योगिराज चाहते थे कि सभी लोग गृहस्थ-जीवन में रहकर स्वयं अपने द्वारा उपार्जित अर्थ के माध्यम से ही जीविका का निर्वाह करें एवं साथ ही साथ योग-साधना करते हुए धीरे-धीरे आत्मोन्नति के मार्ग पर अग्रसर हों। उन्होंने स्वयं उसी आदर्श को उपस्थित किया है। वे स्वयं साधारण, सहज, सरल तथा आडम्बरहीन जीवन जीकर योग की साधना करते हुए साधना के उच्च शिखर पर पहुँचे थे। और गृहस्थ या सांसारिक व्यक्ति के सामने एक उज्जवल आदर्श की स्थापना की है। हम यह नहीं जानते कि इस प्रकार का आदर्श और किसी ने स्थापित किया है या नहीं। संसार में रहकर साधना और भजन करने के लिये समयाभाव की दलील यदि कोई देता तो वे उसे नहीं मानते थे। बल्कि वे कहा करते थे कि यदि सचमुच किसी में ईश्वर-साधना की सदिच्छा या अच्छी भावना का संस्कार है तो वह सांसारिक व्यस्तता के बावजूद उसे कर सकता हैं। दूसरों पर निर्भर रहकर जीविका-निर्वाह करने की वृत्ति का वे कभी भी समर्थन नहीं करते थे। वे जानते थे कि आधुनिक स्वोपार्जनरत मनुष्य को अर्थ-संकट से ग्रस्त समाज के ऊपर निर्भर रहना पड़ता है। इसीलिए वे प्राचीन योगियों के कठोर आदर्शों का अनुमोदन नहीं करते थे। अपने घर में गुप्त रूप से साधना-रत योगियों की सुख-सुविधा के प्रति ही अत्यधिक आग्रहशील थे। उन्होंने ही सर्वप्रथम ऋषियों द्वारा प्रदर्शित कठिन योग की प्रणालियों को सामान्य लोगों के लिए उपयोगी बनाया, योग के बन्द द्वार को खोलकर सब के लिए सुगम योगमार्ग बनाया। उन्हें पता था आधुनिक क्षीणजीवी या कमजोर मनुष्य के पक्ष में प्राचीन योग की कठोर साधना सम्भव नहीं। इसीलिए उसकी प्राचीन जटिलताओं को सुलझाते हुए सर्वसाधारण के पक्ष में उसे प्रत्यक्ष फलप्रद, आडम्बरहीन, सहज, साध्य तथा सरल योग-साधना के रूप में परिवर्तित किया। उनके इस प्रयास के पूर्व प्राचीन कठोर योग-साधना सर्वसाधारण के लिए असम्भव-सा प्रतीत होता था। इस युग में उन्होंने ही सर्वप्रथम इस कठोर प्राचीन योग साधना को उपयोगिता की ऐसी दिशा प्रदान की है जो सबके लिए कल्याणकारी है। उनका यह प्रयास मानव समाज के लिए अविस्मरणीय रहेगा। उनके इस प्रयास ने मानव समाज को आत्मानुसंधान की दिशा में और भी उच्च स्तर पर प्रतिष्ठित कर दिया है। आज योग-साधन गृहस्थ मनुष्य-समाज के लिए कोई कठिन कार्य नहीं है। हमारे प्राचीन ऋषिगण भी योगसिद्ध मुक्त पुरुष थे। उन्होंने भी संसारिक जीवन में बँधकर विवाहित जीवन का निर्वाह करते हुए वर्णश्रम विधि के अनुसार योगयुक्त स्थिति में सभी कार्य सम्पन्न किया है। यही भारतीय संस्कृति की धारा है।
