ईश्वर प्राप्ति का लक्ष्य निश्चित कर लेने के बाद हमारे सामने दूसरी समस्या उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साधन खोजने की होती है। ऋषियों एवं आचार्यों ने इस विषय पर विस्तृत रूप से विचार किया है। उन्होंने विभिन्न प्रकार के अभ्यास अथवा साधनाएँ निर्धारित की हैं जो इस अन्तिम लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक हो सकें। हम उस ईश्वर अथवा अपने आत्म स्वरूप का दर्शन क्यों नहीं कर पाते? इसका कारण जन्म जन्मांतरों से अर्जित संस्कारों के वो समूह हैं। जिनके प्रभाव-वश उलझनें और विभिन्न आवरण उत्पन्न होते है जो हमारी आत्मा को ढके रहते हैं और जो हमारी अपनी ही क्रियाओं और विचारों के परिणाम हैं। हमारे पास मानसिक एवं बौध्दिक शक्तियाँ हैं जो सभी सक्रिय हैं। हमारा मस्तिष्क शरीर की क्रियाओं का संचालन करता है। हम देखते हैं, सुनते हैं, महसूस करते हैं और चीज़ों को समझते हैं। हम उन्हें पसन्द या नापसन्द करना प्रारम्भ करते हैं। धीरे-धीरे इच्छाएँ अन्दर प्रवेश करना आरम्भ करती हैं और हमारी क्रियाओं को प्रभावित करने लगती हैं। यं घेरे बढ़ते ही जाते हैं और हम अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए प्रयत्नशील हो जाते हैं। एक इच्छा पूर्ण हो जाने पर वह अपने स्थान पर सामान्यतया दूसरी इच्छा को जन्म देती है। हम क्षण भर के लिए भी उनसे मुक्त नहीं हो पाते। हम अधिकांश वस्तुओं को उनकी प्राप्ति के विचार से देखते हैं। ये इच्छाएँ हमारी शारीरिक और मानसिक क्रियाओं को मोड़ती हैं और संस्कार निर्माण की ओर ले जाती हैं। इस प्रकार आत्मा पर अधिकाधिक आवरण बढ़ाती जाती हैं। प्रत्येक क्षण की नवीन इच्छाएँ एवं उनको पूर्ण करने के हमारे प्रयत्न उन्हें निरन्तर बढ़ाते चले जाते हैं। उनकी छाप हमारे कारण-शरीर पर तब तक पड़ी रहती हैं जब तक वे भोग की क्रिया द्वारा समाप्त न हो जायें। प्रत्येक क्षण निर्मित होने वाले संपूर्ण संस्कारों का भोग साधारणतया पूरे जीवन में भोगा जाना संभव नहीं। फलतः जब हमारा जीवन समाप्त होने को आता है तब भी हमारे अन्दर बहुत से संस्कार शेष रह जाते हैं। ये ही संस्कार हमारे पुनर्जन्म का कारण बन जाते है, जिससे उनके भोग की पूर्ति के लिए हमें एक अवसर मिल जाये; किन्तु दुर्भाग्यवश, उनको समाप्त करने के बजाय हम जितने संस्कार निःशेष करते हैं उनसे कहं अधिक संस्कार जोड़ लेते हैं।
हमारे मार्ग में दूसरी गम्भीर बाधा हमारे दुःखों और कष्टों के कारण उत्पन्न होती है। संसार में लगभग प्रत्येक व्यक्ति अपने दुःखों की शिकायत करता है जिन्हें वह दूर करना चाहता है। किन्तु वह उचित साधनों की उपेक्षा कर देता है। वह इच्छाओं की पूर्ति को ही दुःखों के निराकरण का एकमात्र उपाय समझता है। किन्तु यह कोई हल नहीं है। साधारणतः दुःख घृणास्पद समझा जाता है किन्तु ऐसे भी सन्त हुए हैं जिन्होंने दुःखों को स्वेच्छा से अपनाया है और उन्हें वरदान मानकर ईश्वर से उनकी प्राप्ति के लिए प्रार्थना की है।
