवर्ती काल में देखा गया कि उसी छोटी-सी दूध दही की दुकान से ही जयपाल ने काफी अर्थोपार्जन किया था। भक्त जयपाल धन-धान्य और पुत्र-परिवार से सम्पन्न होने के बावजूद अन्त में सब कुछ पुत्रों को सौंपकर गंगा के किनारे एक कुटी में अकेले ध्यानस्थ होकर बैठा रहता। जयपाल साधना की उच्च स्तरीय भूमि पर उत्तीर्ण हो चुका था।
      इस प्रकार बाँग्लादेश की भागीरथी के किनारे एक छोटे गाँव में ईंट बनाने के भट्ठे हितलाल सरकार काम करते थे। किसी तरह मामूली आमदनी से घर-गृहस्थी चलाते थे। किन्तु परोपकार की सहजात वृत्ति उनमे थी। किसी गरीब दुःखी के कुछ मांगने पर अपने एवं परिवार के कष्ट की बात भुलाकर उसी समय अपनी सामथ्र्य के अनुसार उसे दान दिया करते थे। हितलाल घर-परिवार के लिए सारे काम करते; किन्तु बीच-बीच में उनका मन पता नहीं कहाँ चला जाता। गंगा के किनारे वे घण्टों बैठे रहते। हालांकि वे समस्त कार्य करते थे लेकिन कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। पता नहीं, हितलाल क्या पाना चाहते थे। उन्हें लगता जैसे जीवन अपूर्ण रह गया।
      हितलाल प्रत्येक दिन की चर्या के अनुसार उस दिन भी काम पर गये थे। नियमित रूप से कत्र्तव्यों का पालन कर रहे थे। अचानक उनके भाव-जगत में एक परिवर्तन आया। अकारण ही चित्त अत्यन्त व्याकुल हो गया। उन्होंने सोचा। यहाँ रहने से कोई लाभ नहीं, अभी ही कहीं चला जाना होगा। सोचने के अनुसार ही काम करना है। कारखाना छोड़कर हितलाल ने चलना शुरू किया। उन्हें ऐसा लगा जैसे कोई अदृश्य शक्ति अपने प्रबल आकर्षण द्वारा खींचे लिए जा रही है। कहाँ जाना है, क्या करना है, उन्हें इसका पता नहीं। मंत्रमुग्ध होकर वे चले जा रहे हैं। कुछ देर बाद रेलवे स्टेशन पर आकर उन्होंने देखा कि ट्रेन खड़ी है। ट्रेन से वे हावड़ा स्टेशन आ गये। हितलाल को इसका कोई ध्यान नहीं रहा। टिकट घर क सामने जाकर उन्होंने कहा- ‘‘एक टिकट दीजिए।’’ टिकट बाबू ने पूछा- ‘‘कहाँ जायेंगे?’’
      हितलाल ने कहा- ‘‘यही कुछ रूपये हैं, इससे जो हो एक टिकट दे दीजिए।’’
      प्रौढ़ टिकट बाबू ने समझा कि यह भलेमानुष किसी कारण से परेशान है। इसीलिए उन्होंने पूछा- ‘‘आप क्या कभी काशी गये हैं?’’
      हितलाल ने कहा- ‘‘नहीं, कभी भी काशी नहीं गया।’’ टिकट बाबू ने मुसकराते हुए कहा- ‘‘तो फिर काशी जाइये। इस रूपये में वहाँ तक का टिकट हो जायेगा। बाबा विश्वनाथ की कृपा से शान्ति प्राप्त होगी।’’
      हितलाल को ज्ञात था कि काशी में बंगाली टोला नाम की एक जगह है। वहाँ अनेक बंगाली रहते हैं। काशी रेलवे स्टेशन पर उतर कर वे पूछते-पूछते बंगाली टोला की ओर रवाना हो गये। पतली गली से वे चल जा रहे हैं। थके-माँदे और भूख-प्यासे हितलाल कहाँ जायेंगे। पता नहीं- चलना है इसीलिए चले जा रहे हैं। अचानक उन्होंने देखा कि एक मकान से सौम्यमूर्ति एक सज्जन व्यक्ति बाहर आकर उन्हें बुला रहे हैं। ‘‘सुनिये, इधर आइये।’’
      हितलाल विस्मयपूर्वक आगे बढ़े और पास जाकर कहा- ‘‘आप मुझे पहचानते नहीं और मैं भी आपको नहीं पहचानता तो फिर आपने मुझे क्यों बुलाया?’’ सज्जन व्यक्ति ने हँसकर कहा- ‘‘वह सब बाद में, आप थके-माँदे और भूखे-प्यासे है, पहले, नहा-धोकर और खा-पीकर आराम कीजिए।’’
      हितलाल ने सोचा इस सज्जन को मेरी व्यथा-कथा कैसे मालूम हुई?