योगिराज कहा करते थे कि प्रत्यक्ष दर्शन के बिना प्रेमभक्ति एवं प्यार का जन्म नहीं होता। जैसे पुत्रहीन के लिए पुत्र-प्रेम सम्भव नहीं किन्तु पुत्र-जन्म के साथ ही उस पुत्र के प्रति क्या पूरा प्रेम-प्यार जाग उठता है? नहीं; तत्काल ऐसा नहीं होता; किन्तु पुत्र को प्रतिदिन जितना ही देखेगा लालन-पालन करेगा उतना ही धीरे-धीरे पुत्र के प्रति आकर्षण अनजाने ही बढ़ता जाएगा। जिसने ईश्वर को कभी देखा नहीं उसमें अनुमान से उसके प्रति सच्ची प्रेम-भक्ति कैसे सम्भव है? सम्भवतः पूर्व जन्म में अर्जित संस्कारों के कारण लाखों व्यक्तियों में किसी एक के भीतर वैसे प्रेम की अभिव्यक्ति हो सकती है। प्रतिदिन प्राणकर्म रूप या प्राणायाम सम्बन्धी कौशलपूर्ण योग-कर्म या अभ्यास करते रहने से कुछ न कुछ आत्मज्योति के दर्शन अवश्य ही होते रहते है प्रतिदिन जितनी ही आत्मज्योति का दर्शन प्राप्त होता रहेगा, उतनी ही तुम्हारे भीतर अज्ञात रूप से प्रेम-भक्ति की अभिव्यक्ति होगी। तब केवल उस अपरूप चिर निर्मल आत्मज्योति के दर्शन की इच्छा जाग्रत होगी जिसका दर्शन इस दृश्यमान जगत में सम्भव नहीं। इस प्रकार प्रत्यक्ष दर्शन में जितनी ही वृद्धि होती रहेगी उतनी ही उसके प्रति प्रेम-भक्ति भी विकसित होती रहेगी। अन्त में जब निर्निमेष दृष्टि से आत्मज्योति के दर्शन में तन्मय हो जाने पर प्रेम-भक्ति की रसानुभूति में उन्मत्त हो जाओगे। तभी अज्ञान-पाश के कट जाने पर शुद्ध भक्ति जन्मेगी। अतएव ईश्वर सत्ता के दर्शन के बिना ईश्वर के प्रति सच्ची प्रेम भक्ति सम्भव नही। वह सम्पूर्णतः प्राणकर्म या प्राणायाम सापेक्ष है।
प्रत्येक मनुष्य के शरीर मे मूलाधार चक्र में कुण्डलिनी शक्ति सोई हुई है। इस शक्ति को जब तक प्राणायाम या प्राण-कर्म द्वारा जगाया नहीं जा सकता तब तक साधन-भजन बाह्य आडम्बर है। साधना का उद्देश्य यह नहीं कि कि स्वर्ग-लोक में मृत्यु के पश्चात् वहाँ के आनन्द और ऐश्वर्य का उपभोग करेंगे। वैसे भोग की प्राप्ति तो बिना साधना के भी हो सकती है। वह तो किए गए सुकर्म का फल भोग मात्र है; सच्ची साधना का फल नहीं। साधना के द्वारा जीव की प्रगाढ़ मोह-निद्रा जब टूट जाती है तब उसे शिवत्व अथवा स्थिरत्व प्राप्त होता है अर्थात् वह पूर्णत्व प्राप्त कर लेता है। इसलिए योगी को कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत करना ही होगा। जीव का आत्मा शिवस्वरूप है, मंगलमय है जो मोह और अज्ञान से ढंका हुआ है। यह शिवरूपी आत्मा, व्योमतत्त्व अर्थात् विशुद्ध चक्र में शव के रूप में सुप्त है। इस सुप्तावस्था को जगाना होगा। प्राण-कर्म या प्राणायाम द्वारा कंठ में वायु के स्थिर होने से ही सुप्तावस्था चली जाती है। और कंठ में वायु स्थिर होने से ही नीलकंठ की संज्ञा प्राप्त होती है अर्थात् वायु की स्थिरता ही कंठ में नीलकंठता की परिभाषा है। शरीरस्थ पांच चक्र पांच तत्त्व के केन्द्र है। पृथ्वी, जल, अग्नि (तेज), वायु (मरुत) एवं व्योम (अकाश) प्रत्येक केन्द्र में अवस्थित है। शक्ति सभी चक्रों में समान-मात्रा में स्थित है। किन्तु मूलाधार चक्र में शक्ति के जाग्रत होने पर वह वायवीय शक्ति सुषुम्ना के भीतर से ऊपर की ओर उठती रहती है और क्रमशः सभी चक्रों में स्थित शक्ति को जाग्रत करते हुए पूर्ण रूप से जाग्रत होकर पाँचों चक्रों को मुक्त कर देती है। और तब इस स्थिति में अज्ञान का आभास तक नहीं मिलता। तब आत्मा का अज्ञान निद्रारूपी आवरण के छिन्न होने पर दूर हो जाता है और अन्त में शिव-शक्ति का मिलन होता है।
