राजा को प्रजा अपने
प्राणों के समान प्यारी होनी चाहिए। अर्थात स्वयं और अपने मंत्रियों को हर रात वेश
बदलकर जनता के दुख सुख का पता लगाने के लिए भेजें। जो पीडित हो पहले उनकी समस्या
का समाधान करे। तब भोजन ग्रहण करे। अन्यथा उपवास करे। और अपने मंत्रियों को भी कुछ
न खाने दे। न्याय व्यवस्था इतनी मजबूत करें। कि कोई किसी निर्बल पर अत्याचार न कर
सके। जो अत्याचार करें । उसे कठोर दण्ड दे। अगर खुद राजा का बेटा भी अपराध करे। तो
उसे भी वही सजा होनी चाहिये। चाहे बेटा इकलौता ही क्यों न हो। राजा की दृष्टि में
भेद नही होना चाहिए।
जासू राज प्रिय प्रजा दुखारी सो नृप अवश्य नरक
अधिकारी
रामचरितमानस में तुलसीदास
ने स्पष्ट लिखा है। कि जिस राजा के राज्य में प्रजा दुखी है। वो राजा अवश्य नरक का
अधिकारी है। अगर राजा अपना जीवन शान शौकत से जीता है। और प्रजा खून के आसंू पीकर
जी रही हो तो इसका दोषी राजा है। क्योकि वह राजा क्यों बना। अगर राजा बना है। तो
अपना राजधर्म निभाये। जो राजा अपना राजधर्म नही निभाते उनके राज्य में सूखा पडता
है। कही बाढ आती है। कही महामारी फैलती है। इसका प्रकोप जनता को झेलना पडता
है।
महाभारत की समाप्ति के पश्चात पांडवों का
एकछत्र राज्य स्थापित हो चुका था। द्वापर के दिन ढल रहे थे और कलियुग प्रारंभ के
संकेत मिल रहे थे। इन्ही दिनों अर्जुन भेष बदलकर राज्य भ्रमण को निकले। राह में
उन्हे एक कृशकाय ब्राहाण मिला जो मार्ग में गिरे अनाज के दानों को बीनकर खाने का यत्न
कर रहा था। यह दृश्य देख अर्जुन बोले हे ब्राहाण देव । आप आर्थिक रूप से विपन्न
जान पडते हैं। आप राजा युधिष्ठिर के पास क्यों नही जातें वे दानी पुरूष है। आपकी
विवशता का अवश्य मान रखेंगे। यह सुन ब्राहाण फूट फूटकर रोने लगा। विस्मित अर्जुन
ने लौटकर जब यह घटना युधिष्ठिर को सुनाई तो वे भी रोने लगे। अर्जुन का असमंजस और
बढा। वे भगवान श्रीकृष्ण के पास पहुंचे।
जब यह घटना सुन श्रीकृष्ण की आंखों से भी
आंसू गिरने लगे तो अर्जुन से रहा नही गया। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से सारी घटना
का मर्म पूछा। कृष्ण बोले अर्जुन वह ब्राहाण यह सोचकर रोया कि दिन इतने विषम आ गए
है कि एक ब्राहाण को अन्न के लिए किसी के आगे हाथ फैलाने पडे युधिष्ठिर यह विचार
कर रोयें कि धर्म का इतना पतन हो चुका है कि उनके राज्य में ब्राहाण उनसे अपनी
आकुलता बताने में झिझकता है और मैं यह सोचकर रोया कि जल्दी ही एक दिन ऐसा आएगा कि जब न कोई ब्राहाण किसी
के आगे हाथ फैलाने में झिझकेगा और न कोई धर्मराज प्रजा के कष्ट से दुखी होकर
रोयगा।
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