यदि हम दुःखों के मूल स्त्रोत का अवलोकन करे तो समस्या का रहस्य स्पष्ट हो जायेगा। ईश्वर की सृष्टि-रचना की इच्छा के परिणाम-स्वरूप आत्मा में चेतनता आई। फिर आत्मा ने भी अपनी छोटी सृष्टि-रचना आरम्भ कर दी और अपनी ही निर्मित वस्तुओं से अपने को घेर लिया। जिस प्रकार एक हलचल, एक गति ;जिसे हम अस्थिरता अथवा चंचलता कह सकते हैंद्ध सृष्टि के उद्भव का मूल कारण हुआ, उसी प्रकार आत्मा की छोटी सी सृष्टि के लिए भी हलचल य अस्थिरता अत्यन्त आवश्यक है। हममे भी इच्छा की शक्ति है जिसे हम छोटी सृष्टि को बनानेवाले आवश्यक साधनों को शक्ति प्रदान करने में लगाते हैं। वे हमारे सम्मुख हर्ष, शोक, सुख अथवा दुःख के रूप में प्रकट होते हैं। मन भी निरन्तर क्रियाशील रहने के कारण हममें एक के लिए इच्छा और दूसरे के लिए अनिच्छा उत्पन्न कर देता है जिससे एक ही वस्तु के दोनों सिरे सामने आते हैं। इस प्रकार दुःखों का जन्म होने लगता है। ये सब मनुष्य के मन की उपज हैं जो वस्तुओं के उचित सम्बन्धों के प्रति हमारी अज्ञानता के परिणामस्वरूप हैं। हमारी वासनाएँ, भावनाएँ तथा उद्वेग भी विपत्तियों को बढ़ाने में बहुत मदद देते हैं और कभी-कभी इतने भयानक तूफान उठा देते हैं जिससे विनाश की सम्भावना हो जाती है। आम तौर पर हम परिस्थितियो को इनका कारण बताते हैं पर यह गलत विचार है। मनुष्य के इस देह रूपी बाह्य विकास का केन्द्र मन है और प्रत्येक वस्तु जो इस देह के माध्यम से प्रदर्शित होती है वह भी उसी केन्द्र अर्थात् मन से ही होती है। यदि हमारा मन समभाव की स्थिति में आ जाये तो उस पर परिस्थितियों अथवा वातावरण का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा और उसमें कोई भी अस्थिरता नहीं होगी। सभी परिस्थितियों में शान्ति एवं सौम्यता सदैव विरजती रहेगी। वासनाएँ, उत्तेजनाएँ एवं इच्छाएँ अपनी तेज़ी खो बैठेंगी और शोक हर्ष अथवा दुःख हमारी दृष्टि से ओझल हो जायंेगे। हमारी इच्छाएँ दुःखों का मूल कारण है। अतः दुःखों का एकमात्र साधन इच्छाओं कम करना ही है। इच्छाएँ जितनी ही महा होंगी उतने ही हमारे दुःख कम होंगे। परन्तु इच्छाविहीन हो जाना एक दूसरी समस्या है। इच्छाओं से बने जाल में हम उलझे हुए हैं। जितना ही हम उससे निकलने का प्रयत्न करते हैं उतना ही जाल की डोरियाँ कसती जाती हैं। उलझनों से अपने आप को छुडाने का केवल एक यही उपाय है कि हम अपना ध्यान उनसे हटाकर अपनी दृष्टि असलियत पर ही लगा दें। यदि हम उनसे उदासीन रहने की आदत बना लें तो वे शीघ्र ही हमारी दृष्टि से ओझल होना आरम्भ कर देंगी, और फलस्वरूप हमारे दुःख भी कम हो जायेंगे। हमारी दृष्टि के सामने केवल असलियत ही रह जायेगी और शेष प्रत्येक वस्तु अपना आकर्षण अथवा महत्त्व खो देगी।