कृष्णराम के दो पुत्र और एक कन्या रात खा-पीकर सो गये। उनकी पत्नी ने विनयपूर्वक उनसे कहा- ‘‘छोटे लड़के के जनेऊ या यज्ञोपवीत का समय पार कर गया उसके जनेऊ की कोई व्यवस्था आपने नहीं की। जितनी जल्दी हो सके उपनयन-संस्कार की व्यवस्था करो।’’
कृष्णराम गरीब ब्राह्मण थे; किसी प्रकार गृहस्थी का निर्वाह हो जाता था। लड़के के उपनयन संस्कार के लिए पैसा कहाँ। वे गुरु महाराज के अनन्य भक्त और सेवक थे। कृष्णराम को इन सब बातों की कोई चिन्ता नहीं। पत्नी को सान्त्वना देते हुए कहा- ‘‘गुरु महाराज की जब कृपा होगी उपनयन की ठीक व्यवस्था हो जायेगी। मेरे पास तो पैसे नहीं है, अकारण चिन्ता करके क्या करूँगा। जिसकी चिन्ता है वे स्वयं ही करेंगे।’’
कृष्णराम दूसरे दिन सुबह उठकर गुरु महाराज को साथ में लेने गंगा स्नान के लिए प्रतिदिन की तरह योगिराज के घर गये। योगिराज आसन पर बैठे थे। कृष्णराम के प्रणाम करते ही योगिराज ने अपने आसन के नीचे से तीस रुपया निकाल कर दिया और कहा- इस रुपये के द्वारा शास्त्रानुसार अपने लड़के का उपनयन संस्कार करो। आडम्बर अथवा दिखावे का कोई प्रयोजन नहीं।’’ कृष्णराम ने लज्जित होते हुए कहा- ‘‘गुरु महाराज, आप मुझ पर हमेशा कृपा करते हैं। मैं तो ठीक से आपकी सेवा भी नहीं कर पाता। मुझे आप रुपया क्यों देंगे?’’
योगिराज ने कहा- ‘‘देखो कृष्णाराम देनेवाला मालिक तो एक ही है वे तो किसी-न-किसी के हाथ से ही देते हैं। अभी वे मेरे हाथ से ही दे रहे हैं तो फिर तुम लोगे क्यों नहीं?’’
कृष्णाराम ने सम्मान पूर्वक उस रुपये को ले लिया।
पाँचकोड़ी वन्द्योपाध्याय योगिराज के एक प्रिय भक्त थे जिनकी साधना अत्यन्त उन्नत थी; किन्तु गृहस्थी के पंकिल या गँदले परिवेश में रह कर भगवत्-साधना करना अत्यन्त कठिन देखकर उनके मन में वैराग्य का उदय हुआ। उन्होंने मन ही मन निश्चय किया कि घर-बार छोड़ कर चले जाएँगे। किन्तु इसके पहले गुरुदेव की अनुमति चाहिए। वन्द्योपाध्याय जी ने एक दिन गुरुदेव के पास आकर संन्यास लेने की अनुमति प्राप्त करने के लिए निवेदन किया।
योगिराज ने उनकी सारी बात सुनकर गम्भीर स्वर में कहा- ‘‘तुम्हारे जनेऊ का भार अधिक है या जटा का भार अधिक है? तुम क्या साधु की हैसियत से स्वयं का प्रचार करना चाहते हो ताकि लोग तुम्हें मानें-जाने और कुछ अर्थोपार्जन हो? देखो, गेरुआ वस्त्र पहनने से लोग यदि साधु हो सकते तो गधे-घोडे़ सभी साधु हो जाते। उनका भी रंग तो गेरुआ है तो फिर उन्हें साधु क्यों नहीं कहोगे? यह सब पागलपन छोड़ो, गृहस्थी में रहो स्वयं जो उपार्जन कर सकते हो उसी जीविका पर जीवन का निर्वाह करो और ईश्वर की साधना करो। दूसरों से दान लेकर जीवन-यात्रा का निर्वाह नहीं करोगे।’’
अन्त में सिर झुकाए पाँचकोड़ी वन्द्योपाध्याय चले गये। यही आगे चलकर केशवानन्द ब्रह्मचारी के नाम से विख्यात हुए थे।
