1.दो छोर(किनारे)
यह सृष्टि, यह संसार दो धाराओं से बना है एक चेतन (ब्राह्मिसत्ता) और दूसरा जड़ (भौतिक पदार्थ ) । प्रथम चेतन का प्रवाह सतोगुणी है, वह उत्थान की ओर ले जाता है, मानव को दिव्यता की ओर ले जाता है, देवत्व की ओर ले जाता है, चेतना को अंतर्मुखी करता है, विचारों की शक्ति का जागरण करता है, विवेकशीलता को जगाता है ।
दूसरा प्रभाव भौतिकता का है जिसमें पांच महाभूत प्रकृति(पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि व आकाश तथा प्राणतत्व) से शरीर की रचना है । इसका प्रभाव अधोगामी होता है, नीचे की ओर लाता है, इसका प्रवाह बहिर्मुखी है । जल का प्रवाह स्वाभाविकता से हमेशा नीचे की ओर बहता है उसके लिए उसे कोई प्रयास नहीं करना पड़ता लेकिन जब उसको ऊपर उठाना होता है तब सूर्य को तपना पड़ता है तब यह जल को उठाकर आकाश में ले जाता है, तथा इतना ही नहीं उसको शुद्ध एवं पवित्र करके ले जाता है उपयोग करने योग्य बना कर ले जाता है तो उसके लिए सूर्य का तपना ही पड़ेगा।
हे मानव ! अपनी आत्मा को, चेतना को, उत्थान की ओर ले जाना है तो जीवन में तप करना ही पड़ेगा है और जो तप करने की महाविद्या है, वही हमारी जीवन शैली है,वही हमारी देव संस्कृति है, वही हमारी योग संस्कृति है, वही हमारी भारतीय संस्कृति है, वही हमारी ऋषि संस्कृति है वही हमारी आर्य संस्कृति है , जिसे संसार हिंदू संस्कृति कहता है ,मानवीय संस्कृति कहता है, जिसने भोगों को नहीं, त्याग को महत्व दिया है, जिसने, दया, करूणा ,ममता, प्रेम, आत्मीयता , सहयोग , सहकार, उदारता जैसी भाव संवेदनाएं प्रदान की तथा सर्व हित को महत्व दिया है ।
लेकिन जो अधोगामी संस्कृति है मानव को पतन की ओर ले जाती हैं उसका प्रवाह हमेशा निम्न गामी होता है और चिंतन के प्रवाह को बह्रिमुखी करती है, वह हमेशा मानव को पतन की ओर दौड़ाती है, इसके दुष्प्रभाव से मानव का चिंतन लोकेषणा,वित्तेषणा व पुत्रैषणा में डूब जाता है तथा इन तीनों एषणाओं के चलते मानव के जीवन में सारे कुकर्मों का उदय होने लगता है तथा हृदय की भाव संवेदनाएं मर जाती है और मानव चेतना लोभ,मोह, अहंकार , के चक्कर ब्यूह में फंसाकर, नर पशु ही नहीं , नर पिशाच बन जाती है और वे क्रूर कर्म करता है जिससे मनुष्यता तड़पती है, मानवता तड़पती है तथा उनको देखकर उसको शांति मिलती है ।
जहां भी ऐसे पतन का प्रवाह देखो तो समझ लो की जिन देव मानवों का, जागृतों का, सोये समाज की चेतना को,जन-जन जगाने का दायित्व था, ज्ञान की साधना में जीने वालों का ,तप करने वालों परम कर्तव्य बनता है कि वे अज्ञान में पड़े हुए लोगों को ज्ञान की ओर ले चले लेकिन वे लोग अपने ही तप मुक्ति के साधन में लग रहे, अपनी ही चेतना के विकास में लगे रहे, अपनी ही आत्मा के कल्याण में लग रहे और यह भी एक प्रकार की संकीर्णता है तथा पाप है और जब मानव अपने कर्तव्य धर्म का पालन नहीं करता तो संसार में विकृतियां फैलती है, अन्याय,अत्याचार, अनाचार फैलता है और अत्याचार व अनाचार का शिकार वही व्यक्ति व समाज बनता है जो स्वयं तो जागा था लेकिन उसने सारे समाज को नहीं जगाया, स्वयं तो ज्ञानी बन गया लेकिन समाज को ज्ञानी बनाने का कोई प्रयास नहीं किया ।
युगो युगो से देवता दिखने वाले, धर्मशील दिखने वाले लोग, हमेशा सताए जा रहे हैं, मार खा रहे हैं, प्रताड़ित किये जा रहे हैं ,चारों ओर से दुःखी होते है इसका कारण यही है कि उन्होंने अपने दायित्व को समझा नहीं, अपने कर्तव्य की घोर उपेक्षा की और इसी बात का दण्ड संसार में युगों युगों से मानव को, व्यक्ति, परिवार, समाज व राष्ट्र को मिलता आ रहा है । जब तक यह सृष्टि रहेगी यह शाश्वत ईश्वरीय व्यवस्था चलती रहेगी ।
अब आप चिंतन करो, प्रथम आप किस श्रेणी में खड़े हो ? देवत्व वाली उत्थान की श्रेणी में या पतन की अज्ञान वाली श्रेणी में ? क्या अपने कर्तव्य कर्म धर्म का बोध करके उसके दायित्व को अंगीकार करेंगे तथा विश्व में सुख ,शांति, समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करेंगे ?
हे मानव ! सारे बंधन तोड़ कर उठ चलो, मानवीय संस्कृति की ओर क्योंकि तुम ईश्वर के महान पुत्र हो ?
*युग विद्या विस्तार योजना*। (मानवीय संस्कृति पर आधारित एक समग्र शिक्षण योजना) विद्या विस्तार राष्ट्रीय ट्रस्ट (दिल्ली) भारत रामकुमार शर्मा 94519 11234