स्वामी रामतीर्थ को संन्यास लेने के उपरांत भगवत्प्रेरणा प्राप्त हुई कि उन्हें भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार करने अमेरिका जाना चाहिए। उन्होंने समुद्री जहाज से अमेरिका जाने की व्यवस्था बनाई। यात्रा की व्यवस्था हेतु शुल्क किसी अनजान व्यक्ति ने यों ही दे डाला, परंतु अमेरिका में प्रवास हेतु कोई साधन उनके पास न था। प्रभु की प्रेरणा से वे जहाज पर सवार तो हो गए तथापि उनके मन में पूरी निश्ंिचतता थी कि आगे की सारी व्यवस्था भगवान बनवा ही देंगे। अमेंरिकी बंदरगाह नजदीक आने लगा तो हर कोई अपना सामान इकट्ठा करने लगा, किंतु स्वामी रामतीर्थ निस्पृह भाव से एक कोने में बैठे रहे।
तभी एक अमेरिकी युवती वहाँ आई। इतने सारे कोलाहल में भी स्वामी जी को अचल बैठे देखकर उसके मन में जिज्ञासा उठी कि आखिर यह व्यक्ति कौन है, जिसे सारे संसार की जैसे कोई परवाह ही नहीं। उसने स्वामी जी से जाकर पूछा- ‘‘ आप कौन हैं?’’ स्वामी जी बोले- ‘‘मैं अलमस्त फकीर हूँ।’’ उस युवती ने फिर प्रश्न किया- ‘‘आपके पास कुछ सामान दिखाई नही पड़ता, आप अमेरिका में कहाँ ठहरेंगे, क्या आपका यहाँ किसी से परिचय है?’’
स्वामी जी उसी निरासक्त भाव से बोले- ‘‘फकीर को संपत्ति की क्या आवश्यकता ? सारा संसार ही प्रभु का घर है। अब तो उन्होंने परिचय भी बना दिया।’’ युवती आश्चर्य से बोली - ‘‘किससे?’’ स्वामी जी बोले - ‘‘आपसे।’’ उनकी इस अलकस्तता से प्रभावित होकर वह युवती स्वामी रामतीर्थ को अपने घर ले गई और उसी ने उनके अमेरिका प्रवास की सारी व्यवस्था बना डाली। भगवान पर भरोसा हो तो रेगिस्तान में भी झरना फूट पड़ सकता है।
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