योगिराज कहा करते थे कि भारतवर्ष में अध्यात्म-जगत के कंकाल स्वरूप मठ, मिशन एवं आश्रम का अभाव नहीं है। मठ-मिशन करने से ईश्वर की साधना नहीं होती। ये सब ईश्वर की साधना में बाधा उपस्थित करते है। किस प्रकार मठ और मिशन का प्रचार-प्रसार हो, इसी ओर ध्यान लगा रहता है। इसीलिए वे एकान्त एवं गोपन साधना पर अधिक बल देते थे। उनका कहना था कि गेरुआ पहनने पर लोग साधु के रूप में पहचान सकते है; किन्तु साधना में व्याघात या बाधा पड़ती है। सफेद कपड़े में लोग पहचान नहीं सकते और साधना भी भली भाँति हो सकती है। संन्यासी-जीवन अत्यन्त कठिन है, इसी कारण उन्होंने किसी भक्त को संन्यासी होने की अनुमति नहीं प्रदान की। हालाँकि पहले से ही संन्यासी में दीक्षित उनके अनेक भक्त थे। वे गृहस्थ को घर-संसार में ही रहने को कहा करते थे और संन्यासी को संन्यास आश्रम में रहने को उपदेश देते। उनका उपदेश था कि जो जिस आश्रम में है वह उसी आश्रम में रहकर आत्मसाधना करे। परिवर्तन की कोई आवश्यकता नहीं। ऐसी स्थिति में ही कल्याण होगा। वे पोशाक परिवर्तन का निषेध करते। वे कहते थे कि रंगीन पोशाक पहनकर साधु होने से ही ईश्वर की प्राप्ति होगी ऐसी-बात नहीं हैं जो जिस पोशाक में है और जो जिस परिवेश में है वही तुम्हारे अनुकूल है। उसी प्रकार रहकर ही आत्मसाधना करते रहो तभी जीवन सफल होगा।
महाप्रयाण
मरते मरते जग मरा, मरना ना जाने कोय ।
ऐसा मरना कोई ना मरा, जे फिर न मरना होय ।।
मरना है दुई भांति का, जो मरना जाने कोप ।
रामदुआरे जो मरे, फिर ना मरना होय ।।
संसार में लोगों की मृत्यु हो रही है परन्तु किस भांति मरना चाहिए यह कोई नहीं जानने का प्रयास करता। कोई भी उस विधि को नहीं जानता जिससे दोबारा न मरना पडे। वस्तुतः मरण दो प्रकार का होता है एक सामान्य मृत्यु है व दूसरी मृत्यु है राम दुआरे मृत्यु अर्थात् उसमें दोबारा जीवन का जन्म नहीं होता।
-सन्त कबीर
मृत्यु का नाम सुनते ही अच्छे-अच्छो का रक्त चाप ;ठण्च्ण्द्ध बढ़ जाता है। व्यक्ति इस नाम से दूर भगाना पसन्द करता है। परन्तु योगी मृत्यु की तैयारी स्वयं करता है। वह इस सत्य से भयभीत नहीं होता। इसका प्रमाण योगिराज के शिष्य युक्तश्वर जी के शिष्य योगानन्द परमहंस जी ने यू.एस.ए में इच्छा मृत्यु का वरण करके दिया था।
श्रीभगवद्गीता च्संददपदह व िक्मंजी के विषय में क्या कहती है निम्न पता चलता है।
प्रयाणकाले मनसाऽचलेन, भकत्या युक्तो योगबलेन च व
एक दिन योगिराजने मधुर मुस्कान के साथ शान्त में काशीमणि देवी से कहा- ‘‘देखों! अब मेरा यहाँ का काम समाप्त हो गया। जाने का समय आ गया, केवल ‘‘माह रहूँगा, उसके बाद चला जाऊँगा। तुम लोग शोक मत करना’’। महायोगी अपने महाप्रस्थान का दिन निश्चित कर मानव लीला की समाप्ति के लिए प्रस्तुत हो गए। 