जीवन में कष्टों और आपत्तियों का नितान्त अभाव अप्राकृतिक एवं असंभव हैं। वास्तव में, वे हमारी भलाई के लिए हैं। वे रोगी के स्वास्थ्य को सुधारने के लिए दवा की कड़वी गोलियों की भाँति हैं। सर्वोंत्तम वस्तु का भी दुरुपयोग कष्ट का कारण हो जाता है। ऐसा ही दुःखों के साथ भी होता है। प्रत्येक वस्तु का उचित समय पर एवं उचित रूप से उपयोग अन्त में अवश्य ही अच्छे परिणाम लायेगा। दुःख हमारा सर्वोंत्तम पथ-प्रदर्शक है जो हमारे पथ को सुगम बनाता है। एक साधारण स्तर के मनुष्य के आत्मोत्कर्ष के लिए विपत्तियाँ अत्यन्त सहायक होती हैं। सांसारिक जीवन के घरेलू सुख-दुख की चर्चा करते हुए हमारे गुरु महाराज कहा करते थे कि हमारा घर सहनशीलता एवं धैर्य का प्रशिक्षण स्थल है। गृहस्थ जीवन के कष्टों को शान्तिपूर्वक सहन करना ही हमारे लिए महातप है जो अन्य सब प्रकार के तपो से श्रेष्ठ है। अतः इन परिस्थितियों में क्रोध अथवा क्षोभ की भावना का शिकार न होकर हमें ऐसा भाव अपनाना चाहिये कि ये कष्ट स्वयं ही हमारे दोष के कारण हुए हैं और हमें इनको ठण्डे दिमाग से सहना होगा। कुछ लोगों के लिए जंगल का एकान्तवास एवं दुनिया से किनाराकशी, सहनशीलता एवं धैर्य पैदा करने का साधन हो सकते हैं, परन्तु हमारे लिए तो मित्रों और सम्बन्धियों की झिडकियाँ और ताने सबसे बडी तपस्या तथा सफलता के निश्चित साधन हंै। वास्तव में, कष्टों एवं दुःखों को शान्तिपूर्वक सहन करना हमारी उन्नति में बहुत सहायक होता है। अतः ये हमारी प्रगति के लिए मूल्यवान रत्न हैं। हम केवल उनके दुरुपयोग से ही उनके प्रभाव को नष्ट कर देते हैं और उनके सर्वोंत्तम लाभों से वंचित रह जाते हैं।
साक्षात्कार के लिए वैराग्य अथवा अनासक्ति निस्सन्देह एक आवश्यक स्थिति है और जब तक हम अनासक्ति नहीं उत्पन्न कर लेते तब तक माया के जाल से कदापि नहीं छूट सकते। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि हम घर, परिवार और संसार के सभी सम्बन्धों को तोडकर एक संन्यासी का जीवन अपना लें। मैं उन लोगों से सहमत नहीं हूँ जिनकी धारणा है कि अनासक्ति पैदा करने के लिए घर, परिवार एवं सांसारिक सम्बन्धों को त्याग कर कहीं एकान्तवास करना ही एकमात्र साधन है। ऐसे जबरदस्ती के साधनों से किया हुआ त्याग शायद ही कभी सच्चा होता है क्योंकि बहुत संभव है कि संसार से ज़बरदस्ती त्याग के ऊपरी दिखावों के बावजूद वे आन्तरिक रूप से उससे चिपके रहते हों। निस्सन्देह एक गृहस्थ के नाते हमें अनेक वस्तुओं की देख-भाल करनी पड़ती है। हमें अपने कुटुम्ब का पालन करना होता है, बच्चों की शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध करना होता है, उनके अभावों एवं आवश्यकताओं को देखना तथा उनको सर्दी-गर्मी, दुःख एवं रोग इत्यादि से बचाना होता है। इन सब आवश्यकताओं के लिए हम पैसा कमाते हैं और धन-सम्पत्ति रखते हैं। असली बुराई केवल अपनी वस्तुओं से हमारा अत्यधिक लगाव है। यही हमारे दुःखों का मूल कारण है। यदि हम जीवन में हर कार्य बिना किसी राग अथवा विराग की भावना के, कत्र्तव्य समझकर कर सकें तो हम एक प्रकार से सांसारिक बंधनों से मुक्त हो जाते हैं और वास्तविक अर्थ में संसार त्यागी हो जाते हैं, फिर चाहे हम अनके वस्तुओं के स्वामी होकर उनका उपयोग करते रहें। हमारी सभी वस्तुएँ, तब, ईश्वर-प्रदत कार्यों के सम्पादन के निमित्त, मालिक द्वारा दी गयी पवित्र थाती के