Sunday, March 22, 2015

धर्मो रक्षति रक्षितः

धर्मो रक्षति रक्षितः
            बात सन् 2005 की है, मेरा मन अपने काॅलेज में व Academics में नहीं लगता था। यह मन में घूमता रहता था कि इस नौकरी को कब तक ढोना पड़ेगा। काश किसी तरह इससे छुट्टी पाकर शान्तिकुॅंज जाकर समयदान दें व पूर्ण रूप् से गुरुदेव के कार्य के लिए समर्पित हो जाएॅं। इसके लिए कई बार असफल प्रयास भी किए गए। सन् 1995 में अर्ध पूर्णाहुति के लिए एक वर्ष का समयदान दिया था। सन् 2004 में पुनः आदरणाीय डूा. प्रणव पण्ड्या जी को तीन वर्ष का समयदान नोट कराया। उनका आदेश मिला कि अभी बच्चे छोटे हैं थोड़ा संभल जाए तब इधर आना। यदि आपकी सेवाओं की आवश्यकता होगी तो बुला लिया जाएगा। उस समय मेरा बेटा मा. एक वर्ष का था। दोनों बच्चे काफी बीमार भी रहते थै। तीन वर्ष की  बड़ी बेटी को बार-बार न्यूमोनिया का आक्रमण होता था व बेटे को एसिलाइटस व गले में इंफेक्शन के कारण बुखार आता रहता था। डाॅ. साहब में सदा अपने गुरु की छवि ही देखने का प्रयास किया गया। उनका निर्देश सिर माथे लेकर भारी मन से शान्तिकुॅंज से हमारा परिवार विदा हुआ।
            एक दिन गुरुदेव पर बड़ी झल्लाहट उठी कि वहाॅं भागते है तो लौटा देते हो और यहाॅं नौकरी में मन नहीं लगता। करें तो क्या करें? गुरुदेव का निर्देश प्राप्त हुआ आप अपने Academics में ध्यान दो। M.Tech. पूरी करो फिर Ph.D. करो। इससे आपकी Teaching में सुधार आएगा व आपका मन लगेगा। जब तक आप अच्छे से बच्चों को पढ़ाएगें नहीं आपके भीतर एक ग्लानि का भाव बना रहेगा व आपका ब्रह्मवर्चस नहीं उभर पाएगा। आपके किसी क्षेत्र में सफलता नहीं मिलेगी। मैंने गुरुदेव से पूछा फिर मिशन के प्रति समर्पण का क्या होगा जिसके लिए मैं चैदह वर्षों से जी-तोड़ परिश्रम कर रहा हूॅं व सतयुग की वापसी के दिन-रात सपने लेता रहता हूॅं। गुरुदेव ने आश्वासन दिया कि जहाॅं आवश्यकता लगेगी वहाॅं नियोजन हो जाएगा परन्तु पहले M.Tech., Ph.D. को मेरा कार्य समझकर पूरा किया जाए।
            मैंने राहत की साॅंस ली कि मुझे एक दिशा तो मिली। परन्तु अपने मन को मिशन से हटाकर दूसरी दिशा में मोड़ना मेरे लिए काफी कठिन कार्य था। किसी प्रकार मैंने M.Tech. पूरी कर सन् 2007 में Ph.D. में प्रवेश लिया। किस प्रकार Ph.D. का कार्य आगे बढ़ाया जाए यह मेरे लिए चुनौति भरा कार्य था। मैंने इधर-उधर से ध्यान हटाकर Ph.D. करने के लिए अपना आधार तैयार किया। उस समय लोग मुझ पर हॅंसते थे कि स्वामी जी (मेरा काॅलेज का निक नेम) भी Ph.D. करने चले हैं उन्हें नहीं मालूम कि इसके लिए छः-सात घण्टा प्रतिदिन पाॅंच वर्ष मेहनत करनी होती है। धीरे-धीरे करके मेरा कम्प्यूटर पर बैठने का अभ्यास बनने लगा। मैं प्रतिदिन रात्रि ढ़ाई तीन बजे से छः बजे तक तीन घण्टे अवश्य निकालता। तत्पश्चात् यदि मेरी class दिन के First Half में होती तो Second Half में तीन घण्टे निकालता और यदि Second Half में होती तो First Hlaf में तीन घण्टें निकालता। इस प्रकार छः घण्टे मेरे नियमित Ph.D. के लिए निकल जाते।