      हितलाल के लिए नहाने-धोने और खाने-पीने की तथा विश्राम की यथोचित व्यवस्था की गई। विश्राम के पश्चात् अन्यान्य लोगों से बातचीत के दौरान उन्हें पता चला कि वे वही महात्मा योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी है जिनके बारे में उन्होंने केवल उनका नाम भर सुन रखा था।     
      इसी बीच योगिराज ने हितलाल को अपने कमरे में बुलवाया और कहा- ‘‘आपकी दीक्षा-प्राप्ति का समय आ गया है इसलिए मैं ही आपको यहाँ लाया हँू।’’
      योगिराज के चरणों पर हितलाल लोट पड़े। महायोगी की कृपा प्राप्त करके हितलाल धन्य हो गये।
      योगिराज का पड़ोसी एक युवक चन्द्रमोहन दे अभी-अभी डाक्टरी पास करके घर लौटा है। चन्द्रमोहन, राममोहन के भाई थे। एक दिन चन्द्रमोहन ने आकर योगिराज को प्रणाम किया और आशीर्वाद प्राप्त करने की प्रार्थना की। आशीर्वाद देकर योगिराज आधुनिक चिकित्सा के बारे में विधि विषयों पर पूछ-ताछ करने लगे। चन्द्रमोहन नये डाक्टर हुए हैं उत्साह की कोई कमी नहीं। आधुनिक चिकित्सा-विज्ञान के तमाम पक्षे को वे समझाने लगे।
      योगिराज ने उनसे जानना चाहा कि चिकित्सा-विज्ञान में मृत की क्या संज्ञा है?
      मृत की संज्ञा के बारे में चन्द्रमोहन ने बतलाया।
      फिर मुस्कराते हुए मजाक के स्वर में योगिराज ने कहा- ‘‘चन्द्रमोहन मेरी जाँच करके देखो तो मैं जीवित हँू या मृत?’’
      चन्द्रमोहन ने जाँच की; लेकिन अवाक; योगिराज के शरीर में कही भी प्राण का संकेत नही। हृत्पिण्ड बन्द है । चन्द्रमोहन क्या कहें- सोच ही नहीं पा रहे हैं। अचानक योगिराज ने मुस्कराते हुए कहा- ‘‘तो फिर चन्द्रमोहन मुझे एक डेथ सर्टिफिकेट लिखकर दे दो।’’
      चन्द्रमोहन और भी आफत में पड़ गये। क्या उत्तर दें, सोच रहे हैं। अकस्मात उनके दिमाग में एक बात आई और उन्होंने कहा- डेथ सर्टिफिकेट तो लिख देता; किन्तु आप तो बात कर रहे हैं; मृत व्यक्ति तो बात नहीं कर सकता।
      योगिराज हँस पड़े और कहा- ‘‘ठीक ही कहते हो; किन्तु जान लो, तुम लोगों के आधुनिक विज्ञान से ऊपर और भी बहुत कुछ जानने के लिये है। वहाँ तुम लोगों के विज्ञान की पहुँच नहीं है, किन्तु योगी सहजता के साथ ही उस ज्ञान की खोज कर सकते है।’’
      यह घटना चन्द्रमोहन के जीवन की एक अविस्मरणीय घटना थी। परवर्तीकाल में एक सफल चिकित्सक होने के बावजूद वे अध्यात्म-मार्ग के पथिक थे।
      

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