वह समय था 19वीं एवं 20वीं सेंचुरी का अर्थात 1800 से लेकर 1999 का समय। भारत में आक्रमणकारी आतताइयों के अलावा कोई और भी था जिसने त्राहिमाम मचा रखा था। वैसे तो यह त्राहिमाम हजारां-वर्षो से मचा हुआ था किंतु सिर्फ 20वी सेंचुरी में 300 मिलियन अर्थात 30 करोड़ लोग इस त्राहिमाम से परलोक सिधार चुके थे। क्या था यह त्राहिमाम। यह था एक छोटा सा वायरस। नाक और गले के माध्यम से एक अदृश्य वायरस मानव के शरीर में घुस जाता था। फेफड़ों में जाकर फ्लू और बुखार जैसे लक्षण आते थे, फिर पूरा शरीर फफोलो से भर जाता था। गाँव के लोग इस महामारी को बड़ी माता कहते थे और वैज्ञानिक लोग चेचक। चेचक होते ही 10 में से 4 लोगो को मरना ही होता था। समय बीत रहा था विश्व भर में बेहिसाब लोग चेचक से मर रहे थे किन्तु भारत में लोगों का एक समूह था जिनको चेचक होता ही नहीं था और यह था भारत के गौ पालक ग्वालों का समूह।
ये ग्वाले दिन भर गौमाता के सानिध्य में रहते, उनको चराते, नहलाते दुहते। इस समूह से बाहर जब लोग बड़ी माता से मर रहे होते, इन ग्वालों को बस थोड़ा था बुखार होता, दो चार पिम्पल्स और वो ठीक हो जाते। लम्बी कथा को शार्ट करता हूँ, ग्वालों की इस महामारी बड़ी माता से रक्षा और कोई नही, गाय माता ही कर रही थी। होता यह था कि गाय के शरीर बड़ी माता का खतरनाक वायरस गाय के शरीर में रहने वाले गाय के वरिओला नामक वायरस के समक्ष घुटने टेक देता था और गाय को तो बड़ी माता से कुछ होता ही नही था, वरन गाय के सानिध्य में रहने वाले मनुष्य भी बड़ी माता से सुरक्षित हो जाते थे।
भारत के ग्वालों के इस अनुभव को एडवर्ड जेनर नाम के एक अंग्रेज वैज्ञानिक ने कैश किया और गाय के शरीर से इसी वैरियोला वायरस के पीप को निकाल कर इसी पीप को मनुष्यों में देना शुरू कर दिया ताकि वो लोग जो गाय के सानिध्य में नही रहते उनको भी गाय के इस चमत्कारी श्राव के द्वारा बड़ी माता से बचाया जा सके। हजारों वर्षों से धरती पर त्राहिमाम मचाती चेचक अर्थात बड़ी माता का निदान विश्व को मिल गया था। यही चेचक की वैक्सीन थी और विश्व की प्रथम वैक्सीन भी। इस वैक्सीन को खोजने का श्रेय मिला अंग्रेज एडवर्ड जेनर को, लोग भारत के ग्वालों को भी भूल गए और गाय को भी। यह कथा फिर कभी, किन्तु कथा का सारांश यह है कि हजारो वर्षो की महामारी का इलाज मिला गौं माता से।
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