एक बार महाराणा प्रताप पुंगा की पहाड़ी बस्ती में रुके हुए थे। बस्ती के भील बारी बारी से प्रतिदिन राणा प्रताप के लिए भोजन पहुँचाया करते थे।
इसी कड़ी में आज दुद्धा की बारी थी। लेकिन उसके घर में अन्न का दाना भी नहीं था।
दुद्धा की मांँ पड़ोस से आटा मांँगकर ले आई और रोटियाँ बनाकर दुद्धा को देते हुए बोली, "ले! यह पोटली महाराणा को दे आ।"
दुद्धा ने खुशी खुशी पोटली उठाई और पहाड़ी पर दौड़ते भागते रास्ता नापने लगा।
घेराबंदी किए बैठे अकबर के सैनिकों को दुद्धा को देखकर शंका हुई।
एक ने आवाज लगाकर पूछा, "क्यों रे! इतनी जल्दी जल्दी कहाँ भागा जा रहा है?"
दुद्धा ने बिना कोई जवाब दिये, अपनी चाल बढ़ा दी। मुगल सैनिक उसे पकड़ने के लिये उसके पीछे भागने लगा, लेकिन उस चपल चंचल बालक का पीछा वह जिरह बख्तर में कसा सैनिक नहीं कर पा रहा था।
दौड़ते दौड़ते वह एक चट्टान से टकराया और गिर पड़ा, इस क्रोध में उसने अपनी तलवार चला दी।
तलवार के वार से बालक की नन्हीं कलाई कटकर गिर गई। खून फूट कर बह निकला, लेकिन उस बालक का जिगर देखिये, नीचे गिर पड़ी रोटी की पोटली उसने दूसरे हाथ से उठाई और फिर सरपट दौड़ने लगा। बस, उसे तो एक ही धुन थी, कैसे भी करके राणा तक रोटियाँ पहुँचानी हैं।
रक्त बहुत बह चुका था, अब दुद्धा की आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा।
उसने चाल और तेज कर दी, जंगल की झाड़ियों में गायब हो गया। सैनिक हक्के बक्के रह गये कि कौन था यह बालक?
जिस गुफा में राणा परिवार समेत थे, वहांँ पहुंँचकर दुद्धा चकराकर गिर पड़ा। उसने एक बार और शक्ति बटोरी और आवाज लगा दी, "राणाजी !"
आवाज सुनकर महाराणा बाहर आये, एक कटी कलाई और एक हाथ में रोटी की पोटली लिये खून से लथपथ 12 साल का बालक युद्धभूमि के किसी भैरव से कम नहीं लग रहा था।
राणा ने उसका सिर गोद में ले लिया और पानी के छींटे मारकर होश में ले आए, टूटे शब्दों में दुद्धा ने इतना ही कहा, "राणाजी!... ये... रोटियाँ... मांँ ने... भेजी हैं।"
फौलादी प्रण और तन वाले राणा की आंँखों से शोक का झरना फूट पड़ा। वह बस इतना ही कह सके, "बेटा, तुम्हें इतने बड़े संकट में पड़ने की कहा जरूरत थी? "
वीर दुद्धा ने कहा, "अन्नदाता!... आप तो पूरे परिवार के साथ... संकट में हैं... माँ कहती है आप चाहते तो अकबर से समझौता कर आराम से रह सकते थे... पर आपने धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिये... कितना बड़ा... त्याग किया उसके आगे मेरा त्याग तो कुछ नही है...।"
इतना कह कर वीरगति को प्राप्त हो गया दुद्धा।
राणा जी की आँखों मेंं आंँसू थे। मन में कहने लगे... "धन्य है तेरी देशभक्ति, तू अमर रहेगा, मेरे बालक। तू अमर रहेगा।"
अरावली की चट्टानों पर वीरता की यह कहानी आज भी देशभक्ति का उदाहरण बनकर बिखरी हुई है।
इसी कड़ी में आज दुद्धा की बारी थी। लेकिन उसके घर में अन्न का दाना भी नहीं था।
दुद्धा की मांँ पड़ोस से आटा मांँगकर ले आई और रोटियाँ बनाकर दुद्धा को देते हुए बोली, "ले! यह पोटली महाराणा को दे आ।"
दुद्धा ने खुशी खुशी पोटली उठाई और पहाड़ी पर दौड़ते भागते रास्ता नापने लगा।
घेराबंदी किए बैठे अकबर के सैनिकों को दुद्धा को देखकर शंका हुई।
एक ने आवाज लगाकर पूछा, "क्यों रे! इतनी जल्दी जल्दी कहाँ भागा जा रहा है?"
दुद्धा ने बिना कोई जवाब दिये, अपनी चाल बढ़ा दी। मुगल सैनिक उसे पकड़ने के लिये उसके पीछे भागने लगा, लेकिन उस चपल चंचल बालक का पीछा वह जिरह बख्तर में कसा सैनिक नहीं कर पा रहा था।
दौड़ते दौड़ते वह एक चट्टान से टकराया और गिर पड़ा, इस क्रोध में उसने अपनी तलवार चला दी।
तलवार के वार से बालक की नन्हीं कलाई कटकर गिर गई। खून फूट कर बह निकला, लेकिन उस बालक का जिगर देखिये, नीचे गिर पड़ी रोटी की पोटली उसने दूसरे हाथ से उठाई और फिर सरपट दौड़ने लगा। बस, उसे तो एक ही धुन थी, कैसे भी करके राणा तक रोटियाँ पहुँचानी हैं।
रक्त बहुत बह चुका था, अब दुद्धा की आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा।
उसने चाल और तेज कर दी, जंगल की झाड़ियों में गायब हो गया। सैनिक हक्के बक्के रह गये कि कौन था यह बालक?
जिस गुफा में राणा परिवार समेत थे, वहांँ पहुंँचकर दुद्धा चकराकर गिर पड़ा। उसने एक बार और शक्ति बटोरी और आवाज लगा दी, "राणाजी !"
आवाज सुनकर महाराणा बाहर आये, एक कटी कलाई और एक हाथ में रोटी की पोटली लिये खून से लथपथ 12 साल का बालक युद्धभूमि के किसी भैरव से कम नहीं लग रहा था।
राणा ने उसका सिर गोद में ले लिया और पानी के छींटे मारकर होश में ले आए, टूटे शब्दों में दुद्धा ने इतना ही कहा, "राणाजी!... ये... रोटियाँ... मांँ ने... भेजी हैं।"
फौलादी प्रण और तन वाले राणा की आंँखों से शोक का झरना फूट पड़ा। वह बस इतना ही कह सके, "बेटा, तुम्हें इतने बड़े संकट में पड़ने की कहा जरूरत थी? "
वीर दुद्धा ने कहा, "अन्नदाता!... आप तो पूरे परिवार के साथ... संकट में हैं... माँ कहती है आप चाहते तो अकबर से समझौता कर आराम से रह सकते थे... पर आपने धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिये... कितना बड़ा... त्याग किया उसके आगे मेरा त्याग तो कुछ नही है...।"
इतना कह कर वीरगति को प्राप्त हो गया दुद्धा।
राणा जी की आँखों मेंं आंँसू थे। मन में कहने लगे... "धन्य है तेरी देशभक्ति, तू अमर रहेगा, मेरे बालक। तू अमर रहेगा।"
अरावली की चट्टानों पर वीरता की यह कहानी आज भी देशभक्ति का उदाहरण बनकर बिखरी हुई है।
No comments:
Post a Comment