शास्त्रों का कथन है कि गायत्री को दो ऋषियों ने शाप दिया था कि
कलियुग में गायत्री सफल नहीं होगी। पहली बात तो यह है कि कलियुग समाप्त हो चुका
है। महापुरूषों के अनुसार जिस
दिन दो दिव्य शक्तियों स्वामी रामकृष्ण परमहंस व लाहिडी कहाशय के चरण इस धरती पर
पडे़ कलियुग का प्रभाव उसी समय से समाप्त होना प्रारम्भ हो गया था। काल गणना में
मध्य काल में हुई गलती के कारण हम भ्रमवश अभी भी कलियुग ही माने बैठे हैं। यह तो
इसका शास्त्र ज्ञान हुआ। दूसरा तत्व ज्ञान यह हैं कि जब व्यक्ति गायत्री साधना
करता है तो ऊर्जा बनना प्रारम्भ हो जाता है। यदि वह उस ऊर्जा को सम्भाल न पाए तो
उस ऊर्जा के गलत भंवर बनने प्रारम्भ हो जाते हैं। मान लीजिए कोई गायत्री साधक है
वह तीन चार घण्टें प्रतिदिन जप करता है व ब्रह्मचर्य का पालन करता है। उसकी पत्नी
उसका विरोध करती है। घर में तनाव बना रहता है अथवा उसें कार्यक्षेत्र में लोग उनसे
धोखेबाजी करते है। ऐेसी स्थिति में भंवरो का बनना प्रारम्भ हो जाता है। इसके लिए
बड़ी सावधानी व सुलझा हुआ व्यक्तित्व चाहिए।
साधक को विश्वामित्र की
भूमिका में रहना होता है अर्थात वह पूरे विश्व का मित्र है यह भाव उसके भीतर
परिपक्व हो जाना चाहिए। उससे वह अपनी ऊर्जा का प्रयोग दूसरे को दण्ड़ देने अथवा
अहित के लिए नहीं करेगा। ऊर्जा का तकरात्मक प्रयोग बहुत ही महबूरी में करना चाहिए
अन्यथा वह आदत व उस तरह का भंवर बना देती है जिससे निर्दोंष लोग भी फंसने लगते
हैं। जैसे पति पत्नी के झगड़े में मुक्ष्य हानि बच्चों की होती है। जो विश्व का
मित्र है वह सबका हितैषी है किसी के अहित की नहीं सोच सकता न ही किसी को अपने
शत्रु के रूप में देखता है।
दूसरा साधक को वशिष्ठ की
भूमिका निभाानी होती है। अर्थात जिसके जीवन का उद्देश्य सामान्य न होकर विशिष्ट हो
वह वशिष्ठ है। स्वयं के जीवन को आचार्य के स्तर पर प्रतिस्थापित करना एवं अगले तीन
वर्षों में 108
नए साधक तैयार करना जीवन का उद्देश्य हो सकता है। समाज धन-वैभव, पद-प्रतिष्ठा की होड़ में दौड़ रहा है। अनेक सम्मेलनों में झगड़ा इस बात
का रहता है कि अमुक व्यक्ति को मंच पर क्यों बैठाया गया व अमुक को नीचे क्यों?
No comments:
Post a Comment