भगवान शंकर का विराट मंदिर ...। चहुँ ओर ‘ऊँ नमः शिवाय’ महामंत्र
की गूँज! वायुमंडल घंटियों के नाद से तरंगित था। मंदिर के परिसर में एक छोटे से
बालक ने प्रवेश किया । उसके संग थी, उसकी माता मुक्ताकेशी।
बालक का पूरा नाम था-श्यामचरण लाहिड़ी।
मंदिर की
पवित्र सुरभि से श्यामा अभिभूत था । उसकी आँखें छोटी-छोटी थीं। पर जिज्ञासाओं की
कुंड थीं। वह मंदिर की स्थूलता में सूक्ष्मता को ढूँढ़ रहा था। दृश्यों में अदृश्य
को भाँप रहा था। एकाएक उसकी दृष्टि भगवान शिव की मूरत की ओर सरक गई। अनुपम आकर्षण
ने उसे बाँध लिया। यह आकर्षण भौतिक चमक या गुलाबी गुलाबों के प्रति नहीं था।
वैराग्य के सौन्दर्य ने उसे मोह लिया था। जटाजूट! तन पर रमी भस्म! साधनस्थ मुद्रा
की भव्यता! महादेव के ध्यान की गहराई में मुँदे नेत्र श्यामा को भा गए थे। उनके
भाल पर समाई अतुलनीय शांति श्यामा में जिज्ञासाओं की खलबली मचा रही थी।
उसने माता
मुक्ताकेशी से पूछा- ‘माँ! ये कौन से भगवान
जी हैं? ये नेत्र मँूद कर ऐसे क्यों बैठे हैं?’ माता मुक्ताकेशी धार्मिक वृत्ति की थी। अपनी पूर्व जानकारी के आधार पर
बोली- ‘श्याम! ये देवाधिदेव भगवान शिव हैं। ये नेत्र मूँद कर
ध्यान में लीन हैं!’
श्यामा- माँ!
तुम कहती हो कि भक्त ध्यान लगता है, अपने भगवान को पाने के लिए। पर फिर भगवान किसको पाने के लिए ध्यान कर रहे
हैं? भगवान शिव तो स्वयं भगवान हैं! फिर वे किसकी साधना कर
रहे हैं?
मँ निरुत्तर
हो गई। झुंझलाती हुई बोली- ‘तेरी छोटी सी बुद्धि
की ये बड़ी-बड़ी उलझनें मैं नहीं सुलझा सकती। तू शिव जी से ही पूछ, वे ध्यान लगाकर क्या-क्या करते रहते हैं? ... और अभी
चल, लोटा जल से भर और मेरे साथ कुछ पूजा-अर्चना कर लें।’
कुछ समय के
बाद माँ-बेटा वापिस घर लौट आए। पर श्यामा का मन और हृदय वहीं ध्यानस्थ शिव-मूरत के
पास छूट गया था। घर के छोटे से मंदिर में स्थापित शिव-मूर्ति के सामने खड़ा होकर
वह अक्सर पूछा करता- ‘भगवान जी! आप ध्यान
क्यों लगाते हो?’
एक
दिन-मुक्ताकेशी की साँसें फूल रही थीं। जान साँसत में थी। वह श्यामा को खोज-खोज कर
थक गई थी। उसका कुछ अता-पता नहीं था। उसके सारे मित्रों के घर-आँगनों में वह फेरी
लगा आई थी। पर श्यामा कहीं नहीं मिला था। दोपरी के बाद... श्यामा मिला।
मगर किस
स्थिति में? गाँव के एक सुनसान क्षेत्र के एक वृक्ष
की छाँव में! ध्यान की अवस्था में बैठा हुआ। अपनी देह पर उसने मिट्टी मली हुई थी।
नेत्र मूँदे हुए वह गहनता में लीन था। गज़ब का स्वरूप था उसका- इतना दिव्य! इतना
भव्य!
