Friday, March 6, 2015

आत्म ज्ञान व लोक कल्याण

एक ऐतिहासिक दुष्टान्त की चर्चा करते है| नरेन्द्र (स्वामी विवेकानंद) ध्यान-साधना की ऊँचाइयों में उडान भर रहे थे| आत्म-पंखो का विस्तार कर अंतर्जगत के उन्मुक्त गगन में विहार कर आनदित हो रहे थे| उनकी आत्मा पोषित हो रही थी| ऐसा अतीनिद्र्य पोषण प्राप्त कर रही थी, जिसकी तुलना में पृथ्वी के समस्त सुख स्वादविहीन है| नरेन्द्र डूब रहे थे, खोते जा रहे थे| आनद-सिंधु की लहरों में सदा के लिए समाना चाह रहे थे| तभी.....

      जो ध्यान के मूल है, उनके गुरुदेव श्रीरामकृष्ण परमहंस जी का कक्ष में पदार्पण हुआ| तनिक कठोरस्वर में वे बोले- ‘नरेन्द्र! बस, यही थम जा! मैंने तेरे लिए दूसरा लक्ष्य निर्धारित किया है| तू केवल आनद-सिंधु में गोते खाने के लिए नहीं बना| तू स्वार्थी साधक नहीं हो सकता|’

  नरेन्द्र-  ठाकुर! क्या लक्ष्य है मेरे जीवन का?

  ठाकुर-  लोक-कल्याण! तुझे आज्ञानता के विरुद्ध संघर्ष कर जन-जन का कल्याण करना है|

  नरेन्द्र-  फिर ठाकुर, आपने आत्म-ज्ञान देकर मेरे लिए आत्म-कल्याण की राह प्रशस्त क्यों की?


  ठाकुर-  वह भी आवश्यक थी| क्योकि आत्म-साधना के बिना लोक-साधना नहीं हो सकती| जो बना नहीं, वो बनाएगा क्या? मुझे तुझे बनाना था, इसलिए पहले आत्म-ज्ञान दिया|

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