26 सितम्बर 1895 ई. बृहस्पतिवार के महाष्टमी के दिन अपने मकान में भगवद्गीता के श्लोके की धीमे और मधुर स्वर में व्याख्या कर रहे है सूर्योस्त की बेला है बाहर अष्टमी के गाजे बाजे बज रहे हैं। सभी का मन बोझित है योगिराज पदमासन लगाकर बैठ गए। आँखों में आँसू भरे तमाम भक्तों की ओर देखते हुए बोले- ‘‘अब मेरे जाने का समय हो गया। तुम लोग शोक मत करो। नश्वर दे हके न रहने पर की सद्गुरु की सत्ता रहती है। मैं हमेशा तुम लोगों के साथ हँू।’’ साँयकल 5 बजकर 25 मिनट पर उन्होंने महाप्रयाण किया। सभी भक्तो ने अपनी श्रद्धा निवेदित करते हुए उन्हें अन्तिम प्रणाम कर गृहस्थ आश्रम की मर्यादा के अनुसार अन्त्येष्टि संस्कार सम्पन्न किया। योगिराज एक अमृतमय ज्योतिर्तोक की यात्रा पर चले गए किन्तु जिस आदर्श की उन्होंने स्थापना की और मुक्तिमार्ग की खोज की उस पर चलकर आज लाखों नर-नारी अपने जीवन का कल्याण कर रहे हैं।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपति दिव्यम् ।।
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूध्न्र्याधयात्मनं प्राणमास्थितो योग धारणाम् ।।
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ।।
गीताः
अर्थात् प्रयाण-काल में स्थिरचित्त होकर भक्तिपूर्वक जो योगबल द्वारा दोनों भौंहों के बीच प्राण को धारण करते हुए ईश-स्मरण करता है वह दिव्य परमात्मस्वरूप पुरुष को प्राप्त करता है। समस्त इन्द्रियों पर नियंत्रण करके अर्थात् इन्द्रियों द्वारा बाह्य विषयों को ग्रहण न करते हुए मन को निसलम्ब भाव से स्थिर करके दोनों भौहों के बीच प्राण को सम्पूर्णतः स्थापित करके एकाक्षर ब्रह्म नाम रूप ओंकार का जप करते-करते मुझे (कूटस्थ को) स्मरण करते हुए जो देह त्याग करते हैं उन्हें परम गति की प्राप्ति होती है। एक दिन योगिराजने मधुर मुस्कान के साथ शान्त में काशीमणि देवी से कहा- ‘‘देखों! अब मेरा यहाँ का काम समाप्त हो गया। जाने का समय आ गया, केवल ‘‘माह रहूँगा, उसके बाद चला जाऊँगा। तुम लोग शोक मत करना’’। महायोगी अपने महाप्रस्थान का दिन निश्चित कर मानव लीला की समाप्ति के लिए प्रस्तुत हो गए। 26 सितम्बर 1895 ई. बृहस्पतिवार के महाष्टमी के दिन अपने मकान में भगवद्गीता के श्लोके की धीमे और मधुर स्वर में व्याख्या कर रहे है सूर्योस्त की बेला है बाहर अष्टमी के गाजे बाजे बज रहे हैं। सभी का मन बोझित है योगिराज पदमासन लगाकर बैठ गए। आँखों में आँसू भरे तमाम भक्तों की ओर देखते हुए बोले- ‘‘अब मेरे जाने का समय हो गया। तुम लोग शोक मत करो। नश्वर दे हके न रहने पर की सद्गुरु की सत्ता रहती है। मैं हमेशा तुम लोगों के साथ हँू।’’ साँयकल 5 बजकर 25 मिनट पर उन्होंने महाप्रयाण किया। सभी भक्तो ने अपनी श्रद्धा निवेदित करते हुए उन्हें अन्तिम प्रणाम कर गृहस्थ आश्रम की मर्यादा के अनुसार अन्त्येष्टि संस्कार सम्पन्न किया। योगिराज एक अमृतमय ज्योतिर्तोक की यात्रा पर चले गए किन्तु जिस आदर्श की उन्होंने स्थापना की और मुक्तिमार्ग की खोज की उस पर चलकर आज लाखों नर-नारी अपने जीवन का कल्याण कर रहे हैं।
great literature, hard to understand. Do you remember me. This Vikash Chandra
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