            इस पर भी मेरे लिए Ph.D. करना ऐसा था जैसे किसी को दिशा बोध न हो व समुद्र में फेंक दिया जाए। कैसे किनारे पर व्यक्ति पहुॅंचे, कैसे मार्ग बनाए। मैंने भगवान से प्रार्थना कर विभिन्न शोध पत्रों के पढ़ना प्रारम्भ किया। मैंने भगवान से कहा वही शोध प्त्र मेरे सामने आएॅं जिनसे मुझे उचित लाभ हो। तीसरे वर्ष मैंने अपना शोध प्त्र लिखा व एक Journal में भेजा। सौभाग्य से वह स्वीकृत हो गया इससे मेरा उत्साह बढ़ गया व मैं 12 घण्टें प्रतिदिन Ph.D. के लिए लगाने लगा। चैथे वर्ष में मैंने लगभग दस Research Papers व उन्हें विभिन्न Journals में भेजा। मेरे उत्साह की सीमा न रही जब मेरे तीन पेपर्स पाॅंच माह के अन्दर अच्छे Journals में छप गए। अब मैंने पाॅंचवें वर्ष में Ph.D. Thesis लिखना प्रारम्भ किया। सौभाग्य से मुझे दो विद्यार्थी गौरव लिखा व योगेश सोनी ऐसे मिले जिन्होंने मेरे Ph.D. के कर्म में तत्व सहयोग दिया कि जिसके आजीवन भुलाया नहीं जा सकता।
            मार्च 2007 में मेरा Ph.D. में पंजीकरण हुआ था, सितम्बर 12 में मेरा Thesis Writing लगभग पूरा हो गया। इन्हीं दिनों जयगाॅंव से श्री अरविन्द शाह का फोन आता है कि उनको सनातन धर्म का प्रसादपुस्तक की 100 प्रतियाॅं चाहिए। जयगाॅंव में उनकी एक पुस्तक की फोटोस्टेट पहुॅंची है व उस फोटोस्टेट से अनेक प्रतियाॅं बन रही हैं। मैंने उन्हें कहा कि उस पुस्तक की छपाई मैं बन्द कर चुका हूॅं जो भी पाॅंच-सात काॅपी हैं उन्हें भिजवा दूॅंगा। मेरे कथन से उन्हें बड़ी निराशा हुई व उन्होंने पुस्तकें पुनः छपवाने का आग्रह किया। यहाॅं तक कि वो कहने लगे कि इसे वो जयगाॅंव में ही छपवा लेंगे। इस पर मैंने उन्हें कहा कि यह कठिन कार्य है वो केवल पहली पुस्तक की गलतियों का सुधार कर दें। छपवा हम कुरुक्षेत्र में ही देंगे। इन्हीं दिनों कम्प्यूटर पर कार्य अधिक करने के कारण मेरा सरवाईकल बढ़ता जा रहा था व मेरी कमर व गर्दन में अधिक पीड़ा रहने लगी। सोभाग्य से मुझे एक हिन्दी टाइपिस्ट मिल गया जो साॅंयकाल दो घण्टा प्रतिदिन मेरे Office में आने लगा। दिन में अरविन्द जी फोन पर योगेश को Corrections कराते, योगेश टाईपिस्ट से शाम को सुधार करा लेते। इससे मेरा Ph.D. कार्य व पुस्तक प्रकाशन के कार्य में तेजी आई। परन्तु मेरे स्वास्थ्य में लगातार गिरावट आ रही थी जो मेरे लिए चिन्ता का विषय बन रहा था। सौभाग्य से मुझे अंकुश नामक एक और लड़का मिला जो किसी भयानक रोग व समस्या से गुजर रहा था। मैंने उसका इलाज किया तो वह स्वस्थ होने लगा।
            उसने मेरे गिरते स्वास्थ्य के प्रति संवेदना व्यक्त की व मुझको मालिश के लिए प्रोत्साहित किया। मैंने उससे कहा कि मेरे लिए मालिश कराना उसी से सम्भव है जो सात्विक जीवन जीता हो। उसने बीड़ी व शराब पीना छोड़ दिया था व मेरे कहने पर शान्तिकुॅंज नौ दिन का सत्र कर आया। अब वह प्रतिदिन एक घण्टा पूरे श्रद्धा भाव से मालिश करने लगा। इससे मुझे थोड़ा आराम प्रतीत हुआ।