मुक्ताकेशी तो
ठगी-सी रह गई। विचारों की विद्युत उसके मानस में कौंध पड़ी- ‘हाय राम! जिस आयु में बालक मिट्टी में
खेलते हैं, कपड़े सनते हैं- उसमें यह श्यामा मिट्टी को भभूति
की तरह तन पर रमाकर बड़े-बड़े संन्यासियों जैसे ध्यान कर रहा है! चैकड़ी मारकर,
रीढ़ तान कर, ऐसा अडोल बैठा है- मानो साक्षात्
शिव की प्रतिमा हो!.... सच! अद्भुत है, मेरा श्यामा!’
कुछ क्षणों के
बाद, श्यामा ने आँखें खोलीं! मुक्ताकेशी उसके
समीप ही बैठी थी। पहले शब्द जो श्यामा के मुख से झरे, वे थे-
‘माँ! मैं जान गया, शिव ध्यान लगाकर
क्या करते हैं?’
मुक्ताकेशी
(श्यामा के कंधों पर से मिट्टी झाड़ते हुए)- क्या जाना तूने?
श्यामा (गहरी
वाणी में)- एक दिन मैं भी वही कार्य करुँगा।
मुक्ताकेशी-
ऐसा क्या करते हैं शिव? और ऐसा क्या करना है
तुझे, जो शिव करते हैं?
श्यमा मौन
रहा। उसके स्वर गहन तंद्रा में खो गए। शायद उसकी चेतना को दिव्य रहस्य खोलना अभी
मंजूर नहीं थ। पर आगे चलकर.... स्वयं समय ने सकल समाज को इन सवालों का जवाब दिया।
33 वर्ष की
आयु में श्यामा को गुरु मिले- महावतार बाबा। पूर्व जन्मों की साधना प्रखर रूप से
प्रकट हुई। सुषुप्ति में सोया गुरुत्व जागृत हुआ। यही श्यामा प्रतिष्ठित हुआ-
सद्गुरु श्यामाचरण लाहिड़ी के रूप में! वही सद्गुरु- जो जीवंत शिव हुआ करते हैं।
साक्षात् महेश्वर के प्रतिरूप!
लाहिड़ी महाशय
का एक शिष्य था- कृष्णराम- एकनिष्ठ गुरु भक्त! अनूठी प्रीति थी, उसकी गुरु-चरणों के प्रति! गुरु के हाथों
में वह शिलावत समर्पण कर चुका था। इसलिए लाहिड़ी महाशय भी उसके अस्तित्व के हर
स्तर पर शिव के समान आसीन थे।
एक दिन...
लाहिड़ी महाशय के श्री चरण बनारस की गलियों को पावन कर रहे थे। कृष्णराम उनके
पद्चिह्नों का अनुसरण कर रहा था। भीड़भाड़ वाली गलियों से दोनों तनिक आगे निकलकर
खुले मैदान में पहुँच गए। सहसा लाहिड़ी जी का स्वर उभरा- ‘कृष्णराम! कपड़े का एक टुकड़ा मुझे देना।’
कृष्णराम में
थोड़ा अचम्भा जागा। उसने बुद्धि के अश्व दौड़ाए और बोला- ‘गुरु जी, कहीं की
सफाई करनी है, तो मुझे बताइए। मैं वहाँ कपड़ा फेर देता हँू।
लाहिड़ी जी
रहस्यमयी भाव से मुस्कुराए, बोले- ‘सफाई तो करनी है। पर वह तुम नहीं कर पाओगे। हमें ही करनी होगी।... लाओ,
हमें एक कपड़े का टुकड़ा दो।’
जब गुरु-वचन
मन-बुद्धि की पकड़ में न आएँ, तो शिष्य को
बेतर्क-बेशर्त समर्पण कर देना चाहिए। वही कृष्णराम ने किया। तुरन्त अपनी धोती की
किनारी को फाड़ा और टुकड़ा लाहिड़ी जी को सौंप दिया।
गुरु और शिष्य
पुनः मैदान में आगे बढ़ने लगे। अभी कुछ ही क्षण बीते होंगे... मैदान के पास स्थित
पहाड़ी पर जो रास्ता था, उससे एक बैलगाड़ी
गुज़र रही थी। सहसा उसका पहिया एक पत्थर से टकराया और उससे एक टुकड़ा छिटककर नीचे
लुढ़कने लगा। लुढ़कता हुआ वह सीधा लाहिड़ी महाशय की टाँगा से जा टकराया। ऐसा आघात