समान लगेंगी। वैराग्य का वास्तविक अर्थ है सांसारिक वस्तुओं से अनासक्ति, न कि उनका त्याग। अतः गृहस्थ जीवन, जिसमें वस्तुओं का रखना तथा सांसारिक सम्बन्धा बनाना अनिवार्य है, वैराग्य एवं साक्षात्कार के लिए बाधक नहीं है, यदि हम अपने से सम्बन्धित वस्तुओं से अत्यधिक आसक्ति न रखें। सन्तों के ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जिनहोंने आजीवन गृहस्थ रहकर पूर्णता की उच्चतम अवस्था प्राप्त की है।
वैराग्य, वास्तव में एक अवस्था अथवा मन की एक अन्तर्दशा है जो हमें वस्तुओं की क्षणभंगुरता एवं परिवर्तनशीलता का ज्ञान कराती है और उनके प्रति अनासक्ति की भावना उत्पन्न करती है।
हमारी आँखें हर क्षण असलियत पर लगी रहती हैं जो अपरिवर्तनशील एवं शाश्वत है और हम आकर्षण और विकर्षण के भाव से मुक्त हो जाते हैं। यही वैराग्य का वास्तविक अर्थ है। जब हमम न की यह अवस्था प्राप्त कर लेते हैं तो हम इच्छाओं से मुक्त हो जाते हैं। जब हमको जो कुछ भी मिला है उसी से सन्तुष्ट रहते हैं। इच्छाओं का अन्त हो जाने का अर्थ है हमारे संस्कारों का बनना बन्द हो जाना। अब केवल पूर्व संचित संस्कारों का भोग ही शेष रह जाता है जिसको हमें अपने जीवन काल में समाप्त कर लेना है। प्रकृति भी भोग के लिस भूमि तैयार कर इस कार्य में हमारी सहायता करती है, जिससे हमारे विचारों एवं क्रियाओं के संस्कार कारण-शरीर से हट जाये। जब ये आवरण नष्ट हो जाते हैं तब हम अस्तित्व के सूक्ष्मतर रूप ग्रहण करना आरम्भ करते हैं।
अपने विचारों एवं क्रियाओं को नियन्त्रित करने के लिए हमें अपने चंचल मन, जो कभी एम क्षण के लिए भी स्थिर नहीं रहता, की उचित कार्यशीलता की ओर ध्यान देना होगा। मैने बहुधा धर्मोंपदेशकों को मन के लिए कटु एवं बुरे शब्दों का प्रयोग करते हुए तथा उसे मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु घोषित करते हुए सुना है। इसका कारण बिलकुल स्पष्ट है। वे इसे हमारे अन्दर समस्त बुराइयों की जड़ मानते हैं और इसलिए वे लोगों को इसे कुचलने एवं इसके आदेशों के न मानने की सलाह देते हैं। लेकिन, लोग साधारणतया मन की विभिन्न क्रियाओं को नियन्त्रित करना अथवा उसके आदेशों की अवज्ञा करना एक बड़ा कठिन काय्र समझते हैं। अतः उनकी थोथी राय एवं तत्सम्बन्धी भाषण लोगों के लिये अधिक लाभप्रद नहीं होते। उनके भाषण सुननेवालों में कोई भी व्यवहारिक ढंग से अपने ध्येय की पूर्ति नहीं कर सका है। इसके साथ ही, वर्तमान परिस्थितियाँ एवं वातावरण भी वैयक्तिक मन की सदा बढ़ती हुई क्रियाओं में और अधिक याग देते हैं। आज लगभग प्रत्येक व्यक्ति गरीबी, अरक्षा, आपत्ति एवं प्रतिद्वन्द्विता की कटु समस्याओं से जूझते हुए अपने जीवन को घोर संघर्षमय समझता है और उसे अपने आप को इसके प्रभाव से अछूता रख सकना लगभग असंभव हो जाता है। मन की अशान्ति एवं सतत् अस्थिरता इसका परिणाम होती है। हम वातावरण से वही ग्रहण करते रहते हैं और इसलिए परिस्थितियों एवं पास-पड़ोस द्वारा बहक जाते हैं। हमार वैयक्तिक मन, वायु की दिशा बतानेवाले पंख (Weather Cock) बवबाद्ध के समान हो गयी है जो हवा के हर झोंके पर उसी दिशा में मुड़ जाता है। इस संघर्ष में असली शूर तो वह है जो इन झोंकों का साहसपूर्वक सामना करता है और अपने को इनके प्रभाव से मुक्त् रखता है।