            मैंने अधिकतर सामाजिक कार्यों से छुट्टी लेकर तीन-चार घण्टे जप करना आरम्भ किया। इस दौरान मेरे अन्दर बहुत उच्च विचार व भावों का उदय हुआ। यद्यापि मेरे दाहिने हाथ की माॅंसपेशियाॅं कमजोर हो चुकी थी। रात्रि में अक्सर हाथ थक जाता था। परन्तु भीतर कोई शक्ति जोर मारती व लिखने के लिए प्रेरित करती। इस प्रकार मेरा लेखन बढ़ता गया। अब मैं अधिकतर समय लेखन व जप में लगाने लगा।
            कुछ समय पश्चात् मेरा Ph.D. के कर्म का परिणाम आया उससे मुझे थोड़ी निराशा हुई। मेरे भारतीय परीक्षक (Indian Examiner) को काम बहुत पसन्द आया परन्तु विदेशी परीक्षक (Foreign Examiner) ने उसमें बहुतरी त्रुटियाॅं निकाल कर Major Revision के लिए लिख दिया।
            मैं Ph.D. की तरफ से उदासीन हो चुका था व अपनी पुस्तक युगऋषि का जीवन संघर्षलिखने में व्यस्त था। अब मुझे जप में भी बहुत आनन्द आने लगा था। मेरा जप का अभ्यास बढ़ते-बढ़ते वह अजपा जप की ओर जाने लगा। कभी-कभी सूक्ष्म शरीर व पूर्व जन्मों की झाॅंकी का भी अनुभव होता। एक बात मुझे स्पष्ट हो गई कि मैं पूर्व कुछ जन्मों में विदेश में रहा व स्वामी विवेकानन्द जी के विचारों से प्रभावित होकर अध्यात्म की ओर मुड़ा परन्तु मेरे पूर्व के तीन-चार जन्मों के कर्म बड़े ही खराब थे। उच्च स्तरीय साधना के लिए उनके काटना आवश्यक है पता नहीं इनका भुगतान कैसे हो पाएगा, यह विचार मुझे अवश्य दुःखी करता।
            मैंने गीता के भगवान के आश्वासन को दोहराया कि वो पापी से पापी को भी तारने में समर्थ हैं शोक न करे।
            ”सर्वधर्म-परित्ज्यं भमेकं शरणं वज्र।
            अहं त्वा सर्व पापेभ्ये, भक्षस्यि मंक्षस्यि भ भुचः।।
            मेरा जप का अभ्यास बढ़ने से मुझे साधना के कुछ अच्छे अनुभव होने लगे परन्तु मेरी मानसिक व शारीरिक स्थिति काफी कष्टप्रद बनी रहती थी। चार-पाॅंच बार तो वह समस्या इतनी भीषण हो गई कि मुझे लगा कि मेरे प्राण ही निकल जाएॅंगे। मैंने उस भयावह स्थिति से राहत पाने के लिए अपनी सम्पूर्ण चेतना को समेटकर सहस्त्रार पर ले जाता था। वहाॅं मुझे ऐसा प्रतीत होता जैसे पूज्य गुरुदेव मृत्युंजय शिव बनकर मेरी रक्षा कर रहे हैं। कई बार स्थिति इतनी विकट हो जाती कि मुझे उठते बैठते चक्कर आते प्रतीत होते। यह सब में चुपचाप बिना शोर मचाए सहता रहता क्योंकि घर में पहले ही समस्याओं की कमी नहीं रहती जो मैं उनके लिए एक नई समस्या उत्पन्न कर दूॅं। मेरे बेटे की कुक्क्ुर खाॅंसी की समस्या, बेटी के घुटने में पानी भरने की समस्या, छोटे भाई के बेटे के पेट के रोग के कारण बार-बार अस्पताल में दाखिल कराने के समस्या, वृद्ध माता जी की अपनी अनेक समस्याएॅं। परन्तु मैं शान्त मन से जप व लेखन का कार्य करता रहता व जहाॅं तक बन पड़ता परिवार के सदस्यों की मदद करता। कभी-कभी मेरा मन इतना वैराग्य से मर जाता कि नौकरी पर जाने की इच्छा समाप्त हो जाती। ऐसे में क्या किया जाए कि 24 वर्ष की नौकरी में कुरुक्षेत्र में मकान भी नहीं बना पाए क्योंकि मस्तिष्क में सदा साधना व मिशन दो ही बातें ठूॅंस-ठूॅंस कर भरी हुई थी। करुणामय हृदय होने के कारण किसी की मदद करने से कभी मना भी नहीं कर पाता।

