एक ऐतिहासिक दुष्टान्त की
चर्चा करते है| नरेन्द्र (स्वामी विवेकानंद) ध्यान-साधना की ऊँचाइयों में उडान भर
रहे थे| आत्म-पंखो का विस्तार कर अंतर्जगत के उन्मुक्त गगन में विहार कर आनदित हो
रहे थे| उनकी आत्मा पोषित हो रही थी| ऐसा अतीनिद्र्य पोषण प्राप्त कर रही थी,
जिसकी तुलना में पृथ्वी के समस्त सुख स्वादविहीन है| नरेन्द्र डूब रहे थे, खोते जा
रहे थे| आनद-सिंधु की लहरों में सदा के लिए समाना चाह रहे थे| तभी.....
जो ध्यान के मूल है, उनके
गुरुदेव श्रीरामकृष्ण परमहंस जी का कक्ष में पदार्पण हुआ| तनिक कठोरस्वर में वे बोले-
‘नरेन्द्र! बस, यही थम जा! मैंने तेरे लिए दूसरा लक्ष्य निर्धारित किया है| तू
केवल आनद-सिंधु में गोते खाने के लिए नहीं बना| तू स्वार्थी साधक नहीं हो सकता|’
नरेन्द्र- ठाकुर! क्या
लक्ष्य है मेरे जीवन का?
ठाकुर- लोक-कल्याण! तुझे
आज्ञानता के विरुद्ध संघर्ष कर जन-जन का कल्याण करना है|
नरेन्द्र- फिर ठाकुर,
आपने आत्म-ज्ञान देकर मेरे लिए आत्म-कल्याण की राह प्रशस्त क्यों की?
ठाकुर- वह भी आवश्यक थी|
क्योकि आत्म-साधना के बिना लोक-साधना नहीं हो सकती| जो बना नहीं, वो बनाएगा क्या?
मुझे तुझे बनाना था, इसलिए पहले आत्म-ज्ञान दिया|
No comments:
Post a Comment