किया कि वहाँ गहरा घाव बन गया।
कृष्णराम
चीखा- ‘गुरु जी!... आह! यह कैसे...? आप यहाँ आइए...इधर...इधर... इस वृक्ष की छाँव तले बैठिए।’ कृष्णराम ने सहारा देकर लाहिड़ी महाशय जी को बिठाया। फिर उसने घाव देखा,
जो कि गहरा था। रक्त-धार देखकर वह बौरा सा गया। अफरा-तफरी में उसने
अपने गमछे से घाव को साफ किया। फिर बदहवास स्थिति में बड़बड़ाया- ‘औषधि!.... मैं कहीं आसपास से औषधि लेकर आता हँू। आप तनिक यहीं ठहरिए।’
इधर लाहिड़ी
महाशय सहज थे, स्थिर थे। ठीक जैसे एक राजा द्रष्टा बनकर
अपने ही आदेश को क्रियान्वित होते देखता है। उन्होंने मुस्कुराते हुए कपड़े का वही
टुकड़ा जो पहले ही कृष्णराम से लेकर अपने पास रख लिया था, उसे
अपनी टाँग पर बाँधा और खड़े हो गए।
औषधि के लिए
इधर जाऊँ या उधर- कृष्णराम दाएँ-बाएँ ताँक-झाँक कर रहा था। लाहिड़ी जी ने उसके
कंधे पर अपना हाथ रखा, उसे थपथपाया और
समझाया- ‘ठहर जा कृष्णराम! ठहर जा!... कहीं नहीं जाना। हमने
उस कपड़े से पट्टी बाँध ली है। यदि औषधि की दरकार होती, तो
हम उसे भी संग लेकर चलते।’
गुरु के ये
वचन कृष्णराम पर बिजली से कौंधे। घबराहट को चीरकर विवके का प्रकाश प्रगटा।
कृष्णराम ने दोनों हाथ जोड़ दिए। ‘गुरु जी!... इसका अर्थ है, आप पहले ही जानते थे कि
यह दुर्घटना घटने वाली है! इसीलिए वह कपड़े का टुकड़ा आपने लिया था। है न जी?’
- कृष्णराम ने उत्सुकता से पूछा। लाहिड़ी महाशय जी के होठों पर सरल
सी हँसी खेल गई।
कृष्णराम के
मन का अवसाद वाणी में भर आया- ‘तो फिर गुरु जी,
आपने अपनी रक्षा क्यों नहीं की? जब चट्टान
लुढ़क रही थी, तब आप आगे या पीछे हो जाते। स्वयं को यह पीड़ा
क्यों होने दी? कहिए न!...’
योगीराज ने
तिरछी दृष्टि से कृष्णराम की ओर निहारा और रहस्योद्घाटन किया- ‘क्योंकि पगले, हम
स्वयं ही यह दुर्घटना होने देना चाहते थे। हमने तुझे कहा था न, हमें सफाई करनी पडे़गी- इस दुर्घटना से कर्म-संस्कारों की ही सफाई करनी थी
हमें।’
कृष्णराम- पर
गुरु जी, आप तो कर्म-बंधनों से मुक्त हैं। आप पर
किसी कर्म-संस्कार की गठरी नहीं, फिर आपने यह फल क्यों भोगा?
योगीराज
लाहिड़ी- अरे भोलेराम, ये मेरे नहीं,
तेरे कर्म-संस्कारों का प्रतिफल था। नियति ने तुझे आजीवन अपाहिज़
बना देने के लिए आज का दिवस तय किया था। इस पत्थर का असहनीय आघात तेरी टाँग पर
होना था।
घाव देखकर
कृष्णराम के कलेजे पर जो भार पड़ा था, वह इस बात को सुनकर और अधिक भारी हो गया। नयनों के किवाड़ों पर जो अश्रु
थमे थे, वे अपनी सीमा लाँघ गए। कृष्णराम सुबकने लगा। उसका
कंठ ऐसा रुंधा कि आगे कुछ पूछ नहीं पाया। उसकी अंतरात्मा कैलाश की उस ऊँची चोटी का
दर्शन कर उठी, जहाँ गुरुदेव योगीराज लाहिड़ी जी साक्षात् शिव
स्वरूप में स्थित थे! शिष्य के कर्म-संस्कारों के संहारक शिव!