मैं निस्सन्देह उन लोगों से सहमत हूँ जो कहते हैं कि प्रत्येक बुराई का स्त्रोत मन है और केवल वही उसके लिए उत्तरादायी है; तथापि मैं साथ ही साथ, उन लोगों को यह भी चेता दूँ कि यह वही मन है जो हमें अच्छाई की ओर अग्रसर करता है और हमें उच्चतम आत्मज्ञान कराने में सहायक होता है। अतः मन से न केवल हर बुराई वरन् हर अच्छाई भी आरम्भ होती है। इसलिए जो लोग इसकी कटुतम शब्दों में भत्र्सना करते हैं, वे इसके साथ न्याय नहीं करते। यह वास्तव में मन को ग़लत ढंग से ढालने के ही कारण है। जिस बात की वास्तव में आवश्यकता है वह मन को कुचलने अथवा मारने की नहीं वरन् केवल उसके उचित प्रशिक्षण की है । मन घड़ी के लोलक की भाँति है। जब तक लोलक की चाल व्यवस्थित रहती है घड़ी ठीक चलती रहती है। यदि वह अव्यवस्थित हो जाये तो घड़ी बिगड़ जाती है। इसी प्रकार मानवीय घड़ी के लिए भी आवश्यक है कि मन की गति पूर्णरूपेण नियमित एवं व्यवस्थित रहे। मन को ढालने एवं उसकी क्रियाओं को नियमित करने के उपाय भी बहुत सरल हैं। वास्तव में हमने स्वयं अपने खाली क्षणों में मन को इधर-उधर निरुद्ेश्य भटकने के लिए छोड़ कर बिगाड़ दिया है। यह आदत वर्षों तक रही और अब प्रतिबन्ध में रखकर नियंत्रित करना चाहें तो हमें बहुत कम सफलता मिलेगी। हम इसे जितना ही बलपूर्वक दबाने का प्रयत्न करते हैं उतना ही यह विरोध करता और उछलता है जिससे और अधिक अशान्ति उत्पन्न होती है। मन की क्रियाओं को नियन्त्रित करने आ उचित उपाय उसे किसी एक पवित्र विचार पर जमा देना है (जैसा हम ध्यान में करते हैं) और उसमें से सभी अवांछित एवं फालतू विचारों को निकाल देना है। कुछ दिनों के निरन्तर अभ्यास के पश्चात् मन नियमित एवं अनुशासित हो जाता है और अधिकांश आन्तरिक अशान्ति निकल जाती है। अवांछित विचारों से मुक्ति पाने का सर्वोंत्तम उपाय है कि हम उन्हें अनिमन्त्रित अतिथियों की भाँति मानें और उनकी ओर ध्यान न दें। वे तब असिंचित पौधों की भाँति मुरझा जायेंगे और अन्त में वही पवित्र विचार हमारे अन्दर प्रमुख हो जायेगा। इस स्थिति की प्राप्ति का एकमात्र उपाय किसी योग्य शिक्षक के मार्गदर्शन मे ध्यान करना है। ध्यान के निरन्तर अभ्यास से मन शान्त एवं स्थिर हो जायेगा और अवांछित विचार हमें त्रस्त नहीं करेंगे।
मैं प्रायः नये अभ्यासियों को ध्यान के समय मन के भटकते रहने के विषय में शिकायतें करते हुए सुनता हूँ। ध्यान आरम्भ करने के प्रथम दिन से ही वे चाहते हैं कि उनका मन बिलकुल निश्चल हो जाय, परन्तु ज बवे विभिन्न भावों और विचारों को मन में मडँराते हुए पाते हैं तो वे अत्यन्त उद्विग्र हो जाते हैं। मैं उन्हें यह स्पष्ट कर दूँ कि हम अपने अभ्यास में मन को पूर्णतः विचारहीन बनाने का नहीं अपितु उसकी विभिन्न क्रियाओं को केवल व्यवस्थित