            Sep13 में मेरी दूसरी पुस्तक पूर्ण हुई। पुस्तक प्रिटिंग प्रेस को दे दी गई। मैंने बहुत राहत की साॅंस ली। जब पुस्तक छप कर आई तो हम लोग उसको चढ़ाने सजल श्रद्धा प्रखर प्रज्ञा पर पहुॅंचे। गुरुदेव से प्रार्थना की कि आपने यह कठिन कार्य तो पूरा करा दिया अब आगे क्या आदेश है। Ph.D. पूरी करो फिर यही आभास हुआ। अब घर आकर सुनः दो माह Ph.D. को Revise कराकर जमाकर दिया। यह कार्य काफी कठोर था इस कारण हाथ की माॅंसपेशियाॅं इतनी कमजोर हो गई कि उनसे कलम या चाक चलाना कठिन हो गया। स्थिति अजीबोगरीब थी ‘‘शरीर में दम नहीं, हम किसी से कम नहीं’’। सन् 2014 में क्या गुरुदेव का काम किया जाए व कैसे? यही वेदना जप करते हुए बनी रहती थी। जप का क्रम अच्छा चल रहा था। दिसम्बर 2013 में ही साधना के ऊपर एक पुस्तक लिखने का मानस तैयार होने लगा। जैसे ही पुस्तक लेखन का विचार परिपक्व हुआ तो यह आभास होने लगा कि स्वास्थ्य की चिन्ता नहीं करनी है पुस्तक को अच्छे ढंग से बनाना है यह पुस्तक सवा लाख लोगों की साधना में लाभप्रद होगी। यह विचार कर मन फूले न समाया परन्तु अस्वस्थता के चलते यह कैसे सम्भव होगा, यह सोच मन मायूस हो जाता। जैसे तैसे लेखन का क्रम आगे बढ़ा। जैसे ही पुस्तक लेखन में स्वयं को जोता एक और कठिनाई आ खड़ी हुई। एक शक्तिशाली असुर आत्मा मुझपर मौका पाते  ही आक्रमण करती। अब मैंने शान्तिकुॅंज से ब्रह्मदण्ड मंगाया व साथ रखकर सोता व पुस्तक लिखता। उस असुर आत्मा ने अब मेरे परिवार के दूसरे सदस्यों पर आक्रमण करना प्रारम्भ कर दिया। इससे परिवार में इतनी समस्याएॅं उत्पन्न हो गई कि पुस्तक का कार्य रोक देना पड़ा। मुझ पर आक्रमण इतना तीव्र था कि मुझे Muscular Dystrophy की समस्या उत्पन्न हो गई। कमर की नसें व माॅंसपेशियाॅं इतनी कमजोर हो गई कि बिना सहारे के सीधे बैठना भी कठिन हो गई। मैंने हिमालय की देवशक्तियों से बहुत प्रार्थना की। पूरा परिवार एक साथ एकत्र होकर घर में शान्ति की पुकार कर रहा था। अचानक मेरे कमरे में एक असीम शान्ति छा गई व हम सब ध्यान की अवस्था में खो गए । जब थोड़ी देर बाद नेत्र खुले तो मुझे आभास हो गया कि बाबा जी ने उस आसुरी आत्मा से सदा के लिए पीछा छुड़ा दिया है। अब बात कुछ सामान्य हो गया।
                 मैंने पुनः लेखन प्रारम्भ किया व सोचा कि मुख्य पृष्ठ पर बाबा जी का फोटो डाला जाए। तीन माह पुस्तक लेखन व कम्प्यूटर Setting का कार्य खूब जोरो से निर्विघ्न चला।

No comments:

Post a Comment