वापिस आश्रम
में.... माता काशीमणि (लाहिड़ी जी की पत्नी) को कृष्णराम ने सारी बात बताई। वे
औषधि व लेप आदि लेकर योगीराज के कक्ष में पहुँची। संग में कृष्णराम भी था, जो कृतज्ञता के भार से सिर नहीं उठा पा
रहा था।
काशीमणि (कक्ष
में प्रवेश करते ही)- स्वामी, वह कृष्णराम बता रहा
था कि....
योगीराज
लाहिड़ी- हाँ! हाँ!... छोटी-मोटी चोट ही है। कृष्णराम तो बतंगड़ बना रहा है।
कृष्णराम मौन
रहा। बस उसने झुककर योगीराज की धोती तनिक ऊपर की और काशीमणि को बंधी हुई पट्टी
दिखाई। काशीमणि ने तुरन्त पट्टी खोली। यह क्या!! चर्म स्वस्थ थी। घाव था ही
नहीं!...
इतने में
काशीमणि की नज़र दूसरी टाँग पर गई। उन्होंने वहाँ से धोती हटाकर देखा, तो बड़ा गहरा घाव वहाँ दिखाई दिया।
काशीमणि अचम्भित! बौराई आँखों से वह कभी पट्टी देखतीं, कभी
घाव, तो कभी योगीराज का मुखमंडल! कृष्णराम भी प्रहेलिका में
उलझा था।
योगीराज हँसते
हुए बोले- ‘इसमें इतना अचकचाने की क्या बात है!... उस
समय यह पगला कृष्णराम तो बदहवास था। औषधि के लिए इधर-उधर ताँक-झाँक कर रहा था।
इसलिए मैंने स्वयं ही पट्टी बाँध ली थी। इसे संभालने के चक्कर में मुझे भी ध्यान
नहीं रहा। मैंने गलती से दूसरी टाँग पर पट्टी बाँध ली।... चलो छोड़ो! लाओ, भई लाओ, लेप लगाओ इस घाव पर!’
कृष्णराम- आप
और गलती? जो गुरुदेव विधि के जटिल गणित में
हेर-फेर कर अपने नए समीकरण बनाते हैं- वे पट्टी बाँधने में गलती कर दें! ऐसा मैं
मान ही नहीं पा रहा, योगीराज। आप मुझे क्या समझना चाहते हैं,
कृपया स्पष्ट शब्दों में समझाएँ।
योगीराज
लाहिड़ी- कृष्णराम! घाव दे हके हैं। पीडाएँ देह की हैं। तू देह में रहता है, इसलिए इन यातनाओं से बद्ध है। मैं आत्मा
में रहता हँू, ब्रह्म में स्थित हँू। इसलिए मुझे ये
पीड़ा-तीड़ा नहीं व्यापती। पंचभूत निर्मित देह लेकर इसीलिए साकार होता हूँ ताकि...
कृष्णराम
(सुबकता हुआ)-ताकि मुझ जैसे निम्न कोटि के, देहासक्त साधक के कर्म-संस्कारों को अपनी देह पर भोग सकें! हैं न जी?...
परन्तु गुरुदेव, आपकी यह पावन-पुनीत देह संसार
के लाखों अनुयायिों के जीवन का केन्द्र है। यह मेरे कारण आहत हो, यह मुझे गंवारा नहीं। हे योगीराज! मैं संकल्प करता हँू, ऐसी साधना करुँगा कि मेरे पूर्व कर्म-संस्कार ज्ञानाग्नि में दग्ध हो
जाएँ! मन-वचन-कर्म से आपको इतना समर्पित रहूँगा कि नए कर्म-संस्कारों की गठरी न
बनने पाए।
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