बारह वर्षों की घनघोर तपस्या व ध्यान- साधना के फलस्वरूप वर्धमान महावीर को केवल ज्ञान (विशुद्धज्ञान) की परम उपलब्धि हुई थी। 'केवल ज्ञान' यह महापुरुषों की वह अवस्था है, जब उनके लिए ज्ञान से भिन्न कुछ नहीं रह जाता है, केवल ज्ञान ही रह जाता है।
जैसे वसंत ऋतु में वृक्षों से पुराने पल्लव स्वयमेव झरते जाते हैं, गिरते जाते हैं, टूटते जाते हैं और वृक्षों की डालियों में नए पल्लव, नए रंग- बिरंगे पुष्प उग आते हैं वैसे ही केवल ज्ञान, निर्वाण, कैवल्य, आत्मसाक्षात्कार की अवस्था में साधक के मन से राग-द्वेष, लोभ-मोह, आसक्ति आदि सभी विकार मिट जाते हैं और साधक के हृदय में ज्ञान का अमृत अरुणोदय होता है और साधक का आत्मलोक ज्ञान के अमृत प्रकाश से जगमगा उठता है।
12 वर्षों की लंबी तपस्या व ध्यान-साधना के फलस्वरूप महावीर का अंतस् भी केवल ज्ञान से जगमगा उठा था। वे ज्ञानरूप हो गए। उनके लिए तब कुछ भी ज्ञेय नहीं रहा। 'मैं ज्ञाता हूँ' यह भान भी उनके लिए शेष नहीं रह गया। केवल और केवल ज्ञान ही रह गया। महावीर ज्ञानरूप हो गए। सत्यरूप हो गए, प्रेमरूप हो गए, आनंदरूप हो गए।
उनके रोम-रोम से वह दिव्य ज्ञान, प्रेम व सत्य स्वतः प्रवाहित होने लगा। उनके उपदेशों से उनके ज्ञान, प्रेम व सत्य की सुगंध चहुँओर फैलने लगी और वातावरण व जनमानस को सुगंधित - करती गई, आप्लावित करती गई। ज्ञान की उसी भावदशा में भगवान महावीर मध्यमा नगरी पहुॅचे। और वहाँ पर महासेन नामक एक उद्यान ठहरे। उनके आगमन की चर्चा सगंध के समान सर्वत्र फैल गई।
हजारों नर-नारी उनके दर्शन व उपदेश पाने को वहाँ एकत्रित हुए। भगवान महावीर ने मिध्या धारणाओं में भटकती जनता के समक्ष उस महासत्य को प्रकट किया, जिसे उन्होंने कठिन तपस्या व ध्यान-साधना के द्वारा जाना था ।
उन्होंने अपने अमृत उपदेश में कहा कि अपना उद्धार स्वयं करो । आत्मोद्धार के लिए आध्यात्मिक जीवनचर्या आवश्यक है। आत्मोद्धार के लिए न तो नारीत्व बाधक है और न ही पुरुषत्व साधक है। आत्मोद्धार के लिए पवित्र जीवनचर्या, संयम और सम्यक ज्ञान आवश्यक है। जीवन में सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह का होना आवश्यक है। साथ ही प्राणिमात्र के लिए सेवा, सहकार व प्रेम की भावना का होना भी आवश्यक है।
उन्होंने आगे कहा-' "तुम्हारे सुख-दुःख के लिए कोई और नहीं, बल्कि तुम्हारे कर्म ही जिम्मेदार हैं। जब तुम अच्छे या शुभ कर्म के रूप में अच्छे कर्मबीज बोते हो तो तुम्हें सुख प्राप्त होता है और जब तुम बुरे कर्म के बीज बोते हो तो दुःख प्राप्त होता है। मनुष्य अपना जीवन ईश्वर की दया व क्रोध पर अवलंबित मानकर अपने को आलसी और परावलंबी बना बैठा है, पर सच तो यह है कि तुम्हारे सुख-दुःख तुम्हारे ही कर्मों पर अवलंबित हैं, ईश्वर की दया या क्रोध पर नहीं। तुम जो भी हो, जैसे भी हो, तुम अपने अच्छे या बुरे कर्मों के कारण ही हो।"
वे फिर बोले- "इसलिए यदि सुखी रहना चाहते हो तो आलस्य, प्रमाद का त्याग कर श्रम करो, संयम करो, पुरुषार्थ करो, शुभ और अच्छे कर्म करो पर हाँ, अच्छे कर्म भी आसक्ति से रहित होकर ही करो जिससे कि तुम किसी कर्मबंधन में नहीं बँधो और मोक्ष प्राप्त कर आनंद की अनुभूति कर सको। तुम्हारा सुखी या दुःखी होना ईश्वर के ऊपर नहीं, स्वयं तुम्हारे ऊपर ही निर्भर है; क्योंकि • ईश्वर मनुष्य स्वयं है । तुम्हें ' अहं ब्रह्मास्मि' ' मैं ही ब्रह्म हूँ' इस वाक्य को आत्मसात् कर उसे अपने जीवन में चरितार्थ करके दिखाना चाहिए। तुम सब के लिए और मनुष्य मात्र के लिए मेरा यही संदेश है कि तुम अपनी आत्मशक्ति को देखो। तुम अपने महान स्वरूप को पहचानो और अपने महान परम रूप की प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करो। तुम अपना उद्धार स्वयं करो। "
भगवान महावीर ने कहा- “सत्य ही भगवान है । सत्य चंद्र से भी अधिक सौम्य और सूर्य से भी अधिक तेजस्वी है। इसलिए जीवन में सत्य की उपासना करो । सत्य की आराधना करो। सत्य की अभ्यर्थना करो। सत्य का आचरण करो । आध्यात्मिक जीवनचर्या का पालन करते हुए अपने ईश्वरीय रूप को पहचानो, अपनी शक्ति को पहचानो और अपने कर्त्तव्य का पालन करो। इसी से तुम्हें सच्चा सुख, शांति और आनंद प्राप्त हो सकेगा।"
भगवान महावीर के अमृत उपदेश को पाकर वहाँ उपस्थित सभी नर-नारी अभिभूत हुए बिना नहीं रह सके और अपने जीवन को तदनुरूप गढ़ने की मनोभूमि बनाने लगे व साथ ही उसी अनुरूप जीने को संकल्पित भी हुए।
No comments:
Post a Comment