करने का प्रयास करते हैं। हम उसके स्वाभाविक कार्य को नहीं रोकना चाहते, केवल उसे व्यवस्थित एवं अनुशासित दशा में लाना चाहते हैं। यदि मन की क्रियाएँ आरम्भ में ही रोक दी जाये ंतो हमे कदाचित्त् ध्यान करने की बिलकुल आवश्यकता ही न रह जाये। ध्यान तो उसी उद्ेश्य की प्राप्ति के लिए एकमात्र साधन है। ध्यान के फलस्वरूप समय बीतने पर एकाग्रता आती है। ध्यान करते समय मन में आनेवाले बाह्य विचारों के प्रति सर्वथा उदासीन होकर ध्यान करना ही उचित तरीका है। अवांछित विचारों को दूर करने के लिए मानसिक द्वन्द्व बहुधा असफल हो जाता है, क्योंकि वह ऐसी तगड़ी प्रतिक्रिया उत्पन्न कर देता है जिससे पार पाना साधारण मनुष्य के लिए बहुधा असंभव हो जात है और जो कभी-कभी मानसिक उथल-पुथल अथवा पागलपन का भी कारण बन सकता है। यह उनके लिए संभव हो सकता है जिन्होंने ब्रह्म्चर्य द्वारा विचारों के प्रवाह को सफलतापूर्वक सम्भालने तथा उनकी प्रतिक्रियाओं के प्रभावों को रोकने के लिए काफी ओजस उत्पन्न कर लिया है। परन्तु साधारण मनुष्य के लिए यह लगभग असंभव है । यदि विचारों को दूर रखने के लिए संघर्ष करने के स्थान पर हम केवल उनके प्रति उदासीन रहें तो बहुत शीघ्र ही वे अपना प्रभाव खो देंगे और हमें परेशान करना बन्द कर देंगे। तब वे काफिले पर भौंकनेवाले कुत्तों के समान होंगे जिनकी किंचित् मात्र परवाह किये बिना काफिला आगे बढ़ता जाता है। जब हम विचारों को रोकने के लिए इन पर ध्यान देते हैं, तो उस एकाग्रता के कारण उन्हें शक्ति मिलती है तथा वे और बलवान हो जाते हैं।
आजकल कुछ लोगों के लिए आम बहाना यह हो गया है कि अत्यधिक व्यस्तता के कारण उन्हें ध्यान अथवा ऐसे किसी अभ्यास के लिए समय नहीं मिलता। किन्तु यह एक प्रसिध्द उक्ति है कि अत्यधिक व्यस्त व्यक्ति के ही पास उसके काम से कहीं अधिक अवकाश रहता है। मैं समझता हूँ कि मनुष्य के पास उसके काम से कहीं अधिक समय रहता है। समय के अभाव की शिकायत केवल समय की गलत व्यवस्था के कारण ही है। यदि हम अपने समय का पूर्ण सदुपयोग करें तो हमें समयाभाव की शिकायत करने का कभी कारण न मिलेगा। फिर, कुछ और लोग हैं, जो थोड़े अधिक स्पष्टवादी हैं और स्वीकार करते हैं िकवे समयाभाव के कारण नहीं अपितु अपनी लापरवाही और आलस्य की दुस्तर आदतों के कारण ध्यान के लिए समय नहीं निकाल पाते। उनके लिए मैं कहूँगा िकवे अपने व्यापार या व्यवसाय में तो शायद कभी लापरवाही या काहिली नहीं बरतते। उनमें तो वे अपनी सारी व्यक्तिगत असुविधाओं, यहाँ तक कि बिमारियों के बावजूद पूरे मनोयोग से जुटे रहते हैं; केंवल इसलिए कि इससे उन्हें कुछ धन लाभ हो जायेगा। भौतिक लाभ की उत्कण्ठा से वे सभी असुविधाओं एवं व्याधियों की परवाह नहीं करते। इसी प्रकार यदि लक्ष्य प्राप्ति की हमारी लगन तीव्र है तो हमारी लापरवाही एवं काहिली हमारे प्रयास अथवा उन्नति के मार्ग में बाधक नहीं होगी। यदि हम प्राचीन ऋषियों के इतिहास पढ़े ंतो हमें ज्ञात होगा कि उन्होंने असलियत पाने के लिए जीवन के सभी सुखों का त्याग कर दिया था।