इस विधि में पाँच विभिन्न स्तरों पर रोग निवारण की प्रक्रिया अपनाई जाती है। जिससे जटिल रोगों का भी समूल नाश सम्भव है।
1. अन्नामय कोष के स्तर पर
इस स्तर पर हम शरीर की सात धातुओं को जितना मजबूत कर सके उतना अच्छा होगा। धातुओं के पोषण का पूरा विज्ञान आयुर्वेद ने दिया है। अन्नमय कोष के स्तर पर रक्तचाप नियन्त्रण हेतु नमक कम लेना प्रायः सर्वविदित है। इस दिशा में लेखक ने सौ महत्त्वपूर्ण सूत्रों का संकलन किया है। कृपया पढ़ें ‘स्वास्थ्य के सौ अनमोल सूत्र (100 Golden Rules for Health )’
2. प्राणमय कोष
व्यक्ति के कर्मो का सीधा प्रभाव उसके प्राणमय कोष पर पड़ता है। अतः कर्मों की पवित्रता आवश्यक है। जिनका प्राणमय कोष मजबूत होता है वो बहुत उल्टे काम करने पर भी स्वस्थ रहते हैं व जिनका प्राणमय कोष कमजोर होता है वो थोडे़ से गलत कार्यों से ही रोगी हो जाते हैं। पुराणों में असुरों के लोगों को सताने व दुराचार करने की अनेक कहानियाँ आती हैं। परन्तु ये असुर लम्बे समय तक पहले तप भी तो करते हैं जिससे उनका प्राणमय कोष मजबूत हो जाता है। दीपक को जलाना व यज्ञ कराना प्राणों में सन्तुलन उत्पन्न करता है वातावरण के दूषित प्राणों से हमारी रक्षा करता है।
निर्भयता प्राणमय कोष को सशक्त बनाने का अच्छा माध्यम है। गलती पकड़े जाने का भय व्यक्ति के प्राणमय कोष को कमजोर बनाता है। अतः हमेशा सन्मार्ग पर चलें (Always follow the righteous Path)। जिस व्यक्ति का प्राणमय कोष जितना अच्छा होता है वह उतना निर्भय होता है व जो जितना निर्भय होता है उसका प्राणमय कोष उतना मजबूत होता है। आत्मा की अमरता मृत्यु भय व अन्य डरों में कमी लाता है। अतः आत्मा की अमरता का अभ्यास करें। पूर्व में राणा प्रताप, तात्यॉं टोपे, लक्ष्मी बाई आदि वीरों व अनेक ऋषियों का प्राण बडा़ जानदार होता था। परन्तु आज व्यक्ति का प्राण दुर्बल होता जा रहा है। कहते हैं ‘वीर भोग्या वसुन्धरा’ अर्थात् जो वीर है जिसका प्राण मजबूत है वही स्वस्थ है वही धरती का भोग अर्थात् सुख ले सकता है। दुर्बल प्राण अर्थात् रोगी का जीवन सुख-चैन से रहित हो जाता है।
प्राणमय कोष को मजबूत करने का विज्ञान ‘प्राणायाम विद्या’ के अन्तर्गत आता है। आज के युग में यह विद्या लुप्तप्रायः ही है। या यह कहा जा सकता है कि व्यक्ति की जीवन शैली इस प्रकार बनती जा रही है कि उसका प्राण दुर्बल हो गया है। इस पर एक स्वतन्त्र पुस्तक आवश्यक है।
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